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प्रास्ताविक
विद्वद्वर डॉ. कस्तुरचंदजी कासलीवाल के दुष्यपूर्ण निदेशन में महावीर- अकादमी जयपुर द्वारा राजस्थान के जैन कवियों की भप्रकाशित रचनाओं को प्रकाशन खला में एक और नई और महत्वपूर्ण कड़ी जुड़ी है- 'कविवर बुधजन: व्यक्तित्व और कृतित्व' जिसके लेखक सम्पादक हैं-डॉ. मूलचन्दजी शास्त्री । डॉ. मूलचन्दजी का यह शोध प्रबंध है, जिस पर विक्रम विश्वविद्यालय उज्जैन ने उन्हें पी. एच. डी. की उपाधि से अलंकृत किया है।
कविवर बुधजन १६वीं शताब्दी के जैन कवि थे, जिन्होंने जयपुर के दो राजाओं - जयसिंह (तृतीय) और रामसिंह का राज्यकाल देखा था । जैसा कि जैन कवियों की परम्परा रही है, कविसर बुधजन ने भी अपने समय की प्रचलित जनभाषा में काव्य रचना की । वस्तुतः इस अनूठी परम्परा के प्रवर्तन का श्रेय भगवान् महावीर को हैं, जिन्होंने प्रपनी जनपदीय भाषा में धर्मोपदेश कर यह सिद्ध कर दिया कि धर्म का बिरवा साहित्यिक भाषा के 'कूपजल' से नहीं, अपितु लोकगिरा के 'बहते नीर' से सिंचित होकर ही जन-जन के लिए फलदायी होता है। धर्म को लोक मानस में प्रतिष्ठित करने तथा उसे लोक जीवन का अंग बनाने के लिए लोक भाषा ही सर्वोत्तम माध्यम है। शास्त्रीय भाषा में उपदिष्ट धर्मोपदेश यदि कल्पतरु हैधरती से ऊपर उठा हुआ तो लोकभाषा में प्रचलित धर्म कल्पलता है। धरती पर प्रसरित, तः सर्वसुलभ ! कविवर बुधजन सहित राजस्थान के जैन कवियों ने लोक भाषा में साहित्य रचना कर धर्म की इसी कल्पलता को सर्वसुलभ किया है। इस दृष्टि से इन न कवियों ने न केवल जैन-धर्म की ही महती सेवा की, श्रपितु श्रपने समय की जनभाषा को साहित्य-सृजन का एक सशक्त माध्यम बनाकर राजस्थानी भाषा और साहित्य की समृद्धि में भी स्तुत्य योगदान दिया है ।
डा. मूलचन्दजी ने विवेच्य कृति में इस श्रद्यावधि प्रज्ञात कषि के व्यक्तित्व और कृतित्व का साङ्गोपाङ्ग विवेचन करते हुए एक प्रत्यन्त प्रामाणिक, गंभीर एवं विद्वत्तापूर्ण अध्ययन प्रस्तुत किया है। विवेचन की इस प्रक्रिया में विद्वान् लेखक ने अपने को एकान्ततः कवि की रचनायों तक ही सीमित न रख पृष्ठ भूमि के रूप में, जैन कवियों की सुदीर्घ साहित्य सेवा एवं यशम्बी काव्य-परंपरा पर भी प्रकाश डाला है, जिसके फलस्वरूप उसका यह शोध प्रबंध भारतीय वाङमय में जैन - काव्य-धारा के महत्व का बोध कराने की दृष्टि से भी उपादेय हो गया है ।
युग पर परिस्थितियां शीर्षक प्रथम खण्ड में जैन कवियों के इसी ऐतिहासिक योगदान का सम्यक् मूल्यांकन करते हुए लेखक ने तदयुगीन परिस्थितियों का