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कविवर बुधजन : व्यक्तित्व एवं कृतित्व
नौ सुलभारंभ रचि, विगँ नाहि चित धीर । सिंह उठना मुरै, करें पराक्रम वीर ।। १५१ ।। इन्द्री कोलके, टे काल वरि कवत हित उद्यम करें, जे हैं चतुर विसेखि ।। १५२३ । प्रातः उठि रिपुर्तलरे वांटे बंधुविभाग | रमनि रमन में प्रीति प्रति, कुरकट ज्यों अनुराग । १५३ ।।
गुड़ मईथुन च चपल संग्रह सजे निधान ।
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विसासी परमादस्त वायस ज्यौं मतियान ।। १५४ ।। बहुभ्यासी संतोषजुत, निद्रा स्थलप सचेत । रन प्रवीन मन स्वान ज्यौं, चितवत स्वामी हेत ।। १५५ ।।
यह भार यो भादर्थी, सीत उष्ण क्षत देह । सदा सन्तोषी चतुर नर, ये रासब गुन लेह ॥ १५६ ॥ टोटा लाभ सन्तात मन, घरमै हीन चरित्र भयो कदा अपमान निज भाषे नाहिं विचित्र ।। १५७ ॥
कोविंद रहे सन्तोष विह, भोजन धन निज दार ।
नाही तुपति लगार ।। १५८६ ।। करत हार ब्यौहार । त्याग लाज सुधार ॥ १५६ ॥ सुन्दर जुग भरतार |
दोय विप्रमहि होम पुनि मंत्रि नृप मसलत करत जाते होत बिगार ।। १६० ।।
पटनदान तप करनमें, विद्या संग्रह धान घन अपन प्रयोजन साधते
वारि अनि तिय मूढ़ जन, सर्प नपूति रुज देव | अंत प्रान नायें तुरन्त मजतन करते संव || १६१ ॥
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गज प्रकुण हय चाबुका, दुष्ट खड़ग गहि पान | लकरीतं श्रङ्गीन बसि राखें बुद्धिवान ।। १६२ ।। बसि करि लोभी देय धन, मानीको करि जोरि । मूरख जन विकथा वचन, पंडित सांच निहोरि ।। १६३ ।। भूपति वसि हे अनुग वन, जोवल तन धन नार । ब्राह्मण वसि बंदतें मिष्ठवचन संसार ।। १६४ ।।
अधिक सरलता सुखद नहीं, देखो विपिन निहार । सीधे विरवा कटि गये, बाकं खरे हजार ।।१६।।
जो सपूत धनवान जो धनजुत हो विद्वान |
सब बांधव धनवान के, सरव मीस धनवान || १६६ ।।