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तुलनात्मक अध्ययन
मेरे अवगुन जिन गिनो, मैं औगुन को धाम । पतित उद्धारक प्राप हो, को पतित को काम ||
(बुधजन) प्रमु मेरे अवगुन चित न गिनो।। समदशी है नाम तिहारो, चाहो तो पार करो ।।
(सूरदास) अत: यह स्पष्ट है कि बिवर बुधजन सूरदास की ही भांति सहृदय थ, भक थे और उनके पद गेय थे। उन्होंने भी भाव-विभोर होकर सगुण निगुग के गीत गाये हैं । यद्यपि सूरदास व बुधजन दोनो ही कवियों ने दास्य-भाव की भक्ति की है तथापि दोनों के दास्य भाव में अन्तर है । सूरदास के प्राराध्य देव ग्रानी कृपा से भक्त को अपने समान बनाने वाले हैं। वे जब चाहेंगे तभी भक्त वा उद्धार हो सकेगा। दूसरे शब्दों में मूर के प्रभु ही कर्ता हैं । वे ही भक्त को पार-गाने वाले हैं, परन्तु कविवर बुधजन के प्रभु कर्ता-धर्ता नहीं हैं । उन्होंने भगवान की भक्ति करने को प्रेरणा तो केवल इसलिये दी है कि बीतराग के गुणों की स्वीकृति के साथ वीतराग बनने का लक्ष्य प्रभास्त हो । क्योंकि भक्त स्वयं सोऽहं की अनुभूति करना चाहता है। अतएव व्यवहार से भक्ति के माध्यम से वह साध्य की प्राप्ति का लक्ष्य निर्धारित करता है । इस लक्ष्य निर्धारण में अपने अवगुण-दोषों का चिलन करना और वीतरागता स्वरूप त्रीलगग प्रमु का महात्म्य प्रकट करना स्वाभाविक है । अतएर लौकिक व्यवहार से यह कहा जाता है कि हे प्रभो ! पाप पतितों के उद्धारक हैं। श्राप ही संसार रूपी समुद्र से मेरी जीवन-नौका को पार लगाने वाले हैं । यथार्थ में प्राणी ही अपने पु:षार्थ से अपने ही भीतर विराजमान परमात्म शक्ति को व्यक्त कर परमात्मा बनता है, किन्तु भक्ति के प्रावेश में अपने प्राराष्य के महत्व को बढ़ाचढ़ा कर कहता हुअा, उसे ही सर्वश्रेष्ठ बताता द्वमा उपचार से इस प्रकार का वर्णन करता है। ६. संत काश्य परम्परा में बुधजन
__"संत शब्द का प्रयोग अनेक अर्थों में अनेक विद्वानों ने किया है। कुछ लोग "संत" का अर्थ करते हैं-बुद्धिमान, पवित्रारमा, सज्जन, परोपकारी, सदाचारी व्यक्ति । कुछ लोग संत शब्द को शान्त का रूपान्तर मानते हैं और उनकी निरुक्ति निम्न प्रकार करते हैं :
___"शं-सुखं, ब्रह्मानन्दात्मकं विद्यते यस्य" अर्थात् जिसे ब्रह्मानन्द्र की प्राप्ति हो गई है वह संत है। यह शब्द मूलतः सन् शब्द का बहुवचन है। जन् पाद प्रस् (मुवि) अस् (होना) घातु से बने हुए "सत्" का पुल्लिग रूप है जो शत प्रत्यय लगाकर प्रस्तुत किया गया है अतः इसका अर्थ हुआ होने वाला या रहने वाला ।