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परिसर बुधजन : परिव एवं प्रतिस्प
स्वारण के सब जन हितू, धिन स्वारथ सज देत । नीच ऊंच निरस न गुरु, जीवजासते हैत ।।६४६।। ब्यात परै हित करत हैं, तात मात मुत भ्रात । सदा सर्वदा हित कर गुरके मुखकी बात ।।६५०॥ गुरु समान संसारमैं, मात पिता सुत नाहि । गुरु तो तार सर्वथा, ए बोरें भवमाहिं ।। ६५१॥ गुरु उपदेश लहै बिना, प्राप कुशल ह्र जात । तै प्रजान क्यों टारि है, करी चतुर की बात ५६५२।। जहां तहां मिलि जात है, संपत्ति तिर, सुत भ्रात । बड़े भागते अति कठिन, सुगुरु कहीं मिल जात ॥६५३॥ पुस्तक मांत्री इकगुनी, गुरुमुख गुनि हजार । तात बड़े तलाशत, सुनिजे पचन उचार ॥६५४॥ गुरु वानी अमृत झरत, पी लीनी छिनमाहि । प्रमर भया ततखिन सुती, फिर बुख पावै नाहिं ।।६५५।। भली भई नरगति, मिली सुन सुगुरुकै बैन । दाह मिट्या उरका पर्व, पाय लई चित चैन ।।६५६।। कोघ वपन गुरुका जदपि, तदपि सुर्खाकरि धाम ।। जैसे भानु दोपहर का, सोतलता परिनाम ।। ६५ ।। परमारथका गुरु हितू, स्वारथका संसार । सब मिलि मोह बढ़ात है, सुत लिय फिकर यार ।।६५८।। तीरथ तीरथ क्यों फिर, तीरथ तो घटमाहिं । जै यिरहए सो तिर गये, प्रथिर तीरथ है नाहिं ।। ६५६।। फोन देत है मनुष भव, कौन देत है राज । या पहचाने बिना, अशा करता इलाज ॥६६॥ प्रात धर्म फुनि अर्परुचि, काम करै निसि सेव । वयं निरंतर मोक्ष मन, सौ पुरुष मानुष नहिं देव !!६६९।। संतोषामृत पान करि, जे हैं समतावान | तिनके सुख सम धुकों, अनंत भाग, नहिं जान ॥६६॥ लोभ मूल है पापका, भोग मलि है माधि । हेत जु मूल कलेशको, तिहूं त्यागि सुख साधि ।।६६३॥ हिंसातै वं पातकी, पातकते नरकाम । नरक निकसिकै पातकी संतति कठिन मिटाम ।।६६४।।