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पद्य - ऐसी निश्वल काय, मानों पाथर रची,
यह ठाणा
ध्यान में मुनि जन फेरी किषों चित्राम चकेरी ॥
६-८-६०
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--गान में स्थित मुनिजनों की निश्चल काया को देखकर ऐसा लगता है मानों यह पाषाण-प्रतिमा हो प्रथवा किसी (चित्रकार ) ने किसी पत्थर पर चित्र हो उकेर दिया हो || ६ ||
पश्च- चार घालिय नाशि, ज्ञान में
लोक निहारा । देजिन-मत प्रादेश, भविक कों दुःखते द्वारा ॥
६-६-६१
अर्थ- जिन्होंने शुद्धात्म ध्यान के बल से चारों घातिया कर्मों का नाश कर दिया है, जिनकी केवल ज्ञानज्योति में जगत के अनंत पदार्थ तथा उनकी अनंत पर्यायें प्रतिभासित हो रही हैं, जिन्होंने भव्य जीवों के लिये कल्याण-कारक जैन-मत का उपदेश दिया है तथा उनको संसार के दुःख से छुड़ाया है ।। ६१ ।।
पद्म- बहुरि भघाती तोरि समय में शिवपद पाया ।
मलख अखंडित ज्योति, शुद्ध वेतन ठहराया ॥
६-१०-६२
अर्थ – पुनः शेष चार मद्यातिया कर्मों का नाश कर एक समय में मोनपद प्राप्त कर लिया तथा अपनी शुद्धात्मा को प्रखंड ज्योति स्वरूप बना लिया है और शुद्ध चेतना स्वरूप हो गये हैं ।। ६२ ।।
पथ - काल धनंतानंत जैसे के तसे रहि हैं ।
श्रविनाशी भविकार, मचल प्रनुपमसुख लहिं हैं ॥
अर्थ- वे मुकारमा अब भनंतानंत रहित, विकार रहित, चंचलता रहित, करेंगे ॥ ६३ ॥
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काल पर्यन्त उपमा रहित
पद्म – ऐसी भावन भाय ऐसे जे
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६-११-६३
यथावत् रहेंगे भीरं विनाश(मास्मिक) सुख को प्राप्त
कारज करि हैं ।
ते ऐसे ही होय, दुष्ट करमन कों हरि है ।
६-१२-६४
अर्थ -- जो नित्य प्रति ऐसी भावना करते रहेंगे तथा उसी के मनुसार
मारा करेंगे वे वैसे ही बन जांगे अर्थात् सिद्धपद प्राप्त करेंगे ||६४॥
पद्म-जिनके डर विश्वास, बचन जिन शासन नाहीं ।
६-१३.६५ बातों पर विश्वास नहीं है वे विषय भोगों से व्याकुल होकर नरकादि के दुखों को सहून करेंगे || ६५||
ते भोगातुर होय, सहैं दुःख नरकन मोहीं ॥ अर्थ- जिनके हृदय में जिनेन्द्र कथित
पद्म- -सुख-दुःख पूर्व विषाक, भरे मत कल जीया ।
कठिन कठिन तें मीत, जन्म मानुष से लीया ॥
६, १४-६६
अर्थ – छे जीव ! इस संसार के सुखदुःख तो पूर्वी पाजिस कर्मों का फल हैं