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________________ भाव पक्षीय विश्लेषण कषि ने प्रारम हित के यो साधन बतलाये हैं। पहला मुनिधर्म और दूसरा गृहस्थ धर्म । उन्होंने मुनिधर्म को प्रात्महित का साक्षात् साधन कहा तथा गृहस्थ धर्म को परंपरा मोक्ष का या प्रारम-हित का साधन कहा । साक्षात् सुख के साधन को स्पष्ट करते हुए कवि ने रुिपा है, या मुखएको गिरा कोराले शानावरणादि प्रष्ट कर्म हैं । जब तक ये कर्म मात्मा से जुदे न होंगे तब तक इस जीव को यथार्थ सुख नहीं मिल सकता। न्याय का सिद्धान्त है कि जिस कारण से जिस कार्य की उत्पत्ति होती है उस कारण के प्रभाव से उक्त कार्य की उत्पत्ति का भी प्रभाव हो जाता है। उक्त न्याय के अनुसार यह बात सिद्ध होती है कि जिन कारणों से कर्म का सम्बन्ध होता है उन कारणों के प्रभाव से कर्म का वियोग अवश्य हो जायगा । मिष्या ज्ञान पूर्वक राग-द्वेष से कर्म का बन्ध होता है, प्रत: सम्यग्ज्ञान पुर्वक राग-द्वेष की निवृत्ति से यह जीव कर्मों से मुक्त हो सकता है । एक देश ज्ञान की प्राप्ति तथा राग ष की नियुसि यद्यपि गृहस्थाश्रम में भी हो सकती है परन्तु पूर्णतया ज्ञान की प्राप्ति तथा राग-द्वेष की निवृत्ति मुनि अवस्था में ही होती है । इसलिये प्रात्म-हित का साक्षात् साधन मुनिधर्म ही है । यह मुनि धर्म बारह भावनाओं के चितवन करने से ही प्रगट होता है। प्रध्यात्म राग : कविवर अध्यात्म शास्त्रों के कोरे पंरित ही न थे किन्तु उन्होंने उन मध्यात्म शास्त्रों के अध्ययन-मनन एवं चिसन से जो कुछ भी ज्ञान प्राप्त किया था, वे उसे दढ श्रद्धा में परिणत करने के साथ-साथ प्रांशिक रूप से अपने जीवन में तद्नुकूल वर्तन करने का भी प्रयत्न करते थे। उनका जीवन अध्यात्म रस से सिंचित था तथापि ये इष्ट यस्तु का बियोग होने पर भी कायरों की भांति दुःखी नहीं होते थे, किन्तु वस्तु स्थिति का बराबर चितन करते हुए कमजोरी से जो कुछ भी पोड़े से समय के लिये दुस मपवा कष्ट का अनुभव होता था वे उसे अपनी कमजोरी समझते थे और उसे दूर करने के लिये वस्तु स्वरूप का चिंतन कर उससे मुक्त होने का प्रयत्न करते थे। इन्हीं सब विचारों से उनकी गुणशता और बिवेक का परिचय मिलता है। वेधात्म ध्यान में इतने तल्लीन हो जाते थे कि उन्हें बाहर की क्रियानों का कुछ भी पता नहीं चलता था । किसी की निंदा और प्रशंसा में वे कभी भाग नहीं लेते थे । यदि देवयोग से ऐसा अवसर प्रा भी जाता तो बुद्धि पूर्वक उसमें प्रवृत्त नहीं होते थे पौर न अपनी शान्ति भंग करने का कोई उपक्रम ही करते थे । वे कर्मोदय १. मुनि सकल तो बस भागी, भव भोगन से वैरागी। वैराग्य उपावन माई, रिले अनुप्रेक्षा भाई॥ हौलत रामः अहवाला, पांचवों ढाल, पा. १ पृष्ठ सस्या ३७, सरल जैन प्रत्य भंडार, जबलपुर।
SR No.090253
Book TitleKavivar Budhjan Vyaktitva Evam Krutitva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMulchand Shastri
PublisherMahavir Granth Academy Jaipur
Publication Year1986
Total Pages241
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth, Biography, & History
File Size4 MB
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