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जीवन परिचय
सांगानेर जा बसे, वहां भी जब जीवन-निर्वाह में कठिनाई होने लगी, तो इनके बाबा पूरनमलजी जयपुर पाकर रहने लगे। इनके पिता का नाम निहालचन्द जी था। धार्मिक प्रवृत्तिमय दैनिक षटकर्म प्रापकी नित्यचर्या के विशेष भग थे। वे पवित्र-जीवन निर्वाह करने में दत्तचित्त रहते थे। इन्हीं के घर कवि ने संवत् १८२० के पास-पास जन्म लिया ।।
“ीशनकाल व्यतीत होने पर, विद्याध्ययन के लिए आपने गुरुचरणों का प्राश्रय लिया । आपके विद्यागुरु पं. मांगीलालजी ने आपको बड़ी ही तत्परता से पटाया ।"1
"बुधजन" प्रत्युत्पन्न मति थे। अतः अल्प समय में ही उन्होंने पर्याप्त ज्ञान प्राप्त कर लिया । उन दिनों प्राज जैसे विश्वविद्यालय नहीं थे । शिक्षा का विशेष प्रचार नहीं था । संलियों के माध्यम से ही विद्याध्ययन करने की परम्परा थी। कविवर बुधजन का अधिकांश जीवन ढूढार प्रदेश में बीता। पवित्र जीवन-निर्वाह के लिए दीवान अमरचन्दजी के यहां प्रधान मुनीम के पद पर कार्य करते थे । ये अपने पिता की तृतीय संतान थे ।
प्राजीविका संचालन हेतु उन्होंने और क्या किया इसका उल्लेख कहीं से भी प्राप्त नहीं हो सका । पं. टोडरमलजी ने जिस तेरापंथ परम्परा को सुन बनाया, बुधजन भी उसी परम्परा के प्रबल समर्थक थे।
प्रयत्न करने पर भी कवि की जन्म व मुत्यु तिथि का प्रामाणिक परिचय प्राप्त न हो सका। उनके जन्म स्थान व वंश-परम्परा का भी यथेष्ट परिचय प्राप्त ही रहा । संतान पक्ष एवं पारिवारिक जीवन के सम्बन्ध में प्रयत्न करने पर भी [विशेष जानकारी प्राप्त न हो सकी । कवि की रचनाएं ही उनका वास्तविक परिचय है। उन्होंने अपनी रचनामों में मां शारदा को अश्लील, भौतिक शृगार की बातों से कभी कलंकित नहीं किया ।
सुना जाता है कि कवि के जीवनकाल में जयपुर में १०० जैन मन्दिर थे । उनमें एक शांति जिनेश का मन्दिर बड़े मंदिर के नाम से प्रसिद्ध था। वहां तेरापंथ की अध्यात्म-शैली चलती थी अर्थात् यहां प्रतिदिन गोष्ठी होती थी। उसमें अध्यात्मचर्चा और पठन-पाठन ही प्रमुख था । गोष्ठी में नाटकत्रय सदंव पढ़े जाते थे। उनके अतिरिक्त और किसी ग्रंथ का पठन-पाठन नहीं होता था। नाटकत्रय प्राज भी अध्यात्म के प्रारस हैं । पठन-पाठन मा यह कम प्रातः और संध्या दोनों समय चलता था। परिणाम यह हुया कि श्रोता तत्त्वज्ञान के जानकार हो गये।
१. कवियर बुधजन : तस्वार्थयोष की भूमिका प्रकाशन कन्हैयालाल गंगवाल,
सर्राफा बाजार, लाकर 1 २. अनेकांत वर्ष १६, किरण ६, पृ० ३५३, फरवरी १९६७, वीर सेवा मंदिर,
दरियागंण, दिल्ली।