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कृतियों का भाषा विषयक एवं साहित्यिक अध्ययन
खरच खेद नहीं अनुभव करते, निरखि चिदानन्द तेरा रे ।
जप-तप-व्रत शु तसार यही है, बुधजन कर न भवेरा रे ॥
शुश चतन्यमय प्रात्म-स्वरूप को साक्षात्कार करने पर हमें त्याग करते समय खेद का अनुभव नहीं होता है क्योंकि हमने निश्चय कर लिया है कि हमारा सम्बन्ध
और अपनत्व केवल शुद्ध प्रात्म-स्वभाव से है, इसलिये अन्य समस्त पर बस्तनों के स्याग में हमें तनिक भी दुःहला गनुभा नहीं होना । जप-प-मन गौर संपूर्ण शास्त्र ज्ञान का भी यही ध्येय है कि हमें अपने सच्चिदानन्द मय प्रात्म-स्वरूप के स्थिर दर्शन हों।
आज लोक में अपने दायित्व को उपेक्षित कर कर्तव्य से जी चुराने वाले अनेक जन ऐसा कहते हुए पाये जाते हैं।
'बाबा मैं न काहू का, कोई नहीं मेरा रे ।' जनाचार्यों ने प्राकृत के समान ही संस्कृत, अपभ्रंश एवं हिन्दी प्रादि बिभिन्न भाषाओं में अपने विचारों की अभिव्यंजना कर वाड्मय की वृद्धि की है।
गृहस्थावस्था में रहते हुए भी कवि ने सरस्वती की साधना द्वारा तीर्थकर की बाणी को जन-जन तक पहुंचाया है।
काव्य-साहित्य की प्रात्मा भोग-विलास और राग द्वेष के प्रदर्शनात्मक शृगार और वीर रसों में नहीं है किन्तु समाज कल्याण की प्रेरणा ही काव्य साहित्य के मूल में निहित है।
दर्शन, आचार, सिद्धान्त प्रगति विषयों की उद्भावना के समान ही जन-कल्याण की भावना भी काथ्य में समाहित रहती है । अतएव समाज के बीच रहने वाले कवि और लेखक गाईस्थिक जीवन व्यतीत करते हुए करुण भाव की उद्भावना सहज रूप में करते हैं।
एक प्रोर जहां सांसारिक सुख की उपलब्धि और उसके उपायों की प्रधानता है तो दूसरी ओर विरक्ति एवं जन-कल्याण के लिये प्रास्म-समर्पस का लक्ष्य भी सर्वोपरि स्थापित है।
निश्चय ही बुधजन के साहित्य में अहिंसा सिद्धान्त की अभिव्यक्ति हुई है उसमें लोक-जीवन के स्वाभाविक चित्र अंकित हैं । उसमें सुन्दर प्रारम-पीयूष रस छल छलाता है। धर्म विशेष का साहित्य होते हुए भी उदारता की कमी नहीं है। मानव स्वायलंत्री कैसे बने, इसका रहस्योद्घाटन किया गया है। तत्व-चिंतन मौर जीवन शोधन ये कवि की रचनामों के मूलाधार हैं।
. प्रारम शोधन में सम्यक श्रद्धा, सम्यक् ज्ञान तथा सम्यक्चारित्र का महत्वपूर्ण स्थान है । सम्यक चारित्र, अहिंसा, सत्य, अचार्य, ब्रह्मचर्य मौर अपरिग्रह की संपूर्णता है, जो वीतराग भाव में निहित है । प्रत्येक प्रात्मा का स्वतंत्र अस्तित्व है। प्रत्येक
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