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कविवर बुधजन : व्यक्तित्व एवं कृतित्व
धन जोबन तन सुन्दर पाया मगन भया लखि मामा । काल अचानक टकि खायगा, परे रहेंगे ठामा ॥
अपने स्वामी के पद पंकज, करो हिये विसरामा ||
मेटि कपट भ्रम अपना 'बुषजन' क्यों पावो शिवधामा ॥
तुझे सर्वधा नहीं
भजन क्यों नहीं समझता है) इस
अर्थ- इस श्र ेष्ठ नर-जन्म को प्राप्त करके अपनी आत्मा को विस्मृत मतकर 1 तू स्वयं आत्मा है, अतः अपने आपको मत भूल, अपने पूर्व जन्मों का या भवों का स्मरण कर जब तू छोटा मोटा कीड़ा था, या जब तू पशु था, उस समय तुझे कोई ज्ञान न या अत्यन्त अल्पज्ञानी था या अपने हिला-हित का विवेक था। अब पुण्योदय से तूने मनुष्य जन्म पाया है श्रतः तु प्रभु का करता ? (क्योंकि अब तू विवेकवान् प्राणी है अपने हिताहित को नरन्तन को प्राप्त करने की इच्छा देवता भी करते हैं क्योंकि इस अवस्था से प्रभुस्मरण व संयमाचरण किया जा सकता है। है भाई। यह मानव-जीवन एक प्रकार का रत्न है | अतः भूखों की भांति इसे कौड़ी के मोल में मत बेच या इसे विषयभोगों में मत गंवा । तुझे भाग्योदय से धन, यौवन, सुन्दर सुन्दर स्त्री का संयोग मिला है । परन्तु तू इनमें कर में पड़ा रहा तो काल तुझे शीघ्र नष्ट कर रह जायंगे, तेरा साथ नहीं देंगे। अपने हृदय में विराजमान करो। भ्रपने मन का भ्रम जाल मिटाकर मुक्ति-लाभ करो ।
मानव-देह प्राप्त हुई है, लीन मत हो । यदि तू इन्हीं के देगा । तब तेरे ये धनादि यहीं पड़े अपने स्वामी के चरण-कमलों को
विद्यापति का भी एक स्तुति परक पद वृष्टव्य है :--
इसमें वे अपने श्रासष्य के सामने अपने हृदय के भाव व्यक्त करते हुए कहते हैं :---
"श्री कृष्ण के चरणों का आधार पाकर विद्यापति अपने प्राराध्य के सामने अपनी साधनहीनता और दीनता रख देते हैं और तब तो विद्यापति की भक्ति की पराकाष्ठा हो जाती है, जब वह कहता है कि अपने कर्मों के कारण भले ही मैं, मनुष्य, पशु, पक्षी, कीट पतंग बन्ने पर तुम्हारे कीर्तन में मति लगी रहें ।'
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वजन: शुषजम विलास, पद सं० ६६, पृ० संख्या ३४, प्रका० जिनवाणी प्रचारक कार्यालय १६१/१, हरीसन रोड कलकत्ता ।
२. हे हरिषच्चों तुझ पर नाथ । सुश्र पर परिहरि पाप पयोनिधि, पार तर फौन
उपाय
कि ये मानुस पसुपति भये जनमिए, घथवा कीट पतंग | करम-विपाक गतागत पुनपुन, मति र सुन पर संग ॥