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बुधजन द्वारा निबद्ध कृतियां एवं उनका परिचय
किया गया है । इतना और ज्ञातव्य है कि {1) सतसई में प्रयुक्त अधिकांश क्रियाएं कर्तरि प्रयोग में हैं।
(२) कुछ क्रियाए' मर्मणि प्रयोग में भी पाई जाती हैं, जिनके द्वारा क्रियानों का कर्म स्पष्ट है, उनके वर्ता का उल्लेख नहीं मिलता। इसमें फारसी आदि के सद्रूप भी प्राप्त होते हैं । यथा
हुनर (२६७) माफिक (३६३) जिहाज (२६-६०) खुस्याल (२१२) बजार, हकमी (२५८} (१४०)
ऋतिपय-राजस्थानी भाषा के शब्दों के प्रयोग में भी द्रष्टव्य हैं। यथामोसर (१२) प्रवार (१२) दुखां की खान (६६) मिनख । ६४४) ओसर (१२) समझसी (३३०) खोसिलेय (२३५) पायसी (६३६) अनेक देशज शब्दों के प्रयोग पाये जाते हैं । यथा
नालरि (२२१) पाछी (२२१) बुगला (२२१) परेवा (३१५) भोत (४०५) आदि हिन्दी के तद्भव रूपों के प्रयोग भी पाये जाते हैं । यथा--
पौगुन १७८) तिया, जुर (६१) सरमस (४७०) पान (६) रतन (१५) चितामनि (१५) घरी (२०) परगट (३२) मारग (४६) चरन (५६) अलप (३०७) निरवाह (६३) इत्यादि
कतिपय अपभ्रश भाषा के शद भी प्रयुक्त हुए हैं । यथाजुद्ध (१११) जुत्त (१४३) जदपि (२८६) इत्यादि । कतिपय संस्कृत के शब्द भी द्रष्टव्य हैं । यथा
विपदा । १४७) दीनानाथ (४२) पथ्यापथ्य (१४२) भतिथिदान (१७६) एक मात सुतभ्रात ११८०) विबुध (२६६) क्षुधा (२५) तुषा (२५) भवार्णव (७४) इत्यादि एकाधस्थलपर 'एवजुत' (एव--- जुत) जैसे रूप भी मिलते हैं, जिनमें अरबीहिन्दी का मिश्रण लक्षित होता है | भाषा में प्रायः छोटे-छोटे प्रथालित समस्त रूपों का ही प्रयोग किया गया है, परन्तु कहीं-कहीं प्रत्युग्रचित (१३६) दयाभिलाष (१३३) जैसे शब्दों के प्रयोग भी है, जो उनके संस्कृत ज्ञान को संसूचित करते हैं। कहावतों तथा मुहावरों के प्रयोग भी दिखाई देते हैं । यथा-तेता पांव पसारिये जेती लांबी सौर (२६१) डील न कीजिए (४२) पर्यो रहूं तुम चरनतट (४३) काटे पाय पहार (३३६) मेलों क्यों न कपूर में हींग न होय मुवास (३४२) पोलो घट सूघो सदा (३४१) सपंन दूध पिलाइये विष ही के दातार (३८१) जीने से मरना भला (४०३) इत्यादि। प्रलंकार योजना--
सतसई में तीनों प्रकार के अलंकार दिखाई देते हैं । शब्दालंकारों में छेकानप्रास, बृत्यानुप्रास, वीप्सा, लाटानुप्रास प्रादि फा तथा अर्थालंकारों में उपमा, इष्टान्त,