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कृतियों का भाषा विषयक एवं साहित्यिक अध्ययन
"प्राचीन काव्यों की भाषा वैसे ही दुरूह होती है फिर उसका उद्धरण यदि सावधानी से न छपे तो श्रयं संगति बिठाना श्रीर भी कठिन हो जाता है"। राजस्थान के क्षेत्र विशिष्ट की साहित्यिक भाषा डिंगल है। डिंगल भाषा प्राकृत और अपभ्रंश से उत्पन्न मानी गई है ।
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'प्राकुल और पभ्रंश से उद्भूत डिंगल भाषा, एक क्षेत्र विशेष की जनता और विशिष्ट वर्ग, दोनों के अभिव्यक्ति का माध्यम रही है। डिंगल भाषा शादिकालीन (प्राचीन) भाषा है तथा इसमें प्रचुर सामग्री उपलब्ध है । 22 वस्तुत: प्रदेश की साहित्यिक धाराओं में हिन्दी उर्दू, व्रज, अवधी तथा मैथिली के अतिरिक्त गिल साहित्य बारा भी अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। इसकी कई विशेषताए है। डिंगल साहित्य की परंपरा का सम्बन्ध संस्कृत साहित्य से विशेष न होकर प्राकृत तथा अपभ्रंश साहित्य धाराओं से अधिक निकट का है, फिर यह केवल उच्च वर्ग से सम्बन्धित साहित्य नहीं है बल्कि जन संपर्क में लिखा गया है। डिंगल में पद्य साहित्य के साथ-साथ गद्य साहित्य भी प्रचुर मात्रा में मिलता है। रस बुधजन के साहित्य में यों तो सभी रस यथास्थान अभिव्यंजित हुए हैं पर मुख्यता मान्तरस की है। सभी हिन्दी जैन साहित्यकारों ने अपने साहित्य में शान्त रस की धारा ही प्रमुख रूप से बहाई हैं । उनकी रचनाओं में स्वान्तः सुखाय की दृष्टि विशेष रूप से परिलक्षित होती है। उन्होंने साहित्य को कभी भी भाजीविका का साधन हिन्दी साहित्य के विकास में पर्याप्त योग दिया। उन्होंने जैन रहकर ही साहित्य सेवा की। वे कवि भी थे और भक्त भी । मक्ति के प्रतिपादन को ही उन्होंने अपना साध्य बनाया । बुधजन सतसई में उनकी भक्ति की अनन्यता यत्र-तत्र दृष्टिगोचर होती है । यथा
नहीं बनाया | उन्होंने परंपरा के अन्तर्गत
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वारक वानर बाघ यहि, श्रंजन मील मंडार | जाविधि प्रभु सुखिया किया, सो ही मेरी बार ||३६|| तुम तो दीनानाथ हो, मैं हू दीन ग्रनाथ
अब तो ढोल न कीजिये, मलो मिल गयो साथ || ४२ ॥
वीरवाणी, वर्ष ७, अंक ६, पृष्ठ १२३ - २४, जयपुर ।
विद्या भास्कर डिगल साहित्य प्रकाशकीय १६६०, ३० जगदीश प्रसाद एम०ए०, डी० फिल०, हिन्दुस्तानी एकेडेमी, उ०प्र० इलाहाबाद ।