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कविवर बुधजन : व्यक्तित्व एवं कृतित्व
एक और उदाहरण देस्निये :
"भजन बिन यों ही जनम गमायो ।। टेक ।। पानी पेल्यां पाल' न बांधी, फिर पीछे पछतायो । रामा मोह भये दिन खोवत, पाशा पाश बंधायो 11 जपतप संजम दान न दीनो, मानुष जनम हरायो ।।1
तमिल भाषा के प्रमुख महाकाव्यों में रो "चिंतामणि" तथा "सोलापदिकरम्" गैन लेखकों की कृतियां हैं। प्रसिद्ध निलदियर" का मूल भी जैन है । कहाकवि राहुल सांकृत्यायन की खोज के अनुसार भारत की राष्ट्रभाषा हिन्दी में प्राप्त सर्वप्रथम प्राचीन ग्रंथ "स्वयंभू रामायण" है जो स्वयंभू नामक जेन कवि की रचना है ।
कविवर बनारसीदास जैन द्वारा विक्रम की १७वीं शताब्दी में लिखित छन्दोबद्ध "भात्मकथा" हिन्दी साहित्य की प्रथम आत्मकथा है, जो आज भी महत्त्व६) पूर्ण मानी जाती है ।
हिन्दी में जैन लेखकों ने विविध छन्द व अलंकारयुक्त रचनाई करके साहित्य की समृद्धि में बड़ा योग दिया है। जैन धर्म में त्याग सथा ग्रात्म-कल्याणा का विशेष महत्त्व होने से उनकी रचनायों में इन बातों का पर्याप्त प्रभाव दृष्टिगोचर होता है। यद्यपि कवियों एवं लेखकों ने धर्म प्रचारार्थ रचनाएं की हैं, तथापि हिन्दी साहित्य के विकास में उनका महत्त्वपूर्ण योगदान है।
अपनश से हिन्दी का विकास होने से विकास की प्रथमावस्था में भी उसमें जैन सिद्धान्तों का समावेश हुमा । भाषा-विज्ञान की दृष्टि से एवं हिन्दी साहित्य के प्रारंभिक विकास की दृष्टि से जैन साहित्य का बहुत महत्त्व है। प्राचीन हिन्दी का जो ऐतिहासिक रूप हमें उपलब्ध है, वह भी जैन विद्वानों की ही देन है। जैन विद्वानों ने लोक रचि का समादर करते हुए कुछ ऐसी रचनाएं मानव-समाज को दी हैं, जिनका सांस्कृतिक रष्टि से बड़ा महत्त्व है।
हिन्दी जन साहित्य में कुछ ऐसी सर्वोपयोगी साहित्यिक रचनाएं हैं, जो ' संसार के साहित्य में बेजोड़ हैं और उनके कारण लोक-साहित्य में हिन्दी का मस्तक ऊंचा हुआ है।
सारांश यह है कि "जन साहित्य के प्रध्ययन के बिना हिन्दी साहित्य का अध्ययन अपूर्ण रहेगा। काव्य के दोनों पक्षों में जैन कवियों ने अपनी काव्य प्रतिभा दिखाई है। जैन साहित्य संपूर्ण रूप से शान्त-रस में लिखा गया है। हिन्दी गद्य • के निर्माण का प्रारम्भ भी इसी युग से माना जाता है। गछ चितामणि तिलकमंजरी आदि सुन्दर गद्य रचनाएं इस काल में लिखी गई ।"
१. बुधजन : बुधजम विलास, पद्य क्रमांक ६३, जिनवाणी प्रचारक कार्या.,
१६११ हरीसन रोड, कलकत्ता ।. २. अहिंसावारणी : वर्ष ह. अंक ६, जून १६५६ ।