________________
बुधजन सतसई
१९३
जग तो दीनानाथ हो, मैं हूँ दीन मनाथ । प्रय तो दीन न कीजिये, भली मिन गयो साथ ॥४२।। बार बार विनती कर, मन वध तन ते सोहि । परयो रहू तुम चरन तट, सो बुधि दीजे मोहि ॥४३॥ और नाहि जाचू प्रभु ये घर दीजे मोहि । जोलौं सिब पहचू नहीं, तोलों सेऊ' सोहि ।।।४।। या संसार प्रसार में, तुम ही देखे सार । और सकल राखें पकरि, प्राप निकासन हार !॥४५॥ या भववन प्रति सधन में, मारग दीखे नाहि । तुम किरपा ऐसी करी, भास गयो मन महि ।।४६।। जे तुम मारग में लगे, सुखी भये से जीव । जिन मारग लीया नहीं, तीन दुख सीन सदीव ।।४७।। मौर सकल स्वारथ-सगे, बिना स्वारथ ही पाप । पाप मिटावत पाप हो, प्रौर बढ़ावत पाप ।।४॥ या प्रभुत समता प्रगट, माप माहिं भगवान । निंदक सहर्ष दुस लहै, बंदक लहै कल्यान ॥४॥ तुम वानी जानी जिका, प्रानी मानी होय । सुर प्ररचं संच सुभग, कलमष कांटे धोय ॥५०॥ तुम घ्यानी प्रानी भये, सबमें मानी होय । फुलि ज्ञानी ऐसा बने, निरख लेत सब लोय ॥५१॥ तुम दरसक देखे सकल, पूजक पूजें लोग। सेवं तिहि सेवे अमर, मिले सुरग के भोग ॥५२॥ ज्यों पारसतें मिलत ही, करि ले भाप समान । स्यों तुम प्रपने भक्त कों, करि हो पाप प्रमान ॥५३॥ जैसा भाव करे तिसा, तुम से फल मिलि जाय । तैसा पनि निरखं जिसा, सीसा में दरसाय ।।५४|| जम प्रग्यान जाने नहीं, तर दुख लखो अतीय । अब जाने माने हिये, सुखी भयो लखि जीव ।।५।। ऐसे तो कहत्त न बने, मो उर निवसो पाय । ताते मोकू चरन तट, लीचे माप बसाय ।।६।।
.
.......
.
.