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युग और परिस्थितियां
क्रिया पदों में सामान्य-सा परिवर्तन करने की मावश्यकता है। इस सामान्य से परियतन से वह खड़ी बोली का हिन्दी का) शुद्ध रूप प्रतीत होने लगता है ।
जिस हिन्दी भाषा का मान प्रयोग करने में जमा गन्न भाग है। अपभ्रश भाषा के अध्ययन के बिना हम हिन्दी भाषा एवं तत्कालीन राजनैतिक, सामाजिक एवं ऐतिहासिक विकास क्रम को समझ ही नहीं सकते । स्मरणीय है कि अधिकतर अपनश साहित्य जैन साहित्य है। जैन धर्मोपदेष्टा जन-जन तक धार्मिक विचारधारा को लोक भाषा में पहुंचाना चाहते थे। उस काल में प्रापभ्रश भाषा लोक भाषा थी, प्रतः उन्होंने इस भाषा को धर्मोपदेश के लिए सर्वाधिक उपयुक्त माना।
अपनश भाषा के सम्बन्ध में डॉ. वासुदेव धारण अग्रवास लिखते हैं :---
"हिन्दी की कायापारा का मूल विकास सोलह पाने अपभ्रश काव्यधारा में अन्तनिहित है, अतः हिन्दी साहित्य के ऐतिहासिक क्षेत्र में अपना भाषा को सम्मिलित किये बिना हिन्दी का विकास समझ में नाना असम्भव है। भाषा, भाव शली तीनों दृष्टियों से अपनश भाषा का साहित्य हिन्दी भाषा का अभिन्न अंग समझा जाना चाहिये।"
दंडी ने अपने काव्यादर्श में इस बात का उल्लेख किया है कि यह अपना भाषा भाभीर श्रादिकों की बोली है ।
'मामीरादिक गिर: कानपभ्रश इतिस्मताः" इस उल्लेख से यह स्पष्ट हो जाता है कि यह अपनपा भाषा प्राभीर प्रादिकों की बोली है और इसमें काव्यरचना भी होती थी।
प्रगना में काव्य-रचना लगभग ७वीं शताब्दी से प्रारम्भ हुई। ७वीं से ११वीं शताब्दी तक अपभ्रश भाषा प्रचलित रहीं एवं उसमें साहित्य-रचना होती रही। जैन साहित्यकारों ने भारतीय प्रादेशिक भाषानों में साहित्यिक रचनाएं की हैं क्योंकि सामाजिक, राजनैतिक, धार्मिक और ऐतिहासिक परिवर्तन की प्रक्रिमा को उन्होंने सदन स्वीकार किया था । बंगला, मराठी, गुजराती, तमिल, तेलुगु, मलयालम प्रादि प्रादेशिक भापात्रों में लिखा गया जैन साहित्य दस बात का प्रमाण है ।
कैविधर बुधजन की भाषा पर राजस्थानी का प्रभाव है। उनके पदों में । राजस्थानी प्रवाह और प्रभाव दोनों ही विद्यमान है। एक उदाहरण देखिये :
'मैं देखा आतमरामा ।। टेक ॥ रूप फरस रस गंध तें न्यारा, दरस ज्ञान गुनधामा । नित्व निरंजन जाके नाहीं, क्रोषलोभ मद कामा ॥1
शुधजन : बुषजन विलास, पच क्रमांक ६१, जिनवारणी प्रचारक कार्या, १६११ हरीसन रोड, कलकत्ता ।