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युग और परिस्थितियां
"दौलतराम, बुधजन, सालोट जयर, शानसपुर, गलबन्द, देवदास', वृन्दावन, देवचन्द, चन्द्रसागर, रंगविजय, अमाकल्याण, नयनसुखदास आदि।।
जैन साहित्य को प्रकाश में लाने का श्रेय पाश्चात्य विद्वान, डॉ. हर्मन जैकोबी, डॉ. हीरालाल जैन, डॉ. ए. एन. उपाध्ये, पं. जुगल किशोर मुस्तार, नाथूराम प्रेमी, डॉ. कामला प्रसाद जैन, डॉ. नेमीचन्द शास्त्री, पं. परमानन्द शास्त्री, अगरचन्द माहटा, प्रभृति विद्वानों एवं वर्तमान में डॉ. कस्तुरचन्द कासलीवाल, पं. कैलाश चन्द शास्त्री, डॉ. देवेन्द्र कुमार जन प्रति विद्वानों को है, जिन्होंने जैन धर्म का अध्ययन कर उसके साहित्य को खोज निकाला।
अद्याप जैन कवियों एवं लेखकों ने धर्म प्रचारार्थ ही लिखा है तथापि हिन्दी साहित्य के विकास में उनका महत्त्वपूर्ण योगदान है। जैन लेखकों ने साहित्यनिर्माण करते समय लोक भाषानों को अपनाया । अपभ्रंश भाषानों को भी जैन कवियों ने अपनाया क्योंकि जैन लेखकों ने साहित्य सर्जना करते समय जन-साधारण की भाषा का पूर्ण ध्यान रखा । यही कारण है कि अधिकांश जन साहित्य अपनश भाषा में लिला गया, क्योंकि उनका उद्देश्य चमत्कार एवं चातुर्य प्रदर्शन न होकर जन-मानस में जीवन के प्रति धर्ममय लगन को जागृत करना था।
अपभ्रं पा से हिन्दी का विकास होने से हिन्दी विकास की प्रथमावस्था में भी.उच्च कोटि के प्रबंधकाव्यों की रचनाएं हुई। प्रतएव भाषा विज्ञान की इष्टि से ही नहीं, परन् हिन्दी साहित्य के प्रारंभिक विकास की दृष्टि से भी जन साहित्य का बहुत महत्व है।
प्राचीन हिन्दी का जो ऐतिहासिक रूप हमें उपलब्ध है वह जैन विद्वानों की ही देन है। उन्होंने लोक रुचि का समादर करते हुए कुछ ऐसी रचनाएं मानव समाज को दी हैं, जिनका सांस्कृतिक दृष्टि से बड़ा महत्व है।
कविवर बुधजन ने साहित्य रचनाकर भारतीय संस्कृति को सुरक्षित रखने का प्रयास किया है। डॉ. देवेन्द्र कुमार शास्त्री लिखते हैं, "प्रत्येक देश और जाति के मूल संस्कार उसकी अपनी भाषा, साहित्य तथा संस्कृति में निहित रहते है। जातीय जीवन, लोक परम्परा एवं सामाजिक रीति-नीतियों के अध्ययन से हमें उनकी पूरी जानकारी मिलती है। प्रतएव भाषा और साहित्य का प्रत्येक अंग लोक-मानस की अभिव्यक्ति का ही लिपिबद्ध स्वर होता है ।"- कानि का सम्पूर्ण साहित्य नैतिक मूल्यों की महत्ता का प्रतिपादक है। कहीं भी विषय भासक्ति को महत्त्व नहीं दिया है।
१. जैम, डॉ. ज्योति प्रसाद : भारतीय इतिहास एक वृष्टि, पृष्ठ ५६२, द्वितीय
संस्करण, भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशम । २. रा. देवेन्द्र कुमार शास्त्री : अपभ्रंश भाषा और साहित्य को शोष प्रवृत्तियां,
पु. १, भारतीय ज्ञान पीठ प्रकाशन ।