________________
भाव पक्षीय विश्लेषण
है, बारहवें अंग के पांच भेदों (परिक्रम, सूत्रों, प्रथमानुयोग, पूर्वगत और चूलिका) में से यह प्रथमानुयोग तृतीय भेद रूप है, इसलिये द्वादशांग के अन्तर्गत ही है ।। करणानुयोग
जो थ तज्ञान लोक-प्रलोक के विभाग को, युग के परिवर्तन को और चारों गतियों के परिवर्तन को दर्पण के समान जानता है उसे करणानुयोग कहते हैं ।
पं. टोडरमल लिखते हैं:-जिसमें गुणस्थान मार्गणास्थान आदि रूप जीव का तथा कमों का पोर तीन लोक सम्बन्धी मगोल का वर्णन होता है उसे करणानुप्रोग कहते हैं ! करण शब्द के दो अर्थ हैं परिणाम और गणित के सूत्र प्रत: खगोल और भूगोल का वर्णन करने वाला तथा जीव मौर कर्म के सम्बन्ध प्रादि के निरूपक कर्म सिद्धान्त विषयक ग्रंथ करणानुयोग में लिये जाते हैं।
इसके अन्तर्गत द्वीप, समुद्र, पर्वत, नदियां, क्षेत्र एवं नगरादि के साथ सूर्य, चन्द्र, ग्रह, नक्षत्र, तारा आदि का भी वर्णन पाता है । यह ऐसा नो साहिता है. जिसमें आधुनिक ज्योतिष, निमित्त, ग्रह-गणित और भूगोल का समावेश हो जाता है । इसमें अधोलोक, मध्यलोक, उर्च लोक इन तीन लोकों का वर्णन रहता है । अधोलोक में ७ नरकों तथा उनके ४९ पटलों का वर्णन रहता है । मध्यलोक में जंबदीप तथा लवण-समुद्र प्रादि असंख्यात द्वीप समुद्रों का वर्णन रहता है। कचलोक में कल्प और कल्पातीत विमानों को बतलाकर सोलह स्वर्गों में विमानों की संख्याः इन्द्रक विमानों का प्रमाणादि, श्रेरिणजस विमानों का प्रवस्थान, दक्षिणेन्द्रों और उत्तरेन्द्रों का निवास, सामानिक आदि देवों की संख्या कल्पों में स्त्रियों के उत्पत्ति स्थान, प्रवीवार, विक्रिया अवधिज्ञान का विषय, जन्म मरण का अन्तरकाल, इन्द्रादिका उत्कृष्ट विरहकाल, वायु, लोकान्तिक देवों का स्वरूप, देवांगनामों की प्रायु, उच्लासव आहार ग्रहण का काल, गति प्रगति आदि का कथन है।
संस्थान विचय धर्मयान करणानुयोग के ग्रन्थों के अध्ययन से ही किया जाता है । कर्म प्रकृतियों के उदय मादि के समय विपाक विनय धर्मध्यान होता है अतः यह स्पष्ट है कि यह करणानुयोग सम्यकत्व व संयम का कारण है ।
१. लोकालोक विभवतेयुग परिवृतेश्चतुर्गतीनां ।
मादमिष तथा मतिरवैति करणानुयोग छ । प्राचार्य समन्तभद्र, रत्नकरंड श्रावकाचार, पथ स. ४४ पृ० स० ३३ सरल
जैन ग्रन्थ भंडार जबलपुर । २. प्राधिका ज्ञानमती: प्रवचननिर्देशिका, पृ० सं० १४३-४४ प्रका०वि० मैन
त्रिलोक शोष संस्थान, हस्तिनापुर (मेरठ) १९७७ । ३. पं. टोडरमल मोक्षमार्ग प्रकाशक पृ० सं० ३६३, किशनगढ