________________
तृतीय खण्ड
प्रथम अध्याय
१. कृतियों का भाषा विषयक एवं साहित्यिक अध्ययन
भारतीय भाषाओं के साहित्य में ऊपर से दिखाई देने वाली भित्रता रूपगत है । सभी भाषाओं को अपनी-अपनी विशेषताएं हैं । किन्तु उद्गम और विकास की दृष्टि से सामान्यतः सभी भारतीय धायें भाषाओं में एकता लक्षित होती है क्योंकि उनका मूल स्रोत एक है। इसी प्रकार लगभग उन सभी प्राधुनिक भारतीय आर्यभाषायों का उदगम काल दसवीं शताब्दी के आस-पास कहा जाता है । इतना ही नहीं, सम्पूर्ण भारतीय साहित्य के विकास की पृष्ठभूमि में भी एक जैसी सांस्कृतिक और सामाजिक चेतना का स्वर सुनाई देता है । मध्य युगीन संतों की वाणी और भक्ति साहित्य भार्य भाषश्यों की ही धरोहर नहीं है अपितु दक्षिण भारत की भाषाओं तमिल, तेलुगु, कन्नड़ और मलयालम में भी उनकी रचना प्रचुर मात्रा में हुई है। रूढ़ियों के प्रति विद्रोह, नई परम्पराओं के निर्माण तथा प्रेम और श्रृंगार के अंकन की प्रवृत्ति सम्पूर्ण भारतीय साहित्य की मूल घारा न रही है । भारतीय साहित्य को धर्म संप्रदाय और जाति के आधार पर विभक्त करना उचित नहीं है, क्योंकि भाषागत भित्रता तथा जातीय संस्कारों के विद्यमान होने पर भी हमारे देश का साहित्य हमारे जीवन श्रोर संस्कृति का प्रतिविम्ब है । भाषा और लिपि के ऊपरी आवरण को सहज उसके समग्र रूप को देखें, तो उसकी मूलभूत एकता का लक्ष्य बोष हो सकता है ।
किसी देश की संस्कृति का अध्ययन, उस देश के निवासियों के मानसिक सामाजिक तथा आध्यात्मिक जीवन का समवेत ग्रहकलन उसके सम्पूर्ण रूप को समझने के लिए देश की मादि युगीन अवस्था से लेकर माधुनिक युग तक की भवस्था के क्रमिक विकास को विभिन्न युगों में प्रचलित प्रवृतियों तथा परम्परामों के प्रकाश में देखने की तथा उसके अंगों पर दृष्टि रखने की आवश्यकता है । यद्यपि संस्कृति के अनेक अंग हो सकते हैं किन्तु सामान्यतः चार उपादान प्रमुख माने जाते है । संस्कृति के मुख्य चार अंग है :
(१) साहित्य और भाषा । (२) धर्म और दर्शन |