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छहढाला
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अर्थ-सम्रष्टि के मन में तत्वायं के श्रद्धान में किसी भी प्रकार की शंका नहीं रहती है । वह संसार के विषय भोगों में किसी भी प्रकार की बांधा नहीं रखता तथा उसका मन धर्म में लीन रहता है ॥३३॥
fafafeferer सूवष्टि ग
नेक नफरत गिलान, बाह्य मलिन मुनि-तत्र लखे । नाही होत प्रजान, तत्व-कुतत्व विचार में |
४-३-३४
- सम्यष्टि के मन में बाहर से अपवित्र तथा रनत्रय से पवित्र मुनिजनों के शरीर को देखकर (किंचित् भी) घृणा का भाव पैदा नहीं होता। वह तत्व कुतस्व अथवा हेय उपादेय के निर्णय करने में किसी भी प्रकार की भूल नहीं करता ||३४|| उपगूहन एवं स्थितिकरण मंग
पद्य - उर में दया विशेष, गुन प्रगटे, श्रीगुन ढके ।
शिथिल धर्म में देख, जैसे तेसे दढ़ करे ।।
४-४–३५
प्रश्रं - उसके हृदय में विशेष रूप से करुणा का भाव जागृत हो जाता है श्रतः उसमें दया का सागर लहराता है। वह दूसरों के गुणों को प्रगट करता गुणों को ढांकता है । यदि कोई साधर्मी बन्धु दरिद्रता आदि कारणों से धर्म से विश्वलित होता है तो जैसे बने जैसे (यथा संभव सहायता देकर )
और
धर्म में दृढ़ करता
है ।। ३५ ।। पच
४-५-३६
साधम पहिचान, घरं हेत गौ वत्स लों । महिमा होत महान धर्म काज ऐसे करें | अर्थ - जिस प्रकार गाय प्रपने बछड़े पर निष्काम प्रेम करती है, उसी प्रकार वह साधुओं के प्रति "यह हमारा सामी बन्धु है" इतना ज्ञान होते ही निःस्वार्थ प्रेम करता है। वह सम्यग्दृष्टि जीव रस्नत्रय के तेज से अपनी आत्मा की प्रभावना करता है और दान, तप, जिनेन्द्रअर्चा, ज्ञान की अधिकता श्रादि के द्वारा पवित्र जैन धर्म की प्रभावना करता है ॥ ३६ ॥
माठ मन जो सम्यग्तुष्टि जीव में नहीं होते पद्म- मदन जो नृप तात, मद नहि भूपति माम को मद नहि विभो लहात, मंद नही सुन्दर रूप को ॥ मद नहिं जो विद्वान, मद नहि सन में जो मदन । मद नहिं जो परधान, मद नहि संपति क्रोध को || ४–६-३७ प्रर्थसम्यग्दृष्टि जीव निम्नलिखित आठ प्रकार के मद नहीं करता-(1) यदि पिता राजा हो तो कुल का मद नहीं करता । (2) यदि मामा राजा हो तो जाति का मद नहीं करता । (3) यदि ऐश्वर्यवान हो तो अधिकार का मद नहीं करता । ( 4 ) यदि सुन्दर रूप वाला हो तो रूप का मद नहीं करता ।