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________________ १७४ कविवर बुधजन व्यक्तित्व एवं कृतित्व तुम तो दीनानाथ हो, मैं हूँ दीन अनाथ । श्रब तो ढील न कीजिये, भलो मिल गयो साथ ||४२|| श्ररज गरज की करत हो, तारन-तरन सु नाथ | भव-सागर में दुःख सहूं, तारो गह करि हाथ ||३७|| वीती जिली न कहि सकूं, सब भासत है तोय | फेरि न बीते मोय ||३८|| याही ते विनती करू · भक्त अपने प्राराध्य को दीनानाथ और अपने थापको दीन मानता है और प्रार्थना करता है कि श्राप जैसे दीनानाथ को गाकर निश्चय ही मेरा मला होगा | वह अपने दुःखों को दूर करने के लिये अत्यधिक उत्सुक है । भोर प्रार्थना करता है कि हे प्रभु ! श्राप तर तारण है और मैं संसार समुद्र में पड़ा पड़ा दुःख भोग रहा हूं' भतः कृपया मेरा हाथ पकड़कर मुझे उबार लीजिये मैंने श्राज तक जितने कष्ट सहन किये हैं उनका वर्णन नहीं कर सकता । श्राप सर्वज्ञ हैं। सब कुछ जानते है । श्रतः मेरी वही विनम्र प्रार्थना है कि मेरा उद्धार कर दीजिये ताकि प्रब मुझे संसार में भटकना न पड़े । १. बुधजन बुधजन सतसई - एक प्रध्ययमः पं० सं० ४२-३७-३८, समय : 1
SR No.090253
Book TitleKavivar Budhjan Vyaktitva Evam Krutitva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMulchand Shastri
PublisherMahavir Granth Academy Jaipur
Publication Year1986
Total Pages241
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth, Biography, & History
File Size4 MB
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