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___ कविवर बुधजन : व्यक्तित्व एवं कृतित्व अमरत्व और कर्म संस्कार का वैशिष्ट्य प्रतिपादन करते रहे ।।
कविवर बुधाजन की समस्त रचनाओं का अध्ययन करने पर यह बात स्पष्ट हो जाती है कि उन्होंने प्रनादि कर्मबन्धनबद्ध जीवों को सन्मार्ग में प्रवृत्त कराने का प्रयत्न किया है । उन्होंने संसार भ्रमण की विभीषिका का बड़े ही मार्मिक शब्दों में वर्णन किया है। वे लिखते हैं :
जगत् के प्रारणी प्रात्म हित की खोज में उद्यमशील दृष्टिगोचर होते हैं परन्तु सदुपदेश के प्रभाव से मृगतृष्णा में जान-संकल्प-प्रान्त मृगों की तरह इतस्तत: भटकते हुए प्रभीष्ट फल से वचित ही रहते हैं। उन्हें जीव का वास्तविक हित क्या है और उस हित साधन को साक्षात् तथा परम्परा प्रणाली क्या है ? इसका ज्ञान न होने से खेद खिन्न होना पड़ता है ।
जीव के प्रानन्द रूप गुण विशेष को सुख कहते हैं । यह सुख गुरण अनादि काल से ज्ञानावरणादि प्रष्ट कर्मों के निमित्त से भाविक परिणति स्प हो रहा है । सुख गुण की इस वैभाविक परिणति को ही दुःस्त्र कहते हैं । इस प्राकुलता रूप दुःख के दो भेद हैं—एक साता और दूसरा प्रसाता । संसार में अनेक प्रकार के पदार्थ हैं, जो प्रति समय यथायोग्य निमित्त मिलने पर स्वाभाविक तथा वभाषिक पर्याय हा परिणमन करते हैं । यदि परमार्थ दृष्टि से देखा जाय तो कोई भी पदार्थ न इष्ट है और न अनिष्ट है । यदि पदार्थों में ही इष्टानिष्टता होली तो एक पदार्थ जो एक मनुष्य को इष्ट है वह सबही को इष्ट होता और जो एक को भनिष्ट है वह सबहीं को अनिष्ट होता। परन्तु संसार में इससे विपरीत देखा जाता है। इससे सिद्ध होता है कि पदार्थों में इष्टानिष्टता नहीं है। किन्तु जीवों न भ्रमवण किसी पदार्थ को इष्ट और किसी को अनिष्ट मान रखा है।
मोहनीय कर्म के उदय से दुरभिनिवेश पूर्वफ इष्टानिष्ट पदाथों में यह जीब राग-द्वेष को प्राप्त होता है, जिससे निरंतर ज्ञानाचरणादिक कर्मों का बन्ध करके इस संसार में भ्रमण करता हुआ इष्टानिष्ट, संमोग-वियोग में अपने को सुखी-दुःखी मानता है। भ्रमवमा इस जीव ने जिसको सुख मान रखा है वह वास्तव में माकुलतात्मक होने से दुःख ही है । ये सांसारिक पाकुलतात्मक सुख-दुःख प्रात्मा के स्वाभाविक सुट गुरु का कर्मजन्य विकृत परिणाम है। कर्मों से मुक्त होने पर गुरण की स्वाभाविक पर्याय को ही यथार्थ सुस्व प्रथया वास्तविक आत्महित कहते हैं।
१. जैन डॉ० नेमिचन्द्र ज्योतिषाचार्य : भगवान महावीर और उनकी प्राचार्य
परंपरा, भाग-४, पृष्ठ-२ । २. दौलतराम : छहढाला, तृतीय ढाल, तेरहवां संस्करण, पञ्च सं० १ पृष्ठ
स' १७ सरल जन प्रन्थ भंडार ४०७, जवाहरगंज, जबलपुर ।