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________________ भाव पक्षीय विश्लेषण है परन्तु अधिक खाने से रोगों की वृद्धि होती है। (७) भूख की दवा भोजन और ठंड की दवा वस्त्र है । (८) स्वाना, पीना, सोना, लघुशंका, दीर्घशंका ये प्रसाध्य रोग हैं।" (६) जीम की लोलुपता वश अनेकों व्यक्तियों का बिगाड़ होता है। प्रतः जीम की लोलुपता त्यागने पर ही सुख होता है । मछली, कबूतर, मगर, बन्दर थे जिव्हा के लोलुपी है अतः उन्हें हर कोई पकड़ लेता है । इनके प्राण संकटापन्न रहते हैं।' (१०) सत्य कहने से दोष मिट जाते हैं, परन्तु अन्यथा (असस्य) कहने से दोष नहीं मिटते । अपने रोग की यथावत् जानकारी देने वाले व्यक्ति की ही योग्य चिकित्सा सम्भव है । (११) यदि किसी अनुचित कार्य को रोकने में हमारा वश नहीं चलसा हो तो उसका समर्थन न करते हुए प्रबोल रहना ही ठीक है, क्योंकि बोलने से उपद्रव बढ़ता है, जैसे तूफानी समुद्र में हवा लगने से उपद्रव और बढ़ता है। बीच-बीच में लोक प्रचलित एवं रचनानों में समागत लोकोक्तियों का यथास्थान प्रयोग किया गया है। इनसे विषय की स्पष्टता के साथ-साथ शैली में भी गतिशीलता पाई है । कुछ इस प्रकार है : १. अमत ऊगोवर असन, विषसम खान प्रधाम । रहै पुग्ट तम बस करें, यात रोग बढ़ाय ॥३२४॥ २. भूख रोग मेटन प्रसन, वसन हरनकों सीत ।।३२५॥ ३. खाना पीमा सोवनी, कुनि लघु वीरघ व्याषि ॥३७६।। रावरंक के एकसी, ऐसी क्रिया प्रसाधि ॥ ४. मे बिगरेते स्वावतें, सज स्वाद सुख होय । मोम परेवा मकर हरि, परिलेत हर कोय ॥३२२।। ५. सांच कहे सूषन मिट, नासर दोष न जाय । ज्यों की स्यों रोगी कहै, ताको वन उपाय ।।३३२।। ६. अनुचित हो है बसिधिना, सामै रहो प्रबोल । मोले ज्यों वारिलगि, सायर जठं कलोल ॥४१३॥ सुधजन सतसई, पद्य संख्या ३२४,३२५,३७३,३२२, तथा ४१३ बुधजन, सतसई, पथ सख्या ११,१४,१५,३७,५४,६४,१२२,१२३,८४,११४,११५ तथा १६५।
SR No.090253
Book TitleKavivar Budhjan Vyaktitva Evam Krutitva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMulchand Shastri
PublisherMahavir Granth Academy Jaipur
Publication Year1986
Total Pages241
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth, Biography, & History
File Size4 MB
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