________________
चतुर्थ खण्ड
तुलनात्मक अध्ययन (१) हिन्दी साहित्य के विकास में कविवर सुधजन का योग
अपभ्रंश तथा लोक साहित्य को विभिन्न विधानों से सामान्यतः हिन्दी साहित्य प्रभावित हुआ । जन व व्रज और राजस्थानी में प्रबन्ध काव्य और मुक्तक काव्यों की रचना करने में संलग्न रहे । इतना ही नहीं वे मानव जीवन की विभिन्न समस्याओं का समाधान करते हुए काव्य रचना में प्रवृत्त रहे । जन-सामान्य के लिये यह साहित्य पूर्णतया उपयोगी है । इसमें सुन्दर प्रात्म-पीयूप-रस छल छलाता है और मानव को उन भावनांगों तथा अनुभूतियों को अभिव्यक्ति प्रदान की गई हैजो समाज के लिये संघल हैं और जिनके प्राधार पर ही समाज का संघटन, संशोधन तथा संस्करण होता है।
हिन्दी साहित्य के प्रादिकाल का यदि पुनः सर्वेक्षण हो तो वह जन कवियों की रचनानों के प्राधार पर ही किया जा सकता है। क्योंकि जैन कवियों ने गौतमरासा, मप्तक्षेत्र रासा, पशोधर रासा, धनपाल रासा, सम्यक्तत्व रासा, नेमीश्वर रासा आदि अनेक रासा प्रब उस काल में लिखे थे । भारतीय साहित्य के मध्यकाल पर यदि विचार करें, तो यह काल भी कान्य सृजन की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण माना गया है । इस युग में भी जन कवियों ने जो भी लिला, वह मात्र 'कला के लिये फला का आयोजन नहीं था परन् उसमें तात्कालिक जन-जीवन भी स्पंदित था।
इन कवियों ने कवि रष्टि के साथ संस्कृति, नीति और धर्म को भी अपने काव्य की प्रमुख भूमि बनाया और साहित्य की रचना की जिसने जनजीवन को ऊया उठाया और श्रममा संस्कृति की निर्मलतानों को उजागर किया । लोक जीवन के जिस चारित्रिक धरातल पर जैन कवियों ने साहित्यिक रचनाए' की, उनसे न केवल जैन समाज उपकृत हया वरन् सम्पूर्ण भारतीय समाज उपकृत हा। हन फवियों ने अपनी रचनाओं के द्वारा हमारे जीवन को उन्नत बनाया । मानव को पशुता से मनुष्यता की प्रोर ले जाना ही जन कवियों का लक्ष्य रहा है । जैन कवियों ने साहित्य को कलाबाजी कभी नहीं माना । जनका साहित्य गुण और परिमा दोनों ही दृष्टियों से महान है । संस्कृत, प्राकृत, वनड़, तमिल, गुजराती, मराठी,