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६८ कविवर बुधजन : व्यक्तित्व एवं कृतित्व जन्म क्रियाओं द्वारा होने वाले इष्ट-अनिष्ट पदार्थों के वियोग : संयोग को कर्मोदय का विपाक समझते थे । उसमें प्रपनी कर्तृत्व बुद्धि और अहं क्रिया रूप मिथ्या वासना को किसी प्रकार का कोई स्थान नहीं देते थे । इसी कारण वे व्यर्थ की प्रशान्ति से बच जाते थे। साथ ही प्रतत्व-परिणति और मोह ममता से अपने को बचाये रखने में सदा सावधान रहते थे—कभी असावधान अथवा प्रमादी नहीं होते थे। वे स्वयं सोचते और विचारथे वे कि हे प्रात्मन् ! जब तेरी अन्तष्टि जागृत हो जायगी उस समय काललब्धि, सत्संग, निर्विकल्पता और गुरु उपदेश सभी सुलभ हो जायेंगे । विषय-कषायों की ललक मुरझा जायगी, वह फिर तुझे अपनी प्रोर भाकृष्ट करने में समर्थन हो सकेगी, मन की गति स्थिर हो जाने से परिणामों की स्थिरता हो जायगी । फिर विवेक रूपी अग्नि प्रज्वलित होगी और उसमें विभाव-भाव रूप ईधन नष्ट हो जायगा । तेरे मन्तघट में विवेक जागृत होते ही मन पर परणति में रागी नहीं होगा और तू सब तरह से समर्थ होकर अनुभव रूपी रंग में रंग जायगा । तभी सू स्वानुभव रूप प्रात्म-रस का अनुभव करने लगेगा जो सहज, स्वाभाविक सार पदार्थ है।
'जिनेन्द्र भक्ति कवि का जीवन जहाँ मध्यात्म शास्त्रों के अध्ययन में प्रवृत्त होता था, वहां यह भक्ति रस रूप बारगंगा की निष्काम बिमस धारा के प्रवाह में डुबकियां गाता रहता था । वे जिनेन्द्र भगवान के गुणों का चिन्तन एवं भक्ति करते हुए इतने तन्मय अथवा प्रात्म-विभोर हो जाते थे कि उन्हें उस समय बाहर की प्रवृत्ति का कुछ भी ध्यान नहीं रहता था- भक्ति-रस के अपूर्व उदक में वे अपना सब कुछ भूल जाते थे- भगवद भवित करते हुए उनकी कोई भी भावना उसके द्वारा धनादि की प्राप्ति अथवा ऐहिक भोगोपभोगों की पूर्ति रूप मनोकामना को पूर्ण करने की नहीं होती थी, इसी से उनकी भक्ति निष्काम कही जाती थी। कवि की भक्ति का एक मात्र लक्ष्य सांसारिक विकल्पों को मिटाने और आत्मगुणों की प्रान्ति का था । उनकी यह दृढ़ श्रद्धा थी कि उस वीतरागी जिनेन्द्र की दिव्य मूर्ति का दर्शन करने से जन्म-जन्मान्तरों के अशुभ कर्मों का ऋण शीघ्र चुक जाता है वह विनष्ट हो जाता है और पित्त परम प्रानन्द से परिपूर्ण हो जाता है।
यद्यपि जिनेन्द्र का गुणानुवाद अत्यन्त गंभीर है, यह बचनों से नहीं कहा जा सकता और जिसके सुनने अवधारणा करने अथवा श्रद्धा करने से यह जीवात्मा कर्मों के फन्द से छूट जाता है। वे स्वयं कहते हैं-हे प्रभो ! मैंने प्राज तक भारकी पहिचान नहीं की, यत्र तत्र भटकता रहा न जाने कौन कौन से रागी-वैषी देवों की उपासना करता रहा । यही कारण है कि भ्रमवश प्रात्मा के लिये अहितकारी पदार्थों को अपना हितकारी मानता रहा । मिथ्या मान्यता के कारण मैंने जो कर्मोपार्जन किये, उन्होंने मेरे संपूर्ण ज्ञान-धन को लूट लिया । शान-धन के सुट जाने से अपने कर्तव्य को भूलकर सन्मार्ग से भ्रष्ट हो अनेक प्रकार की खोटी गतियों में भटकता रहा । हे प्रभो ! आज की घड़ी धन्य है, प्राज का दिवस धन्य है, मौर माज मेरा