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काशी विश्रा
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यह मानव जीवन भी धन्य हो गया । प्राज मेरे सौभाग्य का उदय हुआ है, जो मैंने आपके दर्शन प्राप्त किये। प्रापको विकार वर्जित नासाग्र दृष्टि, प्रष्ट प्राति हार्य, नग्न मुद्रा, अनंतगुण युक्त आपकी छवि को निरखकर श्राज मेरा जन्म-जन्मांतर से लगा मिथ्यात्वभाव या अज्ञान भाव नष्ट हो गया । श्राज मेरे श्रात्म स्वरूप की पहिचान कराने वाला सम्यकत्व रूपी सूर्य का उदय हुआ है। हे प्रभो ! आपके शुभ दर्शन प्राप्त कर मुझे अपार हर्ष हो रहा । ऐसा हषं हो रहा है, जैसा किसी रंक को मरिण भादि रत्नों के प्राप्त होने पर होता है । हे प्रभो ! मैं हाथ जोड़कर प्रापके पवित्र चरणों में नत मस्तक होता हू । हे प्रभो ! आपके शुभ दर्शन कर मुझे किसी भी सांसारिक पदार्थ की प्रभिलाषा नहीं है । में श्रापकी भक्ति के प्रताप से न स्वर्ग चाहता हूं, न राजा बनना चाहता हू और न कुटुम्बियों का साथ चाहता हूँ । केवल एक ही प्रार्थना है कि मुझे जन्म-जन्मान्तर में भापकी पुनीत भक्ति प्राप्त होती रहे । कवि के निम्न पद इसी भावना के द्योतक हैं :
सरस्वती (जिनवाणी) की स्तुति जिनेन्द्रभक्ति के समान ही कवि द्वारा की गई है। जिनवाणी के प्रति कवि की आस्था प्रद्वितीय है । वे लिखते हैं- जिनेन्द्र के मुख रूपी कुड से वाणी रूपी गंगा निकलती है, उसने संसार के विषम संताप एवं
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प्रभु पतित पावन में अपावन, चरण ग्रामो शरण जी । यो विरह आप निहार स्वामी, मेटि जामन मरण जी ।। तुम ना पिछान्यो अन्य मान्यो देव विविध प्रकार जी । या बुद्धि सेतो मिज न जान्यो, भ्रम गिन्यो हितकार जी || भव- विकट वन में कर्म बेरी, ज्ञानधन मेरो हरयो ।
सभ इष्ट मूल्यो भ्रष्ट होय, अनिष्ठ गति बरतो फिर्यो । घन घड़ी यो बम-दिवस यो हो धन जमन मेरो भो । भय भाग्य मेरो उदय भयो, वरश प्रभुजी को ललि लयो || छवि वीतरागो भगन मुद्रा, वृष्टि नाशः पे धरे । वसु प्रातिहा अनंत गुरण युत कोटि रवि छवि को हरे ॥ मिट गयो तिमिर मिध्याहन मेरो उवय रवि मातम भयो । मी जर हरष ऐसो भयो, मन रंक वितामरिंग लयी ॥ मैं हाथ जोड़ मनाऊ मस्तक, वीनऊ तुम चरण ओ । सर्वोत्कृष्ट त्रिलोक पति जिन सुनहु तारण तरण जी || या नहीं सुरवास पुनि नरराज परिजन साथ जी।
ग्रुप यावहू तुम भक्ति भव-भव दीजिये शिव नाथ जी ॥ कवि दुषजनः देवदर्शन स्तुति, ज्ञानपीठ पूजाञ्जलि, पु० ५३४-३५ भारतीय ज्ञानपीठ काशी प्रकाशन |