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बुधजन सतसई
कवि प्रशस्ति
मधि नायक सिरपंच ज्यों जंपुर मधिद्वार |
नृप जयसिंह सुरिंद्र तहृां पिरजाको हितकार ।। ६६५॥ कोनें बुधजन सास, सुगन सुभाषित हैर । सुनत पढ़त समझैं सरव, हरे कुबुद्धिका फेर ६६६।। संवत ठारास प्रसी, एक वरस घाट |
जंठ कृष्ण रवि घष्टमी, हुब सतसई पाठ ।।६६७।। पुन्य हरन रिपु-कष्टक, पुन्य हरत रुज व्याधि ।
पुन्य करत संसार सुख, पुन्य निरंतर साषि ।।६६८ ।। भूख सही दारिद सही सही लोक अपकार | निद काम तुम मति करो, महुँ ग्रंथको सार ।।६६६॥ ग्राम नगर गढ़ देशमै राज प्रजा के गैह्र । पुन्य घरम होवौ करें, मंगल रहो श्रमुँह ॥ ७०० ॥ ना काहूकी प्रेरना, ना काहू को भास ।
अपनी मति सीखी करन, वरन्यो चरनविलास ||७०१ । इति बुधजन सतसई समाप्त
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