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कविवर बुधजन : व्यक्तित्व एवं कृतित्व
भ्रम को दूर कर दिया है। जो प्राणी जिनेन्द्र के वचन रूप जहाज में बैठ जाता है। वह भव समुद्र से तिर जाता है। इसके सिवाय संसार समुद्र से पार होने का मन्य कोई इलाज नहीं है ।
जिनवाणी के प्रति कवि
के प्रन्तःकरण में कैसी टूट श्रद्धा है— अनन्य मावना है, यह देखते ही बनता । यह रचना कवि की कवित्व शक्ति की परिचायक है । कवि ने सरस्वती माता को अष्टद्रव्य से पूजा की है। वे लिखते हैं- हे माता ! मैं जो श्रापके पुनीत चरणों में जल, चन्दन, अक्षत, पुष्प, नैवेद्य, दीप धूप और फल रूप प्रष्ट विष सामग्री चढ़ता हूँ वह तो आलंबन मात्र है, वस्तुतः मैं तो अपने भावों की शुद्धि चाहता हूँ और वही मेरा लक्ष्य है। वे भागे कहते हैं- मैं अनादि काल से संसार में भ्रमरण कर रहा हूं। मिथ्याबुद्धि के कारण में आज तक श्रात्म-ज्ञान से सर्वथा परिचित रहा । मैं विषय कषाय रूप श्रम- कूप डूबा रहा । श्राज मैं भाग्यशाली हूं, जो मैंने आपका शरण प्राप्त किया । धाप जिनेन्द्रदेव के मुख से प्रगट हुई हो, अनेकान्त स्वरूप हो । मुनिजन प्रापकी सदैव सेवा करते हैं । भाप भ्रमरूप विष को दूर करने के लिये अमृत तुल्य हो । संसार के विषम-संताप को दूर करने के लिये गंगा की धारा के समान हो । है माता ! आप दया की कंद हो, परोपकार करने में सदा तत्पर हो । आप चार अनुयोग रूप चार वेदों में विभक्त हो 12
प्रथमानुयोग रूप प्रथम वेद द्वारा प्राणी पुण्य-पाप के फल का विचार करते हैं । करणानुयोग रूप द्वितीय वेद के द्वारा प्राणी तीनों लोकों की रचना का ज्ञान करते हैं | चरणानुयोग रूप तृतीय- वेद के द्वारा मुनि और श्रावक के आचरण की प्रेरणा प्राप्त करते हैं और द्रभ्यानुयोग रूप चतुर्थं वेद के द्वारा प्राणी जीवादि षट् द्रव्यों के स्वरूप का ज्ञान प्राप्त करते हैं ।
इस प्रकार चार वेद रूप चारों अनुयोगों का संक्षेप में वर्णन करते हुए कचि ने अंतिम पद्य में अपनी लघुता प्रकट करते हुए अपने नाम का भी उल्लेख किया है । वे लिखते हैं
-:
१.
हे जिनवाणी । श्राप श्ररयन्त उदार हो, गुण रूप जल की धारा श्राप में
श्री जिन बेन जहाज, गहते ही भवि तरि गये ।
या बिन नाहि इलाज, जनम जलधि के तिरम को ||
बुधजमः सरस्वती पूजा, शास्त्र-भंडार वि० अंन मंदिर पाटोदी, जयपुर हस्तलिखित प्रति 1
२.
तुम दयाव उपगार वारि, जन-जन कहते हो वेद चार
जम: सरस्वती पूजा, शास्त्र भंडार वि० जैन मंदिर पाटोदी, जयपुर हस्तलिखित प्रति ।