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after बुषजन : व्यक्तित्व एवं कृतित्व
मी दई सर नहीं, करे रेन दिन सोर | पूत नहीं वह भूत है, महा पाप फल घोर ।। १२३ ।।
सुमक एक त सघनवन, जुरत देत जराय | स्यों ही पुत्र पवित्र कुल, कुबुद्धि कलंक लगाय ।। १८४ तिसना तुहि प्रनपति करू, गौरव देत निबार । जाचक वलि के द्वार ||१५|| खुसी होत है लोक | रीत पंडित थोक ॥ १८६॥ |
प्रभु प्राय वाचन भये, मिष्ट वचन धन दानतै सम्यग्ज्ञान प्रमान सुनि अगति काठ सरिता उदधि, जीवनतै जमराज | मृग नेननि कामी पुरुष तृपति न होत मिजाज़ ।।१८७।।
दारिवजुत हु महत जन, करने लायक काज ॥ सभग हस्ती जदपि, फोरि करत गिरिराज ॥१८८॥
दई होत प्रतिकुल जब उद्यम होत प्रकाज | मूस पिटारो काटियो, गयो सरप करि खाज ॥१८६॥
बाह्य कठिन भीतर नरम, सहजन जन की बान |
का बात ||१२||
बाह्य नरम भीतर कठिन, बहुत जगतजन जान ।। १६० ।। चाहे ऋछु हो जा करू, हारे विबुध विचारि । होत बतें हो जाय है, बुद्धि करम अनुसारि ।। ११ ।। जाके सुख में सुख लहैं, विप्र मित्र कुल भ्रांत | ताहीको जीवो सुफल, पिट भर की हुए होगे, सुभट सब, करि करि के उपाय । तिसना खानि प्रगाषि है, क्यों भोजन गुरु प्रवसेस जो ज्ञान हित परोख कारण किर्म, घरमी काल जिवावं जीव कीं, काल करे संहार |
भरि न जाय ॥ १६३ ॥
काल सुदाय जगाय है, काल चाल विकराल ।। १६५ ।। काल करा दे मित्रता, काल करादे रार ।
काल खेप पंडित करें, उलभं निपट गंवार ।।१६६ ।।
वैद
कौन
सांप दर्श दे दिप गया, मेरी कर छुटि गया, बलधन में सिंह न लसें, पंडित ल न मूढमैं
है बिन
रहित कलाप ॥१६४॥
के लखि पीर ।
घरि सकै धीर ॥१६७॥
ना
कागन में हंस । यखर में न प्रसंस ||१६||