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कविवर बुधजन : व्यक्तित्व एवं कृतिस्व
बाद सुख का क्रम निरन्तर चलता रहता है। चारों गतियों में से किसी भी गति में शान्ति नहीं है ॥४॥
एकस्व-भावना
पथ - धनंतकाल गति-पति दुःख लह, मो, बाकी काल श्रमंतो कह, यो ।
सदा मकेलो "चेतन" एक माह ब
१-१-१९
अर्थ- इस जीव ने चारों गतियों में रहकर, धनन्तकाल तक दुःख भोगा । इसके अतिरिक्त निगोद राशि में अनंतकाल संसार परिभ्रमरण के लिये शेष है यही विचार करना चाहिये कि मैं सदा ही चैतन्य स्वरूप प्रात्मा हूं, धकेला हूँ और जिनेन्द्रदेव ने चारों गतियों के प्रतिरिक्त निगोद पर्याय के काल को भनंत ही बताया है परन्तु वास्तविकता यह है कि यह जीव अनंत गुणयुक्त सदा से अकेला ही है ||५||
अन्यस्व-भावना
पद्म- "तू" न किसी का कोई नहीं तोय, तेरो सुख दुःख तो को होय | यातें "तोकों" तू करवार पर द्रव्यति तें मोह निवार ।। १-१-६ श्रयं तू किसी का नहीं और कोई तेरा नहीं। तू ही अपने शुभाशुभ कर्म के उदय से प्राप्त सुख दुःख का भोगता है । यतः यह निश्चय कर कि तेरा हितकारक तू ही है | अतः तू परन्द्रच्यों के प्रति ममत्व भाव का परित्याग कर ॥६॥
अशुचि-भावना
पथ-छाड़ मांस तन लिपटीचाम, रुधिर मूत मल पूरित घाम
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सो थिर न रहे खय होय, याकों तजें मिले शिवलोय ||
१-१-७
अर्थ - यह तेरी मानव वेह, हड्डी, मांस, रक्त, मूत्र, मल, मेदा, वीर्य जैसी घृणास्पद सप्तधालुओं का घर है। इसके ऊपर चमड़ी लिपटी हुई है। ऐसी प्रपवित्र बस्तुओं का घर यह मानवदेह स्थिर भी नहीं है, नष्ट हो जाती है । जो पुरुष अपने प्रारम पुरुषार्थ के द्वारा इसकी ममता को छोड़ देता है, वही मोक्ष की प्राप्ति कर सकता है ।।७ ॥ ॥
प्रास्त्रय-भावना
पद्य हित अनहित तन कुल- जनमाहि, खोटि शनि हो क्यों नाहि ।
रोग ॥ १-१-८
या पुद्गल करमन जोग, प्रन दायक सुख दुःख अर्थ- शरीर, कुटुम्बीजन, तेरा हिताहित कर सकते हैं। ऐसी खोटी मान्यता को तू छोड़ता क्यों नहीं है। इसी मिथ्याबुद्धि का निमित्त पाकर पौदगलिक कार्या वर्गणाएं कर्म रूप परिणामित हो जाती हैं जो कि सुख-दुःख रूप (रोग) का कारण बन जाती है || ८ |