________________
भावपक्षीय विश्लेषण
१११
विषयक शास्त्रों के प्रणेता एवं प्रवक्ता हैं। इनके द्वारा रचित प्रमुख ग्रन्थ हैंसमयसार, अष्टपाहुड, दश परम प्रकाश जिनमें तत्वों का निशांय fare युक्तियों व प्रबल प्रमाणों द्वारा किया जाता है, वह सत्य ज्ञान विषयक शास्त्र है। पंचास्तिकाय प्रवचनसार, नियमसार तत्वार्थ सूत्र, सर्वार्थसिद्धि तत्वार्थवार्तिक, द्रव्यसंग्रह, तत्वार्थसार, वृहद्रमसंग्रह आदि ग्रन्थ तत्वज्ञान का प्रतिपादन करते हैं अतः इन्हें तत्वज्ञान विषयक शास्त्र कहा जाता है। दोनों ही प्रकार के द्रव्यानुयोग विषयक साहित्य का मुख्य प्रयोजन स्व-पर का भेद विज्ञान कराना है ।
चारों ही अनुयोग वीतराग भावों की वृद्धि करने वाले हैं। छतः कोई एक अनुयोग विशेष अच्छा है ऐसा कहना ठीक नहीं।
अनुयोगों का अध्ययन क्रम
अनुयोगों के अध्ययन क्रम का कोई निश्चित नियम निर्धारित करना संभव नहीं, क्योंकि पाथ की योग्यता और रुचि भिन्न भिन्न प्रकार की होती है तथापि कतिपय ग्रन्थों में अनुयोगों के अध्ययन कम का वर्णन मिलता | पूजन के बाद जो शांति पाठ जैन मंदिरों में पढ़ने की परंपरा है उसमें क्रम इस प्रकार है । प्रथमं करणं चरणं द्रव्यं नमः प्रथमानुयोग करणानुयोग, चरणानुयोग और द्रव्यानुयोग को नमस्कार है ।
संपूर्ण श्रुतज्ञान या द्वादशांग वाणी को ११ श्रंग व चौवह पूर्व में गंधा गया है । उनमें सर्वप्रथम भाषारांग का उल्लेख है क्योंकि श्राचारशास्त्र आबाल वृद्ध सभी के जीवन को सुखी बनाने वाले नियमों का निर्धारण कर वैयक्तिक और सामाजिक एवं राष्ट्रीय जीवन को व्यवस्थित बनाता है। अशुभ परिणामों या प्रशुभ कार्यों से निवृत्त होना और शुभ परिणामों में या सत कार्यों में प्रवृत्त होना ही श्राचारशास्त्र का विधान है। प्राचारशास्त्र जीव को सचेत करता है सम्रा विषयसुखों में रत होने वाले जीव को विषय मुख से विरक्त करता है। विषय सुख को हेय बताकर उससे ग्लानि उत्पन्न कराता है। विषय सम्बन्धी मोह और तृष्णा को दूर करता है | मोह और तृष्णा के दूर होने से विषय विष के समान मालूम होने लगते हैं। सांसारिक दुखों का मूल कारण विषय वासना है। उसका परित्याग आचारांग बताता है । श्राचारांग यह भी बताता है कि हे जीव ! यदि तुझें अलौकिक आत्म-एस का पान करना है तो विषय-वासनाघों का परित्याग कर श्रात्म सुख का विकास करो और मनुष्य पर्याय को सफल करो। जो प्रानन्द ज्ञान की चर्चा में है उससे अनन्त गुणा इस चारित्र में है । तैंतीस सागर तक ज्ञान चर्चा का अनुभव करके जो श्रानन्द प्राप्त नहीं हुआ उससे अनन्तगुणा श्रानन्द मुनिपद धारण करने में हुआ । इसलिये मानव मात्र का कर्त्तव्य है कि वह अपनी अग्नि की शिखा के समान प्रज्वलित विषय-वासनाओं का त्याग करने के लिये प्रथम आचारांग का प्राश्रय ले । श्रध्यात्मविषयक और तत्वज्ञान विषयक | अभेद रत्नत्रय का जिसमें वन हो बह अध्यात्म शास्त्र है | कुदकुद, प्रमृतचन्द्रसूरि, जयसेन यादि आचार्य श्रध्यात्म