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बुधजन सतसई
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रसना रम्नि मरजाद तू' भोगते बोलत बोल । बहु भोजन बड़ बोलत परिटै, सिरपं धोल ॥२६४।। जो चाहो अपना भला, तो न सतावो कोय । नृपर्कै दुरसीसते, रोग सौग भय होय ।।२६५।। हिसक जै टुपि बन बम, हरि अहि जीव भयान । {फिर) बैल हय गरघवा, गऊ मंस सुखदान ।।२६६।। वर प्रोति प्रबकी करि, परभषमै मिलि जाय । निबल सबल हैं एकसं, दई करत है न्याय ॥२६७।। संस्कार जिनका भला, ऊचे कुल के पूत । तं सुनिक सुलट जलद, जसे कन्या मूत ॥२६८11 पहले चौकस ना करी, बढ़त विसनमंझार । रंग मजीठ छूट नहीं, कीये जतन हजार ॥२९६।। जो दुरवलको पोषि हैं, दुखते देत बचाय । ताते नप घर जनम ले, सीधी संपत्ति पाय ।।३००॥
इति सुभाषितनीति अधिकार xxx x x x x x x
पन्तिम भाग विराग भावना
गुरु बिन ज्ञान मिल नहीं, फरी अतन किन कोय । विना सिखाये मिनख तो, नाहिं तिर सके तोय ।।६४४।। जो पुस्तक पढ़ि सौख है, गुरुकौं पूछ नाहि । सो सोभा नाहिं सहै, ज्यौं नफ हंसामाहि ॥६४५।। गुरनुकूल बाल महि, चाल सुते सूभाय । सो नहिं पार्य थानों, भववनमै भरमाय ।।६४६।। फ्लेश मिटै पानंद बढ़, लामै सुगम उपाय ! गुरुकौं पूछिर चालता, सहब धान मिल जाय ॥६४७।। तन मन धन सुख संपदा, गुरुपं दारु बार । भव समुद्रतै डूबा, गुरु ही काढनहार ॥६४।।