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द्वितीय- अध्याय
१. भाव पक्षीय विश्लेष
कविवर बुधजन की रचनाओं में एक मोर भारतीय लोक-नीति-रीतिपरक भावाभिव्यंजना प्रतिफलित हुई है, वहीं दूसरी ओर भात्मा को केन्द्र बिन्दु मानकर उसके अस्तित्व, रुचि व श्रद्धा ज्ञान एवं ध्यान से सम्बन्धित भावों की स्पष्ट श्रभिव्यक्ति हुई है। भावों में विकल्पात्मक चिंतन तथा साहित्यिक अभिव्यंजना मानदीय संवेदनाओं को सहेजे हुए स्पष्टतः लक्षित होती है । भावों में भले ही कथात्मक सहजता तथा मार्मिक प्रसंगों की योजना न मिलती हो, पर सरसता का गुण सर्वत्र है । मनुष्य का मानवीय पक्ष क्या है ? जगत् और जीवन के साथ उसका क्या सम्बन्ध है ? इन्हीं बातों का विचार करते हुए लेखक ने चिन्तन पूर्ण विवेचन क्रिया है । उनकी रागात्मिका अनुभूति भाषों के बक में उतनी अधिक रमी नहीं है, जितनी कि भात्रों के विश्लेषण में संलीन लक्षित होती है ।
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भावों के होने में वित्त की सहजवृत्ति तथा संस्कारों का प्रभाव विशेष रूप से क्रियाशील रहता है। इसलिये यदि कवि का झुकाव अनात्मीय पदार्थों से हट कर ग्रात्मा-परमात्मा की प्रोर विशेष रूप से रहा है, तो यह सहज व स्वाभाविक है क्योंकि संसार की विषय वासनाओं से प्रसूत होने वाले राग-रंग के भाव एक और हैं और वीतरागता को प्रकट करने वाले भाव दूसरी भोर हैं। यह समझना उचित प्रतीत नहीं होता कि साहित्य में गारमूलक भाव ही मुख्य होते हैं । यदि ऐसा ही हो तो फिर शास रस के उज्जवल प्रकाशन में महाकवियों की वाणी को क्यों मौन-मंग करना पड़ा। क्या शान्ति व वैराग्य प्राणी मात्र को इष्ट नहीं है ? संसार का स्वभाव बताता हुआ कवि कहता है-मिष्या विकल्पों (राग द्वेष के भाव ) की रचना करके संसारी जीव वित्त को चिता के समान रच रहा है। इस तरह के भाव तो सदा उत्पन्न होते ही रहते हैं। एक भाव के उत्पन्न होते ही सरक्षरण दूसरा भाव उत्पन्न हो जाता है। इस प्रकार भावों का प्रवाह शाश्वत रूप से अनादि काल से प्रवहमान हूं । श्रतः प्राणी को सुख व शान्ति प्राप्त नहीं होती है ।
कविवर ने लोक जीवन व लोक है । वास्तव में प्राणी ने जैसे जैसे भाव प्राप्त कर चुका है, कर रहा है व करेगा।
रीति की शिक्षा पर भी पर्याप्त प्रकाश डाला किये हैं, कर रहा है व करेगा, वैसे-वैसे फल कोई किसी का भाग्य नहीं बदल सकता