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सारगभित विवेचन-विश्लेषण किया है । जीवन-परिचय खण्ड के प्रतर्गन लेखक ने कवि का प्रामाणिक जीवन-वृत्त प्रस्तुत करते हुए उसके व्यक्तित्व की बहुमुखी विशेषलानों को मत्यन्त चारुता के साथ उभारा है । कयि की निस्पृह वृत्ति, धार्मिक भावना, सात्विक जीवन-चर्या तथा पारमार्थिक साधना जहां उसके व्यक्तित्व को प्राध्यात्मिक महिमा से मंडित करती है, वहां नि:स्वार्थ भाव से प्रेरित उसका लोकोपकारी एवं समाज सेवी रूप उसके व्यक्तित्व के सामाजिक पक्ष के प्रति हमारी श्रद्धा जगाते हैं। साथ ही, बुधजन एक कुशाल गायक एवं सरस्वती के अनन्य आराधक भी थे। डा. मूलचन्दजी ने कवि के व्यक्तित्व के इन्हीं सब मायामों को प्रपनी अशेष महत्ता के साथ उजागर किया है।
प्रस्तुत कृति का सर्वाधिक महत्वपूर्ण माग कवि-कृतित्व के परिचय तथा उसके मूल्यांकन से सम्बद्ध है । लेखक ने कवि द्वारा प्रसीत सभी रचनाओं का, जो छोटी-बड़ी कुल मिलाकर १७ हैं, उनके रचनाक्रमानुसार परिचय देते हुए साहित्यिक दृष्टि से विशद् मूल्यांकन किया है। इसके अन्तर्गत इन रचनामों के भाषा, शिल्प व भावपक्षीय विश्लेषण के साथ-साथ इतका तुलसा सिचर भी पालत लिया गया है । इस सम्बन्ध में, विद्वानू लेखक ने काव्य के पारंपरिक प्रतिमानों के प्राधार पर कवि के रचना-वैशिष्टय का मूल्यांकन करते हुए यत्र-तत्र अपनी मौलिक अतरष्टि का मी परिचय दिया है। उदाहरणतः उसने साहित्य को व्यापक अर्थ में ग्रहण किए जाने पर बल देते हुए मह सर्वथा उचित ही कहा है कि भारतीय मनीषा ने कमी भी साहिरम को संस्कृति से विमिछल कर नहीं देखा है । प्रतः संस्कृति के प्रारण. भूत तत्व-धर्म और दर्शन को साहित्य' से बहिर्गत नहीं किया जा सकता । यही कारण है कि हमारे प्राचीन साहित्य, विशेषत: संत व भक्ति-साहित्य में जीवन के पारमाथिक लक्ष्य की प्राप्ति का सन्देश है, उच्चतम नैतिक मूल्यों की प्रतिष्ठा है, जीवन के शाश्वत सत्यों का उद्घोष है । यह मात्र अनुरंजनकारी साहित्य नहीं, अपितु कालजयी चेतना का चिरन्तन मालेख है ! हमारा कृत्स्न भक्ति-साहित्प ऐसा ही मूल्य धर्मी साहित्य है, जिसका सम्यक् महत्वांकन हमारे इसी सांस्कृतिक संदर्भ एवं प्राध्यात्मिक परिप्रेक्ष्य में संभव है।
डा. मूलचन्दजी शास्त्री ने साहित्य की इसी व्यापक अवधारणा के प्राधार पर कविवर बुषजन के कृतित्व का मूल्यांकन कर उसे साहित्य के साथ-साथ धर्म और दर्शन की गौरवमयी पीठिका पर भी प्रतिष्ठित किया है, जो निश्चय ही अभिनंद्य है।
प्राशा है, विद्वत् समाज, शारदा के निर्माल्म-रूप महाबीर-प्रन्ध-अकादमी के इस है वे पुष्प को अपनी मजलि में समोद धारण करेगा !
शंभुसिंह मनोहर दि. १६-६-८६
एसोसिएट प्रोफेसर-हिन्री, राजस्थान विश्वविद्यालय
जपपुर