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कविवर बुधजन : व्यक्तित्व एवं कृतित्व कारण है । उस अनन्त संसार का छेदन करना ही प्रात्म-कर्तव्य है । इस प्रकार कवि मारम-रस में विभोर हो शरीर को पुद्गल का जामा समझकर सुगुरु की संगति मथवा कृपा से अपनी निषि पा गये ।
'घुषजन' जहां एक और कवि हैं वहीं दूसरी मोर भक्त भी हैं । भक्ति का प्रतिपादन यदि बुधजन का साध्य है तो काव्य साधन है।
बुधजन की भक्ति पद्धति की निम्नलिखित विशेषताएं हैं:(१) अनन्य भावना (२) मात्म-निवेदन परक भक्ति
बुधजन की अनन्य भावना बुधजन में अनन्य भावना पूर्ण रूप में उपलब्ध होती है। वे अपने पाराध्य के गुणों से पूर्णतया परिचित हैं पोर इमीनिये ये उन गुणों का प्राश्रय लेकर अपने उद्धार की बात करते हैं । वे अपने पाराध्य के उदारक रूप का गुणगान करते हुए "बुधजन सतसई" में कहते हैं:
वारक बानर वाध महि, प्रजन भील चंडार । जाविधि प्रभु मुखिया किया, सोही मेरी बार ॥३६।। तुम तो दीनानाथ हो, मैं हूँ दीन मनाथ । अब तो ढील न कीजिये, भलो मिल गयो साथ |४२।। और नाहि जाचं प्रभू. ये वर दीजे मोहि । जौलों शिष पहुंच नहीं, तौलों सेऊ तोहि ।।४।।
यहां 'बुधजन" अपने दुगुणों का संकेत करके अपने उद्धार की बात करते हैं। उन्होंने वानर, व्याघ्र, सपं, अंजन घोर, भील और चांडाल जैसे पातकियों का उद्धार कर दिया । इतना ही नहीं कविवर की श्रद्धा व स्नेह अपने पाराध्य देव के प्रति इतना अविच्छिन्न बन जाता है कि उसके बिना दे एक अण भी नहीं रह सकते । अपितु यह कहना चाहिए कि वे इसे एक क्षण के लिये भी खोड़ नहीं सकते। उन्हें प्रभु के चरणों की शरण इतनी प्रिय है कि वे जब तक मुक्ति लाम न हो तब सक चरणों की शरण के सिवाय अन्य कुछ वाहते ही नहीं । वे कहते हैं :
या नहीं सुरवास पुनिनर राज परिजन साथ जी ।
"बुध" याबहू तुम भक्ति भव-भय, दीजिये शिवनाथ जी ॥२॥
यही कारण है कि वे जिनेन्द्र देव को छोड़कर अन्य देव की उपासना करना हास्यास्पद मानते हैं।
इससे अधिक बढ़ अनन्य भाव की उद्घोषशा और क्या हो सकती है :
"निन्दो भावी जसकरो, नाहीं कुछ परवाह । लगन लगी जास न तजी, कीजो तुम निरवाह ।।