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कृतियों का भाषा विषयक एवं साहित्यिक अध्ययन
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थी, किन्तु ये विचलित नहीं होते थे। सदन का महीना है श्रोर नेमीश्वर गिरनार पर्वत पर तप करने चले गये हैं इस पर राजमती कहती है
पिया सावन में व्रत लोगे नहीं, घनघोर घटा जुर श्रावेगी | चहु भोर तें मोर जु शोर करें, बन कोकिल कुहल सुनावेगी ॥ पिय रेन अंधेरी में सूझे नहीं, कछु दामिनि दमक डरावेगी ॥
उक्त उदाहरणों से यह बात स्पष्ट है कि भारतीय कवियों ने प्रकृति को अपनी खुली झांखों से देखा है और उसके प्रति उनका सहज अनुराग है। प्रकृति के किसी दृश्य को चमत्कार पूर्ण ढंग से कहने की प्रवृत्ति उनमें नहीं है । हिन्दी साहित्य के अध्ययन से यह स्पष्ट होता है कि भक्तिकाल में प्रकृति चित्रण तो हुआ है पर उस काल के संतों और भक्तों की वाणी उपदेश परक थी । उन्होंने अपने प्राध्यात्मिक अनुभवों को व्यक्त करने के लिये प्रकृति के प्रतीकों का सहारा लिया है प्रत्योषित के माध्यम से प्रकृति का आलंबन लेकर उन्होंने अपने विचारों को व्यक्त किया है । तुलसी जैसे भक्त कवियों ने वर्षा और शरद का वर्शन किया है, परन्तु प्रकृति के विभिन्न क्रियाकलापों के माध्यम से उन्होंने उपदेश ही दिया है। उन्होंने प्रकृति का वरन झालंबन के रूप में ही किया है ।
रीतिकालीन कवियों ने इसके विपरीत प्रकृति का वर्णन उद्दीपन रूप में afro किया है। जायसी का बारहमासा बन, बदलती हुई ऋतुनों में नागमती की विरह व्यथा को उद्दीप्त करता है । ऋतुओं का उपयोग भी उन्होंने उद्दीपन रूप में ही किया है । परन्तु जैन कवियों ने प्रकृति का वर्णन नीति व शिक्षा के रूप में किया है । कविवर वजन द्वारा जैन साहित्य में, बाह्य प्रकृति के नाना रूपों की अपेक्षा मानव प्रकृति (स्वभाव) का सूक्ष्म विश्लेषण किया गया है। कविता करते की प्रेरणा उन्हें जीवन की नाबरता और अपूर्णता के अनुभव से ही प्राप्त हुई है । उनकी सौंदर्य ग्राहिणी दृष्टि प्रकृति के बाह्य रूपों की प्रोर भी गई और उन्होंने प्रकृति के सुन्दर चित्र भी प्रकित किये पर शान्त रस के उद्दीपन के रूप में ही ।
प्रकृति के विभिन्न रूपों में सुन्दरी नर्तकी के दर्शन भी अनेक जैन कवियों ने किये हैं, किन्तु वह नतंकी कुछ ही क्षणों में कुरूपा और वीमल्स सी प्रतीत होने लगती है । रमणी के केश-क्लाप, सलज्ज कपोल की लालिमा और साज-सज्जा के विभिन्न रूपों में विरक्ति की भावना का दर्शन करना जैन कवियों की अपनी विशेषता है। कविवर बुधजन ने होली का वर्णन किया है। वे लिखते हैं
निजपुर में प्राज मची होली निजपुर में ।
उमंग चिदानन्द जी इतनाये, उत भाई सुमती गोरी || निज० ॥ लोकलाज कुलकारिण गमाई, ज्ञान गुलाल मरी झोरी || निज० ॥