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कविवर बुधजन : व्यक्तित्व एवं कृतित्व
होती रही। इस काल की समस्त प्रवृत्तियां न्यूनाधिक रूप में जैन कवियों के पदों में उपलब्ध हैं । जैन कवियों ने लोक प्रचलित कथाओं में भी स्वेच्छानुसार परिवर्तन कर सुन्दर काव्य रचनाएं की है ।
मध्यकाल के प्रारम्भ में समाज और धर्म के बाह्यरूप संकीर्ण हो रहे थे । श्रुत: जैन लेखकों ने अपने पुरातन कथानकों और लोकप्रिय परिचित कथानकों में जैनधर्म का पुट देकर अपने सिद्धान्तों के मनुकुल हिन्दी भाषा में काव्य लिखे । बाहरी, वेश-भूषा पाखंड आदि से समाज विकृत होता जा रहा था, अतएव अत्यन्त ओजस्वी वाणी में हिन्दी के जैन कवियों ने उनका खण्डन किया। यही वह समय था जब जैन कवि ब्रज और राजस्थानी में प्रबंधकाव्य और मुक्तक काव्यों की रचना करने में संलग्न रहे। इतना ही नहीं, जैन कवि मानव जीवन की विभिन्न समस्याओं का समाधान करते हुए काव्य-रचना में प्रवृत्त रहे, धर्म-विशेष के कवियों द्वारा लिखा जाने पर भी जन साधारण के लिये भी यह साहित्य पूर्णतया उपयोगी है । इसमें सुन्दर श्रात्म- पीयूष - रस छल-छलाता है और मानव की उन भावनाओं और अनुभूतियों को सहर्ष श्रभिव्यक्ति प्रदान की गई हैं, जिनसे समाज एवं व्यक्तित्व का निर्माण होता है ।
जैन कवियों ने मानव के अन्तर्जगत् के रहस्य के साथ बाह्य रूप से भी होने वाले संघर्षो परिवर्तनों एवं पारस्परिक कलह तथा सामाजिक वितंडवादों का काव्यात्मक शैली में वर्णन किया । कविवर के युग में स्वाध्याय मालानों के रूप में "सैलियों" का प्रचार था
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"उस समय समाज में धार्मिक अध्ययन के लिए आज के समान सुव्यवस्थित विद्यालय महाविद्यालय नहीं चलते थे । लोग स्वयं ही सैलियों के माध्यम से तत्वज्ञान प्राप्त करते थे । तत्कालीन समाज में जो श्राध्यात्मिक चर्चा करने वाली दैनिक गोष्ठियां होती थीं, उन्हें ही संली कहा जाता था । ये सेलियां सम्पूर्ण भारतवर्ष में यत्र-तत्र थीं। कविवर बनारसीदास जैसे कवि आगरा की अध्यात्म सैली के प्रमुख सदस्य थे ।"" इसी तरह पं. टोडरमल, पं. जयचन्द छाबड़ा, कविवर बुधजन थे । आदि प्रमुख विद्वान जयपुर की "सेली" में शिक्षित हुए
इस प्रकार की श्राध्यात्मिक संली के सम्बन्ध में डॉ. बासुदेव शरण प्रनवाल लिखते हैं
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बीकानेर जैन लेख संग्रह में भाष्यात्मी संप्रदाय का उल्लेख भी ध्यान देने योग्य है । वह आगरे के ज्ञानियों की मंडली थी, जिसे "सैली" कहते थे। ज्ञात होता है कि अकबर की दीने-इलाही प्रवृति भी इसी प्रकार की आध्यात्मिक खोज
१. जैन संदेश शोधक जून १६५७ पृष्ठ १३५ ।