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छह ढाला
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संदर भावना पद्य-पांचों इन्द्रिन के सज फल, चित्त निरोधि लागि शिव गैल ।
"तो' में तेरी तू कर सेस, कहा रहयो, है कोल्हू बल ॥ १-१-६ अर्थ-हे भाई ! तू पांचों इन्द्रियों के समस्त विषयों को त्याग कर, अपने मन को वश में करके, मोक्ष मार्ग में लग । तू अपने प्रात्म-स्वरूप में विहार कर । तू कोल्ह के बैल की तरह प्रशानो क्यों बन रहा है ।
मिरा भावना पद्य-तजि कषाय मन की चलचाल, च्याम्रो अपनो रूप रसाल ।
झरे करमचन्धन दुःख-दान, बहुरि प्रकाश केवल ज्ञान १-१-१० अर्थ है भाई ! त विषम कषावों और अपने मन की चंचलता भरी मादत को त्यागकर अपने प्रानन्दमयी निज स्वरूप का ध्यान कर, जिससे है। दुःख दायक कर्मबन्ध की निर्जरा हो जाय और केवल ज्ञान का प्रकाश हो ॥१०॥
लोक-भावना पछ-तेरो जनम हुषोनहि जहां, ऐसो खेतर नाहीं कहां ।
या ही जनम भूमिका रचो, चलो निकसि तो विधि से बचो ।। १-१-११
अर्थ संसार में ऐसा कोई स्थान नहीं, जहां तू ने जन्म न लिया हो । अर्थात् द्वध्य, क्षेत्र, काल, भव और भाव इन पंच परावर्तन रूप संसार में तू सदा से भटक रहा है अतः अब बुद्धिमानी इस बात में है कि इस मनुष्य जन्म में ऐसी भूमिका तैयार करो कि जिससे पुनः पुनः शरीर धारण न करना पड़े और फर्मों के चक्कर से बच सकी ॥११॥
बोषि दुर्वभ-भावना पद्य-सब व्योहार क्रिया का ज्ञान, भयो प्रनंती बार प्रधान |
निपट कटिन अपनी पहिचान, ताको पावत होत कल्याण ॥ १-१-१२
अर्थ-हे भाई ! त ने व्यवहार चारित्र के ज्ञान को ही अनंतबार प्रधानता दी परन्तु अपने शुद्धात्म स्वरूप के ज्ञान एवं पहिचान को प्रधानता नहीं दी जबकि काल्याए इसी की प्रधानता से होगा ॥१२॥
धर्म-भावना पद्य-धर्म स्वभाव भाप सरधान, धर्म न भील, नन्हान न दान । __ "बुधजन" गुरु की सीख विचार, गहौ धाम प्रातम हितकार ॥ १-१-१३ अर्थ-प्रात्मा की यथार्थं श्रद्धा ही तेरा स्वाभाविक धर्म है। संयम, स्नान,
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