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कविवर बुधजन : व्यक्तित्व एवं कृतित्व
"संसार की जड़ मोह है। इसमें प्रभाव में प्रसायाम संपार नला जाता है। अात्मा की विकार परणति का नाम ही तो संमार है । यद्यपि उस विकार परएति के उपादान कारण हम ही तो हैं । झेय पदार्थ विकारी नहीं । वह तो विभिन्न मात्र है । प्रात्मा का शान जो है वह ज्ञेय के निमित्त से कोई विकार को नहीं प्राप्त होता है।"
___ संत तुलसी ने संतसंग को राम भक्ति का अनिवार्य अग माना है और यह भी लिखा है कि संतों का संग हरिकृपा से ही मिलता है उन्होंने संस (साधु) संगति का ही दुसरा पक्ष प्रसंत (असाधु) से असहयोग करना बताया है। इसीलिये संत तुलसीदास अपने एक प्रसिद्ध पद में कहते हैं कि ऐसे व्यक्ति से सर्वथा असह्योग ही करना होगा जिसे सीताराम जैसे संत प्रिय नहीं है।
तुलसी रवयं स्वीकार करते हैं कि मुझे राम कथा संत संसर्ग से ही प्राप्त हुई है । इससे स्पष्ट है कि राम भक्ति का सबसे अावश्यक प्रग संजसंग ही है।
"रामचरित मानस का प्रारंभ करते हुए गोस्वामी जी ने मंगलाचरण और गुरू बंदना के अनंतर सबसे प्रथम संत वंदना की है । संत और भक्त का सबसे बड़ा लक्षण है परोपकार | दे मित्र हों या शत्रु । सभी का निष्प्रयोजन निरंतर कल्याण करने में निरत रहते हैं।"
संत तुलमी की भांति जैन कवि दौलतरम कहते हैं :
"अरि मिन महल मसान कंचन, कांच निंदन थुतिकरन । प्रवितारन यसिप्रहारन में सदा समता घरन ।।"
"शत्रु' और मित्र, महल और मसान, कंचन और कांच, निंदा और स्तुति पूजा और प्रसिपहार इन सभी प्रवस्थानों में संत जन सवा समता भाव धारण करते
संतकबीर के रहस्यवाद सम्बन्धी अनेक पद जन कवियों के पदों से साम्य रखते हैं । कबीर ने माया को महाटगनी कहा है । जैन कवि भूबरदास भी "सुनिठगिनीमाया लें सब जग ठगवायां " द्वारा माया को ठगिनी कह रहे हैं । अन्मान्म संत कवियों की भाति बुधजन ने भी अनेक सरस पदों की रचना की है। उन्होंने चित्त बी शखि व सम्यग्ज्ञान नो तप और दान से अधिक महत्व दिया है। वे दूसरों की शुद्धि करने में विश्वास नहीं करते स्वयं शुद्ध होने में विश्वास करते हैं।
१. गणेशवरी: अनेकान्त वर्ष ११, किरण ६, पृ० सं० २४१ । २. आके प्रिय न राम बेहो, सो छोड़िये कोटि बैरीसम, जबपि परमसनेही। ३. डॉ. माता प्रसाद गुप्तः तुलसी, पृ० सं० १२०-१२१, सन् १९५२, हिन्दी
परिषद्, प्रयाग विश्वविद्यालय । बौलतराम : छहहाला, अठोटाल, प, सं० ६, सरल जैन प्रष भंडार, जबलपुर।