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________________ शिल्प सम्बन्धी विश्लेषण दुराचारितिय कहिनी, किकर कर कठोर । वृत्यनुप्रास प्रतिकार जकवत हित उद्यम करें, जे हैं चतुर बिसेखि ॥ उपमा सत्यदीप बादी क्षमा, सील तेल संजोय ।। रूपक भलाकिये करि है बुरा, दुर्जन सहज सुभाय । पय पाये विष देत है, फणी महा दुखदाय ।। ष्टान्त जैसी संगति कीजिये, तैसा हूँ परिनाम । तीर गहें तार्क तुरत, माला ते ले नाम ॥ अन्तरन्यास उभयालंकार नीतिवान नीति न सजे, सहैं भूख तिसत्रास । ज्यों हंसा मुक्ता बिना, वनसर करें निवास । (लाटानुप्रास, छेकानुप्रास, इष्टान्त की संसृष्टि) ५. छन्द-योजना वि० संवत् १६:: PROFIो हनी-मर सपो ने औसका एवम् मात्रिक दोनों ही प्रकार के छन्दों का प्रयोग किया है । अनूदित ग्रन्थों में वगिक का और मौलिक ग्रन्थों में मात्रिक छन्दों का प्रयोग है । दोहा, सया, चौगाई, कवित इन मात्रिक छन्दों का विशेष प्रयोग हुमा है । धनाक्षरी मादि का भी प्रयोग हुमा 'बुश्वजन विलास' में कवि ने सर्वाधिक छन्दों का प्रयोग किया है, जिनका उल्लेख द्वितीय अध्याय में किया जा चुका है। विधान, छन्द, शैली अपनी प्रसिद्ध पुस्तक 'पुषजन सतसई' में कवि ने मुक्तक दोहों का प्रयोग किया है । छन्दशास्त्र की एष्टि से ये दोहे प्रायः निर्दोष हैं । सामान्यतः तथ्य-निरूपक शली का प्रयोग प्रचुर मात्रा में हुआ है। उपदेशात्मक तथा शब्दावतंक शैलियां दिखाई तो देती हैं, परन्तु बहुत कम है ।। १. बुधजन सतसई : पृष्ठ ३४ । ३१६ । २. बुधजन सतसई : पृष्ठ २७ । २५१ । ३. बुधजन सतसई : पृष्ठ २२ । २०० । ४. अषजन सतसई : पृष्ठ १२ । १०४ । ५. बुधजन सतसई : पृष्ठ ३४ । ३१६ । दुषजम सतसा : पृष्ठ ३५ । ३२० । जैन डॉ. प्रेमसागर : हिन्बी जैम भक्ति काग्य और कपि, पृष्ठ ४३५, प्रथम संस्करण, १९६४, भारतीय शासपीठ, प्रकाशन ।
SR No.090253
Book TitleKavivar Budhjan Vyaktitva Evam Krutitva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMulchand Shastri
PublisherMahavir Granth Academy Jaipur
Publication Year1986
Total Pages241
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth, Biography, & History
File Size4 MB
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