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तुलनात्मक अध्ययन
"याचू नहीं सूरवास पुनि नर राज परिजन साथ जी।
"बुध'' याचहू तुब, भक्ति भव-भव, दीजिये शिवनाथ जी ।।"
अर्थ-हे प्रभु ! प्राय की भक्ति करने में यह नहीं चाहता कि प्राप मुझे स्वर्गादि के सुख प्रदान करें अथवा मैं नरेना बनू या परिजनों का साथ मुझे प्राप्त हो । मैं तो केवल यही चाहता हूं कि भव-भव में अर्थात् जन्म-जन्मान्तरों में प्रापकी भक्ति होती रहे।
संसार की वास्तविकता के सम्बन्ध में विद्यापति का एक अन्य पद देखिये---
"तातल सेवत वारि बिन्दुसम, सुतमित रमनि समाज | मोहे विनि
, प्रल मुभ इन कौन काज ।। माधव हम परिनाम निरासा तहु जग तारन दीन दयामय
अर्थ हे माधव ! जिस प्रकार तप्त बालू पर पानी की बंद पड़ते ही पिलीन हो जाती है, वैसे ही इस ससार में पुत्र, मित्र, पत्नी आदि की स्थिति है । तुझे भुलावार मैंने अपना मन इन क्षणभंगुर-वस्तुनों को समर्पित कर दिया है, ऐसी स्थिति में अब मेरा कौन कार्य सिद्ध होगा? हे प्रमु ! मैं जीवन भर मापको भुलाकर माया-मोह में फंसा रहा हूँ । प्रतः अब इसके परिणाम से बहुत निराश हो गया हूँ। पाप ही इस संसार से पार उतारने वाले हो, दोनों पर दया करने वाले हो । अतएव तुम्हारा ही विश्वास है कि तुम मेरा उद्धार करोगे । साधा जीवन तो मैंने सोकर ही बिता दिया, वृद्धावस्था और बालपन के अनेक दिन बीत गये । युवावस्था युवतियों के साथ के लि-क्रीड़ानों में बिता दी । इस प्रेम क्रीड़ा में मस्त रहने के कारण में तेरा स्मरण करता तो किस समय करता? अति विलास वासना में फंसे होने के कारण तेरे मजन-पूजन का समय ही नहीं निकाल पाया। हे माधव ! पाप ग्रादि अनादि के नाथ कहलाते हैं, ऐसी स्थिति में इस भव सागर से पार उतारने का भार पाप पर
इसी प्रकार का एक पद कविवर "बुधजन" का प्रस्तुत है :'उत्तम नरभव पाम मति भूले रे रामा ।। कीट पशु का तन जब पाया, तब तू रखा निकामा । प्रब नर देही पाय समाने, क्यों न भेजे प्रमु नामा ।। सुरपति याको चाह करत उर, कब पाक नर आमा । ऐसा रतन पाय के माई क्यों खोबत बिन कामा ॥
कवि बुषजमः देवदर्शन, स्तुति, ज्ञानपीठ पूजांजलि, पृ० स० ५३४-३५,
भारतीय मानपीठ प्रकाशन । २. मानन्द प्रसाद दीक्षित (संपादक) विद्यापति पदावली दितीय संस्करण
१९७०, साहित्य प्रकाशन मंदिर, ग्वालियर ।