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________________ १९६ कविवर बुधजन : व्यक्तित्व एवं कृतित्व विनयवान सर्वस लहे, दहे गई जो गई । माप प्रापमें ही तदपि, व्याप रहे हो सवं ॥५॥ मैं मोही तुम मोह विन, मैं दोषी तुम सुद्ध । घन्य पाप मो घट बसे, निरख्यो नाहि विरुद्ध ।।६।। में तो कृतकृत प्रब भया, चरण सरन तुम पाय । सर्व कामना सिद्ध भई, हर्ष हिये न समाय ||६|| मोहि सतावत मोह बुर, विसय प्रतादि प्रसाधि । वेद भतार हकीम तुम, दूर करो या व्याधि | परिपूरन प्रभु विसर तुम, नमू' न प्रान कुठोर । ज्यों स्यों करि मो तारिये, विनती करु' निहोर ॥२॥ दीन प्रघम निरबल रट, सुनिये प्रथम उद्वार । मेरे भौगुन जिन लखौ, तारौ विरद चितार' ।।६३॥ कानाकर परगट विरद, भूले बनि है नाहि । सुषि लीजे सुध कीजिये, रष्टि घार मौ माहिं ।।१४॥ एहि वर मोहि दीजिये, जावू नहिं कछु प्रौर । अनिमिप दुग निरखत रहू सान्त छवी चितचोर ||६|| याहि हियामें नाम सुख, करो निरन्तर वास । जौलों बसवी अगतमें, भरवौ तनमें सांस ||१६|| मैं प्रशान तुम गुन अनंत, नाहि मावै भन्त । बंदत मंग ममाम वसु, जावसीय परजत ||७|| हारि गये हो नाथ तुम, अषम प्रनेक उपारि । धीरे धीरे सहजमें, लीजे मोहि अबारि ||६|| माप पिछान विसुद्ध है, पापा को प्रकास । प्राप मापमें थिर भये, बंदत "बुधजन" दास || मन मुरति मंगल बसी, मुख मंगल तुम नाम । एही मंगल कीजिये, परपो रहू तुम षाम ।।१०।। सुभाषितनीति अलपथकी फल दे धना, उत्तम पुरुष सुभाय । दूध झर तनको घर, ज्यो गोकुल की गाय ॥१०१।। जंता का तंता कर, मध्यम नर सनमान । घटै बई नहि रचहू, धरयो कोठरै धान ॥१०२।।
SR No.090253
Book TitleKavivar Budhjan Vyaktitva Evam Krutitva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMulchand Shastri
PublisherMahavir Granth Academy Jaipur
Publication Year1986
Total Pages241
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth, Biography, & History
File Size4 MB
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