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कविवर बुधजन व्यय एवं कृतिक
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तो भवनवासी, व्यन्तर, ज्योतिषी क्षेत्रों में पैदा होता है, वहां पर भी दूसरे देवों की विभूति को देखकर भूरता रहता है या देवांगनाओं के साथ काम क्रीड़ामों में अपना समय व्यर्थ ही गंवा देता है फिर मरणकाल श्राने पर माला के मुरझाने से पश्चाताप की अग्नि में जलता रहता है ।।१२।।
पद्म-चवें तहां से थावर होवें, रूलि है काश श्रनन्ता ।
या विधि पंच परा व्रत पूरत, दुःख को नाहीं मन्ता ॥ फाललब्धि जिन-गुरु-किरपा तें, आप "आप" को ज्ञानं ।
तब ही " बुधजन" भवदधि तरिके पहुंच जाय शिव यानं ।। २-७-२० अर्थ - इस मिथ्याभाव के कारण देव पर्याय से युत होकर स्थावर अर्थात् एकेन्द्रिय के शरीर को धारण करता है और अनन्तकाल तक रुलता रहता है । छ प्रकार यह जीव पंचपरावर्तन रूप संसार में भ्रमण करता हुआ अनन्त दुःख भोगता है। यदि किसी पुण्य-संयोग से काललमिष के पक जाने तथा जिनेन्द्र देव एवं निय
गुरुत्रों की कृपा हुई तो श्रात्म-स्वरूप का भान होने से संसार समुद्र से पार होकर मोक्ष सुख को प्राप्त कर लेता है ||२०||
तीसरी ढाल (पद्धरिछम्ब )
पथ - या विधि भष-वन महि जीव, यस मोह मद्दल सूते सशीष ।
उपदेश तथा सहज प्रबोध, तब ही जागं ज्यों उठत जोष ।। ३-१-२१ अर्थ - (मिय्यादर्शन, ज्ञान और चारित्र के वशीभूत हो, स्व को भूल यह जीव सदैव संसार रूप वन में गाढ़ निद्रा में सोता रहता है। जब कभी पुण्योदय से इसे सद्गुरुओं (निर्ग्रन्थ गुरुग्रों) का उपदेश मिलता है तथा जब इसे अपनी आत्मा का सहज भान हो जाता है तभी यह जागृत होकर, सावधान हो जाता है । जैसे कोई योद्धा जागकर खड़ा हो जाता है ।। २१ ।।
-- जब चितवत घपने मांहि श्राप हूं चिदानन्द नहि पुण्यवाप । मेरो नाहीं है रागभाव, ये तो विधिवश उपजे विभाव ॥
३-२-२२
प्रथ- जब यह प्राणी अपने में, अपना ही अवलोकन करता है और जब यह निरय करता है कि मैं तो चिदानन्द स्वभाषी प्रात्मा हूं, पुण्य पाप रूप भाव मेरे नहीं हैं, राग-ईषादि भाव भी मेरे नहीं हैं क्योंकि ये तो कर्म-जनित
भाविक-भाव
हैं ||२२ ॥
पद्म- हूँ निरुप- निरंजन, सिद्धसमान ज्ञानावरणी आच्छाद ज्ञान ।
निश्चय शुद्ध इक, व्योहार मेव, गुन-गुनी, अंग-भंगी श्रदेव ।। २-३-२३
अर्थ- मैं नित्य
निरंजन हूं और सिद्ध समान हूँ | ज्ञानावरणादि कर्मों
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