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तुलनात्मक अध्ययन
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कवि ने अध्यात्मिक शान्ति प्राप्त करने के लिये कोमलकान्त पदावली मैं अपनी कमनीय अनुभूतियों को मामिक अभिव्यंजना की है । कविवर वनारसीदास ने 'चेतन तु तिहुँ काल अकेला' कहकर पदों में अनुभूति की जंसी अभिव्यंजना की है, वैसी ही "बुरजन" की गौतियों में उपलब्ध है । उनके पदों में प्रदर्शन की प्रवृत्ति की प्रधानता है । शब्द सौंदर्य और शब्द-संगीत भी सभी पदों में सुनाई पड़ता है ।
भजन और पद रखने में बुधजन का महत्वपूर्ण स्थान है । इनके पदों में अनुभूति की तीव्रता, लयात्मक संवेदन शीलता और समाहित भावना का पूरा प्रस्तित्व विद्यमान है । आत्म शोधन के प्रति जो जागरूकता उनमें है, वह कम कवियों में उपलब्ध होगी । कवि के विचारों की कल्पना और आत्मानुभूति की प्रेरणा पाठकों के समक्ष ऐसा चित्र उपस्थित करती है, जिससे पाठक अनुभूति में लीन हुए विना नहीं रह
सकता ।
ता यह है कि उनकी अनुभूति में गहराई है, प्रबलवेग नहीं । अतः उनके पद पाठकों को डूबने का अवसर देते हैं, बहने का नहीं । संसार रूपी मरुभूमि की वासना रूपी बालुका से तप्त कवि, शान्ति चाहता है, वह अनुभव करता है कि मृत्यु का सम्बन्ध जीवन के साथ है। जीवन की प्रकृति मृत्यु है। मृत्यु हमारे सिर पर सदा विद्यमान है। अतः प्रतिक्षण प्रत्येक व्यक्ति को सतर्क रहना चाहिये। इस विषय में कवि गुनगुनाता हुआ कहता है
काल अचानक ही ले जाएगा, गाफिल होकर सहना क्या रे ॥ १ ॥ छिनहू तो नाहि बचावे, तो सुमरन का रखना क्या रे ||२|| रंचक स्वाद करन के काजे, नरकन में दुःख भरना क्या रे || ३॥
कुल जन, पथिक जनन के काजे, नरकन में दुख भरना क्या रे ॥४॥ श्रात्म-दर्शन हो जाने पर कवि ने श्रात्मा का विश्लेषण एक भावुक के नाते बड़ा ही सरस और रमणीय किया है
"मैं देखा श्रातमरामा "
रूप-फरस रस गंध तें न्यारा, दरस ज्ञान-गुन घामा | नित्य निरंजन जाके नाहीं, क्रोध लोभ -मद-कामा ॥ १ ॥५ भूख-प्यास, सुख-दुःख नहिं जाके, नाहीं बनपुर ग्रामा । नहि साहब नहि चाकर भाई, नहीं तात नहि भामा ||२|| भूल अनादि थको जग भटकत, ले पुद्गल का जामा |
बुधजनः हिन्दी पद संग्रह, पृ० १६४, संपा० ॐ० कस्तूरचन्द कासलीवाल, महावीर भवन, जयपुर, प्र० संस्करण, मई १९६५ ।