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________________ 1 तुलनात्मक अध्ययन १५३ भाषा में भाषानुकूल माधुयं है और सरलता व संक्षिप्तता प्रादि गुण भी पर्याप्त मात्रा में विद्यमान हैं । कवि ने अपने पदों में बनड़ी घासावरी, सारंग, भैरवी, रामकली, सोरठ, कोटी, विद्वाग, बिलावल, मानकोष, केदारी, मांढ़, ख्यालतमाचा, जंगल, भैरू, बरवा. टोड़ी, उमाज, जोगी रासा, काफी होरी, दीपचंदी, चोचालो, लावनी, होरी, दीपकदी, चर्चेरी, वसंत, कल्याण, मालकोष, ढाल होली, परज, बसंत । विद्यापति, सूर, जीरा, धनानन्द आदि प्राचीन कवियों के गीतों के अवलोकन से यह बात स्पष्ट होती है कि हिन्दी में गीतों की परंपरा बहुत पुरानी है । बुधजन के गीत उनको अान्तरिक जीवन की विभिन्न अवस्थानों का उद्घाटन करते है । इनमें से विद्यापति हिन्दी गीतिकाव्य की परंपरा के विकास में अपना महत्वपूर्ण स्थान रखते हैं । इनके काव्य में गीतिकाव्य की सभी विशेषताएं समाविष्ट हुई हैं । मानव प्रम की विभिन्न वैयक्तिक अनुभूतियों की सुन्दर व्यंजन इनके काव्य में हुई है । श्रतः विद्यापति हिन्दी के प्रथम गीतकार ठहरते हैं । (४) विद्यापति और बुधजन शव, विद्यापति वस्तुतः संक्रमण के प्रतिनिधि कवि हैं । वे दरबारी कवि होते हुए भी जन- कवि हैं । शृंगारिक होते हुए भी भक्त हैं। शाक्त या वैष्णव होते हुए भी श्रेष्ठ कवि हैं। जीवन के धन्त में वे मुक्त हो गये थे । उन्होंने कृष्ण भक्ति सम्बन्धी रचनाएं की हैं। उन्होंने राधाकृष्ण के प्र ेम में सामान्य जनता के सुख-दुःख, मिलन-विरह को अंकित किया है । विद्यापति की दृष्टि में प्रमतत्व हो काम्य है। उनके लिये मनुष्य से बड़ा अन्य कोई पदार्थ नहीं है । उन्होंने मानव मन के उच्च धरातल को अभिव्यक्ति दी है। ऐसी रचनाओं में ही मानव धर्म अभिव्यक्ति पाता है । कवि इस स्थिति में धर्मो के संकुचित घेरे को तोड़कर देश-काल-निरपेक्ष साहित्य की सृष्टि करता है। ऐसे साहित्य में मानवीय जीवन के धभ्युदय एवं निःश्रेयस की बातें दिखाई पड़ती हैं । विद्यापति की कतिपय रचनाओं में मानव धर्म की व्याख्या मिलती है। उनकी रचनाओं में भक्ति का निखरा हुआ रूप दिखाई पड़ता है, जहां भक्त एक ओर तो अपने प्राराध्यदेव के महत्व की ओर दूसरी और अपने लघुत्व की पूर्ण अनुभूति करने लगता है | यही वह स्थिति है, जिसमें उसकी श्रात्म शुद्धि होती है । P जब वह अपने उपास्य में अनंत शक्ति का सामर्थ्य देखता है, तब उसे अपनी दीनता और असमर्थता का शान होता है। उसके हृदय से श्रहंभाव दूर हो जाता है । वह्न श्रात्म-समर्पण करता है—अपने दोषों को अपने उपास्य के सामने खोल खोल कर गिनाता है । उसे जितना प्रानन्द अपने उपास्य के महत्व वन में प्राता है, उतना ही अपने दोषों के वर्णन में भी। इस श्राशय के पद विद्यापति की पदावली में अनेक पाये जाते हैं । निम्न पद दृष्टव्य हैं :--
SR No.090253
Book TitleKavivar Budhjan Vyaktitva Evam Krutitva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMulchand Shastri
PublisherMahavir Granth Academy Jaipur
Publication Year1986
Total Pages241
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth, Biography, & History
File Size4 MB
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