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युग और परिस्थितियां
का परिणाम थी । बनारस में भी प्राध्यात्मियों की "सैली" या मण्डली थी। किसी समय राजा टोडरमल के पुत्र गोवर्द्ध नदास इसके मुखिया थे ।
१८वीं और १६वीं शताब्दी में मैया भगवतीदास, यानतराय एवं सुधजन जैसे कपियों इ परम्रा का प्रतिनिधि | स र अध्यात्म प्रधान कवित्त, पद एवं बड़े-बड़े पुराणों के अनुवाद देशभाषा में बहुत ही अधिक संख्या में हुए । पं. दौलतराम ने गद्यानुवादों एवं विस्तृत-व्याख्यानों द्वारा साहित्य-जगत में एक नई दिशा का निर्देशन किया, इससे भाषा का सौंदर्य निखरा तथा प्राचीन कवियों के नवरत्नों का उचित मूल्यांकन हो सका। आगे चलकर पं. टोडरमलजी ने एवं जयचन्द जी छाबड़ा, कविवर बुधजन प्रादि विद्वानों ने पर्याप्त मात्रा में ग्रंथ प्रणयन किया। ये केवल अनुवाद कर्ता ही न थे, सफल कवि भी थे। लेकिन वर्तमान २०वीं शताब्दी में अनुवादों को परम्परा क्षीण पड़ गई और कलाकार स्वतंत्र रचनाएं करने लगे।
२. ऐतिहासिक पृष्ठभूमि जैनाचार्यों और धर्मोपदेशकों की एक विशेषता यह भी रही है कि उन्होंने ग्रंय रचना के लिए तत्कालीन प्रचलित लोकभाषा को ही माध्यम बनाया । यही कारण है कि जैन साहित्य, मागधी, अर्धमागधी, संस्कृत, पाली, प्राकृत, अपभ्रश, हिन्दी, समिल, तेलुगु, मलयालम, कन्नड़ आदि सभी प्रचलित भाषाओं में उपलब्ध होता है । ७वीं ब वीं पाती में जैन लेखकों ने प्राकृत और संस्कृत का पल्ला छोड़ दिया था और तत्कालीन लोक-प्रचलित अपनश भाषा में विचारों को सुरक्षित रखने का प्रयास किया था । ८वीं शताब्दी में स्वयंभू में कवि ने पद्मचरित (पउमचरित) तथा हरिवंश पुराण की रचना की। १० वीं शती में पुष्पदंत कवि ने महापुराण की रचना की। १२वीं शताब्दी में तथा १३वीं शताब्दी में योगसार, परमात्म प्रकाश मादि रचनाएं हुई। अपभ्रंश की ये रचनाएं पुरानी हिन्दी के प्रति निकट हैं। इस शताब्दी में विमलकीर्ति की रचनाएं भी अत्यन्त प्रसिद्ध हैं।
१४ वी और १५ वीं शताब्दी में जैन कवियों ने व्रज प्रौर राजस्थानी भाषा में "रासा" ग्रंथों की रचनाएं की। गौतमरासा, सप्तक्षेत्ररासा भादि इस काल की रचनाएं हैं। "मयरए पराजय चरिउ' (भारतीय ज्ञान पीठ काशी से मुद्रित) इस काल की सुन्दर रचना है। १५ वीं और १६ वीं शती में ब्रह्म जिनदास ने आदि पुराण, श्रेणिक परित्र मादि कई रचनाएं लिखीं। १७ वीं शताब्दी में पं. बनारसी दास, रूपचन्द आदि अनेक जैन कबियों एवं साहित्यकारों ने अज और राजस्थानी भाषा में गद्य-पद्यात्मक रपनाएं लिखीं। १८ वी और १६ वी शताब्दी में भूधरदास, पं. टोडरमल, जयचन्द छाबड़ा, बुधजन, दौलतराम प्रादि अनेक कवियों एवं साहित्यकारों ने अनेक ग्रन्थों का हिन्दी में निर्माण किया ।