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________________ ५६ कविवर बुधज : व्यक्तित्व एवं कृतित्व अन्तर न्यास, रूपक, यथा-संख्य उल्लेख तुल्य योगिता श्रादि का और उभयालंकार में संसृष्टि का प्रयोग दृष्टिगोचर होता है । शब्दालंकार (१) 'गिरि गिरि प्रति मानिक नहीं, वन-वन चंदन नाहि ' चीप्सा (२) 'सुधर सभा में यों लखें, जैसे राजत भूष' पद्य संस्था ( २०६ ) कानुप्रास ( ३ ) ' घन सम कुल सम धरम सम समय मीत वनाय । पद्य संख्या (४४६) (४) ' दुराचारि तिय कलहिनी किकर कर कठोर' पद्य सं. (२५१ ) नृत्यनुप्रास अर्थालंकार— (५) 'बक त हित उद्यम करें, जो हैं चतुर विसेखि ।' पद मं. (१५२ उपमा (६) 'सत्यदीप वाती क्षमा, सीलतेल संजोग ।' पद्म सं. (२००) रूपक (७) भला किये करि हे बुरा, दुरजन सहज सुभाय । प पायें विष देत हैं, फरणी महा दुखदाय || ( १०४ ) इष्टान्त (८) 'जैसी संगत कीजिये, तेसा हा परिनाम । तीर गछे ताके तुरत, माला तें ले नाम ।। ( ३१६) अर्थान्तरन्याय यह बात ध्यान देने की है कि उपमा, ष्टान्त भादि अलंकारों से युक्त दोहे अधिकतर पूर्ववर्ती वाक्यों से प्रभावित हैं । मौलिक नहीं । उभयालंकार - १. २. १. नीतिवान नीति न तजें, सर्व्हे भूख तिस त्रास | ज्यों हंसा मुक्ता विना, घनसर करे निवास ॥ पय सं० (३२० ) ( लाटानुप्रास, छेकानुसास, दृष्टान्त की संसृष्टा ) विधान-छन्द-शैली समग्र रचना पुस्तक दोहों में है और छन्द-शास्त्र की दृष्टि से दोहे प्रायः निर्दोष हैं । गुण-दोष-प्रसाद और माधुर्य रचना के प्रधान गुण हैं । कहीं-कहीं प्रप्रयुक्त तत्व दोष भी दृष्टिगत होता है 13 निम्नांकित दोहे में विचित्र का प्रयोग 'बुद्धिमान' के अर्थ में किया गया है, परन्तु ये सब सामान्य स्कूलन है, जिनसे सर्वथा मुक्त रहना कदाचित् किसी भी कवि के वश में नहीं । मुख्यदोष तो नीरसता है, जिनके कारण विषय की दृष्टि से उत्तम होने पर भी रचना, वृन्द सतसई के समान लोक-प्रिय न हो सकी 12 भयो वा अपमान निज, भाई नाहि विचित्र । डॉ० रामस्वरूप ऋषिकेश, हिन्दी में भीतिकाव्य का विकास, पृ० ५५६ दिल्ली पुस्तक भंडार, दिल्ली ।
SR No.090253
Book TitleKavivar Budhjan Vyaktitva Evam Krutitva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMulchand Shastri
PublisherMahavir Granth Academy Jaipur
Publication Year1986
Total Pages241
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth, Biography, & History
File Size4 MB
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