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कविवर बुधजन : व्यक्तित्व एवं कृतित्व
हानिबाई
श्रारंम्पो दूर करे, धीर सलज सुन्दर र येते गुन नरमाह ।। ११६ ।। पराक्रमी मतिमान | सो निरमै
बलवान ॥ १२० ॥
तो रह जाय ।। १२५ ।।
प्रति
बोलें ज्या मान ।
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प्रतिमति करी सयान ।। १२६ ।।
उद्यम साहस धीरता, एते गुन जा पुरुष मैं, रोगी भोगी पालसी, बहमी हठी ये गुन दारिदवानके, सदा रहत असी घास विचारकं, छतो दय छिटकाय । श्रछती मिली हाथ नाहि, तब कोरे रह जाय ।। १२२ ।। विनय भक्ति कर सबलकी, निवल गोर सम भाग | हिदू हाय जीना भला, बंर सदा दुखवाय ।। १२३ ।। नदीतीर को रूखरा, करि बिनु अंकुश नार । राजामन्त्री रहित बिगरत लगे न बार ।। १२४ ॥ महाराज महावृक्षकी, सुखदा शीतल खाय । सेवत फल लाभ न तो, छाया श्रति स्वानंत रोग ह्व, प्रति सोयें धनहानि ह्व झूठ कपट कायर अधिक साहस चंचल भ ेग | गान सलज प्रारंभनिपुन, तिथ न तुपति रतिरंग ॥ १२७॥ दुगु क्षुषा लज चौगुनी, भ्रष्ट गुर्ती विवसाय | काम व गुनो नारिकै, वरन्यौ सहज सुभाय ॥ १२८ ॥ पतिचितहित अनुगामिनी, सलज सील कुलपाल । या लक्षमी जा वर बसें सो है सदा निहाल ।। १२६ ।। क्रूर कुरूपा कलहिनी, करकस बैन कठोर | ऐसी भूतनि भौगिवाँ बसियो नरकनि घर ।। १३०।। वरज्ये कुलकी बालिका, रूप कुरूप न जीय | रूपी प्रकुली पराती, हीन कहै सब कोय ॥ १३१ ॥ विपति वीर रन विक्रमी, सम्पति क्षमा दयाल | कलाकुशल कोविद कबी, न्याय नीति भूपाल ।। १३२ ।। सांच झूठ भाषं सुहित हिंसा दयाभिलाख । प्रति आमद प्रति व्यय करें ये राजनिकी साख ।। १३३ ।।
सुजन सुखी दुरजम डरें करें, न्याय प्रजा पलें पख ना करें, श्रेष्ठ नृपति
अज्ञान ।
भयवान ।। १२१।।
घन संघ । गुन पंच ॥ १३४॥