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कविवर बुधजन : व्यक्किल एवं कृतित्व
परिणाम है जो इस बात को सूचित करता है कि यह जीव अब ऐसी स्थिति में है कि प्रयत्न करने पर सस्मिना कर्मबंधन से मुक्त होकर शाश्वत सुख प्राप्त कर सकता है, परन्तु ज्योंही इसे मनुष्य भव मिलता है वह इसे प्राप्त करने के लिये की गई मपनी गंमीर साधना को एकदम मुल जाता है भौर उन असंख्य योनियों में भोगे हुए अनंस पीडामों के पुज को। फल यह होता है कि यह जीव मनुष्य होकर भी प्रज्ञानी होकर भूल जाता है भ्रमश प्रमानधीय कार्य करने लग जाता है और अपनी साधना से पतित होकर पुन: उसी पीड़ा पयोधि में गोते लगाना प्रारंभ कर देता है।
मनुष्य के लिये इससे अधिक लज्जा एवं करुणाजनक बात और क्या हो सकती है कि वह अपनी अनंत साधना से प्राप्त की गई चितामणि सा दुसंभ वस्तु को यों ही खो देता है और फिर दीन-हीन बनकर रोने-सिसकने लगता है। मनुष्य के पतन की यह चरम सीमा है। कविवर बुधजन ऐसे विवेक-विकल मानव को ही सम्बोधित करते हुए कहते हैं :
'नर भव पाम फेरि दुःख भरना, ऐसा काज न करना हो ।'
हे प्रात्मन् ! तुम ऐसा काम कमी न करना जिससे मनुष्य मव प्राप्त करके मी फिर से तुम्हें दुःख भोगना पड़े। कविवर बुधजन की दृष्टि में कर्म बन्धन ही संसार के दुःख जाल का कारण है, जो ममत्व भाव से और भी बढ़ होता जाता है, इसलिये वे कितने स्पष्ट एवं सरल शब्दों में मनुष्य को मतलब की बात बतला
'नाहक ममस ठानि पुद्गल सौं, फरम जाल क्यों परना हो ।
प्रात्मन् ! तुम पुद्गल-परवस्तु से (जो अपनी नहीं है) ममत्व जोड़ कर ध्यर्थ क्यों कर्म चक्र के बन्धन में पड़ते हो? तुम ऐसा काम कभी न करना जिससे मनुष्य भव प्राप्त करके भी तुम्हें फिर से दुःख भोगना पड़े। कविवर प्रात्म-स्वभाव एवं पर वस्तु के स्वरूप में अन्तर दिखलाते हुए कितने सुन्दर ढंग से जीव को भेदविज्ञान की ओर प्रेरित करते हुए कर्त्तव्य मार्ग पर मारूढ़ रहने के लिये गुरु का उपदेश बता रहे हैं :
यह तो जड़, तू जान प्ररूपी, तिल तुष ज्यों गुरु वरना हो ।
राग दोष तजि, भज समता को, कर्म साथ के हरना हो ।
हे पात्मन् ! यह पुद्गल परवस्तु है । जड़ है, तुम प्ररूपी हो और ज्ञान-मय हो । तुम दोनों का तिल-तुष के समान सम्बन्ध है। जिस प्रकार तिलों से तुष को प्रथक् कर देने पर शुद्ध तेल मात्र अवशेष रह जाता है, उसी प्रकार कर्ममल से विमुक्त होने पर प्रात्मा भी शुद्ध स्वरूप में प्रदीप्त हो उठता है इसलिये मात्मन् ! तुम राम द्वेष को छोड़कर अपने कर्म बंधन को तोड़ दो और अपने भीतर संपूर्ण समभाव को (मोद्-राग-द्वेष रहित अवस्था) को जागृत करो।