SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 102
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Tr कृतियों का भाषा विषयक एवं साहित्यिक अध्ययन नहीं - संज्ञा, विशेषण और सर्वनाम भी प्रकारान्त प्रयुक्त हुए हैं। सर्वनाम -साधित रूप यथा-जाकों, वाकों, लाकों, काकों इत्यादि । ७६ 1 शब्द कोष-पद संग्रह की शब्दावली बड़ी ही विलक्षण और महत्वपूर चुषजन ने अपने की लोकभाषा कोलों में स्थान दिया है । परिणामतः अनेक देशी शब्दों का स्वाभाविक प्रयोग सर्वत्र दिखलाई पड़ता है । यथा-लेज (बु. स. प. सं. १०८) मेती (४७३) नातरि (२२१) बुगला (२२१) परवा (३१५) वायुका (१६२) लूंग (६५) वाय (६६) विज (६५) पदे (७) डोलना (४) इत्यादि । कवि की रचनाओंों में सर्वाधिक संख्या तद्भव शब्दों को है जो नि परिवर्तन के बाद बहुत ही श्रुति मधुर और आकर्षक रूप ग्रहण कर लेते हैं । वे संस्कृत के ज्ञाता थे। उनकी रचनाओं में संस्कृत के प्रनेक रूप प्राप्त होते हैं । यथा चित्रकार (६९) वारि (६८) सुयश (६७) कलुषित (६६) निरंतर (६६) परिवर्तन (६४) कर्माश्रय (६४) पल्लव (६१) यदि | (२) वस्तु पक्षीय विश्लेषण :-- भारतवर्ष प्रति प्राचीन काल से प्रध्यात्म विद्या की लीला भूमि रहा है । अपनी आषि दैखिक एवं श्राषि भौतिक संमृद्धि के साथ उसके मनीषी साथकों ने अध्यात्म क्षेत्र में जिस चिरंतन सत्य का साक्षात्कार किया उसकी भास्वर रमि माला से विश्व का प्रत्येक भू-भाग प्रालोकित है । भारतीय साहित्य और इतिहास का अध्ययन इस बात का साक्षी है कि आध्यात्मिक गवेषणा और उसका सम्यक् श्राचरण ही उसके सत्य शोधी पृथ्वी पुत्रों के जीवन का एक मात्र अभिलषित लक्ष्य रहा है । इसी लौक मंगलकारिणी माध्यात्मिक उत्क्रान्ति के द्वारा भारत ने चिरकाल से विश्व का नेतृत्व किया और इसी की संजीवनी शक्ति से प्रनुप्राणित होकर श्राज भी उसकी वैदेशिक नीति विश्व को विस्मय विमुग्ध करती हुई विजयिनी हो रही है । जैन परंपरा में अध्यात्म-विधा की गरिमा का यथेष्ट गान जैन कवियों ने किया है | अध्यात्म में आत्म-विवृद्धि का प्रतिमान प्रस्तुत किया जाता है, क्योंकि मनुष्य जन्म का मिलना अत्यन्त दुर्लभ है । यह जीव अनंत काल तक चौरासी लाख योनियों में जन्म-मरण करता है और बड़ी कठिनाई से मनुष्य जन्म का लाभ कर पाता है । इसके लिये उसे श्रविराम साधना करनी पड़ती है । वह अपने अन्तर्मल को स्वच्छ करता है और आत्म शुद्धि को एक सौ में पहुंचकर मनुष्य भव हो प्राप्त करता है । दूसरे शब्दों में मनुष्य भव की प्राप्ति एक सीमा तक आत्म-विशुद्धि का १, जैन, डा० राजकुमार अध्यासन पत्रावली, पृ० सं० १ तृतीय संस्करण १६६५, भारतीय ज्ञानपीठ काशी प्रकाशन ।
SR No.090253
Book TitleKavivar Budhjan Vyaktitva Evam Krutitva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMulchand Shastri
PublisherMahavir Granth Academy Jaipur
Publication Year1986
Total Pages241
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth, Biography, & History
File Size4 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy