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कविवर बुधजन : व्यक्तित्व एवं कृतित्व मदिरात मदमत्त हूं, मदत होत प्रज्ञान । ज्ञान विना सुत मातकौं, कहै भामिनी भान ॥६८१।। गान तान ले मानके, हरे ज्ञान धन प्रान । सुरापान प्लखानों, गनिका रचत कुध्यान ॥६८२।। तिन ला बाहै न धन, नागे कांगे जान । नाहक क्यों मार इन्हें सब जिय ग्राम समान ॥६८३।। नप हर मह जनम, खंडे धर्म ज्ञान । कुल लाज भाजै हितू, विसन दुखांकी खान ।।६८४।। बड़े सीख' वकबौं करें, विसनी ले न विवेक । जंस वासन चीकना, बूद न लाग एक ॥६५॥ मार लोभ पुचकारत, विसनी तर्ज न फैल ।
से टट्ट अटकला, चले न सीधी गैस ।।६८६।। उपरले मनत करें, दिसनी अन कुलकाज । बब्बा सुरत भूल नज्यौं, काज करत रिखि राज 11६८७।। विसन हलाहलत अधिक, क्योंकर सेल प्रज्ञान । यिसन बिगाडै दोय भव, जहर हरै अब प्रान ||८|| नरभव कारन मुक्त झा, चाहत इन्द्र फनिद । ताको खोवत विसनमै, सो निदन में निंद ।।६।। कोनै पाप पहारसे, कोटि जनममें भूर । अपना अनुभव बनसम, कर डारै धकधूर ॥६९०।। हितकरनी धरनी सुजस, मयहरनी सुखकार । सरनी भवदधिको दया, बरनी षटमत सार ।। ६६१।। दया करत सौतास सम, गुरु नुप भात समान । दयारहित ज हिंसकी, हरि महि अगनि प्रमान ।। ६६२।। पंथ सनातन चालजे, कहनं हितमित बैन । अपना इष्ट न छोड़ने, सह्तं चैन प्रचन ।।६६३।। जैसो गाढ़ी विसन में तसो ब्रह्म सौं होय । जनम जनम के अप किये पल मैं नाखं घोय ॥६६॥
इति विराग भावना