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THE FREE INDOLOGICAL
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-The TFIC Team.
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हिन्दी-जैन-साहित्य-परिशीलन ।
[ भाग २]
।
श्री नेमिचन्द्र शास्त्री
MAHIRINA
भारतीय ज्ञान पीठ का शो
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ज्ञानपीठ - लोकोदय- श्रन्थमाला - सम्पादक और नियामक श्री लक्ष्मीचन्द्र जैन, एम० ए०
प्रकाशक
अयोध्याप्रसाद गोयलीय मन्त्री, भारतीय ज्ञानपीठ दुर्गाकुण्ड रोड, बनारस
प्रथम संस्करण १९५६ ई० मूल्य ढाई रुपये
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मुद्रक ओमप्रकाश कपूर ज्ञानमण्डल यन्त्रालय
कबीरचौरा, बनारस, ४८०७ (ब)-१२
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BRENTINA
000140
आदरणीय श्रीमान् पं० नाथूरामजी प्रेमी
के
करकमलों
में
सादर
समर्पित
श्रद्धावनत
नेमिचन्द्र शास्त्री
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यह पुस्तक निम्न दिनाक तक या उसके पूर्व लौटानी
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दो शब्द
साहित्य ही मानवताका पोषक और उत्थापक है। जिस साहित्यमे यह गुण जितने अधिक परिमाणमे पाया जाता है, वह साहित्य उतना ही अधिक उपादेय होता है। जैन साहित्यमें आत्मशोधक तत्वोंकी प्रचुरता है, यह वैयक्तिक और सामाजिक दोनों ही प्रकारके जीवनको उन्नत बनानेकी पूर्ण क्षमता रखता है। अतः जैन साहित्यको केवल साम्प्रदायिक कहना नितान्त भ्रम है। यदि किसी धर्मविशेषके अनुयायियो-द्वारा रचे गये साहित्यको साम्प्रदायिक माना जाय तो फिर शाकुन्तल, उत्तररामचरित, रामचरितमानस और पद्मावत जैसी सार्वजनीन कृतियाँ भी साम्प्रदायिक सीमासे मुक्त नहीं की जा सकेगी। अतः विश्वजनीन साहित्यका मापदण्ड यही है कि जो साहित्य समान रूपसे मानवको उद्बुद्ध कर सके, जिसमें मानवताको अनुप्राणित करनेकी पूर्ण क्षमता हो तथा जिसके द्वारा आनन्दानुभूति सम्भव हो सके। जैन साहित्यमे इन सार्वजनीन भावो और विचारोकी कमी नहीं है । सत्य अखण्ड है, यह किसी धर्मविशेषके अनुयायियोंके द्वारा विभक्त नहीं किया जा सकता है। और यही कारण है कि हिन्दी साहित्यमे एक ही अखण्ड भावधारा प्रवाहित होती हुई दिखलायी पड़ती है। भेद केवल रूपमात्रका है । जिस प्रकार कूप, सरोवर, सरिता और समुद्रके जलमे जलरूपसे समानता है, अन्तर केवल आधार या उपाधिका है, उसी प्रकार साहित्यमे एक ही शाश्वत सत्य अनुस्यूत है, चाहे वह जैों-द्वारा लिखा गया हो, चाहे बौद्धों द्वारा अथवा वैदिकों द्वारा। किसी धर्मविशेषके अनुयायियों द्वारा रचित होनेसे साहित्यमें साम्प्रदायिकता नहीं आ सकती। साहित्यका प्राण सत्य सबके लिए एक है, वह अखण्ड है और शाश्वत ।
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हिन्दी-जैन-साहित्य परिगीलन
मौन्दर्य मी माले लिए समान ही होता है। एक सुन्दर वस्तुको देखकर नी ममान आहाट होता है। हाँ, इतनी बात अवश्य है कि सौन्दर्यागुनिलिमहदय होनकी आवश्यकता है । यद्यपि प्रकृतिमेदसे एक ही बन्द्र मिन-भिन्न प्रारक गुण या दुर्गुण उत्पन्न करती है, फिर भी उसका उत्तम मर लिए नमान ही होता है। साहित्यमें भेद करनेके अर्थ ई, पनवता भेट परना । अतएव हिन्दी जन साहित्यका अध्ययन, अनुमन और विचन भी उमन हिन्दी साहित्यके समान होना चाहिए।
स्य आलेवरी दृष्टिले यह वैपन्यकता पर्दा ओझल नहीं होगा, तब साहित्य क्षेत्रमें एक यखाद्ध मामाज्य स्थापित नहीं हो सकता।
प्रन्टुत हिन्दी-जन-गहित्य-परिशीलनमें मात्र साहित्यको शृखलाको संदना मायान दिया है। यतः यह साहित्य अब तक आलोचकों हाग मंदित रहा है। अब समय ऐसा प्रस्तुत है कि साहित्य के क्षेत्रम मिनी भी प्रकारका नेद करना मानवतामे भेद करना कहा जायगा। इस चना द्वारा मनीषियागो हिन्दी जन साहित्यके अध्ययनकी प्रेरणा मिलेगी
या'नाहित्यत्री मुरली दूटी कड़ियाँको जोड़नेमे पूरी सहायता मिलेगी। मावि स्नारनीदास, भैण भगवतीदास, कवि भूधरदास, कवि टलतराम, कवि वृन्दाग्नदास हिन्दी साहित्यके लिए गौरवकी वस्तु है। इन पत्रिणने चिरन्तन गैन्दर्यकी अभिव्यञ्जना की है।
इस द्वितीय मागमं आधुनिक काव्य एवं प्राचीन और नूतन गद्य साहित्यपर परिशीलनारम्ब प्रकाश डाला गया है। गद्यके क्षेत्रमे जैन नाहित्यगर बहुत आगे बढ़े हुए हैं। श्री पं० दौलतरामजी ने खडी बोली
गायक विकासम बढ़ा सहयोग दिया है। इनका गद्य बहुत विकसित है। चौदहन और पन्द्रहवीं शताब्दीमे जैन विद्वानोने टीका और बचनिगटगे-बारा गद्यको व्यवस्थित रूप दिया है। हॉ, यह बात अवश्य है मिरिन्दी न साहित्यके निर्माणका क्षेत्र जयपुरके आस-पासकी भूमि होने के कारण मायापर वृद्धारीका प्रमाव है। आगरा और दिल्लीके निकट
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दो शब्द
लिखे गये गद्यमें ब्रजभाषाके साथ खडी बोलीका रूप भी झांकता हुआ दिखायी पड़ता है । यदि निष्पक्ष रूपसे हिन्दी गद्य साहित्यका इतिहास लिखा जाय तो जैन लेखकोकी उपेक्षा नही होनी चाहिए। अभी तक लिखे गये इतिहास और आलोचना-ग्रन्थोमें जैन कवियों और वचनिकाकारोकी अत्यन्त उपेक्षा की गयी है ।
वर्तमान हिन्दी जैन काव्यधारामें अवगाहन करते समय मुझे सभी आधुनिक जैन कवियोंकी रचनाएँ नहीं मिल सकी हैं, अतः आधुनिक कृतियोपर यथेष्ट रूपसे प्रकाश नहीं डाला गया होगा तथा इसकी भी सभाबना है कि अनेक महानुभावोकी रचनाएँ विचार करनेसे यो ही छूट गयी हों । भारतेन्दुकालीन कई ऐसे जैन कवि हैं, जिनकी रचनाएँ भाव और भापाकी दृष्टिसे उपादेय है । तत्कालीन पत्र-पत्रिकाओमे ये रचनाएँ प्रकाशित होती रही है। बहुत टटोलनेपर भी मुझे इस कालकी पर्याप्त सामग्री नही मिल सकी है।
प्राचीन गद्य साहित्यपर और अधिक विस्तारकी आवश्यकता है, पर साधनाभाव तथा इस विषयपर स्वतन्त्र एक रचना लिखनेका विचार होनेका कारण विस्तार नही दिया गया है। नवीन गद्य साहित्य में निबन्धके क्षेत्रमें अनेक लेखक बन्धु हैं, जिन्होंने इस क्षेत्रका विस्तार करने में अपना अमूल्य योग दिया है । परन्तु ये निबन्ध इधर-उधर बिखरे पड़े हैं, अतः उनका जिक्र करना छूट गया होगा । श्री महेन्द्र राजा, श्री प्रो० देवेन्द्रकुमार, प्रो० प्रेमसागर, श्री बाबूलाल जमादार, अध्यात्मरसिक ब्र० रत्नचन्द्रजी सहारनपुर, अनेक ग्रन्थोके लेखक वर्णी श्री मनोहरलालजी, पं० सुमेरचन्द्र न्यायतीर्थ, श्री महेन्द्रकुमार साहित्यरत्न, पं० हीरालाल कौशल शास्त्री प्रभृति अनेक बन्धुओंके निवन्त्रका परिचय देना छूट गया है। ये नवयुवक हिन्दी जैन साहित्यकी उन्नतिमें सतत सलग्न है। इनमेसे कई महानुभाव तो कहानीकार और कवि भी हैं।
यद्यपि मैंने अपनी तुच्छ शक्तिके अनुसार लेखकोकी रचनाओंपर
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हिन्दी - जैन-साहित्य-परिशीलन
निष्पक्ष भावसे ही विचार व्यक्त किये हैं, फिर भी संभव है कि मेरी अल्पजाके कारण न्याय होनेमें कुछ कमी रह गयी हो ।
उन सभी ग्रन्थकारोंके प्रति अपना आभार प्रकट करना अपना कर्त्तव्य समझता हूँ, जिनकी रचनाओंसे मैंने सहायता ली है । विशेषतः श्री पं० नाथूरामजी प्रेमीका, जिनकी रचना 'हिन्दी जैन साहित्यका इतिहास से मुझे प्रेरणा मिली तथा परिशिष्टमें कवि और साहित्यकारोंका परिचय लिखनेके लिए सामग्री भी ।
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इस द्वितीय भाग कायम भी प्रथम भागके सभी सहायक बन्धुओंसे सहायता मिली है, अतः में उन सबके प्रति अपना आभार प्रकट करता हूँ ।
जैन सिद्धान्त भवन श्री महावीर जयन्ती
१९५६
नेमिचन्द्र शास्त्री
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विषय-सूची आठवां अध्याय १९-३८ । उपन्यास
मनोवती : कथावस्तु वर्तमान हिन्दी काव्यधारा १९
मनोवती : पात्र वर्द्धमान शैली और काव्य
मनोवती : शैली और चमत्कार
२२
कथोपकथन अन्य कायौंका प्रतिबिम्ब २३ रलेन्दु : परिशीलन खण्डकाव्य
सुधीला : कयावख राजुल: कथावस्तु
सुशीला : परिशीलन रातुल : समीक्षा
मुक्तिदूत : कथानक विराग : कथानक
मुक्तिदूत : पात्र विराग : समीक्षा
मुक्तिदूत : कथोपकथन सुट कविताएँ
मुक्तिदूत : शैली पुरातन प्रवृत्ति
मुक्तिदूत : उद्देश्य नूतन प्रवृति
| कथासाहित्य
आराधना कयाकोश नवा अध्याय ३९-१४४
वृहत्कथाकोश हिन्दी-जैन-गद्य-साहित्यका दो हजार वर्ष पुरानी कहानियाँ ८०
क्रमिक विकास ३९ / खनककुमार : परिशीलन । गद्य-साहित्य पुरावन-१४ वी महासती सीता : परिशीलन ८३
शतीचे १९वीं शतीतक ३९ / सुरसुन्दरी आधुनिक गद्य-साहित्य
सुरसुन्दरी : समीक्षा २०वीं शती ५० । सती दमयन्ती : समीक्षा
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९९
पक्ष
१५४
१० हिन्दी-जैन-साहित्य परिशीलन रूपसुन्दरी : परिशीलन ___८८ दशवाँ अध्याय१४५-२०७ आत्मसमर्पण: परिशीलन
हिन्दी-जैन-साहित्यका शास्त्रीय मानवी : समीक्षा
१४५ गहरे पानी पैठ : परिशीलन १०३
भाषा
१४५ नाटक : विकास क्रम १०७
छन्दविधान ज्ञानसूर्योदय नाटक : समीक्षा १०८
अलकार योजना अकलंक नाटक : परिशीलन ११०
प्रकृति चित्रण महेन्द्रकुमार : समीक्षा
प्रतीक योजना अंजना : परिशीलन ११३
रहस्यवाद कमलश्री: परिचय और
समीक्षा ११५ / ग्यारहवाँ अध्याय२०८-२१५ गरीब : परिशीलन | सिंहावलोकन २०८ वर्धमान महावीर : परिशीलन ११७
परिशिष्ट २१६-२४३ निबन्ध साहित्य १२०
कवि एवं ग्रन्थकारोंका परिचय २१६ ऐतिहासिक निबन्ध-साहित्य १२१ धर्मसूरि आचारात्मक और दार्शनिक विजयसेन
२१६ ___निबन्ध-साहित्य १२८ | विनयचन्द्र सरि साहित्यिक और सामाजिक
अम्बदेव निबन्ध जिनपन सूरि
२१७ आत्मकथा, जीवन-चरित्र और विजयभद्र संस्मरण . १३६ / ईश्वरसूरि
२१८ मेरी जीवन-गाथा : अनु- सवेगसुन्दर उपाध्याय
२१९ , , शोलन
१३७ / महाकवि राधू अशात जीवन : परिशीलन १४० जैन जागरणके अग्रदूत १४१ / पाण्डे रूपचन्द
२२१ १४१ / पा
२१६
२१६
२१८
रूपचन्द
२२१
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विषय-सूची
२३१ २३२
३५
राजमल्ल पाण्डे जिनदास कुंवरपाल पाण्डे हेमराज बुलाकीदास किशनसिंह खड्गसेन रायचन्द शिरोमणिदास मनोहरदास जयसागर खुशालचन्द्र काला जोधराज गोदीका लन्धिरचि लोहट ब्रहारायमल पं. दौलतराम पं० टोडरमल
२३६
२२२ ] पं० जयचन्द २२२ / भूधर मिश्र २२२ । दीपचन्द काशलीवाल २३३ प० डालूराम
२३४ भारामल
२३४ રર૪ बखतराम २२५ चिदानन्द
२३५ २२५ रगविजय २२५ | टेकचन्द २२६ नथमल विलाला
प० सदासुखदास २३७ प० भागचन्द
२३८ ૨૨૭
| कवि दौलतराम २३९ २२७
पं० जगमोहनदास और
५० परमेष्ठीसहाय ૨૪૦ | जैनेन्द्रकिशोर
૨૪૨ ७० शीतलप्रसाद ર૪ર
लेखक एव कवि-अनुक्रमणिकार४४ २२८ । अन्यानुक्रमणिका २५२
२३६
२२६ રરણ
२२७
२२८
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हिन्दी-जैन-साहित्य-परिशीलन
[ भाग २]
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आठवाँ अध्याय वर्तमान काव्यधारा और उसकी विभिन्न प्रवृत्तियाँ
हिन्दी जैन साहित्यकी पीयूषधारा कल-कल निनाद करती हुई अपनी शीतलतासे जन-भनके सतापको आज भी दूर कर रही है। इस बीसवी शताब्दीमें भी जैन साहित्यनिर्माता पुराने कथानकोको लेकर ही आधुनिक शैली और आधुनिक भाषामे ही सृजन कर रहे है। भकि, त्याग, वीरनीति, श्रृंगार आदि विषयोपर अनेक लेखकोकी लेखनी अविराम रूपसे चल रही है। देश, काल और वातावरणका प्रभाव इस साहित्यपर भी पड़ा है। अतः पुरातन उपादानोंमे थोड़ा परिवर्तन कर नवीन काव्यभवनोका निर्माण किया जा रहा है। __ महाकाव्योमे वर्धमान इस युगका श्रेष्ठकाव्य है। इसके रचयिता यशस्वी कवि अनूप शर्मा एम. ए. है। इस महाकाव्यकी शैली संस्कृत
व काव्योके अनुरूप है। संस्कृतनिष्ठ हिन्दीमे वंशस्थ,
" द्रुतविलम्बित और मालिनी वृत्तोंमे यह रचा गया है। इसमे नख-शिखवर्णन, प्रभात, सध्या, प्रदोष, रजनी, ऋतु, सूर्य, चन्द्र आदिका वर्णन प्राचीन काल्योके अनुसार है।
इस महाकाव्यका कथानक भगवान महावीरका परम-पावन जीवन है। कविने स्वेच्छानुसार प्राचीन कथावस्तुमे हेरफेर भी किया है। दो
चार स्थलोकी कथावस्तुमें जैनधर्मकी अनमिनताके कथावस्तु
कारण वैदिक-धर्मको ला बैठाया है। भगवान्की बालक्रीड़ाके समय परीक्षार्थ आये हुए देवरूपी सर्पका दमन ठीक कृष्णके कालिय-दमन के समान कराया है। सर्पकी भयंकरता तथा उसके कारण प्रकृति-विक्षुब्धता भी लगभग वैसी ही है। कवि कहता है।
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हिन्दी-जन-साहित्य परिगीलन प्रचण्ड दावानलकी लिखा यथा, प्रलम्ब है धूम नगाधिरान-सा। अवश्य कोई बन-धीच दुःसहा, महान् आपचि उपस्थिता हुई।
-पृ. २६१ इसी प्रकार भगवान महावीरकी कंवलनानोत्पत्तिके पश्चात् उनकी आत्माका कुबेर-द्वारा न्यम ले जाना और वहाँम आदि शक्तिको लेकर पुनः आन्माना लोट आना, और शरीरमें प्रवेश करना विद्युत विलक्षण असना है। इसका जैन कथावन्नुन विकृत मेल नहीं बैठना है। क्योंकि जनवम तो प्रत्येक आत्माको चनः अनन्त ज्ञान, अनन्त मुन्न, अनन्न वार्यका माण्डार मानना है । जबतक आत्मापर कमाका पदा पड़ा रहता हैनबतक उनकी ये शनियाँ आच्छन्न रहती हैं। कर्म-कान्त्रिमण हटनं ही आत्मा शुद्ध निकल आनी है। उनकी शारी शानियाँ प्रकट हो जाती है और वह स्वयं भगवान बन जाती है। कोई आत्मा तीतक निखारी है जबतक वह कपाय और बामना कारण स्त्रमावन पराइनुख है। ऋचनशान हनिपर आल्या पूर्ण ज्ञानी हो जाती है। उन कहसि भी शनि लेनकी आवश्यक्ता नहीं पड़ती।
विवाहक प्रमंगको लंकर कविन बनान्बर और दिगम्बर मान्यताओंका सुन्दर समन्वय किया है । नाम्बर मान्यता अनुसार भगवान महावारन विवाह किया है और दिगम्बर मान्यता उन्हें अविवाहित रहना स्वीकार करती है। कविनं बड़ी चनुराईके साथ त्वममें भगवान्का विवाह कराकर उभय मान्यताओंमें सामान्य क्रिया है।
मावान् महावीरने दीक्षा ग्रहण कर दिगम्बर रूपमें विचरण क्रिया यह दिगम्बर मान्यता है औरट्वेतान्बर मान्यताम निनदीक्षा लेनके उपगन्न भगवान्का देव दृष्य धारण करना माना जाता है। कविने इन मान्यताओका भी सुन्दर सामंवन्य बनेका प्रयत्न किया है। कवि कहता है
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वर्तमान काव्यधारा और उसकी विभिन्न प्रवृत्तियाँ
महो अलंकार विहाय रत्न के, भूषितांग हो ।
अनूप रत्नन्न
तने हुए अम्बर अंग-अंग से, दिगम्बराकार विकार शून्य हो ॥ समीप ही जो परदेव दूष्य है, नितान्त श्वेताम्बर सा वना रहा। अग्रंथ निर्द्वन्द महान संयमी, वने हुए हो निजधर्म के ध्वजी ॥
२१
वस्तु-वर्णनमे 'महाकाव्य की दृष्टिसे घटना- विधान, दृश्ययोजना और परिस्थिति-निर्माण- ये तीन तत्त्व आते है । वद्ध मानकी कथावस्तुमे प्रायः दृश्य-योजना तत्त्वका अभाव है । घटनाविधान और परिस्थिति निर्माण इन दोनो तत्त्वोकी बहुलता है । कविने इस प्रकारका कोई दृश्य आयोजित नही किया है जो मानवकी रागात्मिका हत्तन्त्रीको सहज रूपमे झंकृत कर सके । घटनाओंका क्रम मन्थर गति से बढ़ता हुआ आगे चलता है जिससे पाठक के सामने घटनाका चित्र एक निश्चित क्रमके अनुसार ही प्रस्तुत होता है ।
महाकाव्यकी आधिकारिक कथावस्तुके साथ प्रासंगिक कथावस्तुका रहना भी महाकाव्यकी सफलता के लिए आवश्यक अग है । प्रासंगिक कथाएँ मूलकथामे तीव्रता उत्पन्न करती हैं।
चर्द्धमान काव्यमें अवान्तर कथा रूपमे चन्दनाचरित, कामदेवसुरेन्द्रसवाद तथा कामदेव द्वारा वर्द्धमानकी परीक्षा ऐसी मर्मस्पर्शी अवान्तर कथाऍ है, जिनसे जीवनके आनन्द और सौन्दर्यका आभास ही नही होता प्रत्युत सौन्दर्यका साक्षात्कार होने लगता है ।
जगत् और जीवनके अनेक रूपों और व्यापारोंपर विमुग्ध होकर कविने अपनी विभूतिको चमत्कारपूर्ण ढगसे आविर्भूत किया है। भावोको
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हिन्दी - जैन- साहित्य-परिशीलन
चमत्कार
प्रभावोत्पादक बनाने और उनकी प्रेषणीयताकी वृद्धिके लिए समास, सन्धि और विशेषण पदोका प्रयोग बहुलतासे किया है । रसविवद्धन, रसशैली और काव्यपरिपाक और रसास्वादन करानेकी क्षमता इस काव्यकी शैलीगत विशेषता है । यद्यपि कविने संस्कृतके समासान्त पदोका प्रयोग खुलकर किया है, परन्तु उच्चारण सगति और ध्वनि अक्षुण्णरूपमें विद्यमान है । संस्कृतगर्भित पदोंके रहनेपर भी कृत्रिमता नहीं आने पायी है । यद्यपि आद्योपान्त काव्यमे संस्कृतके free शब्दोका प्रयोग किया गया है तो भी पदलालित्य रहने से काव्यका माधुर्य विद्यमान है।
क्रियापदो में भी अधिकाश क्रियाएँ संस्कृतकी ज्योंकी त्यो रख दी गई। हैं। जिससे जहाँ-तहाँ विरूपता - सी प्रतीत होती है।
शैलीके उपादानोंमे विभक्तियोंका भी महत्वपूर्ण स्थान है । विभक्तियोका यथास्थान प्रयोग होनेसे चमत्कार उत्पन्न होता है । संस्कृतनिष्ठ शैलीमेसे जानेके कारण - " सदर्प कादम्बिनि गर्जने लगी" जैसे विभक्तिहीन पद इस काव्यमे अनेक आये है, जिससे कठोरता और क्लिष्टता है ।
इस महाकाव्यमे कविने अपनी कवयित्री प्रतिभा द्वारा त्रिशलाके शारीरिक सौन्दर्य, हाव-भाव और वेश-भूषा आदिके चित्रण में रमणीयताकी सृष्टि की है । पाठक सौन्दर्यकी भावनामे मग्न हो अपनी सत्ताको भूल रसमग्न हो जाता है पर त्रिशलाका यह शृगारिक वर्णन मनोविज्ञानकी दृष्टिसे अनुचित है। क्योकि भगवान् महावीरके पूर्व नन्द्यवर्धनका जन्म हो चुका था अतः द्वितीय सतानके अवसरपर महाराज सिद्धार्थ और त्रिशलाकी रगरेलियाँ पाठककै हृदयपर प्रभाव नही छोड़तीं। इन पदोमे कल्पनाकी उड़ान और भावसचारकी तीव्रता हमारे सम्मुख एक भव्य चित्र प्रस्तुत करती है । निम्न पंक्तियाँ दर्शनीय है
२२
विरंचिने अद्भुत युक्तिसे उसे, सुधामयो शक्ति प्रदान की सुधा ।
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वर्तमान काव्यधारा और उनकी विभिन्न प्रवृत्तियाँ
विलोचनों में विष दुग्ध वाण की,
कटाक्ष में मृत्युमयी कृपाण की ॥ सरोज द्रोही रस शून्य देह है, सुगन्धसे हीन शशांक ख्यात है । न साम्य पाती त्रिशलामुखेन्दु का, मलीमसा प्राकृत चन्द्रकी कला ॥
इस काव्यमे रूपक, उत्प्रेक्षा, उपमा, व्याजोक्ति, श्लेप, अनुप्रास, भ्रतिमान आदि अलंकारोंकी अद्भुत छटा प्रदर्शित की है।
निम्न पद्य दर्शनीय है
सरोज सा वक्त्र सुनेत्र मीन से, सीवार से केस सुकंठ कम्बु-सा । उरोज ज्यो कोक सुनाभि भौर सी, तरंगिता थी त्रिशला-तरंगिणी ॥
अन्य काव्यों का प्रतिविम्व
-स० १प० ८१
वर्तमान कान्य सिद्धार्थसे अत्यधिक अनुप्राणित है । महाराज सिद्धार्थ तथा शुद्धोदनको रूप गुणोकी साम्यता बहुत अशोमे एक है । सिद्धार्थमे यशोधराके रूप, सौन्दर्य, उरोज, मुख आदिका जैसा वर्णन किया है वैसा ही वर्द्धमानमें त्रिशलाके मुख, नेत्र, उरोज आदिका भी । गौतम बुद्धकी कामघोषणाकी प्रतिच्छाया महाराज सिद्धार्थकी कामघोषणा है । उदाहरणार्थ देखिये -
२३
सुकामिनी जो अब मानिनी रही, मनोजकी है अपराधिनी वही । चतुर्दिशा दामिनि व्याज व्योममें, समा गयी काम नृपाल घोषणा ॥
- वर्द्ध० स० २५० १७
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हिन्दी-जैन-साहित्य-परिशीलन
न मानिनी जो अब मान त्यागती, मनोज की है अपराधिनी वहीं। पयोदमाला मिस विज्जुके यही, प्रसारती काम-नृपाल-घोपणा ||
-सि.पृ० १०० संस्कृत काव्योमे महि, कुमारसम्भव और खुवशसे अनेक स्थलोंमे भावसाम्य है। वर्दमानका १० वॉ सर्ग उमरखय्यामसे अनेक अशीमे साम्य रखता है।
यह महाकाव्य भाव, भापा, काव्य-चमत्कार आदि सभी दृष्टियोंसे प्रायः सफल है। .
खण्डकाव्य
वर्तमान युगम जैन कवियोंने खण्डकाव्या-द्वारा जगत् और जीवन के विभिन्न आदर्श और यथार्थका समन्वित रूप प्रस्तुत किया है । "खण्डकाव्यं भवेत् काव्यस्यैकदेशानुसारि च” अर्थात् खण्डकाव्यमै जीवनके किसी पहलूकी झॉकी रहती है। अतः जैनकवियोंने पुरातन मर्मस्पर्शी कथानकोंका चयन कर रचना-कौशल, प्रवन्धपटुता और सहृदयता आदि गुणोका समवाय किया है। जिससे ये काव्य पाठकोकी मुपुत भावनाओको सजग करनेका कार्य सहजमें सम्पन्न करते है। जीवनके किसी पक्षको अधिक महत्त्व देना और पाठककी उसके प्रति प्रेरणा उत्पन्न करना, जिससे पाठक उस भावसे अभिभूत होकर कार्यरूपमे परिणत करनेके लिए प्रवृत हो जाय।
राजुल, विराग, वीरताकी कसौटी, बाहुबली, प्रतिफलन एवं अजनापवनजय काव्य इस युगके प्रमुख खण्डकाव्य है। काव्यसिद्धान्तोके आधारपर इन खण्डकायोंमेंसे कुछका विवेचन किया जायगा।
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खण्डकाव्य
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इस खण्डकाव्यका रचयिता नवयुवक कवि बालचन्द्र जैन एम० ए० है । कविने पुरातन आख्यानको लेकर जैन संस्कृतिको मानवमात्र के लिए जीवनादर्श बनानेका आमास किया है। भगवान्
राजुल नेमिनाथकी आदर्श पत्नी -- विवाह नहीं हुआ, पर नेमिनाथके साथ होनेवाला था; अतः सकल्पमात्रसे ही जिसने नेमिकुमार को आत्मसमर्पण कर दिया था साथ ही ससारसे विरक्त होकर जिसने आत्म साधना की उस राजुदेवीके जीवनकी एक झॉकी इस काव्यमे दिखलायी गई है । यह काव्य दर्शन, स्मरण, विराग, विरह और उत्सर्ग इन पाँच सर्गों विभक्त है ।
कथावस्तु
काव्य के प्रथम सर्ग 'दर्शन' का प्रणयन कल्पनासे हुआ है, जिसने कथाकै मर्मस्थलको तीव्रता प्रदान की है । कविने जूनागढके राजा उग्रसेन की कन्या राजुल और यादव - कुल-तिलक द्वारिकाधिपति समुद्रविजय के पुत्र नेमिकुमारका साक्षात्कार द्वारिका की वाटिकामे मदोन्मत्त जगमर्दन हाथीसे नेमि द्वारा वसन्त विहारके लिए आयी हुई राजुलकी रक्षा करानेपर किया है । सक्षात्कारकी यह प्रथम घटिका ही प्रणय-कलिकाके रूपमे परिणत हो गई है और दोनोकी आँखे परस्पर एक दूसरेको ढूँढ़ रही थी । राजुलको वसन्त-विहारकर जूनागढ लौट आनेपर प्रेमकी अन्तर्वेदना स्मृतिके रूपमें फलीभूत होकर पीड़ा दे रही थी । इधर द्वारिकामे नेमिकुमारके कोमल हृदयमे राजुदकी मधुर स्मृति टीस उत्पन्न कर रही थी। दोनों ओर पूर्वराग इतना तीव्र हो उठा जिससे वे मिलनेके लिए अधीर थे । आगे चलकर यही पूर्वराग अरुण भास्कर हो विवाहके रूपमे उदित होना चाहता था; किन्तु नियतिका विधान इससे विपरीत था । द्वारिकासे बारात सजधजकर चली, मार्गम राजुल - मिल्टनकी कल्पना नेमिकुमारको आत्मविभोर कर रही है। अचानक एक घटना घटित होती है, उन्हें मुक पशुओका चीत्कार सुनायी पड़ता है
१. सन् १९४८, प्रकाशकः - साहित्य साधना समिति, काशी ।
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हिन्दी - जैनसाहित्य- परिशीलन
जिससे उनका ध्यान राजुलसे हटकर उस ओर आकृष्ट हो जाता है । माली से नेमिकुमार पशुओकी करुणगाथा जानकर द्रवित हो जाते हैं। वासनाका भूत भाग जाता है और वे पशुशालामे जाकर विवाह में अभ्यागतोके भक्षणार्थ आये हुए पशुओको बन्धन मुक्तकर स्वयं चन्धन-मुक्त होनेके लिए आत्मसाधनाके निमित्त गिरनार पर्वतकी ओर प्रस्थान कर देते हैं।
२६
इधर नेमिकुमारके विरक्त होकर चले जानेसे राजुलकी वेदना वढ जाती है । वह सुकुमार कलिका इस भयकर थपेडेको सहन करनेमें असमर्थ हो मूर्च्छित हो जाती है। नाना तरहसे उपचार करनेपर कुछ समय पश्चात् उसे होश आता है। माता-पिता ऑखकी पुतलीकी चेतना लौटी हुई देखकर प्रसन्न हो समझाते है कि बेटी, अन्य ठेाके सुन्दर, स्वस्थ और सम्पन्न राजकुमारसे तुम्हारा विवाह कर देंगे; नेमिकुमार तपाराधना के लिए जंगलमे गये तो जाने दो। अभी कुछ नहीं बिगड़ा है, तुम अपना प्रणय बन्धन अन्यत्र कर जीवन सार्थक करो । राजुलने रोकर उत्तर दिया-
"सम्भव अन यह तात कहाँ” राजुल रो वोली
वने नेमि जब मेरे औ' मैं उनकी हो ली ।
भी
डोलू ॥
सोपूँ ;
भूलूँ कैसे उन्हें प्राण अपने भी भूलूँ, खोजूँगी मैं उन्हें घनो गिरिमें किया समर्पित हृदय आज तन भी मैं जीवनका सर्वस्व और धन उनको रहे कहीं भी किन्तु सदा वे मेरे स्वामी } मैं उनका अनुकरण करूँ वन पथ अनुगामी ॥
सौपूँ ॥
इस प्रकार राजुल भारतीय शीलके पुरातन आदर्शको अपनाने के निमित्त गिरनार पर्वतपर नेमिकुमारके पास जा आर्यिका व्रत ग्रहणकर तपश्चर्यामे लीन हो आत्म-साधना करती है ।
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खण्डकाव्य
राजुल्काव्यको महत्त्वपूर्ण घटनाएँ वाटिकामे नेमिकुमार और राजुलका साक्षात्कार तथा जगमर्दन हाथीसे नेमिकुमार-द्वारा राजुलकी रक्षा
. एवं राजुलका विरह और उसका उत्सर्ग कविने प्रथम
___ साक्षात्कारके अनन्तर बड़े कौशलके साथ राजुलके आराध्यको विलगकर प्रेमकी भावनाको घनीभूत किया है। एक बार प्रेमिका और प्रेमी पुनः स्थायी प्रेमके बन्धनमे बंधनेके निकट पहुंचते हैं और यही प्रत्याशा राजुलको एक क्षणके लिए प्रकाश प्रदान करती है। परिस्थितिकी विषमताके कारण उसका आराध्य उसे छोड चल देता है, तो वह उत्पन्न हुए तीन भावोका अप्राकृतिक संकोच एवं दमन न कर मुग्धा बन जाती है और "हाय' कहकर धड़ामसे पृथ्वीपर गिर पड़ती है।
विरहिणी राजुलकी इस अवस्थाको देखकर माता-पिता एवं दासिया कार हो जाती हैं और युक्तियो द्वारा निष्टुर प्रेमीसे विमुख करनेका प्रयत्न करती है ; पर राजुलको अपने पवित्र दृढ़ संकल्पते हटानेमे सर्वथा असमर्थ रहती है। कविने सखियोको राजुलके मुखसे क्या ही सुन्दर उत्तर दिलाया है
"वे मेरे फिर मिलें मुझे, खोचूंगी कण-कण में" वियोगिनी राजुल अर्घ-विस्मृत अवत्यामे प्रलाप करती है । राजुल्की मनोदना उत्तरोत्तर बटिल होती जाती है, वह आदर्श और कामनाके झूले झूलती हुई दिखलाई पड़ती है कभी-कभी वह आत्म-विस्मृत हो जाती है-इस समय उसके हृदयमे आदर्शजन्य गौरव और प्रेमजन्य उलंठगका इन्द ही शेष रहता है तथा ग्लानि और असमर्थताके कारण वह कह उठती है
अब न रही हैं सुखद वृत्तियाँ, शेष बची है मधुर स्मृतियाँ । उन्हें छिपा हस्तलमें अपना जीवन जीना होगा।
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हिन्दी - जैन- साहित्य- परिशीलन
आगे चलकर राजुलका विरह वेदनाकै रूपमे परिणत हो जाता है ; जिससे उसमे आदर्श गौरवको छोड स्वार्थकी गन्ध भी नहीं रहती । वह अपने मे साहस बटोरकर स्वार्थ और कमजोरीपर विजय प्राप्त करती हुई कहती है
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तुमने कब तुझको
देखा मुझको बाहिरसे हीं मेरे
X
X
पहिचाना ।
अन्तरको कब जाना ।
x
नारी ऐसी
क्या
तन की कोमलता ही लेकर नरके
हीन हुई !
सम्मुख क्या दीन हुई ।
आगे चलकर राजुलका वह कार्य आत्मसाधनाके रूपमे परिवर्तित हो 1
राजुल और नायक
।
जैन संस्कृतिके मूल शक्तियोको विकसित
गया है । जीवनकी विभूति त्याग काव्यकी नायिका नेमिकुमारके चरितमे सम्यक् रूपेण विद्यमान है आदर्श दुःखोंपर विजय प्राप्तकर आत्माकी छुपी हुई कर वरमाला बन जाना का इसमे निर्वाह किया गया है। भौतिक वातावरणको त्याग और आध्यात्मिकता के रूपमे परिवर्तित तथा वासनामय जीवनको विवेक और चरित्रके रूपमे परिवर्तित दिखलाया गया है ।
भाव और भापाकी दृष्टिसे यह काव्य साधारण प्रतीत होता है । लाक्षणिकता और मूर्तिमत्ताका भाषामे पूर्णतया अभाव है। हॉ, भावोकी खोज अवश्य गहरी है। एकाध स्थानपर अनुप्रासकी छटा रहनेसे भाषामे माधुर्य आ गया है-
Camd
कल-कल छल-छल सरिताके स्वर ; संकेत शब्द थे वोल रहे ।
x
X X आँखोंमें पहले तो छाये, धीरेसे उरमें लीन हुए । प्रथम रचना होनेके कारण सभी सम्भाव्य हैं । फिर भी इसमे उदात्त भावनाओकी कमी
त्रुटियाँ इसमे विद्यमान नहीं है । भाव, भाषा
आदि दृष्टियोसे यह अच्छी रचना है ।
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खण्डकाव्य
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यह एक भावात्मक 'खंडकाव्य है । पुरातन महापुरुषोका जीवन प्रतीक वर्त्तमान जीवनको अपने आलोकसे आलोविराग कित कर सत्पथका अनुगामी बनाता है । कवि धन्यकुमार जैन "सुधेश" ने इसी सन्देशकी अभिव्यंजना की है।
विराग जीवनकी आदर्श गाथाकी चार पक्तियोपर अपनी प्रतिभा और सात्त्विक कल्पनाका रङ्ग चढाकर ऐसा महत्त्व प्रदान करता है जो समस्त जीवनके चरित्रपर अपनी अमर आभा विकीर्ण करनेमे समर्थ है । इस काव्यमें भगवान् महावीरकी वे अटल विराग भावनाएँ प्रकट की गई है, जिनमे विश्वकी करुणा, सहानुभूति, प्रेम और निस्वार्थ त्यागका अमर सन्देश गूँजता है । वस्तुतः इस काव्यमे काव्यानन्दके साथ आत्मानन्दका भी मिश्रण हुआ है। लोकानुरागकी भावनाको क्रियात्मक मूर्तिमान रूप दिया गया है। धीरोदत्त नायकका सफल चित्रण इस काव्यमे हुआ है।
कथानक
कथावस्तु सक्षिप्त है, यह पाँच सगों में विभक्त है । प्रातःकाल रविकिरणे कुडलपुरकै प्रासाद-शिखरोंपर अठखेलियाँ करती हुई कुमार महावीरके शयनकक्षपर पहुँची । रश्मियोका मधुर स्पर्श होते ही कुमारकी निद्रा भंग हुई। उनके हृदय ससारके प्रति विराग और प्रिय माता-पिताकी इच्छाओंके प्रति अनुरागका द्वन्द्व होने लगा । यह मानसिक सघर्प चल ही रहा था कि कुमारके पिता आ पहुॅचे। पिताका उद्देश्य कुमार महावीरको विवाहित जीवन व्यतीत करनेके लिए राजी कर लेना था । अतः उन्होने पहले कुमारका मादक यौवन, फिर कोमलागी राजकुमारियोंका आकर्पण, राज्यलक्ष्मी और अपनी तथा कुमारकी माताकी लौकिक सुखकी कामनाएँ उनके समक्ष प्रकट कीं । अटलप्रतिज्ञ महावीरका मन जब इस प्रलोभनो
१. प्रकाशकः- भारतवर्षीय दि० जैन संघ, मथुरा ।
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हिन्दी जैन साहित्य परिशीलन की ओर आकृष्ट नहीं हुआ तो पिताने भावावेशमे आकर अपने पदका उल्लघन करते हुए अनेक सरस और आदर्शकी बातें कहीं। जब पिता अपने वात्सल्य और स्वत्वसे पुत्रको विवाह करनेके लिए तैयार न कर सके तो वह भिक्षुक बन याचना करने लगे। विराग विजयी हुआ और पिताको निराश हो अपने भवनमे लौट जाना पड़ा । त्रिशलासे सिद्धार्थने सारी बाते कह दी।
त्रिशला अनन्त विश्वास समेटे पुत्रके पास आयी। आते ही पुत्रके समक्ष विश्वकी विषमताका दृश्य उपस्थित किया और मातृ-हृदयकी उत्कट अभिलाषा, आशा और अरमानोंको निकालकर रख दिया। माताने अन्तिम अन्न अश्रुपतनका भी प्रयोग किया। रानीको अपने ऑसुओपर असीम गर्व था। पर कुमार महावीर हिमालयकी अडिग चट्टानकी भॉति अचल रहे। माँ! इच्छासागरका नल अथाह है, इसकी धारा रुक नहीं सकती । अनन्त इच्छाओंकी तृप्ति कभी नहीं हुई है, यही महावीरका सीधा-सा उत्तर था। नारीके समान विश्वके ये मूक प्राणी जिनके गलेपर दुधारा चल रही है, मेरे लिए प्रेमभाजन है। मॉको कुमारके उत्तरने मौन कर दिया। पुत्रके तर्क और प्रमाणोके समक्ष मॉको चुप हो जाना पड़ा।
एक दिन योगीके समान कुमार महावीर जम-चिन्तनमे ध्यानस्थ थे, उसी समय पिताकी पुकार हुई । पिताने पुत्र के सम्मुख अपनी वृद्धावस्थाकी असमर्थता प्रकट करते हुए राज्यके गुरुतर भारको सम्भालनेकी आज्ञा दी। पिताके इस अनुरोधमे करुणा भी मिश्रित थी; किन्तु महावीरका विराग ज्योंका त्यो रहा। उनकी ऑखोंके समक्ष विश्वके रुदन और क्रन्दन मूर्तिमान होकर प्रस्तुत थे; अतः राज्यका वैभव उन्हें अपनी ओर आकृष्ट न कर सका।
करुणासागर कुमारने पशुओंका मूक क्रन्दन सुना, उन्हे दग्ध रुधिरकी धाराओंका दुर्गन्ध मिला, वलिके दृश्य नाचने लगे और राज्यभवन
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काटने लगा । धीरे-धीरे महलसे उतरे और राज्य- वैभवको ठुकराकर चल पडे उस पथकी ओर जहाँ विश्वकी करुणा सचित थी, जहाँ पहुँचकर मानव भगवान् बनता है । जिसके प्राप्त किये बिना मानवता उपलब्ध नहीं होती । समस्त वस्त्राभूषणोको लक्ष्य प्राप्तिमे बाधक समझ दिगम्बर हो गये । आत्मशोधनके लिए प्रयत्न करने लगे । पश्चात् जननायक बन भगवान् महावीरने सामाजिक जीवनका प्रवाह एक नयी दिशाकी ओर मोड़ा ।
खण्डकाव्य
साधारणतः यह अच्छा खण्डकाव्य है । कविने मातृवात्सल्यका स्वाभाविक निरूपण किया है । यद्यपि इस दृष्टिका यह प्रथम प्रयास है, समीक्षा अतः सम्भाव्य त्रुटियोका रहना स्वाभाविक है, फिरभी सवादोमे कविको सफलता मिली है। कुछ स्थलो पर वो ऐसा प्रतीत होता है कि मातृहृदयको कविने निकालकर ही रख दिया है। माता अपनी ममताका विश्वासकर धड़कते हुए हृदय और अश्रुपूरित नेत्रोसे पुत्र कुमारके पास जाते ही पूछती है - "तुम बहते, इस समय कौनसे रसमें" । माँका हृदय पुत्रपर विश्वास ही नहीं रखता है, परन्तु अज्ञात भविष्यकी आशंकाकर मॉ सिहर उठती है और पुत्रसे पूछ बैठती है
इन पशुओं को तो जलना, पर तुम भी व्यर्थ जलोगे । है मरण भाग्यमें जिसके, क्या उसके लिए करोगे ॥
X
X
X फिर क्यों तुम इनकी चिन्ता, करते इस भाँति विरागी बनकर, मम हृदय
हो मेरे
डालते
x
हीरे ।
चीरे ॥
जब कुमारको इतनेपर भी पिघलता हुआ नही देखती है तो मॉर्क हृदयकी foreaा और पिपासा और वृद्धिंगत हो जाती है अतः उसके मुखसे निकल पड़ता है-
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हिन्दी - जैन- साहित्य- परिशीलन
मत दुःखी करो तुम मुझको, दे उत्तर ऐसा कोरा । मानो न मोह को मेरे, तुम अति ही कथा डोरा ॥
वाणीमे ओज, नयनोंमें करुणाकी निर्झरिणी तथा प्राणोमे क्रन्दन भरे हुए पशुओंकी हूकसे व्यथित महावीरके मुख से निकली उक्तियों श्रोता एव पाठको के हृदय तारोंको हिला देनेमें समर्थ है। अपने तर्कसम्मत विचारोंको सत्यका चोगा पहनाकर करुणार्द्र महावीर कह उठते हैंनारी ॥
अधिकारी ॥ सोते-जगते ।
2
ये एक ओर हैं इतने, औ अन्य ओर अब तुम्हीं बताओ इनमें से कौन प्रेम आकृतियाँ इनकी सकरुण, दिखती हैं तय ही तो रमणी से भी रमणीय मुझे ये लगते ॥
कविने इसमे नारी - आदर्शको अक्षुण्ण रखनेका पूरा प्रयास किया
है । नारी वही तक त्याज्य है, जहाँतक वह असत् और असंयमित जीवन
I
।
जीवन - साधनामे शिथिलता
व्यतीत करने के लिए प्रेरित करती है। जब नारी सहयोगी वन जीवनको गतिशील बनानेमे सहायक होती, तब नारी बासनामयी रमणी नही रहती, किन्तु सच्चा साथी बन जाती है उत्पन्न करनेवाली नारी आदर्श नारी नही है राधाका आदर्श रखता हुआ कवि नारीके हुआ कहता है
। अतः सीता, राजुल और आदर्श रूपकी प्रतिष्ठा करता
फिर नर के लिए कभी भी, नारी न बनी है बाधा । बतलाती है यह हमको, सीता भौ राजुल राधा ॥ दुःख में भी करती सेवा, संकट में साहस भरतो । पति के हित में है जीती, पति के हित में है मरती ॥
'विराग' का कवि नारीके सम्बन्धमे चिन्तित है । वह आज नारी परतन्त्रताको श्रयस्कर नही मानता है । अतः चिन्ता व्यक्त करता हुआ कहता है-
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स्फुट कविताएँ
बनती कठपुतली पतिकी, जिस दिन कर होते पीले। पति इच्छा पर ही निर्भर, हो जाते स्वप्न रंगीले ॥ केवल विलास सामग्री, ही मानी जाती ललना। गृहिणी को घर में लाकर, वे समझा करते चेरी ॥
x
कब नारी अपने खोये, स्वत्वोंको प्राप्त करेगी । कब वह निज जीवन पुस्तक, का नव अध्याय रचेगी।
कुमार महावीर राजसिंहासनकी सत्तासे उत्पन्न दोपोके प्रति विद्रोहात्मक चिन्तन करते हैं। इस चिन्तनमे कवि आजकी राजनीतिसे पूर्ण प्रभावित है । अतः युगका चित्र खींचता हुआ कवि कहता है
पूंजीपति इनके आश्रित, रह सुखकी निद्रा सोते । पर श्रमिक कृपक गण जीवन भर दुखकी गठरी ढोते ॥
x समानता, करुणा, लेह और सहानुभूतिके अमर छींटोसे यह काव्य ओत-प्रोत है। पापके प्रति घृणा और पापीके प्रति करुणा तथा उसके उद्धारकी सद्भावना इसमे पूर्णरूपसे विद्यमान है । कवि कहता है
दुष्पाप अवश्य घृणित है, पर घृणित नहीं है पापी।
यदि सद्व्यवहार करो वह, बन सकता पुण्यप्रतापी ॥ विरागकी शैली रोचक, तर्कयुक्त और ओजपूर्ण है। भाव छन्दोम बाँधे नही गये है, अपितु भावोके प्रवाहमें छन्द बनते गये है। अतः कवितामें गत्यवरोध नहीं है । हॉ एकाध स्थलपर छन्दोमग है, पर प्रवाहम वह खटकता नहीं है । भाषा सरल, सुबोध और भावानुकूल है।
स्फुट कविताएँ विचार-जगत्मे होनेवाले आवर्तन और विवर्तन, प्रवर्तन और परिवर्तन . के आधारपर इस बीसवीं शतीकी फुट जैन कविताओंका सम्यक् वर्गीकरण
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हिन्दी-जैन-साहित्य-परिशीलन करना असम्भव-सा है। इस युगकी स्फुट कविताओंको प्रधान रूपसे पुरातन प्रवृत्ति और नूतन प्रवृत्ति इन भागोमे विभक्त कियाजा सकता है।
पुरातन पुरातन-प्रवृत्ति के अन्तर्गत वे रचनाएँ आती हैं, जिनमें लोक हृदयका विश्लेषण तो है, पर कलारानीका रूप सॅवारा नही गया है। उसके अघरों में मुस्कान और ऑखोंसे औदार्यकी ज्योतिकी क्षीण रेखा विद्यमान है। दार्शनिक पृष्ठभूमिकी विशेषताकै कारण आचारात्मक नियमोंका विधिनिषेधात्मक निरूपण ही किया गया है। भाव, भाषा सगी प्राचीन हैं, शैली भी पुरातन है। इस प्रकारकी कविता रचनेवालोमे इस युगके आद्य कवि आरा निवासी बाबू जगमोहनदास है। आपका धर्मरनोद्योत' नामक अन्य प्रकाशित है। इसकी कविता साधारण है, पर माव उच्च है।
श्री बाबू जैनेन्द्रकिशोर भाराने मजन-नवरत्न, श्रावकाचार दोहा, वचन-बत्तीसी आदि कविताएँ लिखी हैं। आप समस्यापूर्ति भी करते थे, आपकी इस प्रकारकी कविताओंपर रीति-युगको स्पष्ट छाप है। नख शिख वर्णनके कुछ पद्य भी आपके उपलब्ध है, ये पद्य सरस और श्रुतिमधुर है ।
कविवर उदयलाल, ब्र० शीतलप्रसाद, हंसवा निवासी लक्ष्मीनारायण तथा लक्ष्मीप्रसाद वैद्यकी आचारात्मक कविताएँ भी अच्छी हैं। इन कविताओमे रस, अलकार और काव्यचमत्कारकी कमी रहनेपर भी अनुभूतिकी पर्याप्त मात्रा विद्यमान है।
श्री मास्टर नन्हराम और झालरापाटन-निवासी श्री लक्ष्मीबाईकी कविताओमे माधुर्य गुण अधिक है। आचारात्मक और नैतिक कर्तव्यका विश्लेषण इन कविताओंमे सुन्दर ढंगसे किया गया है। सप्तव्यसनकी बुराइयोका प्रदर्शन कविता और सवैयोमे सुन्दर हुआ है । दर्शन और आचारकी गढ़ बातोको कवियोंने सरस रूपसे व्यक्त किया है।
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नूतन प्रवृत्ति
जैन गजटकी पुरानी फाइलेमें अनेक ऐसी समस्यापूर्तियाँ हैं जिनमें कवियोके नाम नहीं दिये गये है, परन्तु इन कविताओसे कवियोंकी उस कालकी काव्यप्रवृत्तियो और कविताकी विशेषताओका सहज में ही परिचय प्राप्त हो जाता है।
नूतन प्रवृत्ति नूतन-प्रवृत्तिके कवियोंकी स्फट कविताओका समुचित वर्गीकरण करना असम्भव-सा है। वर्तमान युगमे सहस्रोन्मुखी पहाड़ी झरनेके समान अनेकोन्मुखी जैन काव्य-सरिता प्रवाहित हो रही है। अतः समय-क्रमानुसार इस प्रवृत्तिके कवियोंको तीन उत्थानोमे विभक्त किया जा सकता है। प्रथम उत्थान ई० सन् १९०० से ई० सन् १९२५ तक, द्वितीय उत्थान ई० सन् १९२६-१९४० तक और तृतीय उत्थान ई० सन् १९४१-१९५५ तक लिया जायगा।
प्रथम उत्थानकी स्फुट कविताओको वृत्तात्मक, वर्णनात्मक, नैतिक या आचारात्मक, मावात्मक और गेयात्मक इन पाँच मागोंमे विभक्त किया जा सकता है । ऐतिहासिक वृत्त या घटनाको आधार लेकर जिन कविताओंमे भावामिन्यजन हुआ है, वे वृत्तात्मकसशक हैं। प्राकृतिक दृश्य, स्थान, देशदशा, कोई धार्मिक या लौकिक दृश्यका निरूपण वर्णनात्मक ; नीति, उपदेश, आचार या सिद्धान्त निरूपण आचारात्मक ; शृगार, प्रणय, उत्साह, करुणा, सहानुभूति, रोप, क्रान्ति आदि किसी भावनाका निस्पण भावात्मक और रसप्रधान मधुर एव ल्ययुक्त रचना गेयात्मक है।
वृत्तात्मक रचनाओमे कवि गुणभद्र 'आगास की प्रद्युम्नचरित्र, रामवनवास और कुमारी अनन्तमती रचनाएँ साधारण कोटिकी हैं। इनमे काव्यत्व अल्प और पौराणिकता अधिक है। कवि कल्याणकुमार 'शशि'का देवगढकाव्य भी वृत्तात्मक है। कवि मूलचन्द्र 'वत्सल'का वीर पचरत्न वृत्तात्मक साधारण काव्य है, इसमें प्रण वीर लव-कुशकुमार, युद्धवीर
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हिन्दी - जैन-साहित्य- परिशीलन
प्रद्युम्न कुमार, चीर यशोधर कुमार, कर्मवीर जम्बूकुमार एवं धर्मवीर अकsacaका बालचरित्र अंकित किया गया है ।
"
वर्णनात्मक कविताओंमें जुगलकिशोर मुख्तार 'युगवीर' की 'अलसम्बोधन' नाथूराम 'प्रेमी' की 'पिताकी परलोकयात्रापर, भगवन्त गणपति गोपलीय की 'सिद्धवरकूट', गुणभद्र 'आगास' की 'मिखारीका 'स्वप्न', सूर्यभानु 'डॉगी' की 'संसार', शोभाचन्द्र 'भारितल' की 'अन्यत्व, अयोध्याप्रसाद गोयलीयकी 'जवानोंका बांध, वा० कामताप्रसादकी 'जीवन-शॉकी', लक्ष्मीचन्द्र एम० ए० की "मैं पतझरकी सूची डाली", शान्तिस्वरुप 'कुसुम' की 'कलिकाके प्रति', लक्ष्मणप्रसाद 'प्रशान्त' की 'फूल', खूबचन्द 'पुष्कल' की 'भन्नमन्दिर, पन्नालाल 'वसन्त' की 'त्रिपुरी की आँकी', वीरेन्द्रकुमार एम० ए० की 'वीर वन्दना', घासीराम 'चन्द्र' की 'फूलसे', राजकुमार साहित्याचार्यकी 'आह्वान', ताराचन्द 'मकरन्द' की 'ओम', 'चन्द्रप्रभा देवीकी 'रणभेरी', कमला देवीकी 'रोरी', कमलादेवी राष्ट्रमापाकोविदकी 'हम हैं हरी-भरी फुलवारी' शीर्षक कविताका समावेश होता है। इनमें अधिकांश कविताएँ ऐसी हैं, जिनमें वर्णनके साथ मात्रात्मकता भी पूर्णरूप से विद्यमान है ।
भावात्मक मुक्तक रचनाएँ वे ही मानी जा सकती हैं, जिनमें अनुभूति अत्यन्त मार्मिक हो । कवि सांसारिकतासे उठकर भाव-गगनमें विचरण करता दृष्टिगोचर हो । अन्तर्वृत्तियाँका उन्मीलन हो, पर बाह्यजगत्के सुधार- परिकारॉकी चर्चा न की गयी हो ।
नैराव्य, भक्ति, प्रणय और सौन्दर्यकी अभिव्यनना ही जिसका चरम लक्ष्य रहे और जिसकी आरम्भिक पंक्तिके श्रवणसे ही पाठकके हृदय मे सिहरन, प्रकम्पन और आलोटन - विलोडन होने लगे, वह श्रेष्ठ भावात्मक मुक्तक रचना कही बा सकती है। अतएव भावविह्वलता, विदग्धता और संकेतात्मकताका इस प्रकारकी कवितायें रहना परम आवश्यक है । आधुनिक जैन कवियमं श्रेष्ठ भावात्मक काव्य लिखनेवाले ग्रायः नहीं
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नूतन प्रवृत्ति हैं। कुछ ऐसे कवि अवश्य है, जिनकी रचनाओंमे गूढ भाव अवश्य पाये जाते है । शोक, आनन्द, वैराग्य, .कारुण्य आदि भावोकी अमिव्यञ्जना रे, हाय, आह, आदि शब्दोको प्रयुक्त कर की है।
इस कोटिमे मुख्तार सा० की 'मेरी भावना भगवन्त गणपति गोयलीयकी 'नीच और अछूत', कवि चैनसुखदासकी 'जीवनपट', कवि सत्यभक्तकी 'झरना', कवि कल्याणकुमार 'शशि'को 'विश्रुतजीवन', कवि भगवत्त्वरूपकी 'सुख शान्ति चाहता है मानव', कवि लक्ष्मीचन्द्र एम० ए० की 'सजनी ऑसू लोगी या हास', कवि बुखारिया 'तन्मय की 'मै एकाकी पथभ्रष्ट हुआ', अमृतलाल चंचलकी 'अमरपिपासा', पुग्कलकी 'जीवन दीपक', अक्षयकुमार गगवालकी 'हलचल', मुनिश्री अमृतचन्द्र 'सुधा की 'अन्तर' और 'बढ़े जा', सुमेरचन्द्र 'कौशल की 'जीवन पहेली' और 'आत्म-निवेदन', वालचन्द्र विशारद की 'चित्रकारसे' और 'ऑसूसे, श्रीचन्द्र एम० ए० की 'आत्मवेदन' एवं कवि 'दीपक' की 'झनकार
आदि कविताएँ प्रमुख हैं। कवि बुखारिया और पुष्कल मावात्मक रचनाओके अच्छे रचयिता है।
आचारात्मक कविताएँ पत्र-पत्रिकाओम प्रकाशित होती रहती है | इस कोटिकी कविताओमे प्रायः काव्यत्वका अभाव है।
गेयात्मक रचनाओम मानवकी रागात्मिका वृत्तिको अधिकसे अधिक रूपमें जाग्रत करनेकी क्षमता, कल्पना-द्वारा भावोत्तेजनकी शक्ति और नादसौन्दर्य युक्त संगीतात्मकता अवन्य पायी जाती है। गेय काथ्योम संगीतका रहना परम आवश्यक है। जिस काव्यमे संगीत नहीं, वह भावगाम्भीर्यके रहनेपर भी गेयात्मक नहीं हो सकता । वस्तुतः गेयकाव्योम अन्तर्जगत्का स्वाभाविक परित्फुरण रहता है और रसोद्रेक करनेके लिए कवि स्वर और लयके नियमित आरोह-अवरोहसे एक अद्भुत संगीत उत्पन्न करता है, जिससे श्रोता या पाठक अनिर्वचनीय आनन्दकी प्राप्ति करता है।
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३० हिन्दी-जैन साहित्य-परिशीलन
गेय काव्य लिखनेमे कवयित्री कुन्युकुमारी, प्रेमलता कौमुदी, कमलादेवी, पुष्पलता देवी, कवि 'अनुज', 'पुष्पेन्दु', 'स्तन', 'गगवाल', 'बुखारिया', आदिको अच्छी सफलता मिली है । कवि रामनाथ पाठक 'प्रणयी'का 'तीर्थकर' शीर्षक एक सोलह-सत्रह गीतोका सुन्दर संकलन प्रकाशित हुआ है। ये सभी गीत गेय है। इनमें भावनाओंकी भी सुन्दर अभिव्यञ्जना हुई है।
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नवाँ अध्याय हिन्दी जैन गद्य साहित्यका क्रमिक विकास
और विभिन्न प्रवृत्तियाँ हिन्दी जैन गध साहित्य : पुरातन
(१४वीं शती से १९वीं शती तक) जिसमे वाक्योंकी नाप-तौल, शब्द और वाक्योंका क्रम निश्चित न हो तथा जो प्रतिदिनकी बोल-चालकी भापामे लिखा जाय, उसे गद्य कहते हैं। प्रतिदिनके व्यवहारकी वस्तु होनेके कारण पद्यकी अपेक्षा गद्यका अधिक महत्त्व है। परन्तु विश्वकै समस्त साहित्यमे पद्यात्मक साहित्यका प्रचार सुदूर प्राचीनकालसे चला आ रहा है । मानव स्वभावतः सगीत-प्रिय होता है, अतएव उसने अपने भाव और विचारोकी अमिव्यञ्जना भी सगीतात्मक पद्योंमें की है। यही कारण है कि गद्यात्मक साहित्यकी अपेक्षा पद्यात्मक साहित्य प्राचीन है। जैन लेखकोने पद्यात्मक साहित्य तो रचा ही; पर गद्यात्मक साहित्य भी विपुल परिमाणमे लिखा । साधारण जनता गद्यम अभिव्यजित भावनाओको आसानीसे ग्रहण कर सकती थी, अतएव उत्तरीय भारतमें अनेक गद्य रचनाएँ १४वी शताब्दीके पहले भी लिखी गई। __ जैन हिन्दी साहित्यका निर्माण केन्द्र प्रधानतः जयपुर, आगरा और दिल्ली रहा है। अतः जैन लेखको द्वारा लिखा गया गद्य राजस्थानी और ब्रजभाषा दोनों में पाया जाता है। राजस्थानमे गद्य लेखनकी अखण्ड
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हिन्दी - जैन- साहित्य- परिशीलन
परम्परा अपभ्रगकालसे लेकर आजतक चली आ रही है। इसमे कोई आश्चर्य नहीं कि राजस्थानमे अनेक गद्य ग्रन्थ अभी भी अन्चेपकोंकी प्रतीक्षा कर रहे है ।
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जैन लेखकोने उपन्यास या नाटककै रूपमे प्राचीनकालमे गद्य नहीं लिखा । कुछ कथाएँ गद्यात्मक रूपमे अवश्य लिखी गई। प्राचीन संस्कृत और प्राकृतके कथाग्रन्थोके अनुवाद भी ढूंढारी भाषामे लिखे गये, जिससे सर्वसाधारण इन कथाओको पढ़कर धर्म-अधर्म के फटको समझ सके । वस्तुतः जैन गद्यकारोने अपने प्राचीन ग्रन्थोंका हिन्दी गद्यमे अनुवाद कर गद्य साहित्यको पल्लवित किया है । अनेक कथाग्रन्थोंका तो भावानुवाद भी किया गया है, जिससे इन लेखकोंकी गद्य-विपयक मौलिक प्रतिभाका सहज परिज्ञान हो जाता है । अनेक तात्त्विक और आचारात्मक ग्रन्थोंकी टीकाऍ भी हिन्दी गद्यमे लिखी गयी, जिनसे दुरुह ग्रन्थ सर्वसाधारणके लिए भी सुपाठ्य वने ।
१७वी शताब्दी के मध्यभागमे राजमल पाण्डेयने गद्यमे समयसारपर टीका लिखी | इस टीकाने क्लिष्ट और अगम्य तात्त्विक चर्चाको अत्यन्त सरल और सरस बना दिया। इसके गद्यकी भाषा द्वढारी है, यह राजस्थानी भापाका एक भेद है । कविवर बनारसीदासको नाटक समयसारकै चनानेकी प्रेरणा इसी टीकासे प्राप्त हुई । इसकी भापामे विपयको स्पष्ट करनेकी क्षमता है और जिस बातको यह कहना चाहते हैं, सीधे-सादे ढगसे उसे कह देते हैं । लेखकका भापापर पूरा अधिकार है, उसमे विश्लेपण और विवेचनकी पूरी शक्ति है । संस्कृतके कठिन शब्दोको अपनी भाषामे उसने नहीं आने दिया है, शक्तिभर हिन्दीके पर्यायी शब्दों द्वारा विपयका स्पष्टीकरण किया गया है । भाषामे प्रवाह अपूर्व है, पाठक बहता हुआ fares arrest प्राप्त कर लेता है । समासान्त प्रयोगोका प्रायः अभाव है । परिचितसे सरल तत्सम शब्दका प्रयोग भाषामें माधुर्य के साथ भावाभिव्यक्तिकी क्षमताका परिचय दे रहा है । यद्यपि आजके युगमे यह
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पुरातन गद्य
भाषा भी दुरूह मानी जाती है, पर विषयको हृदयंगम करनेमें इसका बडा महत्त्व है । उदाहरण के लिए कुछ पक्तियों उद्धृत की जाती है :
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"यथा कोई वैद्य प्रत्यक्षपने विष कछु पीछे है तो फुनि नही मरे है और गुण जौने है तिहिं तें अनेक यातन जानै छै । तिहिं करि विषकी प्राणघातक शक्ति दूर कीनी है । वही विप खाय तो अन्य जीव तत्काल मरे, तिहि चिपसो बैद्य न मरै । इसी जानपनाको समर्थपनो छे अथवा कोई शूद्र जीच मतवालो न होइ जिसो थो तिसो ही रहे ।" कविवर बनारसीदास हिन्दी भाषाकै उच्चकोटिके कवि होनेके साथ गद्य रचयिता भी है। आगरामै बहुत दिनोतक रहने के कारण इनके गद्यकी भाषा व्रजभाषा है। इन्होने परमार्थ- वचनिका और उपादान-निमित्तकी चिट्ठी गद्यमें लिखी है । इनकी गद्यशैली व्यवस्थित है, भाषाका रूप निखरा हुआ है और क्रियापद प्रायः विशुद्ध व्रजभाषाके है । सस्कृतके कुछ क्रियापद भी इनकी भाषामे विद्यमान है। लिख्यते, कथ्यते, उच्यते जैसे क्रियापदोका प्रयोग भी यथास्थान किया गया है। संस्कृतके तत्सम शब्द विपुल परिमाणमें वर्तमान हैं।
बनारसीदासकी गद्यशैली सजीव और प्रभावपूर्ण है। शब्द सार्थक, प्रचलित और भावानुकूल प्रभाव उत्पन्न करनेकी क्षमता रखते है । यद्यपि विपयके अनुसार पारिभाषिक शब्दोका प्रयोग किया गया है, पर इससे लिष्टता नही आयी है । वाक्योका गठन स्वाभाविक है, दूरान्वय या उलझे हुए वाक्य नही है । लेखकने अनुच्छेदयोजना - एक ही प्रसगसे सम्बद्ध एक विचारधाराको स्पष्ट करनेवाले वाक्योंका सगठन, बहुत ही सुन्दरकी है । भावोको शृंखलाकी कडियोकी तरह आबद्ध कर रखा है । ब्रजभाषाका इतना परिष्कृत रूप अन्यत्र शायद ही मिल सकेगा । नमूना निम्न है
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"एक जीव द्रव्य जा भौतिकी अवस्था लिये नानारूप परिन मैं सो भाँति अन्य नीवसों मिले नाहीं । बाकी और भाँति । याही भाँति
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हिन्दी-जैन-साहित्य-परिशीलन अनन्तानन्त स्वरूप जीवद्रव्य अनन्तानन्त स्वरूप अवस्था लिये वर्तहिं । काहु जीवद्न्यके परिनाम काहु जीवद्रव्य और स्यों मिलइ नाहीं। याही भाँति एक पुद्गल परमानू एक समय माहिं ना भाँतिकी अवस्था धरै, सो अवस्था अन्य पुद्गल परमानू न्यसौं मिले नाहीं । तातै पुल (परमाणु ) व्यकी अन्य अन्यता जाननी।"
परमार्थवचनिकाकी भापाकी अपेक्षा इनकी 'उपादान निमित्तकी चिट्ठी की भापा अधिक परिपकृत है। यद्यपि हुँदारी भापाका प्रभाव इनकी भाषा पर स्पष्ट लक्षित है, तो भी इस चिट्ठीकी भापामे भावप्रवणता पर्याप्त है। वाक्यों के चयनमे भी लेखकने बड़ी चतुराईका प्रदर्शन किया है। नमूना निम्न है
"प्रथमहि कोई पूछत है कि निमित्त 'कहा, उपादान कहा ताको औरौ-निमित्त तो संयोगरूप कारण, उपादान वस्तुकी सहन शक्ति । ताको व्यौरी-एक च्यार्थिक निमित उपादान, एक पर्यायार्थिक निमित्त उपादान, ताको व्यौरी-दन्यार्थिक निमित्त उपादान गुनभेद कल्पना।"
उपर्युक्त उद्धरणोंसे स्पष्ट है कि बनारसीदासके गद्यमें भावोंके व्यक्त करनेकी पूर्ण क्षमता है। पाठक उनके विचारोसे गद्य-द्वारा अभिज्ञ हो सकते हैं।
संवत् १७०० के आस-पास अखयरान श्रीमाल हुए । इन्होने 'चतुर्दश गुणस्थान चर्चा' नामक स्वतन्त्र ग्रन्थ तथा कई स्तोत्रोंकी हिन्दी वचनिकाएँ लिखीं। लेखकने सैद्धान्तिक विषयोको बड़े हृदय-प्राह्य ढगसे समझाया है । यद्यपि वाक्योंके सगठनमें त्रुटि है, पर शब्दचयन सार्थक है। तत्सम अब्दोका प्रयोग बहुत कम किया है। दूरान्वय गद्यमें नहीं है । लेखकने व्यंजनावग्रहको समझाते हुए लिखा है
जो अप्रगट भवग्रह होई सो व्यानावग्रह कहिये। अप्रगट जे पदार्थ से तत्काल जान्यां न नाई। जैसे कोरे घासन पर पानीकी बूंद
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पुरातन गद्य
दोइन्च्यारि पड़े तो जानि न जाई, पासन आला न होइ । जब बारम्बार भाइये तव आला होई, तैसे स्पर्शादि इन्द्री ४ तिनके सनमधि जे परमानु पनपं है ते तल्काल व्यञ्जनावग्रह करि नाहिं प्रगट होते।"
उपर्युक उद्धरणते स्पष्ट है कि आला, वासन जैसे देशज शब्दोका प्रयोग एवं सनमधि जैते अपभ्रंश शन्दोंका प्रयोग इनके गद्यमें बहुलवासे पाया जाता है। शब्दोकी तोड़-मरोड़ भी यथास्थान विद्यमान है।
हिन्दी वचनिककारोम पाण्डे हेमराजका नाम अग्रगण्य है। इन्होने १७वीं शतीके अन्तिम पादमें प्रवचनसार टीका, पंचास्तिकाय टीका तथा मक्तामर भाषा, गोम्मटसार भाषा और नयचक्रकी वचनिका ये पॉच रचनाएँ लिखी हैं । इनके गद्यकी भाषा व्यवस्थित और मधुर है । टीकाओकी गैली पुरातन है तथा संस्कृत टीकाकारोंके अनुसार खण्डान्वय करते हुए लेखकके विषयका स्पष्टीकरण किया है। यद्यपि अनेक स्थलोपर गद्यमे शिथिलता है, तो मी भावाभिव्यक्तिी कमी नहीं आने पायी है । मापाम पंडिताऊपन इतना अधिक है, जिससे गद्यका सारा सौन्दर्य, विकृत-सा हो गया है । इनके गद्यका नमूना निम्न है___ "किल निश्चय करि, अहमपि मैं जुही मानतुंग नाम आचार्य सो तं प्रथमं जिनेन्द्र स्तोप्ये, सो जुहै प्रथम जिनेन्द्र श्रीआदिनाथ ताहि स्तोप्ये-स्वगा। कहाकारि स्तोत्र करौंगो, निनपादयुगं सम्यक् प्रणम्य-तिन जुहें भगवान तिनके पाद युग दोई चरण कमल ताहि सम्यक् कहिये, भली-भाँति मन-वच कायाकरि प्रणन्य नमस्कार करिकै। कैसो है भगवान्का चरण द्वय ।...भक्तिवंत जुहै अमर देवता, तिनके नन्त्रीभूत जु है मौलि मुकुट तिन विलु है मणि, तिनकी जु प्रभा तिनका उद्योतक है। यद्यपि देवमुकुटनि उद्योत कोटि सूर्यवत है, तथापि भगवान्के चरण नखकी दीप्ति भाग, वे मुकुट प्रभारहित ही हैं।" ___ पाण्डे हेमरान्ने हो, भौरि, उ है, सो जैसे ब्रजभाषाके शब्दोका भी प्रयोग किया है। क्रियापद बन और हॅदारी दोनो ही भाषामोसे ग्रहण
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हिन्दी-जैन-साहित्य परिशीलन किये हैं। छोटे-छोटे समारोंका प्रयोग कर अभिव्यजनाको शक्तिशाली बनानेका पूर्ण प्रयास किया गया है।
कविवर रूपचन्द पाण्डे महाकवि बनारसीदासके अभिन्न मित्र थे। इन्होंने बनारसीदासके नाटक समयसारपर हिन्दी गद्यमे टीका लिखी है। इनकी गद्य शैली बनारसीदासकी गद्य शैलीसे मिलती-जुलती है । वाक्यगठनमें कुछ सफाई प्रतीत होती है। रूपचन्दने संस्कृतके तत्सम शब्दोके साथ जतन, पहार, विजोग, वखान जैसे तद्भव शब्दोंका भी प्रयोग किया है । अरबी-फारसीके चलते हुए शब्द दाग, दुसमन, दगा आदिको भी स्थान दिया है | भावाभिव्यञ्जनमे सफाई और सतर्कता है। .
इनके वाक्य अधिकतर लम्बे होते है, परन्तु अन्वयमे क्लिष्टता नहीं है। सरलता और स्पष्टता इनके गद्यकी प्रधान विशेषता है। प्रचलित शब्दोंके प्रयोग-द्वारा मापामें प्रवाह और प्रभाव दोनों ही को उत्पन्न करनेकी चेष्टा की गयी है। शुष्क विषयमे भी रोचकता उत्पन्न करनेका प्रयास स्तुत्य है। भापा और शैली-सम्बन्धी अव्यवस्था और अस्थिरताके उस युगमे इस प्रकारके गद्यका लिखा जाना लेखककी प्रतिभा और दूरदर्शिताका परिचायक है । इनके गद्यका नमूना निम्न है
"जैसे कोई पुरुप पहारपर पदिक नीची दृष्टि करै तब तलहटीको पुरुप तिस पहारीको छोटो-सो लागै, भरु तलहटी बारौ पुरुप तिहि पहार वारौको लखै देखै तो पहार बारौ छोटो-सो लागे। पीछे दोनों उतरिक मिले तब दुहोको श्रम भाग। तैसे अभिमानी पुरुप ऊँची गरदन राखनहारों और जीवकों लघु पदको दाग है इतनै छोटै तुच्छ करि नानै ।"
१८वी शताब्दीके मध्य भागमे दीपचन्द कासलीवालका जन्म हुआ। इन्होंने संस्कृत, प्राकृत और अपनश भापाके ग्रन्थोंका हिन्दीमें अनुवाद न कर स्वतन्त्ररूपसे जैन हिन्दी गद्य साहित्यकी श्रीवृद्धि की। इनकी अनुभव प्रकाश, चिविलास, गुणस्थानभेद आदि धार्मिक रचनाएँ प्रसिद्ध है। इनकी गद्यशैली संयत है, वाचक शब्दोंके अतिरिक्त लक्षक शब्दोका
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पुरातन गद्य
प्रयोग भी इन्होने किया है। इनकी भाषा हॅूढारी है। छोटे-छोटे वाक्यो मे गम्भीर अर्थ प्रकट करना इनकी वैयक्तिक विशेषता है । भाषामे तत्सम संस्कृत शब्दो के साथ मारवाड़ी प्रयोग भी पाये जाते है। हॉ, अरत्रीफारसीके शब्दों का इनके गद्यमे अभाव है। इनके गद्यको देखनेसे ऐसा मालूम होता है कि इन्होने जानबूझकर अरबी-फारसीके शब्दोका बहिष्कार किया है; क्योकि राजस्थानी भाषामे भी अरवी - फारसीके प्रचलित शब्दोका प्रयोग देखा जाता है । गद्य शैलीकी स्वच्छता इनकी प्रशसनीय है । गद्यका नमूना निम्न प्रकार है-
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"प्रथम लय समाधि कहिये परणामताकी लीनता । निज वस्तु विषै परिणाम करतै । राग दोप मोह मेटि दरसन ज्ञान अपना सरूप प्रतीतिमें अनुभवै । जैसे देह में आपकी बुद्धि थी तैसे आत्मामें बुद्धि धरी । चा बुद्धिस्वरूप मैं तैं न निकसैं, जब ताई तब ताई' निज लयसमाधि कहिये । लय सबद भया निजमें परिणामलीन अर्थं भया । सबद अर्थका ज्ञानपणां ज्ञान भया । तीन भेद लय समाधिके हैं ।"
बंसवानिवासी ५० दौलतरामने पुण्यास्तवकथाकोप, पद्मपुराण, आदिपुराण और वसुनन्दि श्रावकाचार इन चार ग्रन्थोका हिन्दी गद्यमे अनुवाद किया है । इनके गद्यको हिन्दी साहित्यके प्रसिद्ध इतिहासकार प० रामचन्द्रशुक्लने अपरिमार्जित खड़ी बोली माना है। इन गद्य ग्रन्थोकी भाषा इतनी सरल है, जिससे गुजराती और महाराष्ट्री भी इन ग्रन्थोंको बड़े चावसे पढते है । गुजरात और महाराष्ट्रके जैन सम्प्रदायमे इन ग्रन्थोंने हिन्दी भाषा के प्रचारमें बड़ा योग दिया है।
यद्यपि गद्यपर हॅू दारीपन की छाप है, फिर भी यह गद्य खडी बोली के अधिक निकट है । भापाकी सरलता, स्वच्छता और वाक्य गठन इनकी tarai कमनीयता प्रकट करते है । साधारण बोलचालकी भाषाका प्रयोग इन्होंने खुलकर किया है । इनके गद्यमे प्रतिदिनके व्यवहारमे प्रयुक्त
अरबी-फारसी के शब्द भी है, जिससे भाषाका रूप निखर गया है । यद्यपि
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हिन्दी - जैन- साहित्य - परिशीलन
इनकी सख्या अल्प ही है, फिर भी इन्होंने गद्यको सशक्त और भाव व्यक्त करनेमे सक्षम बनाया है ।
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ध्वनि-योजना, शब्द-योजना, अनुच्छेद-योजना और प्रकरण-योजना का प० दौलतरामने पूरा निर्वाह किया है। भावोकी कटुता अथवा निग्धताकै कारण अनुकूल ध्वनि-वर्णोंका सगठन करनेमे इन्होंने कोर - कसर नही की है । कोमल, ललित और मधुर भावकी अभिव्यक्तिकै लिए तदनुकूल ध्वनियोंका प्रयोग किया है। अनुवादमे यही इनकी मौलिकता है कि ये युद्ध, रति, श्रृङ्गार, प्रेम आदिके वर्णनमें अनुकूल ध्वनियोंका सन्निवेश कर सके है । शब्द इनके सार्थक और भावानुकूल है, एक भी निरर्थक शब्द नही मिलेगा । व्याकरणके नियमोंपर ध्यान रखा गया है, किन्तु ब्रज, ढूँढारी और खडी बोलीका मिश्रितरूप रहने के कारण व्याकरणके नियमोंका पूर्णरूपसे पालन नहीं किया गया है और यही कारण है कि क्रियापद विकृत और तोडे-मरोडे गये है । वाक्योका गठन इस प्रकारसे किया गया है, जिससे गद्यमे अस्वाभाविकता और कृत्रिमता नही आने पायी है। वाक्य यथासम्भव छोटे-छोटे और एक सम्पूर्ण विचारके द्योतक है ।
एक ही प्रसगसे सम्बद्ध एक विचारधाराको स्पष्ट करनेके लिए अनुच्छेद योजना की जाती है । लेखकने घटनाकी एक शृङ्खलाकी कडियोको परस्पर आबद्ध करनेकी पूरी चेष्टा की है। अनुच्छेद के अन्तमे विचारकी अग्रगतिका आभास भी मिल जाता है ।
अनुवादक होनेपर भी पं० दौलतरामने प्रकरणोका सम्बन्ध ऐसा सुन्दर आयोजित किया है, जिससे वे मौलिक रचनाकार के समकक्ष पहुँच जाते हैं । अनुवादमें श्लोकोंके भावको एक सूत्रमें पिरोकर कथाके प्रवाहको गतिशीलता दी है। पद्मपुराणके अनुवादमे तो लेखक अत्यन्त सफल है। इनकी गद्यशैलीका नमूना निम्न है
"भरत चक्रवर्ती पदक प्राप्त भए, भर भरतके भाई सब ही मुनि
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पुरातन गद्य
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व्रत धार परमपदको प्राप्त हुए, भरतने कुछ काल छैखण्डका राज्य किया, अयोध्या राजधानी, नवनिधि चौदह रत्न प्रत्येककी हजार-हजार देव सेवा करे, तीन कोटि गाय, एक कोटि हल, चौरासी लाख हाथी, इतने ही रय, अगरा कोटि घोडे, बत्तीस हजार मुकुटबन्द राजा भर इतने ही देश महासम्पदाके भरे, छियानवे हमार रानी देवांगना समान, इत्यादि चक्रवर्तीके विभधका कहॉतक वर्णन करिये। पोदनापुरमे दूसरी माताका पुत्र वाहुबली सो भरतकी भाज्ञा न मानते भए, कि हम भी ऋपमदेवके पुत्र हैं किसकी आज्ञा मानें, तब भरत बाहुवलीपर चढे, सेना युद्ध न ठहरा, दोऊ भाई परस्पर युद्ध करें यह ठहरा, तीन युद्ध थापे, १ दृष्टियुद्ध, २ जलयुद्ध भर ३ मल्लयुद्ध ।"
इस उद्धरणसे स्पष्ट है कि खड़ी बोलीके गद्यके विकासमे इनकी गद्य शैलीका कितना महत्त्वपूर्ण स्थान है।
मुनि वैराग्यसारने संवत् १७५९ मे 'आठ कर्मनी १०८ प्रकृति नामक गद्य ग्रन्थकी रचना की थी। शैली और भापा दोनोपर अपभ्रशका पूरा प्रभाव है। 'न के स्थानपर 'ण', दूसरेफे स्थानपर 'वीजउ' का प्रयोग तथा द्वित्व वर्ण विशिष्ट भाषा पायी जाती है।
१९ वीं शताब्दीके आरम्भमे कवि भूधरदासने 'चरचासमाधान' नामक गद्य ग्रन्थ लिखा है। यद्यपि इसमें विमक्तियाँ ढूंढारी है, पर भाषा खडी बोलीके अत्यासन्न है । गद्यशैली स्वस्थ और भावाभिव्यक्तिमे सक्षम है। इसमे लेखकने धार्मिक काओका निराकरण कर सिद्धान्त निरूपण किया है। इनके गद्यका नमूना निम्न प्रकार है
"उपदेश कार्य विपै तो आचार्य मुख्य है। पाठ पठनमें उपाध्याय मुख्य है। संयमके साध विपै साधुकी वडी शक्ति है। मौनावलम्बी पीर विरक्त है, यात साधुपद उत्कृष्ट है। समानपने साधु तीनोंको कहिये । बिशेप विचार विषै साधुपदको ही जानना । याते आचार्य उपाध्यायको साधु कयो । साधूको भाचार्य उपाध्याय न कहिये।
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हिन्दी-जैन साहित्य-परिशीलन
सवत् १८२० मे चैनसुखने शतश्लोकी टीका और इनसे पहले दीपचन्दने बालतन्त्र भाषा वचनिका लिखी। इन अन्योंका गद्य ढूँढारी भाषा का है और शैली भी इसी भाषाकी है | वाक्योके गठनमें शिथिलता है।
उन्नीसवीं शतीके मध्यभागमे 'अबउचरित' नामक भाषा ग्रन्थ अमरकल्याणने लिखा । इनके गद्यपर अपभ्रश भाषाका स्पष्ट प्रभाव है, कही-कही तो वाक्यप्रणाली और शब्द योजना अपभ्रंशकी ही है।
किसी अज्ञात लेखकका 'जम्बू कथा' अन्य भी उपलब्ध है। इसकी गद्य रचना पुरानी हूँढारी भाषामे है। छोटे-छोटे वाक्योंमें विषयकी व्यजना स्पष्ट रूपसे हुई है । शैलीमें जीवटपना है । संस्कृतके तत्सम शब्दों का प्रयोग खुलकर किया है।
सवत् १८५८ मे ज्ञानानन्दने श्रावकाचार लिखा । इनका गद्य बहुत ही व्यवस्थित और विकासोन्मुखी है। नमूना निम्न है
"सर्व जगवकी सामग्री चैतन्य सुभाष बिना जडत्व सुभावमें धरे फीकी, जैसे लून विना मलौनी रोटी फीकी । तीसो ऐसे ग्यानी पुरुष कौन है सो ज्ञानामृत के छोढ उपाधीक आकुलतासहित दुषने आचरें कदाचित न आचरै।"
उन्नीसवी शताब्दीमें ही धर्मदासने इष्टोपदेश-टीका लिखी। इनका गद्य खडी बोलीका है। विभक्तियों पुरानी हिन्दीकी हैं, तथा उनपर राजस्थानी और ब्रजभाषाका पूरा प्रभाव है। भाषा साफ सुथरी और व्यवस्थित है । नमूना निम्न है
"जैसे जोगका उपादान जोग है वा धतुराका उपादान धतुरा है मानका उपादान आन है अर्थात् धतुराके आम नहीं लागै भर आम्रके धतुरा नाही लागै, वैसैही आरमाके आत्माकी प्राप्ती सम्भव है। प्रश्नप्राप्तकी प्राप्ती कोण दृष्टान्त करि सम्भवै सो कहो । उत्तर जैसे कंटमें मोती माला प्राप्त है भर भरमसै भूलिकरि कहके मेरी मोतीकी माला गुम गई-मेरी मोर्चे प्राप्ती कैसे होवै।"
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आत्मकथा -काव्य
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१९ वीं शताब्दीमे ही स्वनामधन्य महापण्डित टोडरमलका जन्म हुआ । इन्होंने अपनी अप्रतिम प्रतिभा द्वारा जैन सिद्धान्तके श्रष्ठतम ग्रन्थ गोम्मटसार, लब्धिसार, क्षपणसार, त्रिलोकसार, आत्मानुशासन आदि अन्थोका हिन्दी गद्यमे अनुवाद किया। अनुवादके अतिरिक्त ढूँढारी भाषामे मोक्षमार्गप्रकाशकी रचना की । यह मौलिक ग्रन्थ विपयकी दृष्टिसे तो महत्त्वपूर्ण है ही, पर भापाकी दृष्टिसे भी इसका अधिक महत्त्व है । ढूँढारी भाषा होनेपर भी गद्यके प्रवाहमे कुछ कमी नहीं आने पायी है तथा ऊँचेसे ऊँचे भावोकी अभिव्यञ्जना भी सुन्दर हुई है । भाव व्यक्त करनेमे भाषा सशक्त है, शैथिल्य बिल्कुल ही नहीं है । गद्यका नमूना निम्न प्रकार है
"बहुरि मायाका उदय होतें कोई पदार्थको इष्ट मानि नाना प्रकार छलनिकर ताकी सिद्धि किया चाहें; रत्न सुवर्णादिक अचेतन पदार्थनिकी वा स्त्री दासी दासादि सचेतन पदार्थनिकी सिद्धिके अर्थि अनेक छल करै, डिगनेके अर्थि अपनी अनेक अवस्था करै वा अन्य अचेतन सचेतन पदार्थनिकी अवस्था पलटावै इत्यादि रूप छल करि अपना अभिप्राय सिद्ध किया चाहै या प्रकार मायाकी सिद्धि के अर्थि छल तो करै अर इष्टसिद्ध होना भवितव्य आधीन है, वहरि लोभका उदय होते पदार्थनिकों इष्ट मानि तिनकी प्राप्ति चाहें, वस्त्राभरण धनधान्यादि अचेतन पदार्थनिकी तृष्णा होय, बहुरि स्त्री-पुत्रादि सचेतन पदार्थनिकी तृष्णा होय, बहुरि आपकै वा अन्य सचेतन अचेतन पदार्थ के कोई परिणमन होना इष्ट मानि farst fae परिणमनरूप परिणमाया चाहै या प्रकार लोभ करि इष्ट प्राप्तिको इच्छा तौ होय अर इष्ट प्राप्ति होना भवितव्य आधीन है" । १९ वी शतके तृतीयपादमें पं० जयचन्द्रने सर्वार्थसिद्धि वचनिका [ १८६१ ], परीक्षामुख वचनिका [ १८६३ ] द्रव्यसग्रह बचनिका [ १८६३ ], स्वामिकार्त्तिकेयानुप्रेक्षा [ १८६६ ], आत्मख्याति समयसार [ १८६४ ], देवागम स्तोत्र वचनिका [ १८६६ ], अष्टपाहुड वचनिका
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हिन्दी - जैन साहित्य-परिशीलन
[ १८६७ ], ज्ञानाणंच टीका [ १८६८ ], भक्तामर चरित्र [ १८७० ], सामायिक पाठ और चन्द्रप्रभ काव्यके द्वितीय सर्गकी टीका, पत्र-परीक्षावचनिका आदि ग्रन्थ रचे । टीकाओकी भाषा पुरानी ढूँढारी है; फिर भी विपयका स्पष्टीकरण अच्छी तरह हो जाता है । उदाहरणार्थ निम्न गद्याच उदधृत है
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"यहाँ कार्य ग्रहण तो कर्मका तथा अवयवीका अर अनित्यगुण तथा प्रध्वंसाभावका ग्रहण है। बहुरि कारणको कहते हैं, समवायी समवाय तथा प्रध्वंस के निमित्तका ग्रहण है । बहुरि गुणतें नित्य गुणका ग्रहण है अर गुणी कहते हैं गुणके आश्रयरूप हव्यका ग्रहण हैं । बहुरि सामान्य ग्रहण पर, अपर जातिरूप समान परिणामका ग्रहण है । 'तथैव, तद्वत्' वचनतै अर्थरूप विशेपनिका ग्रहण है। ऐसे वैशेषिकमती माने है जो इन सबके भेद ही है, ये नाना ही हैं, अभेद नाही हैं । ऐसा एकान्तकार मान है। ताकूँ आचार्य कहें हैं कि ऐसा मानने तँ दूपण आ है" ।
२० वी शती के प्रारम्भमें पं० सदासुखदास, पन्नालाल चौधरी, पं० भागचन्द्र, चपाराम, जौहरीलाल शाह, फतेहलाल, शिवचन्द्र, शिवनीलाल आदि कई टीकाकार हुए। इन टीकाओंसे जैन हिन्दी साहित्यम गका प्रचलन तो हुआ, पर गद्यका प्रसार नही हो सका ।
आधुनिक गद्य साहित्य [ २०वी शती ]
जैन लेखक आरम्भ से ही ऐसे भावको, जिनमें जीवनका सत्य, मानवकल्याणकी प्रेरणा और सौन्दर्यकी अनुभूति निहित है, उपयोगी समझ स्थायी बनानेका यत्न करते आ रहे हैं। मानव भावनाओंकी अभिव्यक्तिका संग्रह नवीन रूपसे इस शताब्दीमे गद्यमं जितना किया गया है उतना पद्यमे नहीं । कारण स्पष्ट है कि आजका मानव तर्क और भावना के साम
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आधुनिक गद्य साहित्य
अस्यम ही विकासका मार्ग पाता है, अतः आधुनिक युगमें ऐसा साहित्य ही अधिक उपयोगी हो सकता है, जिसमे बुद्धिपक्षकी तार्किकता भी पर्यात मात्रामे विद्यमान रहे । जीवनकी विवेचना तथा मानवकी विभिन्न समस्याओका सर्वाङ्गीण और सूक्ष्म ऊहापोह गयके माध्यम द्वारा ही सभव है। इस वीसवीं शताब्दीम विषयके अनुरूप गद्य और पद्मक प्रयोगका क्षेत्र निर्धारित हो चुका है। कथा-वर्णन, यात्रा-वर्णन, भावोके मनोवैज्ञानिक विग्लेपण, समालोचना, प्राचीन गौरव-विवेचन, तथ्य-निरपण आदिमे गद्य शैली अधिक सफल हुई है।
इस शताब्दीमें निर्मित जैन गद्य साहित्यके रत्न साहित्य कोपकी किसी भी रत्नराशिसे कम मूल्यवान और चमकीले नहीं है। यद्यपि इस शताव्दीके आरम्भमें जैन गद्य साहित्यका श्रीगणेश वचनिकाओं, निबन्ध और समालोचमाओंसे होता है तो भी कथासाहित्य और भावात्मक गद्य साहित्यकी कमी नहीं है । आरम्भके सभी निवन्ध धार्मिक, सास्कृतिक और खण्डनमण्डनात्मक ही हुआ करते थे। कुछ लेखकोने प्राचीन धार्मिक ग्रन्थोका हिन्दी गद्यमे मौलिक स्वतंत्र अनुवाद भी किया है, पर इस अनुवादकी भापा और शैली भी १८वीं और १९वीं शतीकी भाषा और शैलीसे प्रायः मिलती-जुलती है । पडित सदासुखने रत्नकरण्डश्रावकाचारका भाष्य और तत्त्वार्थसूत्रका भाष्य-अर्थ प्रकाशिकाकी रचना इस शतीके आरम्भमे की है । पन्नालाल चौधरीने वसुनन्दि-श्रावकाचार, जिनदत्त चरित्र, तत्त्वाथसार, यशोधरचरित्र, पाण्डवपुराण, भविष्यदत्तचरित्र आदि ३५ ग्रन्योंकी वचनिकाएँ लिखी हैं । मुनि आत्मारामने खण्डन-मण्डनात्मक साहित्यका प्रणयन हिन्दी गद्यमें किया है। आपकी भाषामे पजाबीपना है। पाटन निवासी चम्पारामने गौतमपरीक्षा, वसुनन्दिश्रावकाचार, चर्चासागर आदि की वचनिकाएँ, जौहरीलाल शाहने सन १९१५ में पद्मनन्दि पञ्चविशतिका की वचनिका, जयपुर निवासी नाथूलाल दोषीने सुकुमालचरित्र, महीपालचरित्र आदि; पूनीवाले पन्नालालने विद्वबनवोधक और उत्तरपुराणकी
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हिन्दी-जैन-साहित्य परिशीलन क्चनिकाएँ ; जयपुर निवासी पारसदासने जानसूर्योदय और सारचनुर्विगतिकाकी वचनिकाएँ; मन्नालाल बैनाड़ाने स० १९१३में प्रयु म्न चरित्रकी बचनिका; शिवचन्द्रने नीतिवाक्यामृत, प्रश्नोत्तरीश्रावकाचार और तत्त्वार्थसूत्रकी वचनिकाएँ एव शिवजीलालने चर्चासंग्रह, बोधसार, दर्शनसार और अध्यात्मतरगिणी आदि अनेक ग्रन्योंकी वनिकाएँ लिखी है। यहाँ नमूनेके लिए पडित सदासुख, शिवनीलाल आदि दो-एक वचनिकाकारोंके गद्यको उद्धृत किया जाता है___"बहुरि दयादान ऐसा जानना जो बुभुक्षित होय, दरिद्वी होय, अन्धा होय, लूला होय, पॉगला होय, रोगी होय, अशक्त होय, वृद्ध होय, वालक होय, विधवा होय, तथा बावरा होय, अनाथ होय, विदेशी होय, अपने यूथते संगत विछुड़ि आया होय, तथा बन्दीगृहमें रुक्या होय, बन्ध्या होय, दुष्टनिका आतापत भागि आया होय, लुट आया होय, नाका कुटुम्ब मर गया होय, भयवान होय ऐसा पुरुप होहू वा स्त्री होह तथा बालक होहू वा कन्या तथा तिर्यच होहू, इनकी क्षुधा तृपा शीत उष्ण रोग तथा वियोगादिकनिकरि दुखित जानि करुणामावर्त भोजन वस्त्रादिक दान देना सो करुणा दानमें उनका नाति कुल आचरणादिक जानि यथायोग्य दान करना।"
-रस्नकरण्ढ श्रावकाचार, सदासुख वचनिका वचनिकाओंकी भापापर हॅढारी मापाका प्रभाव स्पष्ट रूपसे विद्यमान है । स्वतन्त्र रचनाओम मुनि आत्मारामकी रचनाएँ भापाकी दृष्टिसे अधिक परिमार्जित है । यद्यपि इनकी भापापर राजस्थानी और पनाबी भापाका प्रभाव है, तो भी भापामें भावोंको अभिव्यक्त करनेकी पूर्ण क्षमता है। _ "यह जो तुम्हारा कहना है सो प्यारी भार्या, वा मिन्न मानेगा, परन्तु प्रेक्षावान् कोई भी नहीं मानेगा; क्योंकि इस तुमारे कहनेमें कोई भी प्रमाण नहीं, परन्तु निसका उपादान कारण नहीं हो
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किया है । प्राचीन ककर नवीन शैली, हत्यक सम्बन्धमे बताए । जैन
माधुनिक गद्य साहित्य कार्य कभी नहीं हो सका। जैसे गधेका सींग, ऐसा प्रमाण तुमारे कहने बाँधनेवाला तो है, परन्तु साधनेवाला कोई भी नहीं, कर हठ करके स्वकपोल कल्पितही मानोगे तो परीक्षावालोंकी पंक्तिमें कदेभी नहीं गिने जानोगे।
-जैनतवादर्श जैनगद्य साहित्यका विकास उपन्यास, कथा-कहानी, नाटक, निबन्ध और भावात्मक गद्यके रूपमे इस शताब्दीमे निरन्तर होता जा रहा है। धार्मिक रचनाओं के सिवा कथात्मक साहित्यका प्रणयन भी अनेक लेखकोने किया है। प्राचीन कथाओका हिन्दी गद्यमें अनुवाद तथा प्राचीन कथानकोंसे उपादान लेकर नवीन शैलीमें कथाओंका सुजन भी विपुल परिमाणमे किया गया है । जैन कथा साहित्यके सम्बन्धमे बताया गया है कि-"सभी जैन वहानियॉ धर्मोपदेशका अंग माननी चाहिए । जैनधर्मोपदेशक धर्मोपदेशके लिए प्रधान माव्यम कहानीको रखता था। इन कहानियों में मनुष्यके वर्तमान जीवकी यात्राओका ही वर्णन नहीं रहता, मनुष्यकी आत्माकी जीवन-कथाका भी वर्णन मिलता है। आत्माको शरीरसे विलय कैसे-कैसे जीवन यापन करना पड़ा, इसका भी विवरण इन कहानियोमें रहता है। कर्मके सिद्धान्तमे जैसी आस्था और उसकी जैसी व्याख्या जैन कहानियोंमे मिलती है, उतनी दूसरे स्थानपर नहीं मिल सकती। कहानी अपने स्वाभाविक रूपको अक्षुण्ण रखती है, यही कारण है कि जैन कहानियोंमे बौद्ध जातकोंकी अपेक्षा लोकवार्ताका शुद्ध रूप मिलता है । अपने धार्मिक उद्देश्यको सिद्ध करनेके लिए जैन कथाकार साधारण कहानीकी स्वाभाविक समातिपर एक केवलीको अथवा सम्यग्दृष्टिको अस्थित कर देता है, वह कहानीमें आये दुःख-सुखकी
१. देखिये-'हर्टल'का निबन्ध, 'भान दि लिटरेचर ऑव दिश्वेताम्बरान भाव गुजरात।
२. ए. एन. उपाध्ये, बृहत्कथाकोपको भूमिका।
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हिन्दी - जैन साहित्य-परिशीलन
व्याख्या उनके पिछले जन्मके किमी कर्मके सहारे कर देता है। इसी विधान के कारण जैन कहानियोंका जातकोंसे मौलिक अन्तर हो जाता है । यद्यपि रूप-रेखामें ये कहानियों भी बौद्ध कहानियोंके समान है, तो भी गैलिक अन्तर यह हो जाता है कि जैन कहानियाँ वर्तमानको प्रमुखता देनी हैं। भूतकालको वर्तमानके दुःख-सुखकी व्याख्या करने और कारण निर्देशके लिए ही लाया जाता है । बौद्ध जातकॉम वर्तमान गौण है, भूतकाल – पूर्वजन्मकी कहानी प्रमुख होती है। जैन कहानियांक इसी भावके कारण उनमें कहानीके अन्दर कहानी मिलती है, जिसमें कहानी नटिल हो जाती है । हिन्दीमें जैन कहानियों लिखी गयीं हैं, किन्तु वे प्रकाशमें नहीं आ सकी हैं।""
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जैनकथा साहित्यकी सबसे बड़ी विशेषता यह है कि इसमें पहले कथा मिलती है, पश्चात् धार्मिक या नैतिक ज्ञान जैसे अंगूर खानेवालेको प्रथम रस और स्वाद मिलता है, पश्चात् वल-वीर्य । जो उपन्यास या कहानी विचार- बोझिल और नीरस होती है तथा जहाँ कथाकार पहले उपदेशक बन जाता है, वहाँ कलाकारको कथा कहनेमें कभी सफलता नही मिल सकती | जैन कहानियोंमें कथावस्तु सर्वप्रथम रहती है, पञ्चात् धर्माप्रदेश या नीति । इनमें समान विकास और लोकप्रवृत्तिकी गहरी छाप विद्यमान है । बल्लुतः जैन कथाएँ नीतिबोधक, मर्मदाशी और आनके युगके लिए नितान्त उपयोगी हैं। इनमें व्यापक लोकानुरंजन और लोकमंगलकी क्षमता है |
उपन्यास
इस शताब्दी में कई जैन लेखकोंने पुरातन जैन कथानकोंको लेकर मरस और रमणीय उपन्यास लिखे हैं । इन उपन्यासोंमें जनताकी आय्यात्मिक आवश्यकताओंका निरुपणकर उसके मात्रजगत्के घरातल्को
१. व्रतलोक साहित्यका अध्ययन ।
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उपन्यास
ऊंचा उठानेका पूरा प्रयास विद्यमान है। वर्तमानमें जनताका जितना आर्थिक शोषण किया जा रहा है, उससे कहीं अधिक आध्यात्मिक शोपण। समाज निर्माणमे आर्थिक शोषण उतना बाधक नही, जितना आध्यात्मिक शोषण । आर्थिक शोषणसे समाजमे गरीबी उत्पन्न होती है, और गरीबीसे अशिक्षा, भावात्मक शून्यता, अस्वास्थ्य आदि दोष उत्पन्न होते हैं । परन्तु आध्यात्मिक हास होनेसे जनताका माव-जगत् असर हो जाता है, जिससे उच्च सुखमय जीवनकी अभिलाषापर का और सन्देहोका तुषारापात हुए बिना नहीं रह सकता। आत्मविश्वास और नैतिक बलके नष्ट हो जानेसे जीवन मरुस्थल बन जाता है और हृदयकी आकांक्षाओंकी सरिता, जिसमे उज्ज्वल भविष्यका श्वेत चन्द्रमा अपनी ज्योत्स्ना डालता है, शुष्क पड़ डाती है। आत्मविश्वासके चले जानेपर जीवन उद्भ्रान्त और किकर्त्तव्य-विमूढ हो जाता है और जीवनमे आन्तरिक विशृंखलता भीतर प्रविष्ट हो जीवनको अस्त-व्यस्त बना देती है। जैन उपन्यासोम कथाके माध्यमसे इस आध्यात्मिक भूखको मिटानेका पूरा प्रयत्ल किया गया है। ___ आत्मविश्वास किस प्रकार उत्पन्न किया जा सकता है ? नैतिक या आत्मिक उत्थान, जो कि जीवनको विषम परिस्थितियोसे धका लगाकर आगे बढ़ाता है, की जीवनमे कितने परिमाणमें आवश्यकता है ? यह जैन उपन्याससे स्पष्ट है । जीवनकी विडम्बनाओंको दूरकर आध्यात्मिक क्षुधाको शान्त करना जैन उपन्यासोका प्रधान लक्ष्य है। ___ जीवन और जगत्के व्यापक सम्बन्धोकी समीक्षा जैन उपन्यासोम मार्मिक रूपसे की गयी है । कथानक इतनारोचक है कि पाठक वास्तविक ससारके असन्तोष और हाहाकारको भूलकर कल्पित ससारमें ही विचरण नहीं करता, किन्तु अपने जीवनके साथ नानाप्रकारकी क्रीड़ाएँ करने लगता है। ये क्रीड़ाएँ अनुभूतियोके भेदसे कई प्रकारकी होती है । आगा, आकाक्षा, प्रेम, घृणा, करुणा, नैराश्य आदिका जितना सफल चित्रण जैन उपन्यासकारोंने किया, उतना अन्यत्र शायद ही मिल सकेगा।
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हिन्दी-जैन-साहित्य-परिशीलन . जैन उपन्यासेकी सुगठित कथावस्तुम घटनाएँ एक दूसरेसे इस प्रकार सम्बद्ध है, कि साधारणतः उन्हे अलग नहीं किया जा सकता और सभी अन्तिम परिणाम या उपसहारकी ओर अग्रसर होती है। कथावस्तुके भिन्न-भिन्न अवयव इतने सुगठित हैं, जिससे इन उपन्यासोंकी रचना एक व्यापक विधानके अनुसार मानी जा सकती है। प्रवाह इतना स्वाभाविक है, जिससे कृत्रिमताका कहीं नाम-निशान भी नहीं है।
कथावस्तुके सुगठनके सिवा चरित्र-चित्रण भी जैन उपन्यासों में विलेपात्मक [ एनेलिटिक] और कार्यकारण सापेक्ष या नाटकीय [डामेटिक ] दोनों ही रीतियोसे किया गया है। चरित्र-चित्रणकी सबसे उत्कृष्ट कला यह है कि अपने पात्रोंको प्राणशक्तिसे सम्पन्नकर उन्हें जीवनकी रंगस्थलीम सुख-दुःखसे ऑखमिचौनी करनेको छोड़ दे। जीवन के घात-प्रतिघात, उत्कर्ष-अपकर्ष एवं हर्ष-विपाद लेखक-द्वारा बिना टीका-टिप्पण किये पात्रोके चरित्रसे स्वतः व्यक्त हो जानेमें उपन्यासकी सफलता है । अधिकांश जैन लेखकोंके उपन्यास मानव चरित्र-चित्रणकी दृष्टिसे खरे उतरते हैं। जिज्ञासा और कौतूहलवृत्तिको शान्त करनेकी क्षमता भी जैन उपन्यासोंमे है।
कथोपकथन वास्तविक जीवनकी अनुरुपताके अनुसार है। जैन उपन्यासोंमे पात्रोंकी वात-चीत स्वाभाविक तथा प्रसंगानुकूल है। निरर्थक कथोपकथनोंका अभाव है। आदर्श कथोपकथन पात्रोंके भावों, प्रवृत्तियों, मनोवेगों और घटनाओकी प्रभावान्वितिके साथ कार्य प्रवाहको आगे बढ़ाता है। परिस्थितियोंके अनुसार पात्रोंके वार्तालापम परिवर्तन कराकर सिद्धान्तों, आचार-व्यवहारोंका दिग्दर्शन भी कराया गया है।
जैन उपन्यासों के आधार पुरातन कथानक हैं, जिनमें नर नारी, उनके • सांसारिक नाते-रिश्ते, उनके राग-द्वप, क्रोध-करुणा, सुख-दुःख, जीवनसंघर्ष एवं उनकी जय-पराजयका निरूपण किया गया है। नैतिक तथ्य या आदर्शका निरूपण जैन उपन्यासोमे प्रधानरूपसे विद्यमान है। जीवन
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उपन्यास
का निरीक्षण, मनन, मानवकी प्रवृत्ति और मनोवेगोंकी सूक्ष्म परख, अनुभूत सत्यों और समस्याओंका सुन्दर समाहार इन उपन्यासोमे अत्यल्प है। दुराचारके ऊपर सदाचारकी विजय जिस कौशल के साथ दिखलाई गई है, यह पाठकके हृदयमे नैतिक आदर्श उत्पन्न करनेमे पूर्ण समर्थ है।
यद्यपि जैन उपन्यास अभी भी शैशव अवस्थामे हैं; अनन्त हृदयस्पर्शी मार्मिक कथाओके रहते हुए भी इस ओर जैन लेखकोंने ध्यान नहीं दिया है, तो भी जीवनके सत्य और आनन्दकी अभिव्यञ्जना करने वाले कई उपन्यास हैं । जैन लेखकोंको अभी अपार कथासागरका मन्थन कर रत्न निकालनेका प्रयल करना शेष है। नीचे कुछ उपन्यासोकी समीक्षा दी जाती है__ यह श्रीजैनेन्द्रकिशोर आरा-द्वारा लिखित एक छोटा-सा उपन्यास है। आज हिन्दी साहित्यका अक नित्य नये नये उपन्यासोंसे भरता जा रहा है, र इस कारण आधुनिक औपन्यासिककलाका स्तर पहले
की अपेक्षा उन्नत है; पर 'मनोवती' उस कालका उपन्यास है, जब हिन्दी साहित्यमे उपन्यासोका जन्म हो रहा था, इसी कारण इसमें आधुनिक औपन्यासिक तत्त्वोका प्रायः अमाव है।
महारथ नामके एक सेठ हस्तिनापुरमे रहते थे। वह सौभाग्यशाली लक्ष्मीपुत्र थे, उनकी एक अत्यन्त धर्मनिष्ठ मनोवती नामकी कन्या
_ थी। वयस्क होनेपर पिताने उसकी शादी जौहरी कथावत हेमदत्तके पुत्र बुद्धिसेनसे कर दी, जो बल्लभपुरनिवासी थे। मनोवतीने गुरुसे नियम लिया था कि वह प्रतिदिन गजमुक्ताका पुज भगवान्के सामने चढ़ाकर भोजन करेगी। श्वशुरालयमें जाकर भी उसने अपने नियमानुसार मन्दिरमें गजमुक्ता चढाकर ही भोजन ग्रहण किया। प्रातःकाल नगरकी मालिनने जब गजमोती देखे, तो बहुत प्रसन्न हुई और पुरस्कार पानेके लोमसे बल्लभपुर-नरेशकी
1.१४ मई सन् १९०९मे आपकी मृत्यु हो गई।
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हिन्दी-जैन-साहित्य-परिशीलन छोटी रानीके पास मालामें गूंथ कर ले गयी । मालिनके इस व्यवहारसे बड़ी रानी रूठ गयी । नरेशने उन्हें गजमोतियोका हार ला देनेका आश्वासन देकर मनाया। दूसरे दिन प्रातःकाल नगरके जौहरियोको बुलाकर उन्होंने गजमोती लानेका आदेश दिया । लालचवश सभी जौहरियोंने गजमुक्ता लानेमे असमर्थता प्रकट की। जौहरी हेमदत्तने राजसभाम तो गनमुक्ता लानेसे इन्कार कर दिया, पर घर आकर सोचने लगा कि जब मेरे पुत्र बुद्धिसेनकी बहू घरमें आयेगी, तो सभी भेट खुल जायगा । राना मेरी सारी सम्पत्ति लुटवा लेगा और मैं दरिद्री बन खाक छानूंगा। अतएव अपने छः पुत्रोंसे परामर्शकर वधू घरमे न आ सके, इसलिए बुद्धिसेनको निर्वासित कर दिया।
विवश बुद्धिसेन घरसे निकलकर अपने श्वशुराव्य हस्तिनापुर आया और पत्नीके अनुरोधसे दोनों दम्पति सम्पत्ति अर्जन करनेकी इच्छासे निस्तब्ध रात्रिमें चुप-चाप घरसे निकल गये । धर्मपरायण पत्नीकी सहायता से बुद्धिसेनने रत्नपुर पहुंचकर वहॉके राजाको प्रसन्न किया । रत्नपुरके राजाने प्रसन्न होकर अपनी पुत्रीका विवाह बुद्धिसेनसे कर दिया और अपार सम्पत्ति दहेजमे दी। अपनी दोनों पलियोके साथ सुखपूर्वक रहते हुए बुद्धिसेनने कई वर्ष व्यतीत किये । एक दिन धर्मनिष्ठ मनोवतीने बुद्धिसेनको संसारकी दमासे परिचित किया और एक जिनालय निर्माण करनेकी प्रेरणा की। पत्नीकी प्रेरणा पाकर बुद्धिसेनने लगभग एक करोड़ रुपये खर्चकर एक भव्य मन्दिर बनवाया । इस समय बुद्धिसेनका व्यापार बहुत उन्नतिपर था, कई अरब रुपये उसके पास एकत्रित थे।
बुद्धिसेनके माता-पिता और भाई-भाभियो, जिन्होंने बुद्धिसेनको घरसे निकाल दिया था, जिनदेवके अपमानके कारण निर्धनी होकर आजीविकाके लिए इधर-उधर भटकने लगे। सौभाग्य या दुर्भाग्यसे वे चौदह प्राणी बुद्धिसेनके भव्य मन्दिरमे काम करनेवाले मजदूरों के साथ कार्य करने लगे। क्रोधावेशमे बुद्धिसेनने पहले तो उनसे मजदूरी करायी ; किन्तु
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उपन्यास
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पात्र
कुछ दिनों बाद मनोवतीके कहनेसे उनका सम्मान किया। इसी बीच वल्लमपुर-नरेश द्वारा निमन्त्रित होनेपर सभी वहाँ चले गये। ___ यही इस उपन्यासकी कथावस्तु है । कथावस्तु पौराणिक होनेके कारण कोई नवीनता इसमे नहीं है । नारी-सौन्दर्य और सम्पत्तिका निरूपण शचीन प्रणालीपर हुआ है। कथानकमें लौकिक प्रेमके दिग्दर्शनके साथ अलौकिकताका भी समन्वय किया गया है, यही इसकी विशेषता है।
इस उपन्यासके प्रधानपात्र है-मनोवती और बुद्धिसेन । अन्य सब पात्र गौण हैं । मनोवती स्वय इस उपन्यासकी नायिका है । इसका चित्रण
एक आदर्श भारतीय लल्नाके स्पमें हुआ है। धर्म
और आदर्शमें इसकी अनन्य श्रद्धा है। अपनी प्रखर प्रतिमाके कारण यह आठ महीने में ही शिक्षामे पारगत हो जाती है। इसकी धर्मपरायणताका ज्वलन्त उदाहरण तो हमें तब मिलता है, जब वह तीन दिन सतत उपवास करती रह जाती है, पर बिना गजमुत्ता चढ़ाये भोजन नहीं करती। नारी-सुलभ सहन सक्रोचकी भावना उसमे व्यास है। भारतीयता और पातिव्रतसे ओत-प्रोत यह नारी दुःखमें भी पतिका साथ नहीं छोड़ती। पति दूसरी शादी कर लेता है, पर पतिके सुखका ख्यालकर वह तनिक भी बुरा नहीं मानती। जैनधर्ममे अटल विश्वास रखते हुए वह सदा पतिको सदगुणोकी और प्रेरित करती है। लेखक मनोवतीके चरित्र-चित्रणमें बहुत अंशोमें सफल हुआ है । मनोवैज्ञानिक घात-प्रतिधार्ताका विश्लेषण भी कर सका है।
बुद्धिसेनको इस उपन्यासका नायक कहा जा सकता है, किन्तु लेखक इसके चरित्र-विश्लेषणमे सफल नहीं हुआ है। आरम्भमे बुद्धिसेन सदाचारीकै रूपमे थाता है, पर पीछे “ममता पाइ काहि मद नाही" कहावतके अनुसार धन-मटके कारण व्ह क्रूर और कृतघ्नी हो जाता है। अपनी पहली पत्नी मनोवतीके उपकारोंको विस्मृत कर दूसरी शादी कर लेता है और अपने माता-पिता तथा बन्धुओंको अपार कष्ट देता है। एक
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हिन्दी - जैन- साहित्य- परिशीलन
सदाचारी व्यक्तिका इस प्रकारका परिवर्तन क्रमशः होना चाहिये था, पर लेखकने इस परिवर्तनको त्वरित वेगसे दिखलाया है; जिससे कुछ reaterfवकता आ गई है ।
मनोवती के चरित्र - विलेपण के समक्ष अन्य पात्रांके चरित्र बिल्कुल दव गये हैं, जिससे औपन्यासिकता के विकास में बाधा पहुँची है।
इस उपन्यासकी शैली में प्रभावोत्पादकताका अभाव है। मनोभावांकी अभिव्यञ्जना करनेके लिए जिस सजीव और प्रवाहपूर्ण भापाकी आवव्यकता होती है, उसका इसमें प्रयोग नहीं किया शैली और गया है। हॉ, कथोपकथनसे पात्रोके चरित्र-चित्रणमं कथोपकथन तथा कथाकै विकासमें पर्याप्त सहायता मिली है। जब महारथ अपनी पुत्री मनोवती से कहता है कि - "इस नियमका कदाचित् निर्वाह न हो; क्योंकि जबतक तू हमारे घर में है, तबतक तो सब कुछ हो सकता है; परन्तु ससुराल जानेपर भारी अड़चन पढ़ेगी ।" उस समय निस्संकोच और निर्भीकता पूर्वक उत्तर देती है । पिताका इस प्रकार पुत्रीसे कहना और पुत्रीका संकोच न करना खटकता - सा है । अन्य स्थोंमें कथोपकथन मर्यादायुक्त और स्वाभाविक है ।
भाषा चलती-फिरती है । अनेक स्थलोंपर लिगढोप भी विद्यमान है । उहाँ एक ओर तड़की, सुनहरी, चौघरे, जोति, खटा-पटास दिखी आदि देशी शब्द पर्याप्त मात्रामें पाये जाते हैं, वहाँ दूसरी ओर अफताब, महताब, मुराद, फसाद, कर्तृत, खातिरदारी, हासिल, हताश आदि अरबीफारसीके शब्दोंकी भी भरमार है। आरा निवासी होनेके कारण भोजपुरी का प्रभाव मी भापापर है। फिर भी बोल-चालकी भाषा होनेके कारण शैली सरलता आ गई है ।
यद्यपि औपन्यासिक तत्त्वोकी कसौटीपर, यह वरा नहीं उतरता है, पर प्रयोगकालीन रचना होनेके कारण इसका महत्त्व है। हिन्दी उपन्यासों
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उपन्यास
की गति-विधिको अवगत करने के लिए इसका महत्त्व 'चन्द्रकान्ता सन्तति' से कम नहीं है। ___ कमलिनी, सत्यवती, सुकुमाल, मनोरमा और शरतकुमारी ये पाँच उपन्यास श्री जैनेन्द्रकिशोरने और भी लिखे हैं ; पर ये उपलब्ध नहीं है। इन सभी उपन्यासोमें धार्मिक और सदाचारकी महत्ता दिखलायी गयी है। प्रयोगकालीन रचनाएँ होनेसे कलाका पूरा विकास नहीं हो सका है।
इस उपन्यासके रचयिता मुनि श्री तिल्कविजय हैं । आपका आध्यात्मिक क्षेत्रमे अपूर्व स्थान है। धर्मनिष्ठ होनेके कारण आपके
हृदयमे धर्मानुरागकी सरिता निरन्तर प्रवाहित होती * रहती है । इसी सरिणीमे प्रस्फुटित श्रद्धा, विनय, उपकारवृत्ति, धैर्य, क्षमता आदि गुणोसे युक्त कमल अपनी भीनी-भीनी सुगन्धसे जन-जनके मनको आकृष्ट करते हैं । उपन्यासके क्षेत्रमे भी इनकी मस्त गन्ध पृथक् नही । वास्तवमे अध्यात्म विषयका शिक्षण उपन्यास-द्वारा सरस रूपमें दिया गया है। कडवी कुनैनपर चीनीकी चासनीका परत लगा दिया गया है। इस उपन्यासमे औपन्यासिक तत्त्वोंकी प्रचुरता है। पाठक आदर्शकी नीवपर यथार्थका प्रासाद निर्मित करनेकी प्रेरणा ग्रहण करता है।
आजके युगमे उपन्यासकी सबसे बड़ी सफलता टेकनिकमे है। इस उपन्यासमे टेकनिकका निर्वाह अच्छी तरह किया गया है। आरम्भमे ही हम देखते हैं कि बीस-पच्चीस घुडसवार चले जा रहे है, उनमे एक धीरवीर रणधीर व्यक्ति है। उसके स्वभावादिसे परिचित होनेके साथ-साथ हमारा मन उससे वार्तालाप करनेको चल उठता है। इस युवककी, जिसका नाम रत्नेन्दु है, तत्परता जगलमे शिकार खेलनेके समय प्रकट हो जाती है । उसके धैर्य और कार्यक्षमता पाठकोंको उमंग और स्फूर्ति प्रदान करते है । रत्नेन्दुकी वीरताका वर्णन उसके बिछुड़े साथी नयपालद्वारा कितने सुन्दर ढगसे हुआ है
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हिन्दी - जैन- साहित्य- परिशीलन
"नहीं नहीं, यह बात कभी नहीं हो सकती, आपके विचारोंको हमारे हृदयमें बिल्कुल अवकाश नहीं मिल सकता। वे किसी हिंस्र जानवरके पंजे में भा जायँ, यह बात सर्वथा असम्भव है । क्योंकि मुझे उनकी वीरता और कला-कुशलताका भली-भाँति परिचय है ।"
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इस प्रकार दो परिच्छेद समाप्त होनेतक पाठकोकी जिज्ञासा वृत्ति ज्योंकी त्यो बनी रहती है । रत्नेन्दुका नाम पा जिज्ञासा कुछ शान्त होना चाहती है कि एक करुणक्रन्दन चौका देता है । पाठक या श्रोताकी श्रोत्रेन्द्रियके साथ समस्त इन्द्रियाँ उधर दौड़ जाती है और अपनेको उस रहस्यमे खो पद्मनिका नाम पा आनन्दविभोर हो जाती है । रत्नेन्दु इस भीपण और हृदय-द्रावक स्वरमे अपना नाम सुन किकर्त्तव्यविमूढ हो जाता है, और थोड़ी ही देर मे स्वस्थ हो कष्टनिवारणार्थ उधरको ही चला जाता है । रत्नेदु अपनी तल्वारले कपालीके खूनी पजेसे बालिकाको मुक्त करता है ।
पद्मनि एक सघन वृक्षकी शीतल छायामे पहुँचकर अपना दुःख निवेदन करती है । नारीकी श्रद्धा, निष्कपटता, त्याग एव सतीत्वका परिचय पद्मनिकै वचनोसे सहजमे मिल जाता है । पद्मलोचन सती है, महासती है, उसमे लज्जा है, स्नेह है, ममता है, मृदुता है और है कठोरता अधर्म के प्रति, अविद्याके फन्देमे पड़नेपर भी सचेष्ट रहती है। वह अग्निकी ज्वलन्त लपटों से प्यार करनेको तत्पर है, किन्तु अपने शीलको अक्षुण्ण बनाये रखना चाहती है । रत्नेन्दुके लिए वह आत्मसमर्पण पहले ही कर चुकी थी, अतः श्रद्धाविभोर हो वह कहती है- "ज्योतिपीने कहा, कुछ ही समय बाद रत्नेन्दु चन्द्रपुरकी गीका मालिक होगा । वह रूप लावण्य से आपकी कन्या योग्य वही घर है। उसी समयसे मैं उसे अपना सर्वस्व समझ बैठी और इस असाध्य संकटमें उनका नाम रमरण किया। मैंने प्रतिज्ञा की है कि रत्नेन्दुके साथ विवाह करूंगी, अन्यथा आजन्म ब्रह्मचारिणी रहूँगी।"
इस मिलन के पश्चात् पुनः वियोग आरम्भ होता है । कपालीका पुत्र
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पद्मनिका अपहरण करता है । सौभाग्यसे तपस्वियो द्वारा उसका परित्राण होता है और वह अपने पिताके पास चली आती है । रत्नेन्दु उसे प्राप्त करनेके लिए भ्रमण करता है । इसी भ्रमणमे उसकी एक धर्मात्मा वृद्ध श्रावकसे भेट होती है, जो अपने जीवनको मानवसे देव बनानेका इच्छुक है। उसकी अभिलापा वनखडके देवालयोंमें स्थित रत्नेन्दुसे टकराती है । रत्नेन्दु उस मरणासन्न भावकको णमोकार मन्त्र सुनाता है । मन्त्रके प्रभावसे श्रावक उत्तमगति पाता है ।
उपन्यास
रत्नेन्दु किसी कारणवश चम्पा नगरमें जाता है और वहीपर विधिपूर्वक पद्मनि के साथ उसका पाणिग्रहण हो जाता है । कुछ दिनों तक वहाँ रहनेके उपरान्त माता-पिताकी याद आ जाने से वह अपने देश लौट आता है और राज सम्पदाका उपभोग करने लगता है । इसी बीच सर्प विपसे आक्रान्त होकर रत्नेन्दु मूर्छित हो जाता है; पर म्मशानमे पूर्वोक्त श्रावक, जो कि देवगतिको प्राप्त हो गया था, आकर उसका विष हरण कर जीवन प्रदान करता है ।
वसन्त ऋतु रत्नेन्दु ससैन्य उपवनमें विहार करने जाता है और लहलहाते हुए वृक्षको एकाएक सूखा देखकर ससारकी क्षणभंगुरता सोचने लगता है । उसका विवेक जाग्रत हो जाता है और चल पड़ता है आत्मसिद्धिके लिए | थोडी ही देरमे रत्नेन्दु पाठकोंके समक्ष संन्यासी के भेपमे उपस्थित होता है और आत्मसाधनामे रत रहकर अपना कल्याण करता है ।
यह उपन्यास जीवन के तथ्यकी अभिव्यञ्जना करता है । घटनाओकी प्रधानता है । लेखकने पात्रोके चरित्रके भीतर बैठकर झाका है, जिससे चरित्र मूर्तिमान हो उठे हैं। भाषा विषय, भाव, विचार, पात्र और परिस्थितिके अनुकूल परिवर्तित होती गयी है । यद्यपि भाषासम्बन्धी अनेक भूलें इसमे रह गयी हैं, तो भी भाषाका प्रवाह अक्षुण्ण है ।
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हिन्दी - जैन- साहित्य- परिशीलन
यह एक धार्मिक उपन्यास है । इसके लेखक स्वनामधन्य पंडित गोपालदास वरैया हैं । कुशल कलाकार ने इस उपन्यासमे धार्मिक सिद्धान्तोंकी व्यंजन के लिए काल्पनिक चित्रोको इतनी मधुरता और मनोमुग्धतासे खीचा है, जिससे पाठक गुणस्थान जैसे कठिन विषयोको कथा के माध्यमद्वारा सहजमें अवगत कर लेता है ।
सुशीला
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इसका कथानक अत्यन्त रोचक और शिक्षाप्रद है । घटनाएँ शृखलावद्ध नहीं हैं, किन्तु घटनाओंका आरम्भ और अन्त ऐसे कलापूर्ण ढगसे होता है, जिससे पाठककी उत्सुकता बढ़ती जाती है । अन्तमे जीवनके आरम्भ और अन्तकी श्रृंखला स्पष्ट हो जाती है, कलाका प्रारम्भ जीवन मध्यकी आकर्षक घटनासे होता है ।
विजयपुर के महाराज श्रीचन्द्रके सुपुत्र जयदेवकी योग्यतासे प्रसन्न होकर महाराज विक्रमसिंह अपनी रूपगुणयुक्ता सुशीला कन्याका पाणिग्रहण उससे कर देते हैं । सुशीलाकी रूपसुधापर कथावस्तु मॅडरानेवाला पापी उदयसिंह यह सहन न कर सका । कामोत्तेजित होकर उनके विनाशका पड्यन्त्र रचने लगा ।
विवाहानन्तर दोनों विदा हुए। मार्गमे उदयसिंहने टुकछिपकर साथ पकड लिया, सामुद्रिक मार्ग से जानेकी सलाह हुई । सामुद्रिक वायुके शीतल झोकेसे निद्रा आने लगी । उदयसिंह और वल्वन्तसिंह दोनो क्रूर मित्रोने मल्लाहसे खूब घुलमिलकर बातें कीं और धोखा देकर बीचमे ही नौका डुवा दी गयी। नावमे जयदेवका परममित्र भूपसिंह और सुशीलाकी दो-चार सखियाँ भी थीं ।
अब क्या ? जयदेव एक तख्ते के सहारे डूबते-उतराते किनारे लगा । धीरे-धीरे कन्चनपुर पहुँचा । उसकी दयनीय दशा देख रत्नचन्द्र नामक एक प्रसिद्ध जौहरीने आश्रय दिया । जयदेव रत्नपरीक्षामे निपुण था,
१. प्रकाशक, दि० जैन पुस्तकालय, सूरत ।
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उपन्यास
अतएव रत्नचन्द्र उससे अत्यन्त प्रसन्न रहता था। रत्नचन्द्रकी पत्नी रामकुंवरि और पुत्र हीरालाल दोनों विषयासक्त और दुराचारी थे। रामकुँवरिने जयदेवको फंसानेके लिए नाना प्रकारसे मायाजाल फैलाया, पर सब व्यर्थ रहा। जयदेव सरल और सत्पुरुष था, अतएव पापसे भयभीत रहता था । रत्नचन्द्र एक दिन कार्यवश खेटपुर गया। पत्नीके चरित्रपर सन्देह होनेके कारण मार्गमेसे ही लैट आया और आधी रात घर पहुंचा। यहाँ आकार रामकुँवरि और हीरालालके कुकृत्यको देखकर क्रोधसे उसकी ऑखें आरक्त हो गई, इच्छा हुई कि पापीको उचित सजा दी जाय, किन्तु तत्क्षण ही उसे विराग हो गया, वह कुछ न बोला। धीर गम्भीर रनचद उदासीन हो चल पड़ा मुक्तिके पथपर।
प्रातःकाल जयदेव यह सब देख अवाक रह गया । रत्नचन्दका लिखा पत्र प्राप्त हुआ, उसे पढ़कर उसके मुखसे निकला "हा | रलचन्द हमेगा के लिए चला गया। कुछ दिनोतक वह घरका भार सिमेटे रहा, किन्तु रामकुंवरि और हीरालालके दुश्चरित्रसे अवकर वह सम्पत्तिका भार एक विश्वासी व्यक्तिपर छोड़ अज्ञात दिशाकी ओर चल दिया।
इधर कुमारी सुशीलाकी बुरी दशा थी । वह सूर्यपुराके उद्यानके एक वगलेमें मूर्छित पडी थी । उदयसिंहने उसे यहाँ छुपा दिया था। क्रूर उदयसिंहने सतीपर हाथ उठाना चाहा, किन्तु सुशीलाकी रौद्रमूर्ति और अद्भुत साहसको देखकर इका-बक्का रह गया। रेवती उसकी प्यारी सखी थी, उसने सुशीलाको मुक्त करनेके लिए नाना षड्यन्त्र किये पर सुशीलाका पता न चला।
जयदेव जब कचनपुरसे लौट रहा था कि रास्तेमे भूपसिंहसे मुलाकात : हो गयी। दोनों सुशीलाका पता लगानेके लिए व्यग्र थे। उदयसिंहकी ओर1 से दोनोंको आशका थी । भूपसिंहने झट पता लगा लिया कि उदयसिहके : बागके एक बंगलेमे सुशीला एकान्तवास कर रही है। मालिनके वेपमे
जयदेव उसके निकट पहुंचा और दोनोंका परस्पर मिलन हो गया।
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हिन्दी-जैन-साहित्य-परिशीलन जयदेव, सुशीला और भूपसिह पुनः विजयपुरकी तरफ रवाना हुए। चतुदिशामे आनन्द छा गया, दुःखी माता-पिताको सान्त्वना मिली।
हीरालालकी पत्नी सुभद्रा पतिभक्ता और सुशीला थी, पर दुष्ट हीरालालने उसका यथोचित सम्मान नहीं किया। हीरालाल और रामकुंवरिकी बुरी दशा हुई, उनका काला मुख करके शहरमें घुमाया गया। सुभद्राका पुत्र सम्पत्तिका स्वामी बना।
विरागी रतचन्द्र दीक्षित होकर विमलकीर्ति मुनिके नामसे प्रसिद्ध हुआ । अन्तमे श्रीचन्द्र, विक्रमसिंह और भूपसिहके पिता रणवीरसिंहको भी वैराग्य हो गया । महारानी मदनवेगा और विद्यावती भी आर्यिका हो गयीं। इस उपन्यासमें पात्रोकी सख्या अत्यधिक है ; पर पुरुपपात्रोमे जयदेव,
रत्नचन्द्र, हीरालाल, भूपसिंह, उदयसिंह आदि और - नारी-पात्रोंमे सुशीला, रामकुंवरि, सुभद्रा और रेवती प्रधान हैं । इन पात्रोके चरित्र-विश्लेषणपर ही कथा स्तम्भ खडा किया गया है।
जयदेव उच्चकुलीन राजपुत्र है। विपत्तिमे सुमेरुके समान दृढ और सहनशील है । उत्तरदायित्वको निभानेमें दृढ़, निष्कपट और ब्रह्मचारी है। पत्नीके प्रति अनुरक्त है ; जी-तोड श्रम करनेसे विमुख नही होता है।
रत्नचन्द्र अपने नगरका प्रसिद्ध जौहरी है । न्याय और कर्त्तव्यपरायण होनेसे ही नगरमे उसका अपूर्व सम्मान है। मनुष्य परखनेकी कलामे भी यह उतना ही कुशल है, जितना रत्न परखनेकी कलामे । आदर्श और सदाचारको यह जीवन के लिए आवश्यक तत्त्व मानता है । जब दुश्चरित्रका साक्षात्कार उसे हो जाता है, वह विरक हो दीक्षा ग्रहण कर लेता है।
हीरालाल व्यसनी, व्यभिचारी और क्रूर प्रकृतिका है। अपनी सौतेली मॉके साथ दुष्कर्म करते हुए इसे किसी भी तरहकी हिचकिचाहट
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उपन्यास
नहीं । पाप-पुण्यका महत्त्व इसकी दृष्टिमे नगण्य है। विचार और विवेकसे इसे छुआ-छूत नहीं है।
उदयसिह एक साहूकारका पुत्र है, किन्तु वासनाने इसकी बुद्धि भ्रष्ट कर दी है। यह बलात्कारको बुरा नहीं मानता । लेखकने इन सभी पुरुष पात्रोके चरित्र-चित्रणमे औपन्यासिक कलाकी उपेक्षा उपदेशक या धर्मशान होनेका ही परिचय दिया है। मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोणसे किसी भी पात्रका चरित्र चित्रित नहीं हुआ है।
स्त्रीपात्रोंके चरित्रमे एक ओर सुशीला जैसी आदर्श रमणीका चारित्रिक विकास अकित किया गया है, तो दूसरी ओर रामकुँअरि जैसी दुराचारिणी नारीका चरित्र । दोनो ही चरित्रोका विश्लेषण यथार्थ रूपसे किया गया है तथा पाठकोंके समक्ष जीवनके दोनो ही पक्ष उपस्थित किये हैं। ___ यह उपन्यास एक ओर आदर्श जीवनकी झॉकी देकर नैतिक उत्थान का मार्ग प्रस्तुत करता है तो दूसरी ओर कुत्सित जीवनका नंगा चित्र खीचकर कुपथगामी होनेसे रोकनेकी शिक्षा देता है। सदाचारके प्रति आकर्पण और दुराचारके प्रति गर्हण उत्पन्न करनेमे यह रचना समर्थ है। कलाकी दृष्टिसे भी यह उपन्यास सफल है। इसमे भावनाएँ सरस, स्वाभाविक और हृदयपर चोट करनेवाली हैं। कथाका प्रवाह पाठकके उत्साह और अमिलापाको द्विगुणित करता है। समस्त जीवनके व्यापार शृखलाबद्ध और चरित्र-निर्माणके अनुकूल है । सबसे बड़ी विशेषता इस उपन्यासकी यह है कि इसका कलेवर व्यर्थके हाव-भावोंसे नही भरा गया है किन्तु जीवनके अन्तर्वाह्य पक्षोका उद्घाटन बड़ी खूबीसे किया गया है।
धार्मिक शिक्षाओका वाहुल्य होनेपर भी कयाकी समरसतामे विरोध नहीं आने पाया है। आरम्भसे अन्ततक उत्सुकता गुण विद्यमान है। हॉ, धार्मिक सिद्धान्त रसानुभूतियोमे बाधक अवश्य है ।
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हिन्दी-जैन-साहित्य परिशीलन इसकी शैली प्रौढ़ है। काव्यका सौन्दर्य झलकता है तथा भावनाओंको घटनाओंके साथ साकार रूपमे दिखलाया गया है। प्राकृतिक चित्रों द्वारा कहीं-कही भावोंको साकार बनानेकी अद्भुत चेष्टा की गयी है । इसमें अलंकारोंका आकर्षक प्रयोग, चित्रमय वर्णन, अभिनयात्मक कथोपकथन विद्यमान है जिससे प्रत्येक पाठकका पूरा अनुरजन करता है । मापा विशुद्ध और परिमार्जित है, मुहावरे और सृक्तियोंके प्रयोगने भापाको और भी जीवट बना दिया है।
श्री वीरेन्द्रकुमार जैन एम० ए०का यह श्रेष्ठ उपन्यास है। इसमें कुतूहलवृत्ति और रमणवृत्ति दोनोंकी परितुटिक लिए घटना-चमत्कार और
. भावानुभूतिका सुन्दर समन्वय किया गया है। इसमें 'मुक्तिदूत
पवनंजयके आत्मविकास और आत्मसिद्धिकी कथा है। 'अहं' के अन्धकारागारसे पुरुपको नारीने अपने त्याग, बलिदान, वात्सल्य और आत्मसमर्पणके प्रकाश-द्वारा मुक्त किया है।
मुक्तिदूतका कथानक पौराणिक है। कुमार पवनजय आदित्यपुरके महाराज प्रहलादके एकमात्र पुत्र है । एक वार माता-पितासहित पवनजय
कैलाशकी यात्रासे लौटकर मार्ग, मानसरोवरके तट* पर ठहर गये। एक दिन मानसरोवरकी अपार जलराशिम क्रीड़ा करते हुए पवनंजयने पासके श्वेत महलकी अष्टालिकापर राजा महेन्द्रकी पुत्री अजनाको देखा, उसकी कोमल आह सुनी और लौट आये प्रेमके मधुभारसे दबकर । उनकी व्यथा समझकर उनका अभिन्न मित्र प्रहस्त उन्हें अंजनाके राज्य-प्रासादपर विमान द्वारा ले गया। वहाँ सखियोंमे हास-परिहास चल रहा था। अंजना पवनजयके यानमें ही निमग्न थी। उसकी अभिन्न सखी वसन्तमाला पवनंजयकी प्रशसा कर रही थी। पवननयकी प्रशसासे चिढ़कर मिश्रकेशी नामकी अजनाकी
१. प्रकाशक-भारतीय ज्ञानपीठ, काशी।
कथानक
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उपन्यास
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सखीने हेमपुर के युवराज विद्युत्प्रभकी प्रशसा की । अजना पवनंजयके ध्यानमं लीन होनेके कारण कुछ भी नही सुन सकी । ध्यान टूटनेपर हर्ष के आवेशमे उसने अपनी सखियोंको नृत्य-गान करनेकी आज्ञा दी । अजनाकी इस तन्मयता और भाव-विभोरताका अर्थ पवनंजयने यह लगाया कि यह विद्युत्प्रमसे प्रेम करती है, इसीसे उसका नाम सुनकर नृत्य - गानकी आज्ञा दे रही है । अपने नामका अपमान सहन न कर सकनेके कारण क्रोधित हो उलटे पॉच वहाँसे वे दोनों चले आये और प्रातः काल माता-पिता से बिना कुछ कहे ससैन्य प्रस्थान कर दिया ।
अनाके पिता महेन्द्र पहले ही अजनाकी शादी पवनञ्जयसे नियत कर चुके थे । अतः उनके कूच करनेसे वह अत्यन्त दुःखी हुए । महाराज प्रह्लादको जब यह समाचार मिला तो वह प्रहस्तको साथ लेकर पुत्रको लौटाने गये । प्रहस्तके द्वारा अधिक समझाये जानेपर पवनञ्जय वापस लौट आये । उन्होंने अजनाके साथ विवाह भी कर लिया, पर आदित्यपुर लौटनेपर उसका परित्याग कर दिया । स्वय ही पवनञ्जय अपने अहभाव के कारण उन्मत्त रहने लगे। माता-पिता, प्रजा, प्रहस्त और अजना सभी दुःखी थे, विवश थे । यद्यपि माता-पिताने पुत्रसे दूसरा विवाह करने का भी आग्रह किया, पर उन्होने अस्वीकृत कर दिया ।
पातालद्वीपके अभिमानी राजा रावणने एकबार वरुणद्वीपके राजा वरुणपर आक्रमण किया और अपनी सहायताके लिए माण्डलिक राजा प्रह्लादको बुलाया । पिताको रोककर स्वयं पवनञ्जयने प्रस्थान किया । मार्गमै उन्हें मगल-कलश लिये अजना मिली, वे उसे धिक्कार कर चले गये । मार्गमे जब सैन्य शिविर मानसरोवर के तटपर स्थिर हुआ तो एक चकवीको चकवेके वियोगमे तड़फते देख वह वेदनासे भर गये और
नाकी वेदना याद आ गयी। उसी समय प्रहस्तके साथ विमान द्वारा अजना महलमे गये और प्रातःकाल शिविरमे लौट आये। अंजना-द्वारा
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हिन्दी-जैन-साहित्य-परिशीलन
प्रेरित हो उन्होंने अन्यायी रावणके विरुद्ध वरुणकी सहायता कर रावणको परास्त किया।
इघर आदित्यपुरमे गर्भवती अंजनाको कुलटा समझकर महारानी केतुमती-पवनञ्जयकी मॉने उसको घरसे निकाल दिया। वहाँसे निराश्रय हो जानेपर सखी वसन्तमालाने महेन्द्रपुर नाकर अंजनाके लिए आश्रय देनेकी प्रार्थना की ; पर वहॉ आश्रय न मिल सका | अतः वे दोनों वनमें चली गयी । यही एक गुफा, अंजनाने एक यशस्वी पुत्ररल को जन्म दिया। एक दिन हनूरुह द्वीपके राना प्रतिस्र्य जो अन्नाके मामा थे, उस वीहड़ वनमं आये और उसका परिचय प्राप्त कर अपने घर ले गये । वहीं उसके पुत्रका नाम हनुमान रखा गया। .
विनयी होकर जब पवनञ्जय आदित्यपुर लौटे तो अजनाका उमाचार जानकर वह अत्यन्त दुखी हुए और चल पड़े उसकी खोनम । नवअजनाको यह समाचार मिला तो वह अधिक चिन्तित हुई। प्रतिसूर्य, प्रहाद आदि समी पवनञ्जयको हूँढ़ने चले। अन्तमें वे सब पवनञ्जयको हूँढकर ले आये और अंजना-पवनञ्जयका मिलन हो गया। पवनञ्चयको मिला एक नन्हा बालक 'मुक्तिदूत-सा। ___ यही मुक्तिदूतका कथानक है। यह कथानक पद्मपुराण, हनुमन्चरित आदि कई पुराणोंमें पाया जाता है। प्रतिभाशाली लेखकने इस पौराणिक कथानकमें अपनी कल्पनाका यथेष्ट समावेश किया है। यहाँ प्रधान प्रधान कल्पनाओंपर प्रकाश डाला जायगा ।
१-पद्मपुराणमे बतलाया गया है कि जब मिश्रऋगीने विद्युअमकी प्रशंसा की तो पवनलयने क्रोधसे अभिभूत होकर अंजना और मिश्रकेशीका सिर काटना चाहा, किन्तु ग्रहस्तके रोकनेपर वह शान्त हुए । नजिदूतम पवनञ्जयको इतना क्रोवामिभूत न दिखलाकर नायकके चरित्रको महत्वा दी गयी है। हॉ, नायकका 'अहंभावं' अपनी निन्दा सुनकर अवश्य जाग्रत हो गया है।
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उपन्यास
२-पुराणके पवनञ्जय मानसरोवरसे प्रस्थान करनेपर पुनः पिताकी आगासे लौटे, पर उपन्यास-लेखकने प्रहस्त मित्र-द्वारा उन्हे लौटवाया है।
३-वरुण और रावणके युद्ध-प्रसगमे पुराणकारने वरुणको दोपी ठहराकर पवनञ्जय-द्वारा रावणको सहायता दिलायी है, पर मुक्तिदूतके लेखकने रावणको अपराधी बताकर पवनञ्जय-द्वारा वरुणको सहायता दिलायी है और रावणको परास्त कराया है। ___४-केतुमती-द्वारा निर्वासित होकर महेन्द्रपुर पहुँच जानेपर अजना
और वसन्तमाला दोनोंका राजा महेन्द्र के पास जानेका पुराणमे उल्लेख किया गया है, परन्तु वीरेन्द्रजीने केवल वसन्तकै जानेका ही उल्लेख किया है। इस कल्पना-द्वारा उन्होने अजनाके सहज मानकी रक्षा की है। अजनाकी खोजमे व्यस्त पवनक्षय और प्रहस्तके वर्णनमे भी दोनोके महेन्द्रपुर जानेका उल्लेख पुराणकारने किया है, पर मुक्तिदूतमे केवल प्रहस्तके जानेका कथन है।
५-कुमारपवनञ्जय जब अजनाकी खोजमे गये, तव उनके साथ प्रिय हाथी अम्बरगोचरके भी रहनेका वर्णन पुराणमे मिलता है, पर मुक्तिदूतमे इसको स्थान नहीं दिया गया है। ____ इस प्रकार लेखकने कथाकी पौराणिकताकी सीमामै कल्पनाको मुक्त रखा है, जिससे कथावस्तुमे स्वभावतः सुन्दरता आ गयी है। किन्तु एक बात इसके कथानकमे बहुत खटकती है, और वह है कथानकका अधिक विस्तार । यही कारण है कि जहां-तहाँ कथावस्तुमे शिथिलता आ गयी है ।
आरम्मके प्रासाद-सौन्दर्य वर्णनम तथा अजनाके साज-सजाके वर्णनमे लेखकने रीतिकालका अनुसरण किया है। यदि यह वर्णन थोड़ा सक्षिप्त होता तो उपन्यासकी सुन्दरता और निखर उठती। इन प्रसगोको छोड अन्य प्रसंगोंका वर्णन संक्षिप्त, सरस तथा रमणीय है। इसी कारण सम्पूर्ण उपन्यासमे नवीनता, मधुरता और अनुपम कोमलता आ गयी है।
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पान्न
हिन्दी-जैन-साहित्य-परिशीलन इस उपन्यासके प्रधान पात्र हैं-पवनञ्जय, अंजना, वसन्तमाला और प्रहस्त । गौण पात्र है-प्रह्लाद, केतुमती, महेन्द्र और प्रतिसूर्य आदि । - इनके चरित्र-चित्रणमे लेखकका रचना-कौशल चमक
उठा है। नायक पवनञ्जयका चित्रण एक अहभावसे भरे ऐसे पुरुषकै रूपमे किया गया है जो नारीकी कमीका अनुभव तो करता है, पर अमिमानके कारण कुछ न कहकर भीतर ही भीतर जलता हुआ उन्मत्त-सा घूमता है । पवनञ्जय अजनाके सौन्दर्यको देखकर मुग्ध तो हो जाते है किन्तु अजना विद्युत्प्रम-से प्रेम करती है इस आशकाने उनके अहभावको ठेस पहुंचाई और वह तब तक धुलते रहे जब तक उनके अन्तरकी मानवता उस अहंभावका बन्धन न तोड सकी । यह स्वच्छन्द वातावरणमे अकेले घूमनेके इच्छुक तथा स्वभावसे हठी है। अपने 'अहं' को आच्छादित करनेके लिए दर्शनकी व्याख्या, विश्व-विजयकी इच्छा तथा मुक्तिकी कामना करते है । 'अह'के ध्वंसके साथ ही उनकी मानवता दोत हो उठती है। जब तक वह नारीकी महत्ताको समझनेमे असमर्थ रहते है, तब तक उनमे पूर्णता नहीं आ पाती । अहके विनाश तथा मानवताकै विकासके साथ ही वे नारीके वास्तविक स्वरूपसे परिचित हो जाते हैं, उनके चरित्र में पूर्णता आ जाती है। रावण-वरुणके युद्ध-प्रसगमे उनकी वीरताका साकाररूप दृष्टिगोचर होता है। अंजनाका सामीप्य प्राप्तकर वे आदर्श पुत्र, आदर्श पति, आदर्श मित्र एव आदर्श पिता बन जाते हैं। पवनञ्जयको लेखकने हृदयसे भावुक, मस्तिष्कसे विचारक, स्वभावसे हठी और शरीरसे योद्धा चित्रित किया है। ____ अजना तो इस उपन्यासकी केन्द्रबिन्दु ही है। इसका चित्रण लेखकने अत्यन्त मनोवैज्ञानिक ढंगसे किया है। पातिव्रतका आदर्श अस्त्र ले सहज प्रतिमासे युक्त वह हमारे समक्ष प्रस्तुत होती है। पति-द्वारा त्यक्त होनेका उसे शोक है, पर उसके हृदयमे धैर्यकी अजस्त्र धारा अनवरत प्रवाहित
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उपन्यास
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होती रहती है । परित्यक्ता होकर भी वह अपने नियमोमे शिथिलता नहीं आने देती है । बाईस वर्षों तक तिल-तिलकर जलने पर जव पवनञ्जय उसके महलमे पधारते है तो वह अगाध दयामयी अपना अंकद्वार उनके लिए प्रशस्त कर देती है। जब पवनञ्जय कहते हैं कि-"रानी ! मेरे निर्माणका पथ प्रकाशित करो" । तो वह प्रत्युत्तरमे कहती है-"मुक्तिका राह नै क्या जानें, मै वो नारी हूँ और सदा बन्धन ही देती आयी हूँ।" यहाँ पर नारी-हृदयका परिचय देनेम लेखकने अपूर्व कौशलका परिचय दिया है। __अजनाके चरित्र चित्रणमे एकाध स्थलपर अस्वाभाविकता आ गयी है । गर्भमारसे दबी अजनाका अरण्यमे किशोरी बालिकाके समान दौडना नितान्त अस्वाभाविक है । हॉ, अंजनाके धैर्य, सन्तोष, गालीनता आदि गुण प्रत्येक नारीके लिए अनुकरणीय है।
मित्ररुपमे प्रहस्त और वसन्तमालाका नाम उल्लेखनीय है। वसन्तमालाका साग अद्वितीय है, अपनी सखी अंजनाकै साथ वह छायाकी तरह सर्वत्र दिखलायी पडती है। अजनाके सुखमे सुखी और दुःखमे वह दुःखी है। अननाकी आकाभा, इच्छा उसकी आकाक्षा, इच्छा है। उसका अपना अस्तित्व कुछ भी नहीं है । सखीकी भलाई के लिए उसने अपना सर्वस्व न्यौछावर कर दिया है । इसी प्रकार प्रहस्तका त्याग भी अपूर्व है। लेखकने प्रधान पात्रोके सिवा गौण पात्रोमे राजा महेन्द्र, प्रह्लाद आदिके चरित्र-चित्रणम भी पूर्ण सफलता प्रास की है।
कथोपकथनकी दृष्टि से इस उपन्यासका अत्यधिक महत्त्व है । पवनजय न और प्रहस्तके वार्तालाप कुछ लम्बे हैं, पर आगे
चलकर भाषणोमे समितताका पूरा खयाल रखा गया है। कथोपकथनो द्वारा कथाकी धारा कितनी क्षिप्रगतिसे आगे बढ़ती है, यह निम्न उद्धरणोसे स्पष्ट है
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हिन्दी - जैन-साहित्य-परिशीलन
"वह मोह था प्रहस्त, मनकी एक क्षण-भंगुर उमंग । निर्बलताके अतिरेक में निकलनेवाला हर वचन निश्चय नहीं हुआ करता । और मेरी हर उमंग मेरा बन्धन बनकर नहीं चल सकती । मोहकी रात्रि अब बीत चुकी है प्रहस्त । प्रमादकी वह मोहन- शय्या पवनंजय बहुत पीछे छोड़ आया है । कल जो पवनंजय था आज नहीं है । अनागतपर आरोहण करनेवाला विजेता, अतीतकी साँकलोसे बँधकर नहीं चल सकता । जीवनका नाम है प्रगति । ध्रुव कुछ नहीं है प्रहस्त, स्थिर कुछ नहीं है । सिद्धात्मा भी निज रूपमें निरन्तर परिणमनशील है । ध्रुव है केवल मोह - जड़ताका सुन्दर नाम- ।”
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" तो जाओ पचन, तुम्हारा मार्ग मेरी बुद्धिकी है । पर एक बात मेरी भी याद रखना - तुम स्त्रीसे हो। तुम अपने ही आपसे पराभूत होकर आत्म-प्रतारणा कर रहे हो । घायलके प्रलापसे अधिक, तुम्हारे इस दर्शनका मूल्य नहीं । यह दुर्बलकी आत्म-वंचना है, विजेताका मुक्तिमार्ग नहीं है" ।
इस उपन्यासकी कथावस्तुको प्रकट करनेके लिए शैली लेखकने दो प्रकार की गैलियोका प्रयोग किया हैबोझिल और सरल |
पवनजय और अजनाके प्रथम मिलनके पूर्वकी शैली बोझिल है । भाषा इतनी अधिक सस्कृतनिष्ठ है, जिससे गद्यकाव्य का-सा शब्दाडम्बरसा प्रतीत होता है । पढते - पढते पाठक ऊब-सा जाता है और बीचमे ही I अपने धैर्यको खो देता है । वाक्य लबे होनेके कारण अन्वयमें क्लिष्टता है, जिससे उपन्यासमे भी दर्शनके तुल्य मनोयोग देना पड़ता है ।
मिलने के बादकी शैली सरल है, प्रवाहयुक्त है । अभिव्यक्ति सरल, स्पष्ट और मनोरंजक है । सस्कृतके तत्सम शब्दोके साथ प्रचलित विदेशी शब्दोका व्यवहार भाषामें प्रवाह और प्रभाव दोनो उत्पन्न करता है । मुक्तिदूतकी भापा प्रसादकी भापाके समान सरस, प्राञ्जल और प्रवाहयुक्त
पहुॅचनेके बाहर भागकर जा रहे
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उपन्यास
है। हिन्दी उपन्यासोंमे प्रसादके पश्चात् इस प्रकारको भापा और शैली कम उपन्यासोंमें मिलेगी। वस्तुतः वीरेन्द्रजीका मुक्तिदूत भाषासौष्ठवके क्षेत्रमे एक नमूना है।
मुक्तिदूत जीवनकी व्याख्या है। श्री लक्ष्मीचन्द्र जैनने और प्रस्तावनामें इस उपन्यासका उद्देश्य प्रकट करते हुए
लिखा है-"आजकी विकल मानवताके लिए मुक्तिदूत वय मुक्तिदूत है।"
इसके पात्रोको लेखकने प्रतीक रूपमे रखा है। अजना प्रकृतिकी प्रतीक है, पवनञ्जय पुरुषका, उसका अहभाव मायाका और हनुमान ब्रह्मका । आजका मनुष्य अपने अह (माया) के कारण अपनेको बुद्धिमान तथा शक्तिशाली समझ अपने बुद्धिवादके वलपर विज्ञानकी उत्पत्ति द्वारा प्रकृतिपर विजय पाना चाहता है, पर प्रकृति दुर्जेय है।
भौतिकवाद और विज्ञानवादके कारण हिंसा, द्वेपकी अग्नि भड़क रही है, युद्धके शोले जल रहे है। इसीसे हर व्यक्तिका मन अशान्त है, क्षुब्ध है, विकल है। पर अपने मिथ्याभिमानके कारण वह प्रकृतिपर विजय प्राप्त करनेके लिए नित्य नये-नये आविष्कार करनेमे सलग्न है । प्रकृति उसके इन कार्य-कलापोसे शोकाकुल है तथा पुरुपकी अल्प शक्तिका उपहास करती हुई कहती है-"पुरुष (मनुष्य ) सदा नारी (प्रकृति) के निकट बालक है। भटका हुआ वालक अवश्य एक दिन लौट भायेगा।"
होता भी ऐसा ही है। जब भौतिक संघर्षोंसे मनुष्य आकुल हो उठता है, तब प्रकृतिकी महत्तासे परिचित होता है और उसकी विरामदायिनी गोदमे चला जाता है । मृदुल्ताकी अक्षयनिधि प्रकृति उसे अपने सुकोमल अकमे भर लेती है। इसी समय मनुष्यके समक्ष मानवताका वास्तविक स्वरूप प्रस्तुत होता है। मानवको प्रकृति-द्वारा प्रेरित कर तथा
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हिन्दी-जैन-साहित्य-परिशीलन अहिसक बनाकर लेखकने बताया है कि तृतीय महायुद्धकी विभीषिका अहिंसा और सयमसे दूर की जा सकती है।
अन्यायका दमनकर मनुष्य पुनः प्रकृतिके समीप आता है और तब उसे हनूमानरूपी ब्रह्मकी प्राप्ति होती है। हातिरेकसे "प्रकृति पुरुषमे लीन हो गयी, पुरुप प्रकृतिमे व्यक्त हो उठा।" जिससे प्रकृतिकी सहज सहायतासे मनुष्यका साथ ब्रह्मसे सदा बना रहे । प्रकृति और पुरुषके मिलनकी शीतल अमियधाराने शीतलताका स्निग्ध प्रवाह प्रवाहित किया, जिससे चारो ओर शान्ति तथा सुखके शतदल विकसित हो उठे।
आजकी व्यस्त मानवतारूपी दानवताके लिए यही मूलमन्त्र है । जब मनुष्य विज्ञानके विनाशकारी आविष्कारोका अंचल छोड़कर सृजनमयी प्रकृतिको पहचानेगा, तभी उसे भगवान्के वास्तविक स्वरूपकी प्राप्ति होगी और विश्वमे मानवताकी चिर समृद्धि कर सकेगा।
इन दृष्टियोसे पर्यवेक्षण करनेपर अवगत होता है कि यह उपन्यास उच्चकोटिका है। लेखकने मानवताका आदर्श त्याग, सयम और अहिंसा के समन्वयमे बतलाया है। औपन्यासिक तत्त्वोकी दृष्टि से भी दो-एक त्रुटियोके सिवा अन्य बातोमे श्रेष्ठ है। भाव, भाषा और शैलीकी दृष्टिसे यह उपन्यास बहुत ही सुन्दर बन पड़ा है।
श्री नाथूराम 'प्रेमी' ने भी बगलाके कतिपय उपन्यासोका हिन्दी अनुवाद किया है। प्रेमीजी वह प्रतिभाशाली कलाकार है कि आपकी प्रतिमाका स्पर्श पाकर मिट्टी मी स्वर्ण बन जाती है। __ मुनिराज श्री विद्याविजयने 'राणी-सुलसा' नामक एक उपन्यास लिखा है। इसमे सुलसाके उदात्त चरित्रका विश्लेपण कर लेखकने पाठको के समक्ष एक नवीन आदर्श उपस्थित किया है। भाषा और कलाकी दृष्टिसे इसमे पूर्ण सफलता लेखकको नहीं मिल सकी है।
१. ब्रह्मप्राप्तिका भर्थ भात्मशुद्धि है।
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कथा-साहित्य
कथा - साहित्य
सभी जाति और धर्मों के साहित्यमे सदासे कहानियोकी प्रधानता रही है । इसका प्रधान कारण यह है कि मानव कथाओमे अपनी ही भावना और चरित्रका विश्लेषण पाता है; इसलिए उनके प्रति उसका आकर्षित होना स्वाभाविक है। जैन साहित्यमे आजसे दो हजार वर्ष पहलेकी जीवन के आदर्शको व्यक्त करनेवाली कथाएँ वर्तमान हैं ।
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जैन आख्यानों में मानव-जीवन के प्रत्येक पहलुका स्पर्श किया गया है, जीवनकै प्रत्येक रूपका सरस और विशद विवेचन है तथा सम्पूर्ण जीवनका चित्र विविध परिस्थिति-रगोसे अनुरञ्जित होकर अकित है । कहीं इन कथाओमे ऐहिक समस्याओंका समाधान किया गया है तो कही पारलौकिक समस्याओका | अर्थनीति, राजनीति, सामाजिक और धार्मिक परिस्थितियों, कला-कौशलके चित्र, उत्तुङ्गगिरि, अगाध नद-नदी आदि भूवृत्तोका लेखा, अतीतके जल-स्थल मागाँके सकेत भी जैन कथाओ में पूर्णतया विद्यमान हैं। ये कथाएँ जीवनको गतिशील, हृदयको उदार और विशुद्ध एव बुद्धिको कल्याणके लिए उत्प्रेरित करती है । मानवको मनोरंजनके साथ जीवनोत्थानकी प्रेरणा इन कथाओंसे सहज रूपमे प्राप्त हो जाती है ।
प्राचीन साहित्यमे आचाराग, उत्तराध्ययनाग, उपासकदशाङ्ग, अन्तकृद्दशाङ्ग, अनुत्तरौपपादिकदशाङ्ग, पद्मचरित्र, सुपार्श्वचरित्र, ज्ञातृधर्मकथाङ्ग आदि धर्म-ग्रन्थोमे आयी हुई कथाएँ प्रसिद्ध हैं। हिन्दी जैन साहित्यमे संस्कृत और प्राकृतकी कथाओका अनेक लेखक और कवियोने अनुवाद किया है। एका लेखकने पौराणिक कथाओंका आधार लेकर अपनी स्वतन्त्र कल्पनाके मिश्रण-द्वारा अद्भुत कथा-साहित्यका सृजन किया है । इन हिन्दी कथाओंकी शैली बड़ी ही प्राज्जल, सुवोध और मुहावरेदार है | ललित लोकोक्तियाँ, दिव्यदृष्टान्त और सरस मुहावरोंका प्रयोग किसी भी पाठकको अपनी ओर आकृष्ट करनेके लिए पर्याप्त है ।
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हिन्दी-जैन-साहित्य-परिशीलन अधिकांश जैन कहानियाँ व्रतोंकी महत्ता दिखलाने और व्रतपालन करनेवालेके चरित्रको प्रकट करनेके लिए लिखी गयी है । सम्यत्तवकौमुदीभापा, वरोगकुमार चरित्र, श्रीपालचरित्र, धन्यकुमार चरित्र आदि कथाएँ जीवनकी व्याख्यात्मक है। अनन्तव्रत कथा, आदित्यवार कथा, पचकल्याणकवत कथा, निशिभोजन त्यागवत कथा, शील कथा, दर्शन कथा, दान कथा, श्रुतपंचमीव्रत कथा, रोहिणीव्रत कथा, आकाश पञ्चमी कथा, आदि कथाएँ एक विशेष दृष्टिकोणको लेकर लिखी गयी हैं।
सम्यक्त्व कौमुदी धार्मिक तथा मनोरजक कथाओंका सग्रह है । इसमें मथुराका सेठ अर्हदास अपने सम्यत्वलाभकी कथा अपनी आठ पलियोको सुनाता है । कुन्दलताको छोड़कर शेष सभी स्त्रियाँ उसके कथनपर विश्वास करती है। सेठकी अन्य सात स्त्रियाँ भी अपने-अपने सम्यक्त्वलामकी बात सुनाती है । कुन्दलता इनका भी विश्वास नहीं करती है । इस नगरका राजा उदितोदय, मन्त्री सुबुद्धि और सुपर्णखुर चोर भी छुपकर इन कथाओको सुनते है। उन्हे इन घटनाओपर विश्वास होता जाता है। राजा कुन्दलताके विश्वास न करनेसे क्षुब्ध है। अन्तमे कुन्दलता भी इन कथाओसे प्रभावित हो जाती है। सेठ अर्हदास, राजा, मन्त्री, सेठकी स्त्रिया, रानी, मन्त्रिपनी सबके सब जैनदीक्षा ले लेते है | कुन्दलता भी इनके साथ दीक्षित हो जाती है। तपस्याकै प्रभावसे कोई निर्वाण प्राप्त करता है, तो कोई स्वर्ग।
मुख्य कथाके भीतर एक सुयोधन राजाकी कथा भी आयी है और उसीके अन्दर अन्य सात मनोरंजक और गम्भीर सकेतपूर्ण कहानियाँ समाविष्ट हैं।
जैन हिन्दी कथा साहित्य दो रूपोमे उपलब्ध है-अनूदित और पौराणिक आधार पर मौलिक रूपमे रचित ।
अनूदित कथा साहित्य विशाल है । प्रायः समस्त जैन कथाएँ प्राचीन
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कथा-साहित्य
और अर्वाचीन हिन्दी गद्यमे अनूदित की जा चुकी है । आराधना कथाकोग, वृहत्कथाकोश, सप्तव्यसन चरित्र और पुण्यासवकथाकोशके अनुवाद कथा साहित्यकी रिसे उल्लेख योग्य हैं। उपर्युक्त अन्थोमे एक साथ अनेक कथाओका सकलन किया गया है और ये सभी कथाएँ जीवनके मर्मको स्पर्श करती हैं। यद्यपि इन कथाओमें आजका रंग और टीप-चाप नहीं है तो भी जीवनके तारोंको झकृत करनेकी क्षमता इनमे पूर्ण रूपसे विद्यमान है।
यह कई भागोंमे प्रकाशित हुआ है। इसके अनुवादक उदयलाल काशलीवाल है। प्रथम मागमे २४ कथाएँ, द्वितीय भागमे ३८ कथाएँ, माराधनाकया तृतीय भागमै ३२ कथाएँ और चतुर्थ भागमे २० र कथाएँ है। अनुवाद स्वतन्त्ररूपसे किया गया है।
अनुवादकी भापा सरल है। कथाएँ सभी रोचक है, अहिंसा संस्कृतिकी महत्ता व्यक्त करती हैं तथा पुण्य-पापके फलको जनताके समक्ष रखती है। यदि इन कथाओंको आजकी शैलीमे जनताके समक्ष रखा-जाय, तो निश्चय ही जैन साहित्यके वास्तविक गौरवको जनसाधारण हृदयगम कर सकेगा।
इसके दो भाग अभी तक प्रकाशित हो चुके हैं, कुल कथाएँ चार भागोमे प्रकाशित की जा रही है । प्रथम भागमें ५५ कथाएँ और द्वितीय
- भागमें १७ कथाएँ है । इसके अनुवादक प्रो० राजकुमार
साहित्याचार्य है । अनुवाद बहुत सुन्दर हुआ है, भापा सरल और सुसम्बद्ध है । अनुवादकने मूल भावोको अक्षुण्ण रखते हुए भी रोचक्ताको नष्ट नहीं होने दिया है।
१. प्रकाशक-जैनमित्र कार्यालय हीरावाग, बम्बई । २. प्रकाशक-भा० विगम्बर जैन संघ, चौरासी, मथुरा।
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हिन्दी - जैन- साहित्य-परिशीलन
जैन आगमकी पुरानी कथाओंको हिन्दी भाषामे सरल ढगसे श्री डा० जगदीशचन्द्र जैनने लिखा है। इस सग्रहमे कुल ६४ कहानियाँ हैं, वो तीन भागोंगे विभक्त हैं--लौकिक, ऐतिहासिक और 'दो हजार वर्ष पुरानी कहानियाँ धार्मिक। पहले भाग में ३४, दूसरे १७ और तीसरेंम १३ कहानियाँ है । लौकिक कथाओंम उन लोक प्रचलित कथाओका सकलन है, जो प्राचीन भारतमं विना सम्प्रदाय और वर्ग भेद- के जनसाधारणमे प्रचलित थी । इस वर्गकी कथाओं में कई कहानियों सरस, रोचक और मर्मस्पर्शी है। कल्पना-शक्ति और घटना - चमत्कार इन कथाओं मे पूरा विद्यमान है। अतः कलाकी दृष्टिसे भी इन कहानियोंका महत्त्व है।
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ऐतिहासिक कहानियोंमें भगवान् महावीरके समकालीन अनेक राजारानियोंकी कहानियाँ दी गयी हैं। इनमें जीवनमें घटित होनेवाले व्यापारोंके सहारे राजा-रानियोंके चरित्रोंका विश्लेषण किया गया है। यद्यपि जीवनसम्बन्धी गम्भीर विवेचनाएँ, जो नाना व्यापारोमे प्रकट होकर जीवनकी गुत्थियों पर प्रकाश डालती है, इनमें नहीं हैं, तो भी कथानककी सरसता पाठकको रसमग्न कर ही लेती है ।
धार्मिक विभागकी कहानियॉ धर्म प्रचारके उद्देश्यसे लिखी गई हैं। इन कहानियांसे स्पष्ट है कि अनेक चोर और डाकू मी भगवान् महावीरके धर्म दीक्षित हुए थे । तृष्णा, लोभ, क्रोध, मान, माया आदि विकार मानवके उत्थानमें बाधक है । व्यक्ति या समाजका वास्तविक हित सदाचार, संयम, समभाव, त्याग आदिसे ही संभव है। इस संकलनकी कहानियो पर प्रकाश डालते हुए भूमिकामे आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदीने लिखा है - " संग्रहीत कहानियाँ वढी सरस हैं । डा० जैनने इन कहानियों को बड़े सहन ढंगसे लिखा है । इसलिए ये बहुत सहजपाठ्य हो गई
१. प्रकाशक -- भारतीय ज्ञानपीठ, काशी ।
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कथा-साहित्य
हैं। इन कहानियोंमें कहानीपनकी मात्रा इतनी अधिक है कि हजारों वर्षसे, न जाने कहनेवालोंने इन्हें कितने ढंगसे और कितनी प्रकारकी भाषामें कहा है फिरभी इनका रसबोध-ज्योंका त्यों बना है। साधारणतः लोगोका विश्वास है कि जैन साहित्य बहुत नीरस है। इन कहा. नियोको चुनकर डॉ. जैनने यह दिखा दिया है कि जैनाचार्य भी अपने गहन तत्वविचारोंको सरस करके कहने में अपने ब्राह्मण और बौद्ध साथियोंसे किसी प्रकार पीछे नहीं रहे है। सही बात तो यह है कि जैन पंडितोंने अनेक कथा और प्रवन्धकी पुस्तकें बड़ी सहज भापामें लिखी हैं।" __इस संग्रहकी कहानियाँ सरस और रोचक है । डा. जगदीशचन्द्र जैन
ने पुरातन कहानियोंको ज्योका त्यो लिखा है, कहानी कलाकी दृष्टिसे , चमत्कारपूर्ण दृश्य योजना और कथोपकथनको प्रभावक बनानेकी चेष्टा . नहीं की है । अतएव सग्रह भी एक प्रकारसे अनुवाद मात्र है। ' पुरातन कथानकोको लेकर श्री बाबू कृष्णलाल वर्माने स्वतन्त्ररूपसे
कुछ कथाएँ लिखी है। इन कथाओंमें कहानी-कला विद्यमान है। इनमे वस्तु, पात्र और दृष्य ( Background or Atmosphere) ये तीनो मुख्य अङ्ग संतुलित रूपमे हैं। सरलता, मनोरजकता और हृदय स्पर्शिता आदि गुणोका समावेश भी यथेष्ट रूपमे किया गया है। नीचे आपकी कतिपय कथाओका विवेचन किया जाता है।
यह कहानी बड़ी ही मर्मस्पर्शी है। इसमें एक और मोहाभिभूत प्राणियोके अत्याचार उमड़-घुमड़कर अपनी पराकाष्ठा दिखलाते हुए दृष्टिखनककुमार ही गोचर होते हैं, तो दूसरी ओर सहनशीलता और
क्षमाकी अपरिमित शक्ति। आज, जब कि आचार और धर्म एक खिलवाड़ और ढकोसला समझे जा रहे हैं, यह कहानी अत्यन्त उपादेय है।
१. प्रकाशक-आत्मानन्द जैन ट्रैक्ट सोसाइटी, अंबाला शहर।
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कथानक
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हिन्दी-जैन साहित्य-परिशीलन सेवती नामक नगरके राजा कनककेतुकी प्रिया मनसुन्दरीने एक प्रतिभाशाली, वीर पुत्रको जन्म दिया। यह बालक बचपनसे ही भावुक
सदाचारी और बुद्धिमान् था । दो-तीन वर्षकी * अवस्थासे ही माता-पिताके साथ पूजा-भक्तिमे शामिल होता था।
युवा होनेपर ससारके विषय-भोगोसे खनककुमारको विरक्ति हो गयी। माताके वात्सल्य और पिताके आग्रहने वहुत दिनोंतक उन्हें घरम रोक रखा, पर एक दिन वह सब कुछ छोड़ दिगम्बर दीक्षा ले आत्मकल्याणमे लग गये । जब खनककुमार एकाकी विचरण करते हुए अपनी वहन देववालाकी समुराल पहुंचे तो भाईको इस वेषमे देखकर बहनकी ममता फूट पड़ी। भयकर कड़कडाते जाड़ेमें नग्न रहनेकी कल्पना मात्रसे ही उसको कट हुआ। वह सोचने लगी-हाय ! मेरे माईको कितना कष्ट है, यह राजपुत्र होकर इस प्रकारके दुःखोंको कैसे सहन करेगा?
चिन्तित रहनेके कारण ही देववालाका मन सासारिक भोगोसे उदासीन रहने लगा। जब इसके पतिको भार्याकी उदासीनताका कारण मुनि प्रतीत हुआ तो उसने जल्लाटो द्वारा मुनिकी खाल निकलवा ली। मुनि खनककुमारने इस अवसरपर अपनी दृढता, क्षमा और अहिंसा-शक्तिका अपूर्व परिचय दिया है। उनकी अद्भुत सहनशीलताके कारण उन्हें कैवल्यकी प्राप्ति हुई।
इस कथाम करुण-रसका परिपाक इतना सुन्दर हुआ कि पापाणहृदय भी इसे पढकर आसू गिराये बिना नहीं रह सकता है । यद्यपि प्रवाहम शिथिलग है, कथोपकथन भी जीवट नहीं है । मुख्यकथाके सहारे अवान्तर कथानक भी घुसेड़ दिये गये है, जिससे शैलीमे सजीवता नहीं आने पायी है । वाक्यगठन अच्छा हुआ है। छोटे-छोटे अर्थपूर्ण वाक्याका प्रयोगकर वर्माजीने कथाके माध्यम-द्वारा धर्मोकी व्याख्या भी जहाँ-तहाँ
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कथानक
कथा-साहित्य कर दी है। यद्यपि इस प्रयासमे कही-कही उन्हें कथाकारके पदका उल्लयन करना पड़ा है, फिर भी कथाकी गतिम रुकावट नहीं आने पायी है। चरित्र चित्रणकी दृष्टिसे यह कथा सुन्दर है । खनककुमारका चारित्रिक विकास आरम्भसे ही दिखलाया गया है। इसमे वर्माजीने नवीन भावकी योजना की है। पौराणिक आख्यान
है, को कल्पना-द्वारा चटपटा बनाकर तुस्वादु कर दिया
"है। महासती सीताके उज्वल चरित्रकी मॉकी-द्वारा प्रत्येक पाठक अपने हृदयको पवित्र कर सकता है।
मिथिला नगरीकी रानी विदेशाके गर्भसे युगल सन्तान-एक साथ दो बालक उत्पन्न हुए । सप और थालीकी एक ही साथ झनकार हुई।
अन्तःपुरम और बाहर आनन्ट मनाया जाने लगा। 16 बाल सूर्य और चन्द्र के समान उनकै तेजको देखकर राजा-रानीके आनन्टका ठिकाना न रहा। पर क्षणभर पहले जहाँ आनन्द. की लहरे उत्पन्न हो रही थी, वही हृदय-वेधी हाहाकार मुनाई पड़ने लगा। ऑखोके तारे पुत्रको कोई बढी चतुगईमे चुराकर ले गया। अनुमन्धान करनेपर भी बालकका पता न लग सग।
कन्याका नाम रीता रखा गया । जनक, युवती होनेपर सीताकी अप्रतिम रूप-रागिको देखकर उसके तुल्य वर प्रान करने के लिए चिन्तित थे । जनक्ने योग्य वरकी तलाग परनके लिए नन्त्री राजमारो देसा, पर सीताके योग्य एक भी नहीं जचा।।
वरवर देशके मटेच्छराजाने उपद्रयांग टमन परने लिए जनक महाराजने अपनी सहायताके लिए अयोधान्पति महागज दगगरी बुलाए । जब अयोध्याम सेना जनपकी गायता लिल, मन्थान रन लगी तो रामने आग्रहपूर्वक महाराज ना गम गानेग अगति ले ली। मिथिला पहुंचकर रामने मंच राजार भारमन ाि और
१. प्रमश-मारमानन्द जैन हैक्ट मोमाइटी, अंपाला नहर ।
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हिन्दी - जैन- साहित्य - परिशीलन
उन्हे अपने वश कर लिया । रामके इस कार्य से जनक बहुत प्रसन्न हुए और उन्हें सीता के योग्य वर समझ उन्हीं के साथ सीताका विवाह करनेका निश्चय कर लिया ।
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जब नारदने सीताके रूपकी प्रशंसा सुनी तो वह उसको देखने के लिए मिथिला आये । नारद उस समय इतने आतुर थे कि राजाके पास न जाकर सीधे अन्तःपुरमें सीताके पास चले गये । सीता अपने कमरे में अकेली ही थी, अतः वह उनके अद्भुत रूपको देखकर डर गयी तथा चिल्लाने लगी । अन्तःपुरके नौकरोने नारदकी दुर्दशा की, जिससे अपमानित नारदने सीता से प्रतिशोध लेनेकी भावनासे उसका एक सुन्दर चित्र खींचा और उसे चन्द्रगति विद्याधरके ash भामण्डलको भेट किया । भामण्डल उस चित्रको देखते ही मुग्ध हो गया । मदनज्वरके कारण वह खाना-पीना भी भूल गया । पुत्रकी इस दशाको देखकर विद्याधरने नारदको अपने पास बुलाया और चित्राकित कन्याका पता पूछा । नारदकै कथनानुसार उस विद्याधरने विद्याके प्रभावसे महाराज जनकको रात सोते हुए अपने यहाँ बुला लिया । जब जनक जागे तो अपनेको एक अपरिचित स्थानमे पाकर पूछने लगे कि मै कहाँ आ गया हॅू ? चन्द्रपति विद्याधरने उससे सीताका विवाह भामण्डल के साथ कर देने को कहा । महाराज जनकने बड़ी दृढ़तासे विद्याधरको उत्तर दिया । अन्तर्मे विद्याधरने 'वज्रावर्त' और 'अर्णवावर्त' नामक दो धनुष जनकको दिये और कहा कि सीता का स्वयबर करो, जो स्वयंवरमे इन दोनों धनुषमेसे एक धनुषको तोड़ देगा ; उसीके साथ सीताका विवाह होगा । जनक किसी प्रकार विद्याधरकी शर्त मंजूर कर मिथिला आ गये और सीताका स्वयंवर रचा। रामने स्वयंवरमे धनुष तोड़ा और उन्ही के साथ सीताका विवाह हो गया ।
विवाहके उपरान्त कुछ ही दिनोंके बाद कैकेयीका वरदान माँगना और राजाका वनप्रयाण आता है । वनमें अनेक कारण-कलापोंके मिलने
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कथा-साहित्य
पर सीताका हरण हो जाता है। लकामे सीताको अनेक कष्ट सहन करने पड़ते हैं। हनूमान-द्वारा सीताका समाचार पाकर रामचन्द्र सुप्रीवकी सहायतासे रावणपर आक्रमण करते है और लकाका विजयकर सीताको ले आते हैं । अयोध्या में आनेपर सीतापर दोषारोपण किया जाता है, फलतः राम सीताको घरसे निर्वासित कर देते है। वजजधके यहाँ सीता लवण और अंकुशको जन्म देती है ; इन दोनोका रामसे युद्ध होता है । परिचय हो जानेपर सीवाकी अग्नि-परीक्षा ली जाती है। सतीके दिव्य तेजसे अग्नि जल बन जाती है और वह ससारकी स्वार्थपरता देखकर विरक हो जैनटीक्षा ले लेती है और तपस्या कर स्वर्ग पाती है।
इस कथा कथोपकथन प्रभावशाली वन पड़े है । लेखकने चरित्रचित्रणमें भी अपूर्व सफलता प्रास की है। सवाद कथाकी गतिको कितना प्रवाहमय बनाते है यह निम्न उद्धरणसे स्पष्ट है। नारद मनही मन बडबडाते हुए कहते है-"हु! यह दुर्दशा यह अत्याचार ! नारदसे ऐसा व्यवहार ! ठीक है। व्याधियोंको देख लूगा । सीता! सीता! तुझे धन यौवनका गर्व है, उस गर्वके कारण तूने नारदका अपमान किया है। अच्छा है ! नारद अपमानका बदला लेना जानता है। नारद थोडे ही दिनों में तुझे इसका फल चखायेगा ओर ऐसा फल चखायेगा कि जिससे कारण तू जन्मभरतक हृदय-वेदनासे जलती रहेगी।" इस प्रकार इस कहानीमे कथातत्वोका यथेष्ट समावेश किया गया है।
इस रचनामें उत्सुकता गुण पर्याप्त मात्रामें विद्यमान है। लेखक वर्माजीने पौराणिक आख्यानमे भी कल्पनाका यथेष्ट सम्मिश्रण किया है। सुरसुन्दरी
र सुरसुन्दरी एक राजाकी कन्या है और अमरकुमार एक
" सेटका पुत्र । दोनो एक साथ अव्ययन करते हैं, दोनोंमें परस्पर आकर्षण ,उत्पन्न होता है और वे दानो प्रेमपाशमें बंध जाते है । एक दिन कुमारी अपने पल्लेमे सात कौड़ियाँ बाँधकर ले जाती है
१. प्रकाशक-आत्मानन्द जैन ट्रैक्ट सोसाइटी, अंबाला शहर ।
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हिन्दी-जैन साहित्य-परिशीलन और अमरकुमार खोलकर मिठाई मॅगाकर बॉट देता है। राजकुमारी कुमारके इस कृत्यसे क्रोधित होती है और कहती है कि सात कोडीमें राज्य प्राप्त किया जा सकता है।
दोनोका विवाह हो जाता है। अमरकुमार व्यापार करने जाता है, साथमे सुरसुन्दरी भी । सिंहल द्वीपके वनमें जहाज रोककर दोनों गये। सुन्दरी अमरके घुटनोपर सिर रखकर सो गयी । अमरको सुन्दरीके पूर्वक कटुवचन और अपना अपमान याद आया ; अतः वह उसके सिरके नीचे पत्थर लगाकर वहीं सोता छोड़ चल दिया।
जब सुन्दरीकी निद्रा भग हुई तो उसने अपने अचलम सात कौड़ियाँ बषी पायीं; साथ ही एक पत्र, जिसमे लिखा था कि सात कौड़ियोसे राज्य लेकर रानी बनो। सुन्दरीका क्षोभ जाता रहा और क्षत्रियत्व जाग्रत हो गया । उसकी आत्मा बोल उठी-"छि सुरसुन्दरी, नारी होकर तेरे यह भाव ! पुरुपका धर्म कठोरता है, नारीका धर्म कमनीयता और कोमलता । पुरुषका कार्य निर्दयता है तो स्त्रीका कार्य धर्म-दया" । इसके पश्चात् वह निश्चय करती है कि मैं क्षत्रिय सन्तान हूँ, इस प्रतारणाका बदला अवश्य लेंगी।
रात्रिके समय उस पहाड़की गुफासे कठोर ध्वनि करता हुआ एक राक्षस निकला । सुन्दरीके दिव्य तेजसे भयभीत हो वह उसे पुत्रीवत् मानने लगा। कुछ समय उपरान्त वहाँ एक सेठ आता है और वह उसे ले जाता है। उसकी दृष्टिमे पाप समा जाता है, जिससे वह उसे एक वेश्याके हाथ बेच देता है, सुन्दरी किसी प्रकार वहाँसे छुटकारा पाकर समुद्रकी उत्ताल तरगोंमे पहुँचती है और फिर सेठके नाविकों द्वारा त्राण पाती है । वहाँ भी उसी विपत्तिको ग्राम होती है, किन्तु एक दासी-द्वारा रक्षण पा अपना छुटकारा खोजती है। इसी बीच मुनिराजका दर्शन कर अपने पतिसे मिलनेका समय पूछती है । सुन्दरीको अनेक दुराचारियोंके फन्देमें. फॅसना पडा, अनेकोने उसके धीलको लूटनेकी कोशिश की, पर वह अपने
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कथा-साहित्य
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व्रतपर दृढ रही। उसकी दृढताके कारण उसकी विपत्तियों काफूर होती गयीं।
अन्तमे अपना नाम विमलवाहन रखकर उन्हीं सात कौड़ियों द्वारा व्यापार करती है। एक चोरका पता लगानेपर राजकुमारीके साथ विवाह और आधा राज्य भी प्राप्त कर लेती है। अमरकुमार भी व्यापारके लिए उसी नगरीमे आता है और बारह वर्पके पश्चात् दोनोका पुनः मिलन हो जाता है । मानिनी नारीकी प्रतिमा पूर्ण हो जाती है, और पुरुपका अहभाव नत हो जाता है।
इस कृतिमे लेखकने नारी-तेज, उसकी महत्ता, धैर्य, साहस और अमताका पूर्ण परिचय दिया है । सकल्प और व्रतपर दृढ नारीके समक्ष अत्याचारियोके अत्याचार शान्त हो जाते हैं । पुरुप कितना अविश्वसनीय हो सकता है, यह सुर-सुन्दरीके निम्न कथनसे स्पष्ट है
"विश्वासघातक, दुराचारी, धर्माधर्मविचारहीन, प्रतिज्ञाका भंग करनेवाले अथवा गजके समान स्त्रीको शेरकी तरह अपना भक्षण समझनेवाले पुरुषोंसे जितना दूर रहा जाय, उतना ही अच्छा है।"
इस रचनाकी भापा विशुद्ध साहित्यिक हिन्दी है, उर्दू और फारसीके प्रचलित शब्दोका भी प्रयोग किया गया है। भापामें स्निग्धता, कोमलता
और माधुर्य तीनो गुण विद्यमान हैं । शैली सरस है, साथ ही सगठित, प्रवाहपूर्ण और सरल है। रोचकता और सजीवता इस कथामे सर्वत्र विद्यमान है। कोई भी पाठक पढना आरम्भ करनेपर, इसे समाप्त किये विना विश्वास नहीं ले सकता है। प्रवाहकी तीव्रतामें पडकर वह एक किनारे पहुँच ही जाता है। __इस कथामें सती दमयन्तीके शील, पातिव्रत और गुणोकी महत्ता सती दमयन्ती
र बतलायी गयी है। आदर्शकी अवहेलना आजके
लेखक भले ही करते रहे, पर वास्तविकता यह है कि आदर्शके विना मानव-जीवन प्रगतिशील नहीं बन सकता है।
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हिन्दी - जैनसाहित्य - परिशीलन
नल परिस्थितिवश या पूर्वोपार्जित अशुभ कर्मानुसार द्यूतक्रीडामे रत हो जाता है और स्त्री सहित सब कुछ हार जाता है । राज-पाट छोड़कर नल वनको चल देता है और दमयन्ती पातित्रत धर्मके अनुसार उसका अनुसरण करती है । कूबड़ उसकी भर्त्सना करता है, किन्तु सतीत्वकी विजय होती है | नल बनमे दमयन्तीको सोती हुई छोड देता है और स्वय चला जाता है । निद्रा भंग होनेपर वह अपने अंचलमे लिखे लेखको पढ़ती है और उसीके अनुसार मार्गपर चल पड़ती है । मार्गम अनेक अघटित घटनाएँ घटित होती है, जिनके द्वारा उसका नारीत्व निखरता जाता है। अन्तमे चन्द्रयशा मौसीके यहाँसे पिता के घर पहुँच जाती है और इधर इसी नगरीमें नल आता है । सूर्यपाक बनाता है, दमयन्ती अपने पतिको पहचान लेती है और बारह वर्षके पश्चात् दोनोका मिलन होता है । नल दमयन्तीको अपनी यक्ष सम्बन्धी कथा सुनाता है ।
भापा, शैली और कथा - विस्तारकी दृष्टिसे इसमे नवीनता होनेपर भी कुछ ऐसी अलौकिक घटनाऍ है, जो आजके युगमें अविश्वसनीय मालूम पड़ेगी। उदाहरणार्थ सतीके तेजसे शुल्क सरोवरका जल परिपूर्ण होना, कैदीकी बेड़ियाँ टूटना और डाकुओका भाग जाना आदि । चरित्र - चित्रणमे इस कृतिमै लेखकने पौराणिकताको पूर्ण रूपसे अपनाया है, यही कारण है कि दमयन्तीका चरित्र अलौकिक और अमानवीय वन गया है । भाषा सरल और मुहावरेदार है, रोचकता और उत्सुकता आद्योपान्त विद्यमान है ।
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इस पौराणिक कथाके लेखक भागमल शर्मा है। इसमे पुण्य-पापका फल दिखलाया गया है । मनुष्य परिस्थितियों और वातावरणके अनुसार किस प्रकार नीचसे नीच और उच्चसे उच्च कार्य कर सकता है । प्रतिकूल परिस्थिति और वातावरणके रह
रूपसुन्दरी
नेपर जो व्यक्ति जघन्य कृत्य करता हुआ देखा जाता है, वही अनुकुल
१. प्रकाशक -- आत्मानन्द जैन ट्रैक्ट सोसाइटी, अम्बाला शहर |
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कथा-साहित्य
वातावरण और परिस्थितियो के होनेपर उत्तम कार्य करता है । इस कथाका प्रधान पात्र देवदत्त और नायिका रूपसुन्दरी है ।
रूपसुन्दरी कृपक भार्या है और देवदत्त धूर्त साधु-कुमार । दोनोका स्नेह हो जाता है । रूपसुन्दरी कामान्ध हो अपना सतीत्व खो देना चाहती है, पर एक मुनिराज के दर्शनसे उसे आत्मबोध प्राप्त हो जाता है । धूर्त देवदत्त उसके पतिका मायावी भेष धर कर आता है और वास्तविक पतिसे झगडा करने लगता है । रूपसुन्दरी एक ही रूपके दो पुरुपोको देखकर सशकित हो जाती है और अपना न्याय करानेके लिए न्यायालयकी शरण लेती है । अभयकुमार यथार्थ न्याय करता है और सतीके दिव्य तेजसे प्रजा नाच उठती है । कपटी देवदत्त को अपने कुकृत्यपर पश्चात्ताप होता है और रूपसुन्दरीके चरणोमे गिर क्षमा याचना करता है । चारों ओर सतीकी जय-जय ध्वनि सुनाई पड़ने लगती है ।
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चारित्रिक विकास की दृष्टिसे वह कथा सुन्दर है। मनुष्य कमजोरियोका पुतला है, कोई भी नर नारी किसी भी क्षण किस रूपमे परिवर्तित हो सकता है, इसका कुछ भी ठीक नही है । द्वन्द्वात्मक चारित्र मानव जीवनकी विशेष निधि है । लेखकने कथोपकथनोको प्रभावोत्पादक बनाने का पूरा प्रयत्न किया है ।
'मुझे तेरे मधुप्रेमका एकवार स्वाद मिले तो ?"
"हॅ ! ऐसे अभद्र शब्द, खवरदार, फिर मुँहसे न निकालना | तेरे जैसे नीच मनुष्योंको तो मेरा दर्शन भी न होगा ।"
नारी पात्रोका आदर्श चरित्र प्रस्तुत करनेमे श्री ५० मूलचन्द्र 'वत्सल' का नाम भी महत्त्वपूर्ण स्थान रखता है । आपने पुराने जैन कथानकोको लेकर नवीन ढगसे अनेक सतियों और देवियोंके चरित्रोको प्रस्तुत किया है । यद्यपि शैली परिमार्जित है, तो मी पूर्णतया आधुनिक टेकनिकका निर्वाह किसी भी कथामे नहीं हो सका है। 'सती - रत्न " मे कुमारी १. प्रकाशक - साहित्य रत्नालय, बिजनौर।
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हिन्दी जैन साहित्य परिगीलन वाली और सुन्दरी, चन्दनाकुमारी और ब्रह्मचारिणी अनन्तमती, ये नीन कथाएँ दी गयी हैं । इन कथाऑमें अनेक स्थानीपर लेखक उपदर्शक रूपमे पाठकोंके समक्ष प्रस्तुत होता है। कथाओम मूलतत्त्वाका सम्धिन करनेका प्रयास किया गया है । पर सफलता नहीं मिल सकी है।
पौराणिक आख्यानोंको लेकर मौलिक कहानियाँ लिखनेवाल्म सर्वश्री जैनेन्द्रकुमार, त्रिपाल जैन, भगवत्वस्प 'भगवत्',अश्यकुमारजन, बालचन्द्र जैन एम० ए०, और रनलाल 'वंसल आदि हैं । महिला लेन्त्रिकाओंमें चन्द्रमुखी देवी, चन्द्रप्रभा देवी, शरवती देवी और पुनादेगी कहानियाँ अच्छी होती हैं। दिगम्बरजैनकै कथाङ्कमें कई नवीन लेखकांकी भी कथाएँ छपी हैं। जैन महिलादर्शने मी सन् १९४६ में प्राचीन महिन कथा प्रकाशित किया था। इस संक्रकी कहानियोंमें श्रीमती चन्द्रग्रम देवीकी नीली शीर्षक कहानी कहानी-कलाको दृष्टिसे अच्छी है। आरम्म और अन्त दोनों ही सुन्दर हुए हैं।
श्री जैनेन्द्रकुमार लब्धप्रतिठ कलाकार हैं । आपने भावनिक सेंकड कथाएँ लिखी है। आपकी रचनायोम शुद्ध साहित्यिक गुणाक अतिरिक्त विचार और दार्शनिकताका गाम्भीर्य मी विद्यमान है। एक कथाकार होनेके कारण, जैनेन्द्रनीक विचारोंमें भी भानुक्ताका होना स्वाभाविक है। आपकी कथायामें बलाके दोनों तन्त्र-चित्रोंका एक समूह और उन्हें अनुप्राणित करनेवाला मावॉका स्पष्ट पन्दन विद्यमान है। भावों और चित्रोंका जैसा मुन्दर समन्वय जैनेन्द्रनीकी कलाम है, अन्यत्र कठिनाईसे मिल सकेगा।
आयकी 'बाहुबली' और 'विद्युचर ये दो कथाएँ जैनशाहिन्धन अमूल्य निधि हैं। 'बाहुबली' कथाम बाहुवलीके चरित्रका विश्लेषण बहुत सूटम मनोवैज्ञानिक रूपसे हुआ है। इसमें उस समयको परम्परा और सामानिक विश्वासोंकी सट झॉकी विद्यमान है। कथानकके कलेवरम पात्रोंका परिचय अभिनयात्मक रुपले प्रात हो जाता है। पात्रोंकी आण्मु
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क्या-साहित्य की वात-चीत और माव-भंगिमाके समन्वयने कथोपकथनको इतना प्रभावक बना दिया है, जिससे कोई भी पाठक कलाकारके उद्देश्यको हृदयंगम कर सकता है। कहानीमें इतनी रोचकता और सरसता है, कि आरम्भ कर देनेपर समाप्त किये विना जी नहीं मानता।
विद्युञ्चर हस्तिनापुरके राजा संवरके ज्येष्ठ पुत्र थे । कुमार विद्युञ्चरकी शिक्षा-दीमा राजकुमारोकी भॉति हुई । समस्त विद्याओम प्रवीण हो जानेके उपरान्त कुमारने निश्चय किया कि वह चोर बनेगा । कुमारने चोरीके मार्गमे आगे कहीं ममता और मोह वाधक न हों, इससे पहले पिताके यहाँ ही चोरी करना आवश्यक समझा | शुभ काम घरसे ही शुरू हो, Charity begins at home अर्थात् पहली चोरीका लक्ष्य अपने घरका ही रानमहल और अपने पिताका ही राजकोप न हो तो क्या हो।
विद्युच्चरने एक असाधारण चोरके समान अपने पिताके ही राजकोपसे एक सहस्र दीनार चुराये। चोरी असाधारण थी-परिमाणम, साहसिकतामे और कौशलमे भी । जव महीनो परिश्रम करनेपर भी चोरका पता न लग सका तो कुमारने स्वयं ही जाकर पितासे चोरीकी बात कह दी। पहले तो पिताको विश्वास न हुआ, किन्तु कुमारने वार-बार उमी वातको दुहराया और चोरीका व्यवसाय करनेका अपना निश्चय प्रकट दिया तो पिताकी ऑखोंसे अश्रुधारा प्रवाहित होने लगी। क्षोभके कारण उनके नुखते अधिक न निक्ल सका, केवल यही कहा कि यह नुच्छ और घृणित कार्य तुम्हारे करनेके योग्य नहीं। पिताके द्वारा अनेक प्रकारमे समझाये जानेपर भी कुमारने कुछ नहीं सुना और वह चोरीके पेशेमे प्रवीण हो गया। चारों ओर उसका आतङ्क व्याप्त था, धनिकोके प्राण ही सूखते थे । निरर्थक हिंसाका प्रयोग करना विद्युच्चरको इष्ट नहीं था। व्ह एक डाकुओंके दलका मुखिया था ।
कुछ समयके उपरान्त वह रानगृही नगरीमे गया और वहाँ वसन्त
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हिन्दी-जैन-साहित्य परिगीलन तिलका नामकी वारवनिताके यहाँ ठहरा। कई महीनों के उपरान्त एक दिन इसी नगरीम स्वामी जम्वृकुमारके स्वागतकी तैयारी में सारा नगर अन्कृत किया जा रहा था। जब विद्युच्चरने महाराज श्रेणिकके माय जन्वृकुमारको देखा और उनका यथार्थ परिचय प्राम हुआ, तो उसके म्नमें भी अपने कायांके प्रति निचित्कसा उसन्न हुई। फलतः परिग्रहलां समत्त दुःखाका कारण ज्ञातकर वह भी विरक हो गया। कालान्तरम उसने भी जैनेश्वरी दीक्षा ग्रहण की और अपना आत्म-कल्याण किया।
इस कथाका सर्वस कथोपकथन है । कलाकारने कथाकी गनिलो किम प्रकार बढ़ाया है, यह निम्न उद्धरणांस स्पष्ट है । ___ "पिताजी, हेयोपादेय हो मी तो आपके कर्तव्य और अपने मार्गम उस दृष्टिस कुछ अन्तर नहीं जान पड़ता। आपको क्या इतनी एकान्त निश्चिन्तता, इतना विपुल सुख, सम्पत्ति, सम्मान और अधिकार-ऐश्वर्षका इतना ढेर, क्या दूसरेके भागको बिना छीने यन सकता है ? आप क्या समझते हैं, आप कुछ दूसरेका अपहरण नहीं करते ? भापका 'राजापन क्या और सबके 'प्रतापन' पर ही स्यापित नहीं है ? आपकी प्रभुता औरॉकी गुलामीपर ही नहीं खड़ी ? आपकी सम्पमता औरॉकी गरीवीपर सुख दुखपर, आपका विलास उनकी रोटीकी चीखपर, कोप उनके टैक्स पर, और आपका सबकुछ क्या उनके सबकुछका कुचलकर, उसपर ही नहीं खड़ा लहलहा रहा? फिर मैं उसपर चलता है तो क्या हर्ज है! हाँ, अन्तर है तो इतना है कि आपके क्षेत्रका विस्तार सीमित है, पर मेरे कार्यके लिए क्षेत्रको कोई सीमा नहीं; और मेरे कार्यके शिकार कुछ छ लोग होते हैं, जब कि आपका राजत्व छोटे-बडे, हान-सम्पन्च, बी. पुरुष, वञ्चे-चुने सबको एक-सा पासता है। इसीलिए मुझे अपना मार्ग ज्यादा ठीक मालूम होता है।"
"कुमार, बहस न करो। कुकर्ममें ऐसी हठ भयावह है। राजा समाजतन्त्रके सुरक्षण और स्थायित्वके लिए भावश्यक है, चोर उस
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तन्त्र के लिए शाप है, धुन है, जो उसमेसे ही असावधानतासे उठता है और उसी तन्त्रको खाने लगता है ।"
"राजा उस तन्त्रके लिए आवश्यक है ! क्यो आवश्यक है । इसलिए कि राजाओ द्वारा परिपालित परिपुष्ट विद्वानोंकी किताबोका ज्ञान यही बतलाता है ! नहीं तो बताइए, क्यों आवश्यक है ? क्या राजाका महल न रहे तो सब मर जाय, उसका मुकुट टूटे तो सब टूट जॉय, और सिंहासन न रहे तो क्या कुछ रहे ही नहीं ? बताइये फिर
आवश्यक है ?"
जैनेन्द्रजीने इस कथामें जनतन्त्र के तत्त्वोका भी यथेष्ट समावेश किया है | कहानी-कलाकी दृष्टिसे यह पूर्ण सफल कथा है।
आत्म-समर्पण
श्री बालचन्द्र जैन एम० ए०ने पौराणिक उपाख्यानोंको लेकर नवीन शैलीमे कहानियों लिखी है । प्रस्तुत सकल्नमे कई कहानियाँ हैं। इस संकलनकी सबसे पहली कहानी आत्मसमर्पण है। इसमें नारी - प्रतिष्ठाका मूर्तिमान चित्र है । राजुलके वचनोसे नारी-प्रभुत्व साकार हो जाता है - "नारीकी क्रियाएँ दम्भ नहीं होतीं स्वामिन् ! वह सच्चे हृदयसे काम करती है । विलास में पली नारी संयम और साधनाकी महत्ता अच्छी तरह समझती है ।" पुरुषके हृदयमे नारीके प्रति अविश्वास कितना प्रगाढ हैं, यह नेमि कुमारके शब्दोंसे प्रत्यक्ष हो जाता है - "नारी" । नेमिकुमारने आश्चर्यसे उसकी ओर देखा - "क्या तुम सच कह रही हो ।"
"साम्राज्यका मूल्य" कहानीमे भौतिक खण्डहरके वक्षस्थलको चीर आध्यात्मिकताका प्रासाद निर्मित किया है । षट्खण्डाधिपति भरतका अहकार बाहुबली के त्यागके समक्ष चूर-चूर हो जाता है । उनके निम्न शब्दों से उनके दम्भके प्रति ग्लानिका भाव स्पष्ट लक्षित होता है- "मैं तो उनके आपका प्रतिनिधि बनकर प्रजाकी सेवा कर रहा हूँ । मेरा कुछ भी नहीं है, मैं भकिंचन हूँ ।"
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'दम्भका अन्त' कहानीमे मानव परिस्थितियोंका सुन्दर चित्रण हुआ है । मनुष्य किस परिस्थितिमे पड़कर अपने हृदयको छुपानेका प्रयत्न करता है, यह कृष्ण के जीवनसे स्पष्ट हो जाता है । कथोपकथन तो इम कहानीका बहुत ही सुन्दर बन पड़ा है। सारी कथाकी गतिशीलताको मनोरम और मर्मस्पर्शी बनानेके लिए संवादोंको लेखकने जीवट बनानेम किसी भी प्रकारकी कमी नहीं की है। "मैंने लोक व्यवहारकी अपेक्षा ऐसा कहा था भगवन्” ! त्रैलोक्य- स्वामीसे कृष्णका जाल प्रच्छन्न न था । नेमिकुमार बोले- "वाणी- हृदयका प्रतिरूप नहीं है, कृष्ण, " "तुम्हारी वाणी और विचारोंमें असंगति है" । अहंकारवश मानव afir faartiपर विजय प्राप्त करनेको कटिवद्ध हो जाता है, अतः द्वीपायन कहता है- "मैं इतनी दूर भागूँगा कि द्वारिकाका मुँह भी न देखना पढ़े और न व्यर्थ ही इतनी हिंसाका पाप भोगना पड़े" । अभिमान के मिथ्याजलधिमं तैरनेवाला कृष्ण अपनेको चतुर नाविकसे कम नहीं समझता; किन्तु जब कमोंके तूफान में पढ उसकी अहनिद्रा भंग हो जाती है, तब उसका हृदय स्वय कह उठता है - "तुम निर्दोष हो जरत् ! भगवान्ने सत्य ही कहा था, मेरे दम्भका अन्त हुआ" ।
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रक्षाबन्धन मर्मस्पर्शीं है । इसमे करुणा, त्याग और सहनशीलताकी उद्भावना सुन्दर हुई है । मुनियोपर भीषण उपसर्ग आ जानेसे समस्त
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नगर करुणाका प्रतिविम्व सा प्रतीत होता है - "जनता सुनियाँके उपसर्ग से त्रस्त है, नृप वचनवद्ध अपनेको असमर्थं जान महलोंमें छुपा है" कहानीकारने मुनि विष्णु कुमारके वचनो द्वारा त्याग और सयमका लक्ष्य प्रकट करते हुए कहलाया है - "दिगम्बर मुनि सांसारिक भोग और विभव के लिए अपने शरीरको नहीं तपाते। उन्हें तो आत्म- सिद्धि चाहिए, वही एक अभिलापा, वही एक शिक्षा" । राजा दम्भ और पाखण्डोको ढकोसल्ला बताते हुए कहता है--" राजाको कोई धर्म नहीं होता मन्त्री
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कथा-साहित्य महोदय । प्रजाका धर्म ही राजाका धर्म है। मेरा भी वही धर्म है, जो प्रनाका है। मै हर धर्म और जातिका संरक्षक हूँ"। रक्षाबन्धन पर्वका प्रचलन भी मुनिरक्षाके कारण हुआ है, यह कथा इस बातकी पुष्टि • करती है। - गुरु दक्षिणा' यह कहानी लेखकके हृदयका प्रतिविम्ब प्रतीत होती • है। इसमें मृदुल और कर्कश कर्त्तव्यों के मध्य नारी हृदयका स्नेह प्रवाहित : है । पर्वतका भीपण दम्म और नारदका यथार्थ तर्क नारी हृदयको विच
ल्ति कर देते हैं, करुणा और वात्सल्यकी सरिता उसे वहा ले जाती है वास्तविक क्षेत्रके उस पार, जहाँ वसुका भौतिक शरीर बिना पतवारकी
भॉति डगमग हो रहा है । मन्त्रीके वचनसे वसु चौक पड़ा-"निर्णय" . वह बोला । इस कहानीका स्तम्भ है सत्य और वचन पालनका हद : निश्चय । पर्वतका पक्ष ठीक है, मैं निर्णय देता हूँ"।
निर्दोप' यह कहानी मानवकी वासनाओ और कमजोरियोपर पूरा , प्रकाश डालती है। कामुक व्यक्तिकी विचारशक्तिका किस प्रकार लोप हो
जाता है और दृढ संकल्पी व्यक्ति ससारके सारे प्रलोभनोको किस प्रकार ठुकरा देता है, यह इससे स्पष्ट हुए विना नहीं रह सकता। नारी-हृदय कितना संकुचित और दम्भी हो सकता है, यह रानीके वचनोंसे प्रत्यक्ष है "महाराजको सूचना दो, यह नीच मुझसे बलात्कार करना चाहता था। पापी जब अपनी गलतीको समझ लेता है, तो उसका पाप नहीं रहता, बल्कि कमजोरी माना जाता है । दम्भ और पाखण्डमे ही पापका निवास है। पश्चात्तापकी उष्णतासे पाप जल जाता है, पानी या द्रव-पदार्थ हो नालीसे वह जाता है। रानी भी कह उटती है-"मुझ पापिनीको क्षमा करो सुदर्शन" । पुरुपके हृदयकी उदारता भी यही व्यक्त होती है, और सुदर्जन कहता है-"माँ मैं निर्दोष हूँ"।
आत्माकी शक्किमें बताया गया है कि आत्मशक्ति ससारकी समस्त शक्तियोकी अपेक्षा अद्वितीय है। जब इस शक्तिका विकास हो जाता है।
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हिन्दी - जैन- साहित्य - परिशीलन
तव भय, निराशा और घबडाहटका नामोनिशान भी नही रहता । "मनुष्यत्व देवत्वसे उच्च है महाराज" । वचनमे अपरिमित आत्मशक्ति निहित है । यही कारण है कि उनके मस्तककै नम्र होते ही शिवलिङ्ग सैकडो टुकड़ोंमे विभक्त हो जाता है और वहाँ एक अलौकिक प्रकाशपुञ्ज आविर्भूत होता है । शिवलिङ्गके स्थानपर चन्द्रप्रभ तीर्थकरका बिम्ब प्रकट होते ही राजा गर्वहीन हो जाता है और कह उठता है - "मैं आपका शिष्य हॅू महाराज" ।
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'बलिदान' कथा मानव कर्त्तव्यसे ओत-प्रोत है । धर्मप्रेमी, दृढप्रतिश अकलक अपने अनुजके साथ बौद्धगुरुके समक्ष उपस्थित होते हैं और बुद्धिचातुर्यद्वारा पूर्ण विद्वत्ता प्राप्त करते हैं। भेद प्रकट हो जानेपर दोनो बन्दी बना लिये जाते हैं । बन्दीगृहमें निष्कलक कहता है"हमारा निश्चय न है ।" आगे कहता है- " पुरुषार्थ उससे प्रवल होगा भैया ।" मै शक्तिपर विश्वास करता हूँ । आत्मबलिदानकी गाथा इसी एक वाक्यपर आश्रित है - "भैया शीघ्रता करो वे आ पहुँचे । जिनधर्मकी रक्षा तुम्हारे हाथ है ।" तलवारोंके बीच निकलक 'नमो सिद्धाण' कहकर शान्त हो जाता है । वह स्वय मिटकर धर्मकै प्रचार और प्रसार के लिए अपने आग्रहको सुरक्षित रखता है ।
'सत्यकी ओर' कहानी में त्याग और विवेक शक्ति द्वारा सन्देहका प्रासाद ढहता हुआ चित्रित किया गया है। "मैं सच कहता हूँ महाराज, चोर मेरी दृष्टिसे घुस नहीं सकता । मेरी शिक्षा असमर्थ नहीं हो सकती ।" सत्यकी अनुभूति हो जानेपर विद्यश्वर कहता है- "हाँ, श्रीमान् कुख्यात विद्युदर मैं ही हूँ". "मुझे राज्यकी आवश्यकता नहीं महाराज, मुझे इससे घृणा है ।"
'मोह-निवारण' इस कहानी में आत्मिक शक्तिकी सर्वोपरिता व्यक्त की गयी है। कर्म-शक्तिको भी यह शक्ति अपने अधिकारमे रखती है । समदर्शी भगवान् महावीरका उपदेश सभी प्राणी श्रवण करते थे, इस बातको प्रकट
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करता हुआ लेखक कहता है- "श्रमण महावीर भगवान्की समामे सभी प्राणियोंको समानाधिकार रहता है। देव और अदेव, मनुष्य और पशुपक्षी, सत्र ऊँच और नीचके भेदको भूलकर समान आसनपर बैठते है, परस्पर विरोधी प्राणी अपने वैरको भूलकर स्नेहार्द्र हो जाते है । विश्वबन्धुत्व का सच्चा आदर्श वही देखा जाता है । जब विवेक जाग्रत हो जाता है तो मोहका अन्त होते विलम्ब नही होता - "मुझे कुछ न चाहिए कुमार, तुमने मुझे आज सच्चा रूप दिखाया है, तुम मेरे गुरु हो । आज मैं विजयी हुआ कुमार मुझे प्रायश्चित दो ।"
'अनन निरजन हो गया' कहानी मे बताया गया है कि विपयवासनाओसे झुलसा प्राणी ज्ञानकी नन्ही आभा पाते ही चमक जाता है । इस अमृतकी फुहरी बून्दें उसे अमर बना देती है । श्यामा गणिका मोहपाश आबद्ध अजन अपनी आत्मगक्तिपर स्वय चकित हो जाता है"चारों ओर प्रकाश छा गया । अंजनको अपनी सफलताका ज्ञान हुआ, पर सफलताके पश्चात् वीरोंको हर्प नहीं होता । उन्हें उपेक्षा होने लगती है ।"
'सौन्दर्यकी परख' मे भौतिक सौन्दर्य क्षणमगुर है, मिथ्या प्रतीतिके कारण इस सौन्दर्यके मोहपाशमें बँधकर व्यक्ति नानाप्रकारके कष्ट सहन करता है । जब भौतिक सौन्दर्यका नशा उतर जाता है तो यथार्थ अनुभव होने लगता है - " आपने यथार्थ कहा महाशय, प्रत्येक वस्तु क्षणिक है । यह विभव, यह शासन, यह शरीर और यह यौवन किसी न किसी क्षण नष्ट होंगे हो । मै आपका कृतज्ञ हूँ, आपने मेरी भूली आत्मा को सत्पथके दर्शन कराये ।"
'वसन्तसेना' कथामें बताया गया है कि जिन्हें हम संसार मे पतित और नीच समझते हैं, उनमे भी सचाई होती है। वे भी ईमानदार, दृढ़प्रतिज्ञ और कर्त्तव्यपरायण बन सकते है । वसन्तसेना केन्यापुत्री होकर भी पा तितके आदर्शका पूर्ण पालन करती है। प्रेमी चारुदत्तके अकिंचन
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हिन्दी-जैन साहित्य-परिशीलन हो जानेपर भी वसन्तसेना कहती है-"मेरा धन तुम्हारा है चारु । मैं आपकी दासी हूँ, मुझे अन्य न समझिये नाथ ।" जब वसन्तसेनाकी माँ निर्धन चारुदत्तको ठुकराना चाहती है तो वह खीझ उठती है-"कितनी निष्ठुर हो मॉ, जिसने तुम्हें छप्पनकोटि दीनारें दी, उसे ही निर्धन कहती हो।" पुनः चारुदत्तसे प्रार्थना करती है-"मुझे स्वीकार करो नाथ, मैं आपकी गृहिणी बनूंगी।" ___'परिवर्तन' कहानी मे प्रकट किया गया है कि खूखार पुरुप नारीके मधुर सहयोगको पाकर ही मनुष्य बनता है। सम्राट् श्रेणिक अभिमान आकर मुनिके गलेमें मृत सर्प डाल देता है, घर आनेपर अपने इस कार्यकी आत्मप्रशसा करता हुआ अपनी पत्नी चेलनासे मुनिनिन्दा करता है। सम्राज्ञी मधुर और विनीत वचनोमें समझाती हुई सनाटके हृदयको परिवर्तित कर देती है । "चार दिन नहीं नाथ, चार महीने बीत जानेपर भी साधु उपसर्ग उपस्थित होनेपर डिगते नहीं।" वचन सुनते ही श्रेणिकका मिथ्यामिमान चूर-चूर हो जाता है।
इस सग्रहकी कहानियॉ अच्छी है। पौराणिक आख्यानोमे लेखकने नयी जान डाल दी है।
प्लॉट, चरित्र और दृश्यावली (Background) की अपेक्षासे इस सग्रहकी कहानियोंमे लेखक बहुत अोंमे सफल हुआ है किन्तु स्थितिको प्रोत्साहन देने और कहानियोको तीनतम स्थितिमे पहुँचानेमे लेखक असफल रहा है । और उत्सुकता गुण भी पूर्ण रूपसे इन कहानियोंमें नहीं आ सका है । कल्पना और भावका सम्मोहक सामनस्य करनेका प्रयास लेखकने किया है, पर पूर्ण सफलता नहीं मिल सकी है।
इस बीसवी शतीकी जैन कहानियोंमे श्री स्व. भगवत् स्वरूप 'भगवत्' की कहानियाँ अधिक सफल हैं। उनकी कुछ कथाएँ तो निश्चय बेजोड़ हैं । रसभरी, उस दिन, मानवी नामके कहानी सकलन प्रकाशित हो चुके है।
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इस सकलनमे छः कहानियाँ है-नारीत्व, अतीतके पृष्ठोसे, जीवन पुस्तकका अन्तिम पृष्ठ, मातृत्व, चिरजीवी और अनुगामिनी । इनका आधार क्रमशः पद्मपुराण, सम्यक्त्वकौमुदी, निशिभोजन कथा, क्षणिक चरित्र, पुण्यास्तवकथाकोप और पद्मपुराणका कथानक है। इस सग्रहकी कथाएँ नारी जीवनमे उत्साह, करण, प्रेम, सतीत्व और सात्त्विक भावोकी अभिव्यञ्जना करनेमे पूर्ण क्षम है।
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'नारीत्व' कहानीमें नारीके उत्साह और सतीत्वका अपूर्व माहात्म्य दिखाया गया है। इसमे सबला नारीका महान् परिचय है । अयोध्यानरेग मधूककी महारानीकी वीरताकी स्वर्णिम झलक, कर्त्तव्य और साहस, पतिव्रता नारीका तेज एवं सतीका यश बड़े ही सुन्दर ढगसे चित्रित है । एक ओर नरेश मधूकका दिग्विजयके लिए गमन और दूसरी ओर दुष्ट राजाओका आक्रमण । ऐसी विकट स्थितिमे महारानीने नारीत्व और कर्त्तव्यकै पलडेको परखा । देशकै प्रतिनिधित्वके लिए कर्त्तव्यको महान् समझ रानी स्वय रणागणमें उपस्थित हो जाती है और शत्रुके दॉत खट्टे कर यह चतला देती है कि जो नारीको अबला समझते हैं, वे गलत रास्तेपर है, नारीके रणचण्डी बन जानेपर उसका मुकाविला कोई नहीं कर सकता है ।
मधूकको यह सब नरुचा । एक कोमलाङ्गी नारीका यह साहस ! नारीत्वका यह अपमान ! महारानी प्रासादके बाहर कर दी गयी । महारानको दाहरोग हुआ, सैकडों उपचार किये गये, पर कोई लाभ नही । अन्तमें वे सती महारानीकी अजुलीके छीटोंसे रोगमुक्त हुए । नारीके दिव्य तेजके समक्ष अभिमानी पुरुपको झुकना पडा, उसे उसकी महत्ताका अनुभव हुआ ।
'अतीत के पृष्ठोसे' शीर्षक कहानीमें नारी- हृदयकी कोमलता, सरलता, कटुता और कठोरताका उचित फल दिखलाया गया है। जिनदत्ताके
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१०० हिन्दी-जैन-साहित्य परिशीलन उदार और धार्मिक हृदयके प्रकाशम देवीका खड्ग कुंठित हो जाता और सिर झुकाकर उसे अपनी पराजय स्वीकार करनी पड़ती है। अन्तम ईष्यालु और घातक हृदय मॉकी लाड़ली पुत्री 'कनकश्री'का वध उसी खड्गसे हो जाता है । सत्य सर्वदा विनयी होता है, मिथ्या प्रचार करनेपर भी सत्य छुपता नहीं, सहनो आवरण ढाल्नेपर मी सूर्यकी खररश्मियोंके समान वह प्रकट हो ही जाता है। पाप पानीम किये गये मलक्षेपणके समान ऊपर उतराये बिना नहीं रहता । अतः कनकनीकी ईर्ष्यालु मात्रा पाप प्रकट हो जाता है और वह दण्ड पाती है। इस कथाम हृदयको स्पर्श करनेकी क्षमता है। घटना-चमत्कार इतना विलक्षण है, जिससे पाठक रसमग्न हुए विना नहीं रह सकता ।
'जीवन पुस्तकका अन्तिम पृष्ठ' कहानीमें रात्रिभोजन-त्यागका विवाद माहात्म्य अंकित किया गया है। एक निम्नश्रेणीके वंशमे उत्पन्न बाल व्रत और नियमोंका पालनकर सदाचारसे जीवन व्यतीत करती है । वह कुटुम्बियों द्वारा नाना प्रकारसे सताये जानेपर भी अपनी प्रतिज्ञाको नहीं छोड़ती । व्रतका सत्परिणाम उसे जन्म-जन्मान्तराँतक भोगना पड़ता है। मानव जीवनको सुखी और सम्पन्न बनानेके लिए संयम और त्यागी अत्यन्त आवश्यकता है।
'मातृत्व में मातृहृदयका सच्चा परिचय दिया गया है, पर वदना भी मौके सदृश वात्सल्य करती है । पुत्रके ऊपर प्रेमकी दृष्टि समान होते हुए भी, दोनोंके प्रेममें आकाश-पातालका अन्तर है । जब एक ओर पुत्र
और दूसरी ओर अतुल वैभवका प्रश्न उपस्थित होता है, तब असल माताका हृदय वैभवको ठुकराकर पुत्रको अपना लेता है । माताके निःस्वार्थ हृदयका इतना ज्वलन्त उदाहरण सम्भवतः अन्यत्र नहीं मिल सकेगा।
'चिरजीवी' सती गौरवकी अमिव्यंजना करनेवाली कथा है । प्रभावती अपने सतीत्वकी रक्षाके लिए अनेक संकट सहन करती है । दुष्टा-द्वारा अपहरण होनेपर भी वह अपने दिव्य तेनको प्रकटकर अपनी शक्तिका
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कथा-साहित्य
परिचय देती है । उसके तेजसे देवोके विमान रुक जाते है, वे उस सतीको अपने धर्मसे अटल समझ उसकी सब तरहसे सहायता करते है तथा उसे सकटमुक्त कर देते हैं । विश्ववन्द्य नारीके इस कर्मका प्रभाव सभीपर पड़ता है, सभी उसका यशोगान करने लगते है ।
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'अनुगामिनी' में नारी पुरुषकी अनुगामिनी होकर अपना उज्ज्वल आदर्श रखती है, उसे भोगकी अभिलाषा नही है । जब वज्रबाहुकी तीव्र विषय-वासनाकी कडियाँ मुनिराजके दर्शन मात्रसे टूटकर गिर पडती हैं और उसके अन्तरमे विरागकी उज्ज्वल आभा चमक उठती है, तब वह अपनी प्रिय पत्नी और वैभवको त्याग योगी हो जाता है । अपने पतिको इस प्रकार विरक्त होते देखकर रानी मनोरमा भी अपने पति और भाईका अनुसरण करती है। सासारिक प्रलोभन और बन्धनोको छिन्न-भिन्न कर देती है ।
'मानवी' सकलनमे भाषा, भाव, कथोपकथन और चरित्र-चित्रणकी दृष्टिसे लेखकको पर्याप्त सफलता मिली है। पुराने कथानकोको सजाने और सँवारनेमे कलाकारकी कला निखर गयी है। सभी कहानियोंका आरम्भ उत्सुकतापूर्ण रीतिसे हुआ है । कहानियोमें रहत्यका निर्वाह भी उत्सुकता जाग्रत करनेमे सक्षम है । विशेषतः तीव्रतम स्थिति (Climax) ज्यो-ज्यो निकट आती है, कहानीमे एक अपूर्व वेगका सचार होता है, जिससे प्रत्येक पाठककी उत्सुकता बढ़ती जाती है। यही है भगवत्की कला, उन्होने परिणाम सोचनेका भार पाठकोके ऊपर छोड दिया है । श्री भगवत्की अन्य फुटकर कहानियो में 'अहिंसा परमो धर्मः', 'उस दिन', 'शिकारी' और 'भ्रातृत्व' आदि कहानियाँ सुन्दर है। 'उस दिन' कहानीमे कला पूर्णरूपसे विद्यमान है । कथाका आरम्भ कितने कलापूर्ण ढगसे हुआ है
"स्वच्छ आकाश ! शरीरको सुखद धूप । नगरसे दूर रम्य प्राकृतिक, पथिकोंके पदचिन्हो से बननेवाला गैरकानूनी मार्ग पगडण्डी । इधर
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हिन्दी-जैन-साहित्य-परिशीलन उधर धान्य-उत्पादक, हरे-भरे तथा अंकुरित खेत ! जहाँ-तहाँ अनवरत परिश्रमके भादी ; विश्वके अन्नदाता-कृषक !...कार्यमें संलग्न और सरस तथा भुक छन्दकी तानें अलापने में व्यस्त ! सधन वृक्षोंकी छायामें विश्राम लेनेवाले सुन्दर मधुभापी पक्षियोंके जोड़े ! अषण-प्रिय मधुस्वरसे निनादित वायुमण्डल !...और समीरकी प्राकृतिक आनन्द दायक झंकृति..."
"महा-मानव धन्यकुमार चला जा रहा था, उसी पगडण्डीपर। प्रकृतिकी रूप-भंगिमाको निरखता, प्रसन्न और मुदित होता हुआ ! क्षण-प्रतिक्षण जिज्ञासाएँ बढती चलतीं ! हृदय चाहता-'विश्वकी समस्त ज्ञातव्यताएं उसमें समा जाय ! सभी कला-कौशल उससे प्रेम करने लगे।'...नया खून जो ठहरा ! सुख और दुलारकी गोदमें पोषण पानेवाला ____ 'भ्रातृत्व' कथामे भगवत्नीने मरुभूति और विश्वभूतिके पौराणिक कथानकमे एक नवीन जान डाल दी है। प्रतिशोधकी बलवती भावनाका चित्रण इस कथामें हुआ है । कलाकारने पात्रोंका चरित्र चित्रित करने में अभिनयात्मक शैलीका प्रयोग किया है, जिससे कथाओंमें जीवटता आ गयी है। तर्कपूर्ण और तथ्य विवेचनात्मक शैलीका प्रयोग रहनेपर मी सरसता कथाओकी ज्योंकी त्यो है। चलती-फिरती भाषाके प्रयोगने कहानियाँको सरल व बुद्धिग्राह्य बना दिया है।
'ज्ञानोदय मे श्री प्रो० महेन्द्रकुमार न्यायाचार्यकी चार-पाँच कहानियाँ प्रकाशित हुई थीं । श्रमण प्रभाचन्द्र, जटिल मुनि और बहुरूपिया कहानी अच्छी हैं । यद्यपि 'श्रमण प्रभाचन्द्र'मे बीच-बीचमे संस्कृतके श्लोक उद्धृत कर कथाके प्रवाहको अवरुद्ध कर दिया है, तो भी उद्देश्यकी दृष्टिसे कहानी अच्छी है । इस कथाका उद्देश्य वर्णव्यवस्थाका खोखलापन दिखलाकर समता और स्वातन्त्र्यका सन्देश देना है। चरित्र-चित्रणकी दृष्टिसे यह कहानी सदोष है। टेकनिकका अभाव है।
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कथा-साहित्य
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'नटिल मुनि' कहानीका आरम्भ अच्छा हुआ है, पर अन्त कलात्मक नही हुआ है | तीव्रतम स्थिति (Climax) का भी अभाव है, फिर भी कहानी में मार्मिकता है। कथाकारने कहानी आरम्भ करते हुए लिखा है- "मुनिवर, आज बड़ा अनर्थ हो गया। पुरोहित चन्द्रशर्माने चौलक्याधिपतिको शाप दिया है कि इस मुहूर्त्त में वह सिंहासनके साथ पातालमें धँस जायँगे । दुर्धासाकी तरह चक्र भ्रुकुटी लाल नेत्र और सर्पकी तरह फुंफकारते हुए जब चन्द्रने शाप दिया तो एक बार तो चालुक्याधिपति हतप्रभ हो गये। मैं उन्हे सान्त्वना तो दे आया हूँ । पर वह आन्दोलित है । मुनिवर चौलुक्याधिपतिकी रक्षा कीजिये ।" रानमन्त्रीने घबड़ाहटसे कहा । कहानीमे उत्सुकता गुणका निर्वाह अन्त नही हो सका है। एक सबसे बडा टोप इन कहानियोंमें प्रवाहशैथिल्य भी पाया जाता है। यही कारण है कि इन कहानियोंमें घटनाओके इतिवृत्त रूपके सिवाय अन्य कथातत्त्व नही आ सके है 1
इस संकलनमें भी अयोध्याप्रसाद 'गोयलीय' की ११८ कहानियों, किवदन्तियों, सस्मरण और आख्यान तथा चुटकुले हैं। श्री गोयलीयने गहरे पानी पैठ जीवन-सागर और वाड्मयको मथकर इन रतौंको निकाला है | ये सब कथाऍ तीन खण्डोमे विभक्त है
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१. वड़े जनके आशीर्वादसे (५५)
२. इतिहास और जो पढा (४७)
३. हियेकी ऑखोसे जो देखा (१६)
इन कथाओमे लेखककी कलाका अनेक स्थलोपर परिचय मिलता है। आकर्षक वर्णनशैली और टकसाली मुहावरेदार मापा हृदय और मनको पूरा प्रभावित करती हैं। इनमे वास्तविक्ताके साथ ही भावको अधिकाधिक महत्त्व दिया गया है । वस्तुतः श्री गोयलीयने जीवन के अनुभवोको लेकर मनोरंजक आख्यान लिखे है । साधारण लोग जिन बार्तोकी उपेक्षा
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हिन्दी - जैन साहित्य - परिशीलन
करते हैं, आपने उन्हीको कलात्मक शैली में लिखा है । अतः सभी कथाएँ जीवन के उच्च व्यापारोके साथ सम्बन्ध रखती हैं ।
यद्यपि कथानक, पात्र, घटना, हव्यप्रयोग और भाव ये पाँच कहानीके मुख्य अग इन आख्यानोमे समाविष्ट नहीं हो सके है, तो भी कहानियाँ सजीव है । जिस चीजका हृदयपर गहरा प्रभाव पड़ता है, वह इनमें विद्य मान है । वर्णनात्मक उत्कंठा (Narrative Curiosity) इन सभी कथाओं है ।
भापा इन कथाओ में कथा के प्रवाहको किस प्रकार आगे बढ़ाती हैं, यह निम्न उद्धरणोसे स्पष्ट है ।
"तुम्हारे जैसे दातार तो बहुत मिल जायेंगे, विरले ही होंगे, जो एक लाखको ठोकर मारकर मिलाकर चल देते हैं ।"
पर मेरे जैसे त्यागी
कुछ अपनी ओर से
- त्यागी पृ० २४
"सूर्यके सन्ध्यासे पाणिग्रहण करते ही रजनी काली चादर ढालकर सुहागरातके प्रवन्धमे व्यस्त थी । जुगनू सरोंपर हण्डे उठाये इधर-उधर भाग रहे थे । दादुरोके आशीर्वादात्मक गीत समाप्त भी न हो पाये थे, कुमरीने सरुके वृक्षसे, कोयलने अमुभाकी ढालसे, तुलवुलने शास्त्रे गुलसे बधाईके राग छेडे | श्वानदेव और वैशाखनन्दन अपने मॅजे हुए कंठसे श्यामकल्याण आलापकर इस शुभ संयोगका समर्थन कर रहे थे, झींगुर देवता सितार बजा रहे थे कट्टो गिलहरी नाचनेको प्रस्तुत थी, पर रात्रि अधिक हो जानेसे वह तैयार न हुई । फिर भी उलूकखाँ वल्द वूमखाँ अपना खुरासानी और श्रीमती चमगीदड़ किशोरी अपना ईरानी नृत्य दिखाकर अजीव समा बाँध रहे थे ।"
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ईर्ष्याका परिणाम विनोदात्मक शैलीमे कितनी सरलतासे लेखकने व्यक्त किया है | यह छोटा-सा आख्यान हृदयपर एक अमिट रेखा खीच देता है ।
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कथा-साहित्य
"भोजन के समय एकके भागे घास और दूसरेके आगे भुस रख दिया गया । पण्डितोंने देखा तो भागबबूला हो गये । सेठ जी ! हमारा यह अपमान !"
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"महाराज ! आप ही लोगोंने तो एक दूसरेको गधा और बैल बतलाया है ।"
'क्या सोचे' कथामे लेखकने बड़े ही कौशलसे सासारिक विषयोके चिन्तन से विरत होने का संकेत किया है । जिस बातको वह कहना चाहता है, उसे उसने कितनी सरलतापूर्वक कलात्मक ढगसे व्यक्त किया है ।
"एक ध्यानाभ्यासी शिष्य ध्यानमें मग्न थे । और दाल-बाटी आदि बनाकर आस्वादन करनेका चिन्तन कर रहे थे कि अचानक उसके मुखसे सीकारे की-सी आवाज निकल पडी ।" पासमे बैठे हुए गुरुदेवने पूछा"चन्स क्या हुआ ?"
शिष्य-- "गुरुदेव, मैने आज ध्यानमें दाल-बाटी बनानेका उपक्रम किया था और मिर्च तेज हो जानेसे आस्वादन करनेमे सीकारेको आवाज निकल पडी और मेरा ध्यान टूट गया। मै यह न जान सका कि यह सव उपक्रम कल्पना मात्र है । आप ऐसा आर्शीवाद दें, जिससे इससे भी ज्यादा ध्यान-मग्न हो सकूँ ।"
गुरुदेव मुस्कराकर बोले- " वत्स ! ध्यानका चिपय आत्मचिन्तन है, दाल-बाटी नही । उससे ध्यान सार्थक और आत्मकल्याण संभव है । व्यर्थकी वस्तुओंको त्यागकर हितकारी चीज़ोंको ही अपने अन्दर स्थान दो ।"
'हियेकी आँखोंसे' गोयलीयने जिन रत्नोंको खोना है, उनकी चमक अद्भुत है । अधिकाश रचनाएँ भार्मिक और प्रभावशाली है । भाषा और गैलीकी सरलता गोयलीयकी अपनी विशेषता है । उर्दू और हिन्दीका ऐसा सुन्दर समन्वय अन्यत्र शायद ही मिल सकेगा । यही कारण है कि
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हिन्दी-जैन-साहित्य परिशीलन एक साधारण शिक्षित पाठक भी इन कहानियाँका रसास्वादन कर सत्ता है । अभिव्यञ्जना इतने चुभते हुए ढंगसे हुई है, जिससे आख्यानात्रा उद्देश्य ग्रहण करनेमें हृदयको तनिक भी श्रम नहीं करना पड़ता । मिर्गी डली मुहम डालते ही धीरे-धीरे घुलने लगती है और मिठास अपने आप भीतर तक पहुंच जाती है। "इन्त बड़ी या रुपया" कहानांनी निन्न पंनिया दर्शनीय है
चचा हल कर बोले-“भई जितनी बात लिखनेकी थी, वह तो लिख ही दी थी। मेरा ख्याल था तुम समझ जाओगे कि कोई नई बात जल है । वनां दा आनके पुराने अगोछेके लिए दो पैसका कार्ड श्रीन खराब करता ? और रुपयाँका विक्र तान-बूझ कर इसलिए नहीं किया कि अगर कोई उठा ले गया होगा तो भी नम अपने पास है जाभोगे । अपनी इस मसावधानी के लिए नुम्हें परेशानी में डालना मुझं इष्ट न था।"
जन सन्देशम श्री गहरके नामने प्रकाशित कथाएँ, जिनके रास्ता श्री पं० बलमद्रनी न्यायतीर्थ है, सुन्दर हैं। इन कथाम कणसाहित्य तलोंके गय जीवनी उठान भावनाओं मी सुन्दर चित्रग हुआ है। गेली प्रवाहपूर्ण है, भाषा परिमान्ति और नुचित है। किन्तु आरामक प्रयास होने कारण कथानक, संवाद और चरित्र-चित्रणम कलाने विकासका कुछ कमी है।
जैन कथा साहित्यमें अनुपम स्लॉके रहनेपर मी,अभी इस क्षेत्रमं नाम विकामची आवश्यकता है। यदि जैन कथाएँ आनकी चलीमें लिली गयें तो इन कथाओंसे मानवका निश्चयसे नैतिक उत्थन हो सकता है। आज तिनोड़ियाँम बन्द इन रत्लॉको साहित्य-संसारकै सम्व रख्ननी और लेखकाँको अन्य ध्यान देना होगा | केवल ये न जन सम्मानकी निधि नहीं है, प्रत्युत इन पर मानव मात्रा स्वत्व है।
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नाटक
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नाटक अतीतकी किसी असाधारण और मार्मिक घटनाको लेकर उसका अनुकरण करनेकी प्रवृति मानवमात्रमे पायी जाती है। इसी प्रवृत्तिका फल नाटकोंका सुजन होना है । जैन लेखक भी प्राचीन कालसे अपने प्राचीन नाटकोका अनुवाद तथा समयानुसार पुराने कथानकोको लेकर नवीन नाटक लिखते आ रहे है। इस शताब्दीके प्रारम्भमे श्री जैनेन्द्रकिशोर आरा निवासीका नाम नाटककारकी दृष्टिसे आदरके साथ लिया
जा सकता है। आपने अपने जीवनमे लगभग १ दर्जनसे अधिक नाटक लिखे हैं । यद्यपि इन नाटकोंकी मापाशैली प्राचीन है, तो भी इन नाटकोके द्वारा जैन हिन्दी साहित्यकी पर्यात श्रीवृद्धि हुई है। "सोमा सती" और "पणदास" ये दो प्रहसन भी आपके द्वारा रचित है । आरामे आपके प्रयत्नसे एक जैन नाटकमण्डली भी स्थापित थी। यह भण्डली आपके रचित रूपोंका अभिनय करती थी। विदूपकका पार्ट आप स्वय करते थे | बहुत दिनो तक इस मण्डलीने अच्छा कार्य किया, पर आपकी मृत्यु हो जानेके पश्चात् इसका कार्य रुक गया। ___ श्री जैनेन्द्रकिशोरके सभी नाटक प्रायः पद्यबद्ध हैं । उर्दू का प्रभाव पद्योपर अत्यधिक है | "कलिकौतुक के मगलाचरणके पद्म सुन्दर है। आपके ये नाटक अप्रकाशित हैं और आरानिवासी श्रीराजेन्द्रप्रसादनीके पास सुरक्षित हैं। ___ मनोरमा सुन्दरी, अंजना सुन्दरी, चीर द्रौपदी, प्रद्युम्न चरित और श्रीपालचरित्र नाटक साधारणतया अच्छे है। पौराणिक उपाख्यानोको लेखकने अपनी कल्पना-द्वारा पर्यात सरस और हृदय-ह्य वनानेका प्रयास किया है। टेकनिककी दृष्टिसे यद्यपि इन नाटकोंमे लेखकको पूरी सफलता नहीं मिल सकी है, तो भी इनका सम्बन्ध रगमचसे है। कथाविकासमे नाटकोचित उतार-चढाव विद्यमान है । वह लेखककी क्ला
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हिन्दी - जैन- साहित्य- परिशीलन
विज्ञताका परिचायक है । इनके सभी नाटकका आधार सास्कृतिक चेतना है । जैन संस्कृतिके प्रति लेखककी गहन आस्था है । इसलिए उसने उन्हीं मार्मिक आख्यानोको अपनाया है, जो जैन संस्कृतिकी महत्ता प्रकट कर सकते हैं।
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प्रहसनोंमें "कृपणदास" और "रामरस" अच्छे प्रहसन है । "रामरस" जीवनके उत्थान - पतनकी विवेचना करनेवाला है । कुसगति मनुष्यका सर्वनाश किस प्रकार करती है यह इस प्रहसनसे स्पष्ट है ।
रूपकात्मक नाटक लिखनेकी प्रथाका जैन साहित्य-निर्माताओंने अधिक अनुसरण किया है । संस्कृत-साहित्यमे कई नाटक इस शैली के लिखे गये है । काम, क्रोध, लोभ, मोहके कारण मानव निरन्तर अगान्त होता रहता है । अतः अहिंसा, दया, क्षमा, संयम और विवेककी जीवनोस्थानके लिए परम आवश्यकता है । हिन्दी भाषाके कलाकारोने संस्कृतके रूपकात्मक कई नाटकोका हिन्दीमें अनुवाद किया है। इस शैली के अव तकके अनूदित जैन नाटकोंमे निम्न दो नाटक मुझे अधिक पसन्द है । अतएव यहाॅ इन दोनो नाटकका परिचय दिया जा रहा है ।
इस नाटकका हिन्दी अनुवाद श्री पं० नाथूराम प्रेमीने किया है। अनुवादमं मूलभावोकी अक्षुण्णताके साथ प्रवाह है । पद्य ब्रजभाषा और खड़ीबोली दोनोंही भाषाओंमें लिखे गये है। अन्
ज्ञानसूर्योदय
दित होने पर भी इसमे मौलिक नाटकका आनन्द प्राप्त होता है । इसकी कथावस्तु आध्यात्मिक है । इसमें नाटकीय ढगसे ज्ञानकी महत्ता बतलाई गई है ।
इस नाटक में पात्रोका चरित्रचित्रण और कथोपकथन दोनो बहुत सुन्दर है । शास्त्रीय नाटक होनेसे नान्दीपाठ, सूत्रधार आदि हैं। मति और विवेकका वार्तालाप कितना प्रभावोत्पादक है, यह निम्न उद्धरणोसे स्पष्ट है।
१. जैनग्रन्थरत्नाकर कार्यालय, बम्बई । सन् १९०९
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मति -- आर्यपुत्र ! आपका कथन सत्य है तथापि जिसके बहुत से सहायक हो उस शत्रुसे हमेशा शंकित रहना चाहिए ।
नाटक
विवेक-अच्छा कहो, उसके कितने सहायक हैं ? कामको शील मार गिरावेगा । क्रोधके लिए क्षमा बहुत है । सन्तोषके सम्मुख लोभकी दुर्गति होवेगी ही और बेचारा दम्भ-कपट तो सन्तोषका नाम सुनकर छूमन्तर हो जायगा ।
मति - परन्तु मुझे यह एक बढाभारी अचरज लगता है कि जब आप और मोहादिक एक ही पिताके पुत्र हैं तब इस प्रकार शत्रुता क्यों ?
विवेक...... जात्मा कुमतिमें इतना आसक्त और रत हो रहा है कि अपने हितको भूलकर वह मोहादि पुत्रोंको इष्ट समझ रहा है, जो कि पुत्राभास हैं और नरक गतिमे ले जानेवाले हैं।
नाटकमे बीच-बीचमे आई हुई कविता भी अच्छी है । क्षमा शान्तिसे कहती है कि बेटी विधाताके प्रतिकूल होनेपर सुख कैसे मिल सकता है ? जानकी हरन वन रघुपति भवन औ, भरत नरायनको वनचरके बान सों । वारिधिको बन्धन, मयंक अंक क्षयी रोग, शंकरकी वृत्ति सुनी भिक्षाटन वान सों ॥ कर्ण जैसे बलवान कन्याके गर्भ माये, बिलखे बन पाण्डुपुत्र जूभाके विधानसों । ऐसी ऐसी बातें अवलोक जहाँ तहाँ बेटी, fafast feesता विचार देख ज्ञानसों ॥
इस नाटकमे दार्शनिक तत्त्वोका व्याख्यात्मक विवेचन भी प्रायः सर्वत्र
है । भाव, भाषा और विचारोकी दृष्टिसे रचना सुन्दर है ।
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हिन्दी - जैन- साहित्य - परिशीलन
कलंकनाटक
इसमे अकलंक और निकलकके महान् जीवनका परिचय है । कथाक छोटा-सा है, प्रासंगिक कथाओका समावेश नही हुआ है। महाराज पुरुषोत्तमने नन्दीश्वर द्वीपमे अष्टाह्निका पर्व के अवसर - पर आठ दिनो के लिए ब्रह्मचर्य ग्रहण किया। साथ ही इनके दोनो पुत्र अकलक और निकलंकने भी आजन्म के लिए ब्रह्मचर्य त्रत ले लिया । जब विवाहकाल निकट आया और विवाहकी तैयारियाँ होने लगी तो पुत्रोने विवाहसे इन्कार कर दिया और वे जैनधर्मकी पताका फहराने के लिए कटिबद्ध हो गये ।
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उस समय बौद्ध धर्मका बोलवाला था, अन्य धर्मोंका प्रभाव क्षीण हो रहा था । शिक्षा-दीक्षा भी उन लोगोके हाथमे थी । अतएव वे दोनो माई वौद्ध-पाठशालामे छुपकर अव्ययन करने लगे । एक दिन बौद्धगुरु जिस पाठको पढ़ा रहे थे वह अशुद्ध था । अतः उसको शुद्ध करने लगे । पर जब माथापच्ची करनेपर भी उस पाठको शुद्ध न कर सके तो वह शालासे बाहर निकलकर घूमने लगे । अकलकने चुपचाप उस पाठको शुद्ध कर दिया । जब लौटकर गुरु आये तो उस पाठको शुद्ध किया हुआ देखकर चकित हुए और विचारने लगे कि अवश्य इनमे कोई जैन हैं । अन्यथा इसे शुद्ध नही कर सकता था अतएव परीक्षाके लिए उन्होंने कई प्रकारके पड्यन्त्र किये, अन्तमं अकलंक और निकलक पकड़े गये । और उन्हें कारागृह बन्द कर दिया गया । प्रातःकाल ही अकलंक और निकलंकको फॉसी होनेवाली थी अतः रातमें वे किसी तरह भाग निकले। रास्तेमं धर्मरक्षा के लिए छोटे भाई निकलंकने प्राण दिये और अकलक जीवित वचकर निकल भागे । विरक्त होकर अकलक जैनधर्मका उद्योत करने लगे।
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महारानी मदनसुन्दरी जैन धर्मकी उपासिका थी, वह रथोत्सव करना चाहती थी, किन्तु बौद्ध राजगुरु उसके इस कार्यमे विघ्न थे । उन्होने कहा कि धार्मिक वाद-विवाद मे पराजित होनेपर ही जैन धर्मका रथोत्सव हो सकेगा अन्यथा नहीं ।
राजगुरुके इस आदेश से रानी चिन्तित रहने लगी। उसने अन्न-जल
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नाटक
का त्याग कर दिया | स्वप्नमे चक्रेश्वरी देवीने उसे सात्वना प्रदान की और अकलकदेवको बुलानेका आदेश दिया । दूसरे दिन अचानक ही अकलकदेवका राजसभामे आगमन हुआ। दोनों वर्मका विवाद आरंभ हुआ | कई दिनोतक अकलकका राजगुरुके साथ शास्त्रार्थ होता रहा पर जय-पराजय किसीको भी न मिली । अतः चिन्तित होकर उन्होने चक्के श्वरी देवीकी आराधना की । देवीने कहा-पटेंके अन्दरसे तारा देवी बोल रही है, अतः दुबारा उत्तर पूछनेपर वह चुप हो जायगी। चक्रेश्वरी देवीने
और भी पराजयके लिए अनेक वाते वतलाई । अगले दिन राजगुरु शास्त्रार्थमे पराजित हुए और धूमधामसे रथ निकाला गया।
इस नाटकके कथानकमे मूल कथानकको छोड, व्यर्थ प्रसग नहीं है। आरभमें मगलाचरण तथा सूत्रधार और नटीका आगमन हुआ है। इसमे तीन अक है और दृश्य-परिवर्तन भी यथायोग्य हुए है । यद्यपि शैली प्राचीन ही है। फिर भी कथोपकथन तथा पात्रोका चरित्र-चित्रण अच्छा हुआ है । यह नाटक अभिनय योग्य है। ____ अकलक देवके इसी आख्यानको लेकर श्री पं० मक्खनलाल जी दिल्ली वालेने भी "अकलंक" नामका एक नाटक लिखा है । यह भाव
और भाषाकी दृष्टिसे साधारण है तथा अभिनय गुण इसकी प्रमुख विशेषता है । गीतिकाव्यकी दृष्टि से साधारण होनेपर भी सरस है।
सामाजिक, धार्मिक और राष्ट्रिय तत्त्वोके आधार पर काल्पनिक कथानकको लेकर यह नाटक लिखा गया है। इसके सपादक श्री प० महेन्द्रकुमार
- अर्जुनलाल सेठी है। इसमे गृह और समाजका साकार
र चित्र मिलता है। शराब और मदके प्यालेको पीकर धनिकपुत्र समाजको बरबाद कर देते है। परिवार जुआ और सहा वगैरहम फॅसकर कलहका केन्द्र बनता है। पूंजीपतियोका मनमाना व्यवहार, दहेजकी भयानकता, अपटूडेट महिलाओकी कटुता आदि समाजिक बुराइयोका परिणाम इसमे दिखलाया है।
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११२ हिन्दी-जैन-साहित्य परिशीलन
कथाकी समस्त घटनाएँ शृङ्खलाबद्ध नहीं हैं, सभी घटनाएँ उखडी हुई सी हैं । लेखकका लक्ष्य सामाजिक बुराइयोको दिखला कर लोकशिक्षा देना है।
सुमेरुचद एक सेठ हैं । इनकी पत्नी अत्यन्त कठोर और कर्कशहृदया है । वह अपने देवरको फूटी आखो भी देखना नहीं प्रसन्द करती । पत्नी की बातोमे सुमेरुको विश्वास है । अतः महेन्द्रको निशिदिन भाई और भावजकी झिड़कियाँ सहनी पड़ती हैं। इधर कलहसे घबडाकर महेन्द्र विदेश जानेको उत्सुक होता है। उसने मॉके समक्ष अपनी इच्छा प्रकट की। मॉने प्यारे पुत्रको विदेश न जाने देनेके लिए अनेक यन किये पर वह न माना | चला ही गया भारत मॉके उद्धारके लिए और सलग्न हो गया देश-सेवामें | जुआरी सुमेरु जुएमे सब हार घर आया और पत्नीके आभूषण मॉगने लगा। पत्नीकी त्योरिया बदल गईं। इतनेमे एक भृत्य उसे बुलाकर ले गया। __एक ब्रह्मचारी और उनके मित्र नन्दलाल जापान जा रहे थे । मार्गमे मादक कान्फ्रेन्स होते देख रुक गये। एक विशाल मण्डपमें कान्फेन्सका जलसा हो रहा था, नशेमे सब मस्त थे। वे देशमे अधिकसे अधिक भग, तम्बाकू, सिगरेट आदिका प्रचार करनेका प्रस्ताव पास कर रहे थे । ब्रह्मचारी नवयुवकोकी इस तवाहीको देखकर परम दुखित हुए । भाषण-द्वारा उसका उत्थान करनेको चेष्टा की।
इसी समय एक सुशीला कन्याका स्वयवर रचा जा रहा था जिसमे अनेक कुमारोके साथ महेन्द्र भी पहुंचा, वरमाला महेन्द्र के गलेमे पर्डी । दोनोका विवाह हो गया।
ब्रह्मचारी राजदरबारमे पहुंचा और लगा राजाके समक्ष राजकुमारकी चरित्रभ्रष्टता, मद्यपान और व्यभिचारके समस्त दूषण प्रकट करने । सुमित्राके साथ बलात्कार करनेका प्रमाण भी राजाको दिया। उन्होंने दरबारमें महेन्द्र, सुमित्रा और राजकुमार तीनोंको बुलाया। राजकुमारको
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नाटक
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कैदकी सजा मिली और उन दोनोंका सम्मान किया गया। ब्रह्मचारी और सुमित्राकै आग्रहसे राजकुमारको छोड़ दिया गया। प्रजा-कल्याण तथा जानके प्रचारके लिए महेन्द्रको नेता बनाया गया। ब्रह्मचारी और कोई नही था वह सुमित्राका पिता था यह भेद अब खुला । ___ इस नाटकमे कई भापाओका समिश्रण है। पात्र भी कई तरहके हैं कोई मारवाडी, कोई अपटूडेट, कोई साधारण गृहस्थ । अतः भापा भी मिन्न प्रकारको व्यवहृत हुई है। कुणघणा आदि मारवाडी और करै छ, उड़ानु छू आदि गुजराती शब्दोका प्रयोग भी इसमे हुआ है । यो तो साधारणतः खड़ी बोली है। बीच-बीचमे जहाँ तहाँ अॅग्रेजीके शब्दोका भी प्रयोग खुलकर किया गया है। विश्खल्ति कथाके रहनेपर भी अभिनय किया जा सकता है।
अजनासुंदरीका कथानक इतना लोकप्रिय रहा है जिससे इस कयानकका आलबन लेकर उपन्यास, कथाएँ, प्रबध-काव्य और कई नाटक
लिखे गये हैं। सुदर्शन और कन्हैयालाल्ने पृथक्-पृथक्
____ नाटक रचे हैं। इन दोनों नाटककारोंकी कथा एक है। यद्यपि सुदर्शनने अंजना और कन्हैयालालने अजनासुदरी नाम रखे है फिर भी दोनोकी कथावस्तुमे पर्याप्त साम्य है। और दोनोका लक्ष्य भी भारतीय नारीके आदर्श चरित्रको चित्रित करना है। दोनो नाटकोंमे अजनाका करणदृश्य हृदयद्रावक है। पर सुदर्शनजीकी रचना साहित्यिक दृष्टिकोणसे उच्च कोटिकी है।
प्रकृतिके सुकोमल दृश्योंके सहारे मानवीय अंतःकरणको खोलकर प्रत्यक्ष करा देनेकी कला सुदर्शनजीमे है। इसलिए अजनामे प्रकृतिके माधुर्य और सौन्दर्यका सम्बन्ध जीवनके साथ साथ चित्रित किया गया है। सुदर्शनजीके अजना नाटकमें वाणी ही नहीं, हृदय बोलता हुआ हटि-गोचर होता है। सुखदाके विचारोका कम देखिए
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हिन्दी-जैन-साहित्य-परिशीलन
"सुखदा-एक एक कर दस वर्ष बीत गये, परन्तु मेरी माँसाके सम्मुख अभी तक वही रम्य मूर्ति उसी सुन्दरताके साथ घूम रही है। यही ऋतु था, यही समय था, यही स्थान था, यही वृक्ष था, सूर्य अस्त हो रहा था, मन्द मन्द वायु चल रहा था। प्रकृतिपर अनूया यौवन छाया हुआ था। ___ अंजनासुन्दरी नाटककी मूल कथामे थोड़ा परिवर्तन करके कार्यकारणके सम्बन्धको स्पष्ट करनेकी चेष्टा की गई है। पर यह उतना सफल नहीं हो सका है, जितना अंजना में हुआ है । उदाहरणार्थ-मूल कथानुसार अजना अपनी सासको पवनंजय-द्वारा दी गई अँगूठी दिखाती है फिर भी उसे विश्वास नहीं होता और घरसे निकाल देती है । यह बात पाठकोको कुछ जचती-सी नहीं । कन्हैयालालने इस घटनाको हृदयग्राह्य बनानेके लिए अँगूठीके खो नानेकी कल्पना की है, परन्तु सुदर्शनने इस पहेलीको और स्पष्ट करनेके लिए लिखा है कि पवन अपनी अँगूठीके नगके नीचे अपने हस्ताक्षराकित एक कागजका टुकड़ा रखता था। ललिताने अँगूठी बदल ली। अंजनाको इस वातकी जानकारी नहीं थी, अत. असल ॲगुठीके अभावमे सासका सन्देह करना स्वाभाविक था।
श्रीपाल नाटकका दूसरा स्थान है। इसमें मैनासुन्दरीकी अपेक्षा अधिक नाट्यनत्त्व पाये जाते है । कथोपकथन भी प्रभावक है।
श्रीपाल-“हे चन्द्रवदने ! आपने जो कहा ठीक है क्षत्रिय लोग किसीके आगे हाथ नीचा नहीं करते हैं और कदाचित् कोई ऐसा करें भी तो ऐसा कौन कायर और निलामी पुरुप होगा जो दूसरोंको राज्य देकर आप प्रायश्चित्त-जीवन व्यतीत करेगा। ____ इसमें गद्य और पद्य दोनोंम लख्यकी मधुरता और क्रमवद्धता है। अभिनयकी दृष्टिसे यह नाटक बहुत अंशोंमे सफल रहा है। मापामं उर्दूशब्दोकी भरमार है । मनासुन्दरी नाटकका अभिनय किया जा सकता है, पर उसमें कला नहीं है। व्यर्थका अनुप्रास मिलानेके लिए भाषाको
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कमलश्री
नाटक
कृत्रिम बनाया गया है। डॉली भी बोझिल है । साहित्यिकताका
अभाव है ।
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कथानक
कमलश्री और शिवसुन्दरी नाटकके रचयिता न्यामत है। ये दोनो नाटक भी पौराणिक है और अभिनय योग्य है ।
हस्तिनापुरके महाराज हरिवलकी कन्या कमलश्री रूपवती होनेके साथ-साथ शीलगुणयुक्ता थी। सेठ धनदेव उसके रूप और गुणोपर आसक्त हो गया और इससे विवाह सम्बन्ध कर लिया | कुछ समयोपरान्त कमलश्रीको सतानका
अभाव खटकने लगा और वह भावावेशमं आकर उदासीन हो मुनिराज - के समीप दीक्षा लेने चली गई । मुनिराजने उसे गर्मिणी जान दीक्षा न दी । गर्भकी बात जानकर कमलश्री परम प्रसन्न हुई ।
1
समय पाकर भविष्यदत्त नामक पुत्रका जन्म हुआ । कुछ समय पदचात् एक दिन धनदेव धनदत्तकी पुत्री सुरूपाको देखकर आसक्त हो गया और उसके साथ विवाह कर लिया । कमलश्रीको उसने उसके पीहर भेज दिया । सुरूपाको बन्धुदत्त नामक पुत्र उत्पन्न हुआ । भविष्यदत्त भी विमाता के व्यवहारसे असन्तुष्ट होकर अपने ननिहाल चला
गया ।
मुरूपाके लाड़-प्यारसे वधुदत्त विगढ़ गया । जब बड़ा हुआ तो भविष्यदत्तके साथ व्यापार करने विदेशको चला। मार्गमै धोखा देकर बधुदत्तने भविष्यदत्तको 'मैनागिरि' पर्वतपर छोड़ दिया और अपने साथियोको लेकर आगे चला गया । वहाँ भविष्यदत्तको भूख-प्यासजन्य अनेक कष्ट सहने पड़े । भाग्यवश तिलकपुर पट्टन पहुॅचनेपर तिलकासुन्दरी नामक कन्यासे उसका विवाह हुआ । इधर वधुदत्तका जहाज चोरोंने लूट लिया । भविष्यदत्त तिलकासुन्दरीके साथ हस्तिनापुरको लौट रहा था कि मार्गमे दयनीय दशामे बन्धुदत्त भी आ मिला। भविष्य
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११६ हिन्दी-जैन-साहित्य परिशीलन दत्तने उसे सात्वना दी। दुर्भाग्यवश तिलकामुन्दरीकी मुद्रिका छूट गई थी अतः यह उसे लेने के लिए जहाजसे उतर गया।
अव क्या था दुष्ट बन्धुदत्तको धोखा देनेका अच्छा सुअवसर हाथ आया । उसने जहान आगे बढ़ा दिया और तिलकासुन्दरीपर आसक्त होकर उसका सतीत्व-नाश करना चाहा । किन्तु उसके दिव्य तेनके समक्ष उसे पराजित होना पड़ा।
वन्धुदत्त अतुल सम्पत्ति और तिलकाको लेकर घर पहुंचा। सुरूषा पुत्रका वैभव देखकर आनन्दमग्न हो गई। तिलकाके साथ विवाह होनेका समाचार नगर मरमें फैल गया। जब भविष्यदत्त लौटकर आया तो किनारेपर जहाजको न पाकर बहुत दुखी हुआ। पर पीछे विमानमे बैठ हस्तिनापुर चला आया । पुत्र और अधीर मॉ कमलीका मिलाप हुआ। बन्धुदत्तके दुराचारका समाचार नगरभरमें फैल गया । मलिनवदना तिलकाका मुंह प्रसन्न हो गया। पतिके मिलनेकी आशाने उसके अशात जीवनको शाति-प्रदान की । राज-दरवारमे वन्धुदत्त और सुरूपाका काला मुंह हुआ।
भविष्यदत्त और तिलकासुन्दरी सुखपूर्वक जीवन व्यतीत करने लगे । सेठ धनदेवको कमलश्रीसे क्षमा मांगनी पडी । वन्धुदत्त क्रोधित होकर पोदनपुरके युवरानके समीप पहुँचा और गनपुरके महारान भूपालकी कन्या सुमतासे विवाह करनेको उत्तेजित कर दिया । राजा भूपाल भविष्यदत्तको वर निर्वाचित कर चुके थे। अतः दोनो राजाओमे भयकर युद्ध हुआ। भविष्यदत्तने सेनापति पदपर प्रतिष्ठित हो अतीव वीरताका परिचय दिया। युद्ध में भविष्यदत्तको विजय-लक्ष्मी प्राप्त हुई । सुमताका भविष्यदरके साथ पाणिग्रहण हुआ। तिलकासुन्दरी पट्टरानी बनाई गई।
इस नाटकमें वातावरणकी सृष्टि इतने गमीर एवं सजीव रूपमें की गई है कि अतीत हमारे सामने आकर उपस्थित हो जाता है । घोखा और कपटनीति सदा असफल रहती हैं, यह इस नाटकसे स्पष्ट है । कयो
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कथानक
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पकथन स्वाभाविक बन पडा है । चरित्र-चित्रणकी दृष्टिसे यह नाटक सुरुचिपूर्ण और स्वाभाविक है। इस नाटककी शैली पुरातन है । भाषा उर्दू मिश्रित है । तथा एकाध स्थलपर अस्वाभाविकता भी प्रतीत होती है ।
श्री भगवत्स्वरूपका यह देश-दशा-प्रदर्शक, करुणरस प्रधान नाटक है। इसमे सामाजिक युगकी विपमता और उसके प्रति विद्रोहकी भावना है । पूँजीपतियोकी ज़्यादती और गरीबोकी करुण आह ग़रीब एव धनी और निर्धनके हृदयकी विशेषताओका सुन्दर चित्रण किया गया है । रुपयोकी माया और लक्ष्मीकी चचलताका हृय्य (स्वरूप) दिखाकर लेखकने मानव हृदयको जगानेका यत्न किया है । यह सामाजिक नाटक अभिनय योग्य है । इसमे अनेक रसमय दृश्य वर्तमान है, जो दर्शकोको केवल रसमय ही नही बनाते, किन्तु रसविभोर कर देते हैं । भगवत्ने वस्तुतः सीधी-सादी भाषामे यह सुन्दर नाटक लिखा है ।
इस नाटक के रचयिता श्री ब्रजकिशोर नारायण है। इसमे विद्याकी अनन्यतम विभूति भगवान् महावीरके आदर्श वर्द्धमान महावीर जीवनको अकित किया गया है ।
वर्द्धमान जन्मसे ही असाधारण व्यक्ति थे । बचपनके साथी भी उनके व्यक्तित्वसे प्रभावित होकर उनकी जयजयकार मनाते रहते थे । भगवान् वर्द्धमानकी अद्भुत वीरता और अलौ
किकं कायोकै कारण उनके माता-पिताने भी उन्हें देवता स्वीकार कर लिया था । जब कुमार वयस्क हुए तो पिता सिद्धार्थ और माता त्रिशलाको पुत्र - विवाहकी चिन्ता हुईं, किन्तु विरागी महावीर बरावर टालमटूल करते रहे । जब माता- पिताका अधिक आग्रह देखा तो उन्होने एक विनीत आज्ञाकारी पुत्रके समान उनके आदेशका पालन किया और विवाह कर लिया। जब माता-पिताका स्वर्गवास हो गया और भगवान् के भाई नन्दिवर्द्धनने राज्यभार ग्रहण किया तो वर्द्धमानका
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हिन्दी - जैन साहित्य- परिशीलन
वैराग्य और बढ गया । ससारके पदार्थोंसे उन्हें अरुचि हो गई । हिसा और स्वार्थपरता की भावनाका अन्त करनेके लिए कुमार पत्नी और पुत्री प्रियदर्शनाको छोड़ घरसे चल पडे । उन्होने वस्त्राभूपण उतार दिये और आत्मशोधनमें प्रवृत्त हो गये ।
साधना कालमे ही भगवान् महावीरके कई शिष्य हुए। मखलीपुत्र गोशालक भी शिष्य हो गया, किन्तु वर्द्धमानकी कठिन साधनासे घघडाकर पृथक रहने लगा, और उसने आजीवक- सम्प्रदाय नामक अलग भत निकाला ।
वर्धमानको अनेक कष्ट सहन करने पडे, पर निश्चल तप और दिव्य सावन की ज्योतिमं आकर सबने बर्द्धमानका प्रभुत्व स्वीकार कर लिया। वे जैनधर्मके सत्य और अहिंसाका उपदेश देते रहे । नामालि और गोशालकने महावीरका घोर विरोध किया, पर अन्तमें उन्हें भी पश्चात्तापकी मौत मरना पडा । इन्द्रभूति नामक श्रमणको महावीरने भारतका दयनीय चित्र खींचकर दिखलाया और उस कालके शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक ह्रासका परिचय दिया ।
अन्तमें महावीर पावापुरी पहुॅचे और वहाँ उनका दिव्य उपदेश हुआ और भगवान् महावीरने समाधि ग्रहण की और निर्वाण लाभ किया ।
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यह कथानक श्वेताम्बर जैन आगमके आधारपर लिया गया है । दिगम्वर मान्यतामे भगवान् महावीरको अविवाहित और साधनाकाम दिगम्बर निर्वस्त्र रहना माना गया है । लेखकने इस नाटकको अभिनयके लिए लिखा है तथा उसका सफल अभिनय मभव भी है। इसकी सभी घटनाएँ दृश्य है, सूक्ष्म घटनाओंका अभाव है । आधुनिक नाट्यकलाक अनुसार सगीत और नृत्य भी इसमें नहीं है । विशेपशाने अभिनयकी सफलताके लिए नाटकमे निम्न गुणोका रहना आवश्यक माना है ।
१ - कथावस्तुका सक्षिप्त होना । नाटक इतना बडा हो जो अधिकले अधिक तीन घण्टे समाप्त हो जाय.!
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नाटक
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२ - नाटककी भाषा सरल, सुबोध और भावानुकूल हो । ३ - हृदय परिवर्तन समयानुकूल और व्यवस्थित हो । ४ - कथावस्तु जटिल न हो ।
५ - गीतोका वाहुल्य न हो तथा नृत्य भी न रहे तो अच्छा है। ६ --- पात्रोका चरित्र मानवीय हो ।
७--कथोपकथन विस्तृत न हो, स्वगत भाषण न हो ।
इन गुणोकी दृष्टिसे वर्द्धमान नाटक में अभिनय सम्बन्धी बहुत कम त्रुटियाँ हैं । यह अधिक से अधिक दो घण्टेमे समाप्त किया जा सकता है । हृदय - परिवर्तन रंगमंच के अनुसार हुए है। कथावस्तु सरल है। हॉ, संगीतका न रहना कुछ खटकता है, नाटकमे इसका रहना आवश्यक-सा है ।
arrain कथा और चारित्रको स्पष्ट करनेके लिए कथोपकथनका आश्रय लिया जाता है । इस नाटकके कथोपकथन नाटकीय प्रभाव उत्पन्न करने की क्षमता रखते हैं । श्राव्य- अश्राव्य और नियत श्राव्य तीनों प्रकारके कथोपकथनों से ही इसमें श्राव्य कथोपकथनको ही प्रधानता दी गई है। त्रिशला और सुचेताका निम्न कथोपकथन कथाके प्रवाहको कितना सरस और तीव्र बना रहा है, यह दर्शनीय है
त्रिशला - सुचेता ! मै तालाबमे सबसे आगे तैरते हुए दोनो हंसोको देखकर अनुभव कर रही हूँ जैसे मेरे दोनो पुत्र नन्दिवर्द्धन और वर्द्धमान क्रीडा कर रहे है । दोनोमे जो सबसे आगे तैर रहा है वह सुचेता -- वह कुमार नन्दिवर्धन है महारानी !
त्रिशला - नहीं सुचेता, वह वर्द्धमान है । नन्दिवर्द्धनमे इतनी तीव्रता कहाँ ? इतनी क्षिप्रता कहाँ १ देख, देख, किस फुर्तीसे कमलकी परिक्रमा कर रहा है शरारती कहीँका ।
यह सब होते हुए भी पात्रोंके अन्तर्द्वन्द्व द्वारा कथोपकथनमें जो एक प्रकारका प्रवाह आ जाता है, वह इसमे नहीं है । लेखक चाहता तो
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हिन्दी-जैन-साहित्य-परिशीलन
भगवान् महावीरके माता-पिनाकी मृत्यु, तपस्याकी साधना आदि अवसरोपर स्वाभाविक अन्तर्द्वन्द्वकी योजना कर सकता था। __पात्रोका वैयक्तिक विकास भी इसमें नही दिखलाया गया है। नन्दिवर्द्धन, त्रिशला, प्रियदर्शनाका व्यक्तित्व इस नाटकमे लुप्तप्राय है। स्वयं सिद्धार्थ वर्द्धमान समक्ष विवाहका प्रस्ताव आदेशके रूपमें नहीं, बल्कि प्रार्थनाके रूपमे उपस्थित करते हैं। यह नितान्त अस्वाभाविक है। हॉ पिता प्रेमसे समझा सकते थे या मधुर वचनो-द्वारा पुत्रको फुसलाकर विवाह करा सकते थे।
नाटकमे अवस्थाएँ और अर्थ-प्रकृतियों भी स्पष्ट नहीं आ सकी है। हॉ, खीच-तानकर पाँचो अवस्थाओकी स्थिति दिखलाई जा सकती है। ___ रस परिपाककी दृष्टि से यह रचना सफल है । न यह सुखान्त है और न दुःखान्त ही। महावीरके निर्वाण लाभके समय शान्तरसका सागर उमड़ने लगता है । अहिंसा मानवके अन्तस्का प्रक्षालन कर उसे भगवान् बना देती है। यही इस नाटकका सन्देश है। वर्तमानको समस्त बुराइयाँ इस अहिसाके पालन करनेसे ही दूर की जा सकती हैं।
निबन्ध-साहित्य
आधुनिक युग गद्यका माना जाता है। आज कहानी, उपन्यास और नाटकोके साथ निबन्ध-साहित्यका भी महत्वपूर्ण स्थान है। जैन हिन्दी गद्य साहित्यका भाण्डार निबन्धोसे जितना भरा गया है, उतना अन्य अगोसे नही । प्रायः सभी जैन लेखक हिन्दी भापाकै माध्यम-द्वारा तत्त्वज्ञान, इतिहास और विज्ञानकी ऊँची-से-ऊँची बातोको प्रकट कर रहे हैं। यद्यपि मौलिक प्रतिभा सम्पन्न निबन्धकारोंकी सख्या अत्यल्प है, तो भी अपने अभीप्सित विषयके निरूपणका प्रयास अनेक जैन लेखकोंने किया है। निबन्ध साहित्य इतने विपुल परिमाणमें उपलब्ध
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निबन्ध-साहित्य
है कि इस प्रकरणमे उसका परिचय देना शक्ति से बाहरकी बात है । समग्र निबन्ध साहित्यका समुचित वर्गीकरण करना भी टेढी खीर है ।
हिन्दी भाषामे लिखित जैन निवन्ध साहित्यको ऐतिहासिक, पुरातत्वात्मक, आचारात्मक, दार्शनिक, साहित्यिक, सामाजिक और वैज्ञानिक इन सात भागो में विभक्त किया जा सकता है । यो तो विषयकी दृष्टिसे जैन निबन्ध- साहित्य और भी कई भागोमे वॉटा जा सकता है, परन्तु उक्त विभागो द्वारा ही निबन्धोका वर्गीकरण करना अधिक अच्छा प्रतीत होता है।
ऐतिहासिक
ऐतिहासिक निबन्धोकी संख्या लगभग एक सहल है । इस प्रकार के निबन्ध लिखनेवालोमे सर्वश्री नाथूराम प्रेमी, प० जुगलकिशोर मुख्तार, पं० सुखलालजी सघवी, मुनि जिनविजय, मुनि कल्याणविजय, श्री बाबू कामताप्रसाद, श्री अयोध्याप्रसाद इ गोयलीय, प० कैलाशचन्द्र शास्त्री, प्रो० हीरालाल, प्रो० ए० एन० उपाध्ये, प० के० भुजबली शास्त्री, प्रो० खुशालचन्द्र गोरावाला आदि है । विशुद्ध इतिहासकी अपेक्षा जैनाचार्यों, जैनकवियों एव अन्य साहित्य निर्माताओका शोधात्मक परिचय लिखनेमे श्री प्रेमीजीका अधिक गौरवपूर्ण स्थान है । प्रेमीजीने स्वामी 'समन्तभद्र, 'आचार्य प्रभाचन्द्र, 'देवसेन सूरि, 'अनन्तकीर्ति आदि नैयायिकोंका आचार्य जिनसेन और 'गुणभद्र प्रभृति संस्कृत भाषाके आदर्श पुराण- निर्माताओका ; आचार्य पुष्पदन्त 1 और 'विमलसूरि आदि प्राकृतभापार्क पुराण - निर्माताओ का 'स्वयभू
;
;
{
तथा १० त्रिभुवन स्वयंभू प्रभृति प्राकृत भाषा के कवियोका ; कविराज
1
፡
<
'
'
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१. विद्ररत्नमाला पृ० १५९ । २. अनेकान्त १९४१ । ३. जैन हितैपी १९२१ । ४. जैनहितैषी १९१५ ।५, हरिवंश पुराणकी भूमिका } १९३० । ६. जैनहितैषी १९११ । ७. जैन साहित्य संशोधक १९२३ ।
८. जैन साहित्य और इतिहास पृ० २७२।९-१०, जैन साहित्य और इतिहास पृ० ३७० |
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हिन्दी - जैन साहित्य- परिशीलन
हरिचन्द्र, 'वादीभासिह, धनजय, "महासेन, जयकीर्त्ति वाग्भट्ट आदि संस्कृत कवियोंका; आचार्य "पूज्यपाद, देवनन्दी और 'शाकटायन प्रभृति वैयाकरणोका एवं बनारसीदास, भगवतीदास आदि हिन्दी भाषा के कवियोका अन्वेषणात्मक परिचय लिखा है ।
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सास्कृतिक इतिहासकी दृष्टिसे प्रेमीजीने तीर्थक्षेत्र, वश, गोत्र आदिके नामोका विकास तथा व्युत्पत्ति, आचारशास्त्र के नियमोका भाग्य एव विविध सस्कारो का विश्लेपण गवेषणात्मक शैलीमे लिखा है । अनेक राजाओंकी वंशावली, गोत्र, वश-परम्परा आदिका निरूपण भी प्रेमीजीने एक शोधकर्त्ता के समान किया है।
प्रेमीजीकी भाषा प्रवाहपूर्ण और सरल है। छोटे-छोटे वाक्यो और ध्वनियुक्त शब्दोकै सुन्दर प्रयोगने इनके गद्यको सजीव और रोचक बना दिया है । शब्दचयनमें भाव व्यंजनाको अधिक महत्त्व दिया है। एक पत्रकार और शोधकके लिए भापामे जिन गुणोंकी आवश्यकता होती है, वे सब गुण इनके गद्यमे पाये जाते हैं । इनकी गद्य लेखनशैली स्वच्छ और दिव्य है । दुरूइसे दुरुह तथ्यको बड़े ही रोचक और स्पष्ट रूपम व्यक्त करना प्रेमीनकी स्वाभाविक विशेषता है ।
ऐतिहासिक निबन्ध लेखकोमे श्री जुगलकिशोर मुख्तारका नाम भी आदर से लिया जाता है। मुख्तार साहव भी जैन साहित्यके अन्वेपणकर्त्ताओमे अग्रगण्य हैं, अबतक आपके ऐतिहासिक महत्त्वपूर्ण निबन्ध लगभग १००, १५० निकल चुके हैं । कवि और आचार्योंकी जैन साहित्य और इतिहास पृ० ४७२ । २. क्षत्रचूडामणि ( भूमिका ) १९१० । ३. जैनसाहित्य और इतिहास पृ० ४६४ । ४. जैनसाहित्य और इतिहास पृ० १२३ । ५, अनेकान्त १९३१ । ६. जैनसाहित्य, और इतिहास ( पृ० ४८२ । ७. जैनहितैषी १९२१ । जैनहितैषी १९१६ । ९, बनारसीविलास की भूमिका |
१.
6.
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निबन्ध-साहित्य
परम्परा, निवास-त्थान और समय निर्णय आदिकी शोध करनेमे आपका अद्वितीय स्थान है। मुख्तार साहवकै लिखनेकी शैली अपनी है। वह किसी भी तश्यका स्पष्टीकरण इतना अधिक करते है कि जिससे एक साधारण पाठक भी उस तथ्यको हृदयगम कर सकता है। आपने विद्वतापूर्ण प्रत्तावनाओम जैन सस्कृति और साहित्यके अपर अद्भुत प्रकाश ाला है।
श्री पूज्यपाद और उनका समाधितन्त्र', भगवान् महावीर और' उनका समय, पात्रकेवारी और विद्यानन्द, कविराजमल्लका पिंगल' और राजा-मारमल्ल, तिलोयण्णाति और यतिवृषभ, कुन्दकुन्द और यतिवृषभमे पूर्ववर्ती कौन है ? आदि निवन्ध महत्त्वपूर्ण हैं। "पुरातन जैनवाक्य" सूचीकी प्रस्तावना ऐतिहासिक तथ्योंका भाण्डार है।
इतिहास-निर्माता होनेके साथ-साथ मुख्तार साहब सफल आलोचक भी है। आपकी आलोचनाएँ सफल और खरी होती है "ग्रन्थपरीक्षा" आपका एक आलोचनात्मक वृहदान्थ है जो कई भागोमे प्रकाशित हुआ है। हिन्दी गद्यके विकासमें मुख्तार साहबका महत्वपूर्ण स्थान है ।
मुख्तार साहवकी गयशैलीकी सबसे बड़ी विशेषता यह है कि वह एक ही विषयको बार-बार समझाते चलते हैं। इसी कारण कुछ लोग उनकी शैलीम भाषाकी बहुलता और विचारोकी अल्पताका आरोप करते हैं; पर वास्तविकता यह है कि मुख्तार साहब लिखते समय सचेष्ट रहते हैं कि कहीं भावोकी व्यजनामें अस्पष्टता न रह जाय, इसी कारण यथावसर विषयको अधिक स्पष्ट एव व्यापक करनेको तत्पर रहते है। आपकी भाषा में साधारण प्रचलित उर्दू शब्द भी आ गये है। मुख्तार साहब भाषाके
1. जैनसिद्धान्तमास्कर भाग पाँच पृष्ठ ।। २, अनेकान्त वर्ष, पृ. २। ३. भनेकान्त वर्ष ०६-१. अनेकान्त वर्ष ४ पृ. ३०३। ५. वर्णी अभिनन्दन अन्य पू० ३२३ ।
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१२६ हिन्दी-जैन साहित्य-परिशीलन वीरमार्तण्ड-चामुण्डराय, वादीमसिह', जैनवीर वकया, हुमुच, और वहॉका सातर राजा जिनदत्तराय, तौलवके जैन पालेयगार, कारकलका जैन मैररस राजवश और दानचिन्तामणि अतिमव्वे । ____ दक्षिण भारतके राजाओं, कवियों, तालुकेदाये, आचार्यों और दानी श्रावकोंपर आपके कई अन्वेषणात्मक निवन्ध प्रकाशित हो चुके हैं। आपके गवेषणात्मक निबन्धोकी यह विशेषता है कि आप थोडेसे ही समझानेका प्रयास करते है । वाक्य मी सुव्यवस्थित और गम्भीर होते है । यद्यपि तथ्योंके निरूपणमें ऐतिहासिक कोटियो और प्रमाणोकी कमी है, तो भी हिन्दी जैन साहित्यके विकासमें आपका महत्वपूर्ण स्थान है। प्रायः सभी निबन्धीमें शानके साथ विचारका सामञ्जस्य है। शब्दचयन, वाक्यविन्यास और पदावलियोंके सगठनमे सतर्कता और स्पष्टताका आपने पूरा ध्यान रखा है। ___ श्री अयोध्याप्रसाद गोयलीयके जैन-पूर्वजोकी वीरताका स्मरण करानेवाले ऐतिहासिक निवन्ध भी जैन हिन्दी साहित्यमे महत्त्वपूर्ण स्थान रखते हैं। गोयलीयजीने जैनवीरोके चरित्रको बड़े ही जोगखरोशके साथ चित्रित किया है। इनके निवन्धोंको पढ़कर मुटोंमें भी वीरता अंकुरित हो सकती है, जीवितोंकी तो बात ही क्या ? शैलीम चमत्कार है, कथनपणाली रूखी न हो इसलिए आपने व्यग और विनोदका भी पूरा समावेश किया है। आपकी भापामे उछल-कूद है। वह चिकोटी काटती हुई चलती है। पत्र-पत्रिकाओंमे आपके अनेक ऐतिहासिक निवन्ध प्रकाशित हैं।
१. भास्कर भाग ६ पृ०२२९ । २. भास्कर भाग ७ पृ.।। ३. भास्कर भाग १२ कि.२ पृ. २२ । १. जैन सिद्धान्तभास्कर भाग १४ किरण पृ०१३ । ५.भास्कर १७ किरण २ पृ० ८८। ६. धर्णी अभिनन्दन अन्य पृ०२४३ १७, ज्ञानोदय सितम्बर १९५१।
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निवन्ध-साहित्य
राजपूतानेके जेनवीर, मौर्य साम्राज्य के जैनवीर, आर्यकालीन भारत आदि पुस्तकाकार संकलित महत्त्वपूर्ण रचनाएँ है । गोयलीयजीकी ये रचनाएँ नवयुवकोका पथ प्रदर्शन करनेके लिए उपादेय है ।
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इतिहास और पुरातत्त्वके वेत्ता श्री डा० हीरालाल जैन अन्वेषणात्मक और दार्शनिक निबन्ध लिखते है। कई ग्रन्थोकी भूमिकाऍ आपने लिखी हैं, जो इतिहासके निर्माण में विशिष्ट स्थान रखती है। जैन इतिहासकी पूर्वपीठिका तो शोधात्मक अपूर्व वस्तु है। इस छोटी-सी रचनामे गागरमे सागर भर देनेवाली कहावत चरितार्थ हुई है । आपकी रचनाशैली प्रौढ़ है। उसमे धारावाहिकता पाई जाती है। भाषा सुव्यवस्थित और परिमार्जित है। थोड़े शब्दोंम अधिक कहनेकी कलामे आप अधिक प्रवीण है । महाधवल, धवलसम्बन्धी आपके परिचयात्मक निबन्ध भी महत्वपूर्ण है । श्रवणबेलगोलके जैन शिलालेखांकी प्रस्तावनामे आपने अनेक राजाओ, रानियां, बतियां और श्रावकोके गवेपणात्मक परिचय लिखे है ।
मुनि श्री कान्तिसागरके पुरातत्त्वान्वेपणात्मक निबन्धोका विशिष्ट स्थान है। अबतक आपने अनेक स्थानोके पुरातत्त्वपर प्रकाश डाला है । प्राचीन मूर्तिकला और वास्तुकलाका मार्मिक विलेपण आपके निबन्धोमं विद्यमान है । प्राचीन जैन चित्रकलापर भी आपके कई निवन्ध "विशाल भारत" मे सन् १९४७ में प्रकाशित हुए है। प्रयाग सग्रहालयमे जैन पुरातत्त्व ' तथा विन्ध्यभूमिका जैनाश्रितशिल्प स्थापत्य निबन्ध बड़े महत्त्वपूर्ण है। गैली विशुद्ध साहित्यिक है । भाषा प्रौढ़ और परिमार्जित है। अभी हाल ही मे भारतीय ज्ञानपीठ काशीसे प्रकाशित खण्डहरोका वैभव, और खोजकी पगडियाँ इतिहास और पुरातत्त्वकी दृष्टिसे मुनिजी के निबन्धोका महत्त्वपूर्ण सकलन है ।
१. ज्ञानोदय सितम्बर १९४९ और अक्टूबर १९४९ । २. ज्ञानोदय सितम्बर १९५० और दिसम्बर १९५० ।
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हिन्दी - जैन-साहित्य-परिशीलन
ऐतिहासिक निबन्ध रचयिताओमे प्रो० खुशालचन्द्र गोरावाला एम० ए० साहित्याचार्यका भी अपना स्थान है। आपके निवन्धोम अन्वेषण एव पुष्ट ऐतिहासिक प्रमाण विद्यमान है । विप्रय- प्रतिपादनकी शैली प्रौढ एवं गम्भीर है। अबतक आपके सास्कृतिक और ऐतिहासिक अनेक निबन्ध प्रकाशित हो चुके है पर गोम्मटेशप्रतिष्ठापक' और कलिंगाधिपतिखारवेल' निबन्ध महत्त्वपूर्ण है । आपकी भाषा बड़ी ही परिमार्जित है । पुष्ट चिन्तन और अन्वेषणको सरल और स्पष्टरूपमें आपने अभिव्यक्त किया है । इतिहासके शुष्क तत्त्वोका स्पष्टीकरण स्वच्छ और बोधगम्य है ।
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सबसे अधिक निवन्ध आचार और दर्शनपर लिखे गये है । लगभग ३०, ३५ विद्वान् उपर्युक्त कोटिके निवन्ध लिखते हैं । इन निवन्धकी सख्या दो सहस्रके ऊपर है । यहाँ कुछ श्रेष्ठ निवन्धकारोंकी शैलीका परिचय दिया जायगा । यद्यपि उक्त विपयके सभी निवन्ध विचार-प्रधान है तो भी इनमें वर्णनात्मकता विद्यमान है ।
आचारात्मक और दार्शनिक निबन्ध
साहित्य
दार्शनिक शैलीके श्रेष्ठ निबन्धकार श्री प० सुखलालनी सघवी है। योगदर्शन और योगविशतिका, प्रमाणमीमासा, ज्ञानविन्दुकी प्रस्तावनासे दर्शन और इतिहास दोनो ही विवेचनोंमें आपकी तुलनात्मक विवेचन पद्वतिका पूरा आभास मिल जाता है । आपकी शैलीमे मननशीलता, स्पष्टता, तर्कपटुता और बहुश्रुताभिज्ञता विद्यमान है। दर्शनकै कठिन सिद्धान्तोको बढ़े ही सरल और रोचक ढगसे आप प्रतिपादित करते है ।
आपके सास्कृतिक निबन्धोका गद्य बहुत ही व्यवस्थित है । भाषामे प्रवाह है और अभिव्यजनामे चमत्कार पाया जाता है । थोडेमे बहुत प्रतिपादनकी क्षमता आपके गद्यमें है ।
१. जैन सिद्धान्त भास्कर भाग १३ किरण १ पृ० १ । २. जैन सिद्धान्त भास्कर भाग १६ किरण १ - २ |
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निबन्ध-साहित्य
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श्री पं० शीतलप्रसादजी इस शताब्दीके उन आदिम दार्शनिक निवन्धकारोमे हैं जो साहित्यके लिए पथप्रदर्शक कहलाते हैं। आपने अपनी अप्रतिम प्रतिभा द्वारा इतना अधिक लिखा है कि जिसके संकलनमात्रसे जनसाहित्यका पुस्तकालय स्थापित किया जा सकता है। श्री ब्रह्मचारीजी दृढ अध्यवसायी थे । यही कारण है कि आपकी शैलीमें अभ्यास
और अध्ययनका मेल है। ब्रह्मचारीजीने सीधी-सादी भाषामे अपने पुष्ट विचारोको अभिव्यक्त किया है। दर्शन और इतिहास दोनों ही विषयोपर दर्जनी पुस्तके एव सहस्रो निबन्ध आपके प्रकाशित हो चुके हैं। ऐसा कोई विषय नही जिसपर आपने न लिखा हो। बहुमुखी प्रतिमाका उपयोग साहित्य सृजनमें किया, पर तुयोग्य सहयोगी न मिलनेसे सुन्दर चीजें न निकल सकी। आपकी तुलना मैं राहुलजीसे करूँ तो अनुचित न होगा। राहुलजी के समान ब्रह्मचारीजी भी महीनेमे कमसे कम एक पुस्तक अवश्य लिख देते थे। यदि आपकी प्रतिमा आध्यात्मिक उपन्या की ओर मुड़ जाती तो निश्चय जैन साहित्य आज हिन्दी साहित्यमे अपना विशिष्ट स्थान रखता।
श्री पं० कैलाशचन्द्र शास्त्री दार्शनिक, आचारात्मक और ऐतिहासिक निबन्ध लिखनेमें सिद्धहस्त हैं। आपकी न्यायकुमुदचन्द्रोदयकी प्रस्तावना जो कि दार्शनिक विकासक्रमका शन-माण्डार है, जैन साहित्यके लिए स्थायी निधि है । आपके स्याद्वाद और सप्तमगी', अनेकान्तवादकी व्यापकता और चारित्र', शब्दनयः, महावीर और उनकी विचारधारा, धर्म और राजनीति प्रभृति निबन्ध महत्वपूर्ण है । "जैनधर्म तो शिष्ट और सयत भाषामें लिखी गई अद्वितीय पुस्तक है।
१. जैनदर्शन वर्ष २ अंक ४-५ पृ० ४२। २. जैनदर्शन नवम्बर १९३४ । ३. वर्णी अभिनन्दन ग्रन्थ पृ०९। ४. श्री महावीर स्मृति अन्य पृ० १३ । ५. अनेकान्त वर्ष पृ०६००। ६. प्रकाशक दिगम्बर जैन संघ, मथुरा।
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हिन्दी - जैन-साहित्य- परिशीलन
तत्त्वार्थसूत्रपर दार्शनिक विवेचन भी रोचक और ज्ञानवर्द्धक है। पण्डितजीकी निवन्कौली बहुत अशोमें हिन्दी साहित्य के सुप्रसिद्ध विद्वान् श्री आचार्य रामचन्द्र शुलकी शैलीसे मिलती-जुलती है। दोनोंकी शैलीमे गम्भीरता, सरलता, अन्वेपणात्मक चिन्तन एव अभिव्यञ्जनाकी स्पष्टता समान रूपसे है । अन्तर इतना ही है कि आचार्य शुक्लने साहित्य और आलोचना विपयपर लिखा है, जब कि पण्डितनीने एक धर्म विशेषसे सम्बद्ध आचार, दर्शन और इतिहासपर |
श्री पं० फूलचन्दनी सिद्धान्तशास्त्रीका भी दार्शनिक निबन्धकारो में महत्त्वपूर्ण स्थान है । आपने तत्त्वार्थसूत्रका विशद विवेचन बडे ही सुन्दर ढगसे किया है । आपके फुटकर ५०-६० महत्त्वपूर्ण निबन्ध प्रकाशित हो चुके हैं | दार्शनिक निवन्धोंके अतिरिक्त आप सामाजिक निबन्ध भी लिखते है । समाजकी उलझी हुई समस्याओको सुलझाने के लिए आपने अनेक निबन्ध लिखे हैं । जैनदर्शनके कर्मसिद्धान्त विपयके तो आप मर्मज्ञ ही हैं; ज्ञानोदयमे कर्मसिद्धान्तपर आपके कई निवन्ध आधुनिक शैलीम प्रकाशित हुए हैं।
श्री प्रोफेसर महेन्द्रकुमार न्यायाचार्यके दार्शनिक निवन्ध भी जैन साहित्यकी स्थायी सम्पत्ति हैं । अकलकग्रन्थत्रयकी प्रस्तावना, न्यायविनिश्चय विवरणकी प्रस्तावना, श्रुतसागरी वृत्तिकी प्रस्तावनाके सिवा आपके अनेक फुटकर निवन्ध प्रकाशित हुए हैं । इन निवन्धोंमे जैनदर्शनके मौलिक तत्व और सिद्धान्तोका सुन्दर विवेचन विद्यमान है। एक साधारण हिन्दीका जानकार भी जैनदर्शनके गूढ तत्त्वोको हृदयगम कर सकता है । आपके निवन्ध निगमनशैलीमें लिखे गये है । प्रधट्टक (Paragraph ) के आरम्भ ही मे समास या सूत्र रूपमे सिद्धान्तोका प्रतिपादन किया गया है । थोडेमे अधिक कहनेकी प्रवृत्ति आपकी लेखनकलामे विद्यमान है !
श्री पं० चैनसुखदास न्यायतीर्थ भी दार्शनिक निवन्धकार हैं।
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निबन्ध-साहित्य
आपके आचार- विषयपर भी अनेक निवन्ध प्रकाशित हुए है । लेखनशैली सरल है। अभिव्यञ्जना चमत्कारपूर्ण है। हॉ, भाषामे जहाँ-वहाँ, : प्रवाह- गैथिल्य है ।
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श्री पं० १० दलसुख मालवणियाके दार्शनिक निबन्धोने जैनहिन्दी साहित्यसमृद्धिशाली बनाया है । आपके जैनागम, आगम युगका अनेकान्तवाद, जैनदार्शनिक साहित्यका सिंहावलोकन आदि निवन्ध महत्त्वपूर्ण है । आपकी लेखनशैली गम्भीर है। विषयका स्पष्टीकरण सम्यक् रूपसे किया गया है । आलोचनात्मक दार्शनिक निबन्धोमे कुछ गम्भीरता पाई जाती है ।
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श्री पं० वंशीधरजी व्याकरणाचार्य लधप्रतिष्ठ दार्शनिक निवन्धकार है । आप सामाजिक समस्याओपर भी लिखते है । स्यादवाद, नय, • प्रमाण, कर्मसिद्धान्तपर आपके कई निबन्ध प्रकाशित हो चुके है। आपके वाक्य छोटे हो या बडे सभी सम्बद्ध व्याकरणके अनुसार और स्पष्ट होते हैं । दार्शनिक निवन्धोंकी भाषा गम्भीर और सयत है । सरलसे सरल 'वाक्यों गभीर विचारोंको रख सके है । उदार और उच्च-विचार होने के कारण सामाजिक निबन्धोंमें प्राचीन रूढ़ परम्पराओके प्रति अनास्थाकी भावना मिलती है ।
श्री पं० दरबारीलाल न्यायाचार्य भी दार्शनिक निबन्ध लिखते है । - न्यायदीपिकाकी प्रस्तावना और आप्तपरीक्षाकी प्रस्तावना के अतिरिक्त " अनेकान्तवाद, द्रव्यव्यवस्था और पदार्थव्यवस्थापर आपके कई निबन्ध
निकल चुके है। आपकी शैली मुख्तारी है, शब्दबाहुल्य, भावात्पता : आपके निवन्धोंमें है। हॉ, विषयका स्पष्टीकरण अवश्य पाया जाता है । शैलीमें प्रवाह गुणकी भी कमी है । यह प्रसन्नताका विषय है कि दरबारीलालजीकी शैली उत्तरोत्तर विकसित हो रही है । आपके आरम्भिक ? निबन्धो में भाषाचाहुल्य है पर वर्त्तमान निबन्धोकी भाषा व्यवस्थित और सयत है।
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हिन्दी - जैन- साहित्य-परिशीलन
श्री पं० हीरालाल सिद्धान्तशास्त्रीका भी दार्शनिक निबन्धकारोंमें महत्त्वपूर्ण स्थान है । आपने द्रव्यसंग्रहकी विशेष वृत्ति लिखी है, जिसमे अनेक दार्शनिक पहलुओंपर प्रकाश डाला है । स्याद्वाद, तत्त्व, चन्धव्यवस्था, कर्मसिद्धान्त प्रभृति विषयोंपर आपके निबन्ध प्रकाशित हुए हैं। अन्वेषणात्मक और भौगोलिक निबन्ध भी आपने लिखे हैं । आपकी विपयविवेचनशैली तर्कपूर्ण है । यद्यपि कहीं-कहीं भाषामें पडिताऊपन है तो भी सरलता, स्पष्टता और मनोरंजकताकी कमी नहीं है ।
श्री पं० जगन्मोहनलालजी सिद्धान्तशास्त्रीके दार्शनिक और आचारात्मक निबन्ध अत्यन्त प्रसिद्ध हैं । आपके अबतक लगभग ७०-८० निबन्ध प्रकाशित हो चुके हैं। आपकी लेखनशैली सरल एव स्पष्ट है । एक अध्यापकके समान आप विपयको समझानेकी पूरी चेा करते हैं । भाषा परिमार्जित और संयत है । शुष्क विषयको भी रोचक ढगसे समझाना आपकी शैलीकी विशेषता है ।
साहित्यिक निबन्ध लिखने वालोंमे श्री प्रेमीजी, बाबू कामताप्रसादजी, श्री मूलचन्द वत्सल, पं० पन्नालाल वसंत, पं० साहित्यिक और परमानन्द शास्त्री, प्रो० राजकुमार एम० ए०, सामाजिक निर्बंध साहित्याचार्य, श्री जमनालाल साहित्यरत्न, श्री ऋपमदास रॉका, श्री भगरचन्द नाहटा, श्री पं० नाथूलाल साहित्यरल प्रभृति है ।
श्री प्रेमीजीने कवियोंकी जीवनियाँ शोधात्मक शैली में लिखी है। आपका "हिन्दी जैन साहित्यका इतिहास" आजतक पथप्रदर्शक बना हुआ है। इसमे प्रायः सभी प्रमुख कवियोका जीवन-परिचय सकलित किया गया है। प्रेमीजीके ही पथपर श्री बाबू कामताप्रसादनी भी चले पर उनसे एक कदम आगे । आपने कुछ व्यवस्थित रूपसे दो चार नवीन उद्धरण देकर तथा कुछ नवीन युक्तियोंके साथ "हिन्दी चैन साहित्यका संक्षिप्त इतिहास" लिखा । "मनुष्य त्रुटियोका कोप है। अतः
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निबन्ध-साहित्य
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त्रुटि रह जाना मानवता है ।" इस युक्तिके अनुसार आपके इतिहासमे कुछ त्रुटियों रह गई है जिनका कतिपय समालोचकोंने असहिष्णुता के साथ दिग्दर्शन कराया है । फलतः जैन हिन्दी साहित्य के इतिहासपर आगे अन्वेषण करने का साहस नवीन लेखकोको नही हो सका । यदि अहम्मन्य समालोचकोंकी ऐसी ही असहिष्णुता रही तो सम्भवतः अभी और कुछ दिन तक यह क्षेत्र सूना रहेगा । यद्यपि ऐसे समालोचक खरी समालोचना करनेका दावा करते है पर यह दम्भ है । इससे नवीन लेखकोका उत्साह ठण्ढा पड़ जाता है।
श्री महात्मा भगवानदीन और बाबू श्री सूरजभान वकील सफल निबन्धकार हैं। आपके निवन्ध रोचक और ज्ञानवर्धक हैं। साहित्यान्वेषणात्मक अनेक निवध "वीरवाणी" में प्रकाशित हुए है। जयपुरके अनेक कवियोपर शोधकार्य श्री पं० चैनसुखदास न्यायतीर्थ तथा उनकी शिष्यमंडली कर रही है, जो जैन हिन्दी साहित्यके लिए अमूल्य निधि है ।
श्री अगरचन्द नाहटाने अवतक तीन, चार सौ निबन्ध कवियोके जीवन, राजाश्रय एव जैनग्रन्थोंके परिचयपर लिखे है। शायद ही जैनअजैन ऐसी कोई पत्रिका होगी जिसमें आपका कोई निवन्ध प्रकाशित न
हुआ हो। आपके कई निबन्धोंने तो हिन्दी साहित्यकी कई गुत्थियोंको सुलझाया है। "पृथ्वीराजरासो के विवादका अन्त आपके महत्त्वपूर्ण निबन्ध-द्वारा ही हुआ है। बीसलदेवरासो और खुमानरासोके रचनाकाल और रचयिता के सम्बन्धमें विवाद है। आशा है, हिन्दी साहित्य के इतिहासलेखक आपके निबन्धो द्वारा तटस्थ होकर इन ग्रन्थोकी प्रामाणिकतापर विचार करेगें ।
श्रीमती पं० ० चन्दाबाईजीने महिलोपयोगी साहित्यका सृजन किया है । अनेक निबन्ध संग्रह आपके प्रकाशित हो चुके हैं । लेखनशैली सरल है, भापा स्वच्छ और परिमार्जित है ।
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हिन्दी - जैन साहित्य-परिशीलन
श्री बाबू लक्ष्मीचन्द्र एम० ए० ने ज्ञानपीठसे प्रकाशित पुस्तकोंके सम्पादकीय वक्तव्योंमे अनेक साहित्यिक चर्चाओपर प्रकाश डाला है । मुक्तिदूत और वर्द्धमानके सम्पादकीय वक्तव्य तो महत्त्वपूर्ण है ही, पर "वैदिक साहित्य" की प्रस्तावना एक नवीन प्रकाशकी किरणें विकीर्ण करती हैं। आपकी शैली गम्मीर, पुष्ट, सयत और व्यवस्थित है। धारावाहिक गुण प्रधान रूपसे पाया जाता है ।
श्री मूलचन्द वत्सल पुराने साहित्यकारों में है। आपने प्राचीन कवियो पर कई निबन्ध लिखे हैं । आपकी शैली सरल है । भाषा सीधी-सादी है । श्री पं० परमानन्द शास्त्री, वीर सेवा मन्दिर सरसावाने, अपभ्रगके अनेक कवियोपर शोधात्मक निबन्ध लिखे हैं। महाकवि 'रहधू' के तो आप विशेषज्ञ हैं । आपकी शैली शब्दबहुला है, कहीं-कहीं बोझिल मी मालूम पडती है ।
श्री प्रो० राजकुमार साहित्याचार्यने दौलतराम और भूधरदासके पदोका आधुनिक विश्लेषण किया है । आपके द्वारा लिखित मदन-पराजय की प्रस्तावना कथा - साहित्यके विकास क्रम और मर्मको समझनेके लिए अत्यन्त उपादेय है । आपकी शैली पुष्ट और गम्भीर है । प्रत्येक शब्द अपने स्थानपर बिल्कुल फिट है । कवि होने के कारण गद्यमें काव्यत्व आ गया है ।
श्री पं० पन्नालाल वसन्त साहित्याचार्य के अनेक साहित्यिक निबन्ध प्रकाशित हो चुके हैं। आपने "आदिपुराण" की महत्त्वपूर्ण प्रस्तावना लिखी है। जिसमें संस्कृत जैन साहित्यके विकास क्रमका बडा रोचक वर्णन किया है। आपकी शैली परिमार्जित और सरल है ।
श्री जमनालाल साहित्यरत्न' अच्छे निवन्धकार है। जैन जगत्मे आपके अनेक साहित्यिक निबन्ध प्रकाशित हुए हैं।
श्री ज्योतिप्रसाद जैन एम० ए०, एल-एल० वी० के भी ऐतिहासिक
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निवन्ध-साहित्य
१३५ और साहित्यिक निवन्ध प्रकाशित हुए है । आपके निबन्धोंमे पूज्यपाद सम्बन्धी निवन्ध महत्त्वपूर्ण है। शैली शोधपूर्ण है।
श्री पं० बलभद्र न्यायतीर्थ के सामाजिक और साहित्यिक निवन्ध जैन सदेशमे प्रकाशित होते रहते हैं। आपकी भाषामें प्रवाह रहता है, एव गैलीमे विस्तार।
श्री रुपमदास स्काके अनेक प्रौढ़ निबन्ध सामाजिक और साहित्यिक विषयोपर प्रकाशित हुए है। आपकी शैली प्रवाहपूर्ण है, और वर्णनमें सजीवता है।
श्री नत्थूलाल शास्त्री साहित्यरत्नके सामाजिक और साहित्यिक निबन्ध जैन साहित्यके लिए गौरवकी वस्तु है। आपका "जैन हिन्दी साहित्य" निवन्ध विशेष महत्त्वपूर्ण है । आपकी शैलीमे रोचकता है।
श्री कस्तूरचन्द काशलीवालके शोधात्मक निबन्ध भी महत्त्वपूर्ण है। आपकी शैली स्क्ष होनेपर भी प्रवाहपूर्ण है । विषयके स्पष्टीकरणकी क्षमता आपकी भाषामे पूर्ण रूपसे विद्यमान है।
श्री प्रो. देवेन्द्रकुमार, श्री विद्यार्थी नरेन्द्र, श्री इन्द्र एम० ए०, श्री पृथ्वीराज एम० ए० आदि मी सुलेखक हैं । दार्शनिक निबन्धकामे श्री रघुवीरशरण दिवाकर का स्थान महत्वपूर्ण है | आपने अनेक जीवन गुत्थियों को सुलझानेका प्रयत्ल किया है। श्री प्रो. विमलदास एम० ए० भी अच्छे निवन्धकार है। आपके विवेचनात्मक कई निवन्ध प्रकाशित हो चुके हैं। .
सामाजिक, आचारात्मक और दार्गनिक निवन्धकारोंमे पं० परमेष्ठीदास न्यायतीर्थ, ५० वंशीधर घ्याकरणाचार्य, पं० फूलचन्द सिद्धान्तशास्त्री, श्री स्वतन्त्र, श्री कापडिया आदि हैं। श्री पण्डित अजितकुमार शास्त्री न्यायतीर्थ ने खण्डनमण्डनात्मक पद्धतिपर कई निवन्ध लिखे हैं। आपकी शैली तर्कपूर्ण और भाषा सयत है।
श्रीदरबारीलाल सस्यभक्त एक चिन्तनशील दार्शनिक और साहित्य
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हिन्दी - जैन- साहित्य- परिशीलन
कार है । आपकी रचनाओंके द्वारा केवल जैन साहित्य ही वृद्धिगत न हुआ, बल्कि समग्र हिन्दी साहित्यका भाण्डार बढ़ा है।
इस सम्बन्धमें एक नाम विशेषरूपसे उल्लेखनीय है, श्रीजैनेन्द्र कुमार जैनका । श्रीजैनेन्द्रनी उच्चकोटिके उपन्यास, कहानीकार तो है ही, निबन्धकारके रूपमें भी आपका स्थान बहुत ऊँचा है। अपने निबन्धो में आप बहुत सुलझे हुए, चिन्तक के रूपमे उपस्थित होते हैं । इस समस्त चितन की पार्श्वभूमि आपको जैन दर्शनसे प्राप्त हुई है। यही कारण है कि अनेक प्रकारकी उलझी हुई, समस्याओंका समाधान सीधे रूपमें अनेकान्तात्मक सामञ्जस्य द्वारा सफलतापूर्वक करते हैं । इनकी शैली के सम्बन्धमें यही कहना पर्याप्त होगा कि इन्होंने हिन्दीको एक ऐसी नयी शैली दी है, जिसे जैनेन्द्रकी शैली ही कहा जाता है।
आत्मकथा, जीवनचरित्र और संस्मरण
आत्मकथा, जीवनचरित्र और संस्मरण भी साहित्यकी निधि हैं। मानव स्वभावतः उत्सुक, गुप्त और रहस्यपूर्ण वार्तोका जिज्ञासु एवं अनुकरणशील होता है । यही कारण है कि प्रत्येक व्यक्ति दूसरोके जीवनचरित्रो, आत्मकथाओं और सस्मरणोको अवगत करनेके लिए सर्वदा उत्सुक रहता है, वह अपने अपूर्ण जीवनको दूसरोंके जीवन- द्वारा पूर्ण बनानेकी सतत चेष्टा करता रहता है ।
जीवन चरित्रोंकी सत्यतामे आशंका पाठकको नहीं होती है, वह चरित्रनायकके प्रति स्वतः आकृष्ट रहता है, अतः जीवनम उदात्त भावनाओंको सरलतापूर्वक ग्रहण कर लेता है । मानवत्री जिज्ञासा जीवन चरित्रोंसे तृप्त होती है, जिससे उसकी सहानुभूति और सेवाका क्षेत्र विकसित होता है । कर्त्तव्यमार्गको प्राप्त करनेकी प्रेरणा मिलती है और उच्चादशको उपलब्ध करनेके लिए नाना प्रकारकी महत्त्वाकांक्षाएँ उत्पन्न होती हैं ।
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मआत्मकथा, जीवनचरित्र और संस्मरण
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जीवन-चरित्रोसे भी अधिक लाभदायक आत्मचरित्र (Auto. biography ) है । पर जगबीती कहना जितना सरल है, आपबीती कहना उतना ही कटिन । यही कारण है कि किसी भी साहित्यमे आत्म कथामोकी संख्या और साहित्यकी अपेक्षा कम होती है। प्रत्येक व्यक्तिमें यह नैसर्गिक संकोच पाया जाता है कि वह अपने जीवनके पृष्ठ सर्वसाधारणके समक्ष खोलनेमे हिचकिचाता है, क्योंकि उन पृष्ठोंके खुल्नेपर उसके समस्त जीवनके अच्छे या बुरे कार्य नग्नरूप धारणकर समस्त जनताके समक्ष उपस्थित हो जाते हैं। और फिर होती है उनकी कटु आलोचना । यही कारण है कि संसारमे बहुत कम विद्वान् ऐसे हैं जो उस आलोचनाकी परवाह न कर अपने जीवनकी डायरी यथार्थ रूपमे निर्भय और निधडक हो प्रस्तुत कर सके।
हिन्दी-जैन साहित्यमें इस शताब्दीमे श्रीक्षुल्लक गणेशप्रसादजी वर्णी और श्रीअजितप्रसाद जैनने अपनी-अपनी आत्मकथाएँ लिखी है। जीवन-चरित्र तो १५-२० से भी अधिक निकल चुके हैं। साहित्यकी दृष्टिसे संस्मरणोंका महत्त्व भी आत्मकथाओसे कम नहीं है, ये भी मानवका समुचित पथप्रदर्शन करते है।
यह औपन्यासिक शैलीमें लिखी गयी आत्मकथा है। श्री क्षुल्लक गणेशप्रसाद वर्णीने इसमे अपना जीवनचरित्र लिखा है। यह इतनी
रोचक है कि पढ़ना आरम्भ करनेपर इसे अधूरा
- कोई भी पाठक नहीं छोड़ सकेगा। इसके पढनेसे यही मालम होता है कि लेखकने अपने जीवनकी सत्य घटनाओको लेकर आत्मकथाके रूपमे एक सुन्दर उपन्यासकी रचना की है। जीवनकी अच्छी या बुरी घटनाओको पाठकोंके समक्ष उपस्थित करनेमे लेखकमे तनिक भी हिचकिचाहट नहीं है। निर्भयता और निस्सकोचपूर्वक अपनी बीती लिखना जरा टेढ़ी खीर है, पर लेखकको इसमे पूरी सफलता मिली
१. प्रकाशक : वर्णी-ग्रंथ-माला २२३८ वी, भदैनी, काशी।
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हिन्दी - जैन साहित्य- परिशीलन
है। वस्तुतः पूज्य वर्गीकी जीती-जागती यशोगाथासे आज कौन अपरिचित होगा ?
इस ३३ हाथके मिट्टीके पुतलेका व्यक्तित्व आज गजब ढा रहा है। समस्त मानवीय गुणोंसे विभूषित इस महामानवमें मूक परोपकारकी अभिव्यंजना, साधना और त्यागकी अभिव्यक्ति एवं बहुमुखी विद्वत्ताका सयोग जिस प्रकार हो पाया है, शायद ही अन्यत्र मिले। इतनी सरल प्रकृति, गम्भीर मुद्रा, ठोस ज्ञान, अटल श्रद्धानादि गुणोंके द्वारा लोग सहन ही इनके भक्त बन जाते हैं। जो भी इनके सम्पर्क में आया वह अन्तरंगमें मायाशून्यता, सत्यनिष्ठा, प्रकाण्ड पाण्डित्य, विनाके साथ चरित्र, प्रभावक वाणी, परिणामोंमें अनुपम शान्ति एवं आत्मिक और शारीरिक विशुद्धता आदि गुणराश्चिसे प्रभावित हुए बिना नहीं रहा। इसके अतिरिक्त अज्ञानतिमिरान्ध जैनसमानका ज्ञानलोचन उन्मीलित करके लोकोत्तर उपकार करनेका श्रेय यदि किसीको है तो श्रद्धेय वणजी को । पृज्य वर्णोजीका जीवन जैनसमानके लिए सचमुच में एक सूर्य है । वे मुमुक्षु हैं, साधक हैं और है स्वयंवृद्ध। उन्होंने अपनी आत्मकथा लिखकर जैनसमानका ही नहीं, अपितु मानवसमाजका बड़ा उपकारं किया है । अध्ययनकी लालमा पूज्य वर्गीजीमें कितनी थी, यह उनकी आत्मकथासे स्पष्ट है । उन्होंने जयपुर, मथुरा, खुरना, काशी, चकौती ( दरभंगा जिला ) और नवद्वीप आदि अनेक स्थानोंकी न्यायचा पढ़नेके लिए खाक छानी । जहाँ भी न्यायशान्त्रके विद्वानका नाम नुना, आप वहीं पहुँचे तथा श्रद्धा और मक्तिके साथ उसे अपना गुरु बनाया।
आत्मकथाके लेखक पूज्य वर्णाजीने अपने जीवन की समस्त घटनाओंका यथार्थ रूपमें अकन किया है। काशीके त्याद्वाद महाविद्यालय में नव अध्ययन करते थे, उस समयका एक उदाहरण देखिये
उन दिनों विद्यालय के अधिष्ठाता ( प्रिंसिपल ) थे बाबा भागीरथनी वर्णी । न्यायको उच्चकक्षा के विद्यार्थी होनेके कारण आप उनके मुँहलगे
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आत्मकथा, जीवनचरित्र और संस्मरण १३९ थे। एक शामको जब वाबाजी सामायिक ( आत्मचिन्तन ) कर रहे थे, उस समय आप चार-पॉच साथियोके साथ गगापार रामनगर रामलीला देखनेको चले गये। जब नाव बीच गगामे पहुंची तो हवाके तीव्र झोकोसे डगमगाने लगी और 'अब डूबी, तब इबी' की उसकी स्थिति आ गयी । विद्यालयकी छतपर खडे अधिष्ठाताजी सारा दृश्य देख रहे थे। विद्यार्थियोंकी नावको गगामे डूबते देख उनके प्राण सूखने लगे और उनकी मङ्गलकामनाके लिए भगवान्से प्रार्थना करने लगे। पुण्योदयसे किसी प्रकार नौका बच गयी और सभी विद्यार्थी रामलीला देखकर रातको १० बजे लौटे | सबके लीडर आत्मकथा-लेखक ही थे। आते ही अधिष्ठाताजीने आपको बुलाया और बिना आज्ञाके रामलीला देखनेके अपराधमे आपको विद्यालयसे पृथक् कर दिया। साथ ही विद्यालय-मन्त्रीको, जो आरामे रहते थे, पत्र लिख दिया कि गणेशप्रसाद विद्यार्थीको उद्दण्डताके अपराधमे पृथक् किया जाता है । जब पत्र लेकर चपरासी छोडनेको चला तो आपने चपरासीको दो रुपये देकर वह पत्र ले लिया और विद्यालयसे जानेके पहले आपने एक बार समामे भाषण देनेकी अनुमति मांगी। सभामे निर्भीकतापूर्वक आपने समस्त परिस्थितियोका चित्रण करते हुए मार्मिक भापण दिया । आपके भाषणको सुनकर अधिष्ठाताजी भी पिघल गये और आपको क्षमाकर दिया ।
इस प्रकार आत्मकथा-लेखकने अपने जीवनकी छोटी-बडी सभी चातोको स्पष्ट रूपसे लिखा है। घटनाएँ इतने कलात्मक ढगसे सबोयी गयी हैं, जिससे पाठक तल्लीन हुए विना नहीं रह सकता । भाषा इतनी सरल और सुन्दर है कि थोड़ा पढा लिखा मनुष्य भी रसमग्न हो सकता है। छोटे-छोटे वाक्योमें अपूर्व माधुर्य भरा है। __ आजके समाजका चित्रण भी आपने अपूर्व ढगसे किया है। आज किस प्रकार धनिक मनुष्य अपने पैसेसे सैकड़ों पापोंको छुपा लेते हैं, पर एक निर्धनका एक सुईकी नोकके बराबर भी पाप नहीं छिपा छिपता ।
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हिन्दी - जैन-साहित्य-परिशीलन
उसे अपने पापका फल समाज-वहिष्कार या अन्य प्रकारका दण्ड सहना ही पड़ता है । इसका आपने कितने सुन्दर शब्दोंमे वर्णन किया है— "पाप चाहे बड़ा मनुष्य करे या छोटा । पाप तो पाप ही रहेगा, उसका दण्ड उन दोनोंको समान ही मिलना चाहिये। ऐसा न होनेसे ही संसारमें आज पंचायती सत्ताका लोप हो गया है। बड़े आदमी चाहे जो करें उनके दोपको छिपाने की चेष्टा की जाती है और ग़रीबोंको पूरा दण्ड दिया जाता है "यह क्या न्याय है ? देखो बड़ा वही कहलाता है, जो समदर्शी हो । सूर्यकी रोशनी चाहे दरिद्र हो चाहे अमीर दोनोंके वरॉपर समान रूपसे पडती है ।"
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इस आत्मकथाकी एक सबसे विशेषता यह भी है कि इसमें जैन समाजका सामाजिक, आर्थिक, धार्मिक और शिक्षा विकासका इतिहास मिल जायगा | क्योकि वर्णाजी व्यक्ति नहीं, संस्था है । उनके साथ अनेक संस्थाएँ सम्बद्ध हैं । ज्ञान प्रचार और प्रसार करनेमें थापने अटूट परिश्रम किया है । भारतके एक कोनेसे दूसरे कोने तक विहारकर जैन समाजको -जागृत किया है ।
श्री व्यतिप्रसाद जैन एम० ए० की यह आत्मकथा है । इस आत्मकथाका नाम ही औपन्यासिक ढंगका है और एकाएक पाठकको अपनी ओर आकृष्ट करनेवाला है । घटनाएँ एक दूसरेसे अज्ञात जीवन' विल्कुल सम्बद्ध हैं; वाल्यकाल से लेकर वृद्धावस्थातककी घटनाओंको मोतीकी लड़ीके समान पिरोकर इसे पाठकोंका कण्टहार -चनानेका लेखकने पूरा प्रयास किया है। रोचकता और सरलता गुण पूरे रूपमें विद्यमान हैं।
यद्यपि लेखकने आत्मकथाका नाम अज्ञात जीवन रखा है, किन्तु लेखकका जीवन समाजमे अज्ञात नहीं है । समाजसे सम्मान और आदर प्रयाग |
१. प्रकाशक : रायसाहब रामदयाल अगरवाला,
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आत्मकथा, जीवनचरित्र और संस्मरण प्रास करनेपर भी वह अपनेको अज्ञात ही रखना अधिक पसन्द करता है, यही उसकी सबनताकी सबसे बड़ी पहिचान है।
इस आत्मकथामें सामाजिक कुरीतियोका पूरा विवरण मिलता है । भाषा संयत, सरल और परिमार्जित है अग्रेजी और उर्दूक प्रचलित शब्दोको भी यथास्थान रखा गया है।
जीवनचरित्रोंमें सेठ माणिकचन्द, सेठ हुकमचन्द, कुमार देवेन्द्रप्रसाद, श्री बा० ज्योतिप्रसाद, ७० शीतलप्रसाद, ७० प० चन्दाबाई, श्री मगनबाई एवं श्वेताम्बर अनेक यति-मुनियोके जीवन चरित्र प्रधान हैं। इन चरित्रों से कई एक तो निश्चय ही साहित्यकी दृष्टिसे महत्त्वपूर्ण हैं। पाठक इन जीवन-चरित्रोसे अनेक बाते ग्रहण कर सकते हैं।
इस श्रेष्ठ और रोचक पुस्तकके सम्पादक श्री अयोध्याप्रसाद गोयलीय हैं। आपने इसमे जैन समाजके प्रमुख सेवक ३७ व्यक्तियोके संस्मरण सकनैन जागरणके
हित किये है। अधिकाश सस्मरणोके लेखक भी आप
' ही हैं । यह मानी हुई बात है कि महान् व्यक्तियोके अग्रदूत'
' पुण्य संस्मरण जीवनकी सूनी और नीरस घड़ियोंमे मधु घोलकर उन्हे सरस बना देते हैं। मानव-हृदय, जो सतत वीणाके समान मधुर भावनाओकी झंकारसे झकृत होता रहता है, पुण्य स्मरणोसे पूत हो जाता है। उसकी अमर्यादित अभिलाषाएँ नियन्त्रित होकर जीवनको तीव्रताके साथ आगे बढ़ाती हैं । फ्लतः महान् व्यक्तियों के सस्मरण जीवन की धाराको गम्भीर गर्जन करते हुए सागरमे विलीन नहीं कराते, बल्कि हरे-भरे कगारोंकी शोभाका आनन्द लेते हुए उसे मधुमती भूमिकाका पर्श कराते हैं, जहाँ कोई भी व्यक्ति वितर्क बुद्धिका परित्यागकर रसमग्न हो जाता है और परप्रत्यक्षका अल्पकालिक अनुभव करने लगता है।
प्रस्तुत सकलनमे ऐसे ही अनुकरणीय व्यक्तियोके सस्मरण है। ये २, प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ, काशी।
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हिन्दी -जैन साहित्य - परिशीलन
सभी अपने दिव्य आलोकसे जीवन- तिमिरको विच्छिन्न करनेमें सक्षम है। प्रत्येक महान् व्यक्तिका अन्तरंग और बहिरंग व्यक्तित्व जीवनको प्रेरणा और स्फूर्ति देता है।
समस्त प्रमुख व्यक्तियोंको चार भागो में विभक्त किया है। प्रथम भाग त्याग और साधनाके दिव्य प्रदीपोकी अमरज्योति से आलोकित है । ये दिव्य दीप है ० शीतलप्रसाद, बाबा भागीरथ वर्णी, आत्मार्थी कानजी महाराज, व्र० प० चन्द्रावाई और भूआ ( चैरिस्टर चम्पतरायजीकी बहन ) ।
इन दिव्य दीपम तैल और वत्तिका सजोनेवाले श्री गोयलीयके अतिरिक्त अन्य लेखक भी है। इन सबकी शैली में अपूर्व प्रवाह, माधुर्य और जोश है। भाषामे इतनी धारावाहिकता है कि पाठक पढ़ना आरम्भ करनेपर अन्त किये बिना नही रह सकता ।
दूसरा भाग तत्त्वज्ञान के आलोक-स्तम्भोसे शोभित है । ये आलोक स्तम्भ है- गुरु गोपालदास वरैया, पं० उमरावसिह, प० पन्नालाल चाकलीवाल, पं० ऋप्रमदास, पं० महावीरप्रसाद, प० अरदास, पं० जुगलकिशोर मुख्तार और पं० नाथूराम प्रेमी ।
इस स्तम्भके लेखक्रोमे श्री गोयलीयके अतिरिक्त श्री क्षुल्लक गणेशप्रसाद वर्णी, श्री जैनेन्द्रकुमार, श्री प० कैलाशचन्द्र शास्त्री, श्री पं० सुखलालनी संघवी, श्री पं० नाथूराम 'प्रेमी' और श्री कन्हैयालाल मिश्र प्रभाकर आदि प्रमुख है। इन सभी संस्मरणोंम रोचकता इतनी अधिक है कि गूगेके गुड़कें स्वाढकी तरह उसकी अनुभूति पाठक ही कर सकेगे । भाषामें ओन, मावुर्य और प्रवाह है। शैली अत्यन्त संवत और प्रौढ है।
तीसरे भागमे वे अमर समान - सेवक हैं, जिन्होंने समाजमं नवचेतनाका प्रकाश फैलाया है। ये है-वायू सूरजभानु वकील, बाबू दयाचन्द गोवलीय, कुमार देवेन्द्रप्रसाद, वैरिस्टर लुगमन्दिरलाल जैनी, अर्जुनलाल
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आत्मकथा, जीवनचरित्र और संस्मरण
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-सेठी, बैरिस्टर चम्पतराय, बाबू ज्योतिप्रसाद, बाबू सुमेरचन्द एडवोकेट, बाबू अजितप्रसाद वकील, बाबू सूरजमल और महात्मा भगवानदीन ।
इस स्तम्भके लेखक श्री नाथूराम प्रेमी, श्री कन्हैयालाल मिश्र प्रभाकर, श्री महात्मा भगवानदीन, श्री माईदयाल, श्री गुलाबराय एम. ए, श्री अजितप्रसाद एम. ए., श्री बनवारीलाल स्याद्वादी, श्री कामताप्रसाद जैन, श्री कौशलप्रसाद जैन, श्री दौलतराम मित्र, श्री जैनेन्द्रकुमार और श्री गोयलीय हैं । प्रयागमे जैसे त्रिवेणीके सगमस्थल - पर गंगा, यमुना और सरस्वतीकी धाराएँ पृथक्-पृथक् होती हुई भी एक है, ठीक उसी प्रकार यहाँ भी सभी लेखकोकी मिन्न-भिन्न शैलीका आस्वादन भिन्न-भिन्न रूपसे होनेपर भी प्रवाह - ऐक्य है । इस स्तम्भके सस्मरणों को पढ़नेसे मुझे ऐसा मालूम पड़ा, जैसे कोई भगवान्का भक्त किसी ठाकुर द्वारीपर खड़ा हो पञ्चामृतका रसास्वादन कर रहा हो । चतुर्थ भाग श्रद्धा और समृद्धिके ज्योति रत्नोसे जगमगा रहा है । वे रत्न हैं-राजा हरसुखराय, सेठ सुगनचन्द, राजा लक्ष्मणदास, सेठ माणिकचन्द, महिलारत मगनबाई, सेठ देवकुमार, सेट जम्बूप्रसाद, सेठ मथुरादास, सर मोतीसागर, रा०व० जुगमन्दिरदास, रा० ब० सुल्तानसिह और सर सेठ हुकुमचन्द |
इस स्तम्भके लेखक नाथूराम प्रेमी, पं० हरनाथ द्विवेदी, श्री कन्हैयालाल मिश्र प्रभाकर, श्री तन्मय बुखारिया, श्रीमती कुन्थुकुमारी जैन बी० ए० (ऑनर्स), श्री हीरालाल काशलीवाल और श्री गोयलीय है । सचमुच मे यह सकलन बीसवीं शताब्दी के जैन समाजका जीताजागता एक चित्र है । समस्त पुस्तककै सस्मरण रोचक, प्रभावक और शिक्षाप्रद है । इस संग्रहके संस्मरणोंको पढ़ते समय अनेक तीर्थों में स्नान करनेका अवसर प्राप्त होगा । कही राजगृहके गर्मजलके झरनोमें अवगाहन करना पडेगा, तो कही वहाँके समशीतोष्ण ब्रह्मकुण्डके जलमे, तो कहीं पास ही के सुशीतल जलके झरनेमे निमजन करना होगा। आपको
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हिन्दी - जैन- साहित्य-परिशीलन
गंगाजल के साथ समुद्रका खारा उदक भी पान कस्नेको मिलेगा, पर विश्वास रखिये, स्वाद बिगड़ने न पायेगा ।
शताश भी कथा-साहित्य
इस प्रकार हिन्दी जैन साहित्यका गद्य भाग नाटक, उपन्यास, कहानियाँ, निबन्ध, संस्मरण, आत्मकथा, गद्यकाव्य आदिके द्वारा दिनोंदिन खूब पल्लवित और पुष्पित हो रहा है। जैन लेखकोंका जितना ध्यान निबन्ध रचनाकी ओर है, यदि उसका या गद्यगीतोंकी ओर चला जाय तो निश्चय ही हिन्दी जैन गद्य साहित्य अपने आलोक से समग्र हिन्दी साहित्यको जगमगा दे | नवीन लेखकोको इस ओर अवश्य ध्यान देना चाहिए। जैन कथाओ द्वारा सुन्दर और रोचक गद्य-पद्यमे काव्य लिखे जा सकते हैं।
វឌខ
इसके अतिरिक्त सस्मरण, जीवन-चित्र तथा विभिन्न विषयोंके निबन्धोके संकलन भी अभिनन्दन-ग्रन्थोंके नामसे प्रकाशित हुए हैं। इनमे निम्न ग्रन्थ प्रसिद्ध है ।
(१) श्री प्रेमी - अभिनन्दन ग्रन्थ । (२) श्री वर्णी - अभिनन्दन ग्रन्थ (३) श्री . पं० चन्दाबाई अभिनन्दन ग्रन्थ । (४) श्री हुकमचन्द अभिनन्दन ग्रन्थ । (५) श्री आचार्य शान्तिसागर श्रद्धाञ्जलि ग्रन्थ ।
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दशवाँ अध्याय हिन्दी-जैन साहित्यका शास्त्रीय पक्ष हिन्दी-जैन साहित्यके विभिन्न अग और प्रत्यगोका परिचय प्राप्त कर लेनेके अनन्तर इस साहित्यका शास्त्रीय दृष्टिसे यत्किञ्चित् अनुशीलन करना भी आवश्यक है । अतः शास्त्रीय दृष्टिकोणसे विवेचन करनेपर ही इसकी अनेक विशेषताएँ ज्ञात की जा सकेगी। __इस अभीष्ट दृष्टिकोणके अनुसार भापा, छन्द, अलंकार योजना, प्रकृतिचित्रण, सौन्दर्यानुभूति, रसविधान, प्रतीकयोजना और रहस्यवादका विश्लेषण किया जायगा । सर्वप्रथम जैन साहित्यकी भाषाका विचार करना है कि इस साहित्यमें प्रयुक्त भाषा कैसी है, इसमे शास्त्रीय दृष्टि से कौन-कौन विशेषताएँ विद्यमान हैं । भावों और विचारोकी अभिव्यञ्जना भापाके बिना असम्भव है।
हिन्दी-जैन काव्योंका भाषाकी दृष्टिसे बड़ा ही महत्त्व है। अपभ्रंश और पुरानी हिन्दीसे ही आधुनिक साहित्यिकभाषाका जन्म हुआ है। _ जैन लेखक आरम्भसे ही भाषाकै रूपको सजाने और
परिष्कृत बनानेमे सलग्न रहे हैं। सरस, कोमल, मधुर और मजुल शब्द सुबोध, सार्थक और स्वाभाविक रूपमे प्रयुक्त हुए हैं। शब्दयोजना, वाक्याशोका प्रयोग, वाक्योकी बनावट और भाषाकी लाक्षणिकता या ध्वन्यात्मकता विचारणीय है।
अपभ्रश भाषाके कार्योंमे भाषाका विकासोन्मुख रूप दिखलायी पड़ता है । ऐसा प्रतीत होता है कि भाषा लोकभाषाकी ओर तेजीसे गमन कर रही है । पाठक देखेंगे कि निम्नपदमें कोमल और परुष भावनाओंकी
भाषा
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हिन्दी - जैन- साहित्य-परिशीलन
अभिव्यक्ति के साथ भापासे कितनी भावप्रवणता है । प्रेपणीयतत्त्वकी पर कविको कितनी है, यह सहजम ही जाना जा सकता है।
ढह-सुहेण । सावलेट |
तो गहिय चन्दन्हासा उहेण । हक्कारित लक्खणु लड्डु पहरूपहरू किं करहि खेठ । तुहु एक्के चक्के महु पद्द पुणु आर्य कवणु गण्णु । किं सीह (हि) होइ सहाउ अण्णु । तं विसुर्णेवि बिफ्फुरियाहरेण । मेल्लिट रहनु लच्छीहरेण ।
-स्वयम्भू रामायण ७५/२२
श्रीराहुलनीने इसका हिन्दीमें अनुवाद यो किया है-
तो गहिय चन्द्रहासायुधेहिं । इक्कारेट लक्ष्मण दशमुखेहिं । ले ग्रहरु प्रहरुका करहि क्षेप । तुह एको धक्को सावलेप | ममतें पुनि आहि कवन गण्य | का सिंहह होइ स्वभाव अन्य। सो सुनिया विस्फुरिता धरेहिं मेखंडे यांग लक्ष्मीधरेहिं ॥
भाषाको शक्तिशाली बनानेके लिए कवि पुष्पदन्तने समासान्त पका प्रयोग अत्यधिक किया है। निम्न उदाहरण दर्शनीय है
चिप-कालिंटि-काल-पात्र -जलहर-पिहिय-महंतरालओ । 'धुम-गय-नाण्ड-मण्डलुड ढाविय-चल-मचारि मेलभो । अविरल-सुसल-खरिस-चिरधारा-चारिस भरंव-भूमलो । हय-नवियर-पयाव- पसरुग्गय करू वण-गील-हलो ||
- मादिपुराण (२९-३०)
इसकी हिन्दी छायावि-कालिंदी-काल- नवजलधरछादित नभंतरालमा । घुतानगंढ-मंडल डड्डाविय चल-सत्ता-लिमेलमा । अविरल - मुसल - सद्दश थिर धारा वर्ष भरत-भूतला ।
हृत-रविकर प्रताप श्रसर उद्गत तक नील शाहला ॥
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हिन्दी-जैन साहित्यका शास्त्रीय पक्ष १७ १२ वी गतीके कवि विनयचन्द्र सूरिकी अपभ्रश भापामे अपूर्व मिठास है । भापाकी स्वरलहरीमें विश्वका सगीत गूंजता है। भावप्रकाशन कितना अनूठा है, यह निम्नपदसे स्पष्ट है
नेमिकमरु सुमरवि गिरनारि । सिद्धी राजल कन-कुमारि । श्रावणि सखणि कंदुय मेहु । गजइ विरहिनि शिन्हइ देहु । विज्ज झवकाइ रक्खसि जेव । नेमिहि विणु सहि सहियइ केम। सखी भणइ सामिणि मन हरि । दुजन तणा में वंचिति पूरि। गयर नेमि तट विणठउ काइ । भछह अनेरा बरह सयाइ ।
-प्राचीन गुर्जर काव्य संग्रह परवती जैनकवियोम भापाकी दृष्टिसे कवि बनारसीदासका सर्वोत्कृष्ट स्थान है। आपकी भापा मनोरम होनेके साथ, कितनी प्रभावोत्पादक है, यह निम्न पद्मसे स्पष्ट है । सगीतकी अवतारणा स्थान-स्थानपर विद्यमान है। प्रगस्त होने के साथ भापामे कोमलकान्तता और प्रवहमानता भी अन्तनिहित है। भापाकी लोच-लचक और हृदयद्रावकता तो निम्न पद्यका विशेष गुण है।
काज विना न करै निय उद्यम, लान बिना रन माहिं न जूम। डील विना न सधै परमारथ, शील विना सवसौं न भरू नेम विना न लहै निहचैपद, प्रेम विना रस रीति न चूसै। ध्यान बिना न थमै मन की गति, ज्ञान विना शिवपंथ न सूझै॥
वास्तवमे कवि बनारसीदास भापाके बहुत बडे पारखी है। इनके सुन्दर वर्ण-विन्यासमे कोमलता किलकारियाँ भरती है, रस छलकता है और माधुर्य बाहर निकलने के लिए वातायनमेंसे झॉकता है। नाद सौन्दर्यके साधन छन्द, तुक, गति, यति और लयका जितना सुन्दर सन्तुलित समन्वय इनकी माषामें है, अन्यत्र वैसा कठिनाईसे मिलेगा। निम्न पद्यमे संगीत केवल मुखरित ही नहीं हुआ, बल्कि स्वर और तालके साथ मूर्तरूपमें उपस्थित है।
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१४८ हिन्दी-जैन-साहित्य परिशीलन करम भरम जग तिमिर हरन खग, उरग लखन पग शिवमग दरसि । निरखत नयन भविक जल बरखत, हरखत अमित भविक जन सरसि ॥ मदन कदन जिन परम धरम हित, सुमिरत भगत भगत सव हरसि । सजल जलद तन मुकुट सपत फल, कमठ दलन जिन नमत बनरसि । ___ उपयुक्त पद्यमे समस्त ह्रस्ववर्णोंने रस और माधुर्यकी वर्षा करनेमे कुछ उठा नही रखा है। इसकी सरसता, विशदता, मधुरता और सुकुमारता ऐसा वातावरण उपस्थित कर देती है, जिससे व्यामवर्णके पार्श्वप्रभुकी कमनीयता, महत्ता और प्रभुता भक्तक हृदयमे सन्तोष और शीलताका सचार किये बिना नहीं रह सकती। शब्दोकी मधुरिमाका कवि वनारसीदासको अच्छा परिज्ञान था । वस्तुतः ह्रस्व वणोंमें जितनी कोमलता और कमनीयता होती है, उतनी दीर्घ वर्णोंमें नहीं । इसी कारण कवि अगले पद्यमे भी लघुस्वरान्त अक्षरोको प्रयोग करता हुआ कहता है
सकल करमखल दलत, कमठ सठ पवन कनक नग। धवल परमपद रमन जगत जन अमल कमल खग ॥ परमत जलधर पवन, सजल घन सम तन समकर । पर अब रजहर जलद, सकल जन नत भव भय हर। यम दलन नरक पद छय करन, अगम अतट भवजल तरन । पर सवल मदन बन हर दहन, जय जय परम अभय करन ॥
इस छप्पयमे कविने मापाकी जिस कारीगरीका परिचय दिया है, वह अद्वितीय है । जिस प्रकार कुशल शिल्पी छैनी और हथौड़े द्वारा अपने भावोंको पापाण-खण्डोमे उत्कीर्ण करता है, उसी प्रकार कविने अपनी शब्द-साधना द्वारा कोमलानुभूतिको अंकित किया है।
कविने भाषाको भाव-प्रवण बनानेके लिए कथोपकथनात्मक शैली का भी प्रयोग किया है । संसारी जीवको सम्बोधन कर वार्तालाप करता हुआ कवि किस प्रकार समझाता है, यह निम्नपद्यसे स्पष्ट है
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हिन्दी-जैन साहित्यका शास्त्रीय पक्ष भैया जगवासी, तू उदास बैंकै जगतसौं एक छै महीना उपदेश मेरो मानु रे।
और संकलप विकल्पके विकार तजि बैठिके एकत्त मन एक और भानु रे ॥ तेरौ घट सर तामैं तू ही है कमल वाको तू ही मधुकर है सुवास पहिचानु रे। प्रापति न है है कछू ऐसौ व विचारत है,
सही है है प्रापति सरूप यौ ही जानु रे। शब्दोको तोड़े-मरोड़े बिना ही भाव को भीतर तक पहुंचानेका कविने पूरा यत्न किया है । कवि वनारसीदासके सिवा मैया भगवतीदास, स्पचन्द, भूधरदास, बुधजन, द्यानतराय, दौलतराम और वृन्दावनका भी भाषाकी परखमे विशेष स्थान है। भैया भगवतीदासकी भाषा तो और भी प्राञ्जल, धारावाहिक और प्रसादगुणसे युक्त है। भाषाको भावानुकूल चनानेका इन्हें पूरा मर्म शात था, इसी कारण इनके काव्यमे विषयों के अनुसार माषा गम्भीर और सहज होती गयी है। निम्न पद्यमे मापाकी स्वच्छता दर्शनीय है
नवते अपनो जी आपु लख्यो, तबतें जु मिटी दुविधा मन की। यो शीतल चित्त भयो तबही सब, छाँद दई ममता तन की। चिन्तामणि जब प्रगन्यौ घर में, तब कौन जु चाह करै धन की। नो सिद्धमें आपमें फेर न जानै सो, क्यों परवाह करै जन की ॥
'मिटी दुविधा मनकी' और 'छाड़ दई ममता तनकी' इन वाक्योम कविने मापाकी मधुरिमाके साथ जिस भावको व्यक्त किया है, वह वास्तवमें भाषाकै पूर्ण पाण्डित्यके विना संभव नहीं । इन वाक्योंका गठन भी इतनी कुशलता और सूक्ष्मतासे किया है, जिससे भावाभिव्यञ्जनमे चार चाँद लग गये है। वास्तवमै इनके काव्यमे भावके साथ भाषा भी
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१५. हिन्दी-जैन साहित्य परिशीलन कुछ कहती-सी जान पड़ती है। नाविशेष सौन्दर्यके साथ माधुर्य मी अगाहित करनेमें सक्षम है
केवलरूप विरासत चतन, ताहि विलोकि अर मतवार । काल अनादि वितरीत भयो, भावह तोहि चेतन होत कहारे ॥ भूलि गयो गतिको फिरलो, अव ती दिन च्यारि भये गरे । लागि कहा रह्यो अनिके संग, चेतत क्यों नहिं चतनहारे ।
इस पद्य 'दिन यारि भये अहरारे का ध्वन्यर्थ काव्य-रसिक लिए कम महत्त्वपूर्ण नहीं है। अतः संक्षेपमें वहीं कहा जा सकता है कि इनकी माणमें वोगालिका शक्तिकी अन्या रागामिका निर्वा प्रवक्ता है; पर इनका राग सांसारिक नहीं, आत्मिक अनुरक्ति है।
कवि भूघरदासने नापाको सनाने, सवाल और चम्कीला बनाने अपनी पूर्ण पटुता प्रदर्शित की है। इनकी मात्रा मारणाने साय मनोरंजकता मी है। इनके नान्यमें कहीं प्रसाद माधुर्य है तो कई ओन माधुर्व ।
मावाको तीतर बनाने लिए नाटकीय माणशैलीश प्रयोग भी अवि वरदाउने लिग है। आत्मानुभूतिको अभिवन्दना इन शैलीमें किस प्रकार की जा सकती है, यह निम्न पडले सर है--
जोई दिन साई आयुमें अवसि घद, वृद्ध वृद्ध बीत अं अन्जुला बल है। देह नित लीन होत नन तेन हान होत, खांबन मलीन होत छीन हात बल है। आर्य नरा नेरी तक अन्तक अहेरी आय, परमी नीक जान नरमी विकल है । मिलकै निलापी बन पूछन ल मेरी, ऐसी दशा माही मित्र काहे की साल है।
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हिन्दी-जैन साहित्यका शास्त्रीय पक्ष १५३ इस पद्यमें 'ऐसी दशा माही मित्र काहे की कुशल है' मे सम्बोधनपर जोर देकर भाषाको भावप्रवण वनानेमें कविने कुछ उठा न रखा है।
बुधजन कविकी भापामे भी चमकीलापन पाया जाता है "धर्म विन कोई नहीं अपना, सब सम्पति धन थिर नहिं जगमे, जिसा रैन सपना" मे भाषाका स्वच्छ और स्वस्थरूप है। ____ कवि दौलतरामने सगीतकी अवतारणा करते हुए भापाके आभ्यन्तरिक और वाह्यरूपको संवारनेकी पूरी चेष्टा की है। कहीं-कही तो भाषा परैड करते हुए सैनिकोके समान चहलकदमी करती हुई प्रतीत होती है। निम्नपद दर्शनीय है
छाँदत क्यों नहिं रे नर, रीति अयानी । वारम्वार सिख देव सुगुरु यह, दे आनाकानी । विषय न तनत न भजत बोध व्रत, दुख-सुख जाति न जानी। शर्म चहै न लहै शठ ज्या, घृत देत बिलोवत पानी॥ छाडत क्यों नहि रे नर, रीति अयानी।
जैन कवियोकी सामाजिक पदावलिया संगीतके उपकूलोमे बॅधकर कितनी वेगवती हुई है, यह उपर्युक्त पदसे स्पष्ट है। अपूर्व शब्दलालित्य, नवीन अन्तःसगीत और भावाभिव्यक्तिकी नूतन शक्ति जैन कवियोंकी भाषामे विद्यमान है। निम्न पक्तियोमे तत्सम शब्दोने मापामे कितनी मिठास और लचक उत्पन्न की है, यह दर्शनीय है
नवल धबल पल सोहैं कलमैं, क्षुध तृप व्याधि दरी । हलत न पलक अलक नख बढत न, गति नभमाहि करी॥ ध्यानपान पानि गहि नाशी त्रेसठ प्रकृति भरी। जा-बिन शरन भरन जर घर घर महा असात भरी। दौल तास पद दास होत है, वास-मुक्तिनगरी। ध्यानपान पानि गहि नाशी, वेसठ प्रकृति मरी।
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हिन्दी जैन- साहित्य- परिशीलन
जैनकवियोकी वर्ण- साधना भी अद्वितीय है । च त न र ल व आदि कोमल वर्णोंकी आवृत्तिने काव्यमें सगीत - सौन्दर्य उत्पन्न करनेमे बडी सहायता प्रदान की है। इन वर्णोंके उच्चारणसे श्रुति मधुरता उत्पन्न होती है। री, रे आदि सम्बोधनोकी आवृत्तिने तो भाषाका रूप और भी निखार दिया है | शब्दचित्र पाठकोके समक्ष एक साकार मूर्ति प्रस्तुत करते हैं। निम्न पद्यमें 'च' की आवृत्ति दर्शनीय है
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चितवत वदन अमल चन्द्रोपम तज चिन्ता चित होय अकामी । त्रिभुवनचंद पाप तप चन्दन, नमत चरन चन्द्रादिक नामी ॥ तिहुँ जग छई चन्द्रिका कीरति चिह्न चन्द्र चिंतत शिवगामी । चन्दौ चतुर-चकोर चन्द्रमा चन्द्रवरन चन्द्रप्रभ स्वामी ॥
शब्दसाधना और शब्द योजना भी जैन कवियोकी अनूठी हुई है । सहानुभूति, अनुराग, विराग, ईर्ष्या, घृणा आदि भावनाओको तीव्र या तीव्रतर बनानेमे शब्द चयन और शब्दयोजनाका महत्त्वपूर्ण स्थान है । प्रत्येक शब्दमे इस प्रकारकी लहरे विद्यमान हैं, जिनसे पाठकका हृदय स्पन्दित हुए बिना नहीं रह सकता । अतः पाठक देखेंगे कि कवि भगवतीदासने भाव और विषयके अनुकूल भापाके पर-परिवर्तनमें कितनी कुशलता प्रदर्शित की है
अचेतनकी देहरी, न कीजे यासों नेह री,
ये औगुनकी मेहरी मरम दुख भरी है ।'
ग्राहीके सनेहरी न आवै कर्म छेहरी,
सुपावे दुःख तेहरी जे याकी प्रीति करी है । अनादि लगी जेहरी जु देखत ही खेहरी,
तू यामें कहा लेहरी कुरोगनकी दरी है।
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कामगज केहरी, सुराग द्वेष केहरी,
तू यामें हग देहरी जो मिष्या मति दरी है ।
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हिन्दी - जैन साहित्यका शास्त्रीय पक्ष
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उपर्युक्त पद्यमे 'री' की आवृत्ति प्रवाहमे तीव्रता प्रदान कर रही है। मानवीय भूलोका परिणाम कवि अगुलि -निर्देश द्वारा बतला रहा है । लम्बी कविताओ में एकरसता दूर करनेके लिए छन्दपरिवर्तनके साथ पद या अक्षरावृत्ति भी की गयी है । लयमे परिवर्तन होते ही मानस के भावलोकमे सिहरन आ जाती है और अभिनव लहरियो द्वारा नवरूपका संचार होता है । भाव और छन्दोका परिवर्तन मणिकाचन सयोग उपस्थित कर रहा है । कवि दौलतरामने निम्न पद्यर्मे भाषाका रंगरूप कितना संवारा है । ग्रहशील्ता और प्रसाद गुण कूट कर भरे गये है । फालतू और भरतीके शब्द नहीं मिलेंगे, वाक्य भावानुकूल बडे और छोटे होते गये हैं ।
अव मन मेरा वे, सीख वचन सुन मेरा । भजि जिनवरपद वे, जो विनशै दुख तेरा ॥ विनशै दुख तेरा भवधन केरा, मनवचतन जिन चरन भनौ । पंचकरन व राख सुज्ञानी मिथ्यामतमग दौर तजो ॥ सिष्यामतमगपगि अनादितें तें चहुँगाति कीन्हा केरा । अवहूँ चेत अचेत होय मत, सीख वचन सुनि मेरा ॥ वाक्ययोजना और पदसघटनकी दृष्टिसे भी जैन हिन्दी साहित्य में भाषाका प्रयोग उत्तम हुआ है। 'आँख भर लाना', 'धुन लगना', 'चित्र बन जाना', 'दमपर आ बनना' 'पत्थरका पानी होना, झोंपरी जरन लागी, कुँआके खुदाये तव कौन काज सरि है", 'ढचर बैठना', 'ढेर हो जाना' तीन-तेरह आदि मुहावरोके प्रयोग द्वारा भाषाको शक्तिशाली बनाया गया है ।
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इस शताब्दी के कवियोकी भाषा विशुद्ध, सयत और परिमार्जित खड़ी बोली है। कवियोंने भाषाको प्रवाहपूर्ण, सरस, सरल, प्रसादगुणयुक्त, चुटीली और बोधगम्य बनानेकी पूरी चेष्टा की है। लाक्षणिकता और चित्रमयता भी आजकी भाषामे पायी जाती है।
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हिन्दी-जैन साहित्य-परिशीलन
छन्द-विधान मानवकी भावनाओ और अनुभूतियोंकी सनीव अभिव्यनना साहित्य है और ये भावनाएँ तथा अनुभूवियाँ कल्पना लोककी वस्तु नहीं है, किन्तु हमारे अन्तर्जगत्की प्रच्छन्न वस्तु हैं। साहित्यकार लय और छन्दके माध्यमसे अपनी अनुभूतियोकी अचल तन्मयतामे, एकात्म अनुभवकी भावनामें विभोर हो कलाको चिरन्तन प्राणतत्त्वका स्पर्श कराता है। अतएव छन्द कविके अन्तर्जगत्की वह अभिव्यक्ति है, जिसपर नियमका अंकुश नहीं रखा जा सकता, फिर भी भिन्न-भिन्न स्वाभाविक अभिव्यक्तियोंके लिए स्वरके आरोह और अवरोहकी परम आवश्यकता है। स्पन्दन, कम्पन और धमनियोमे रकोष्णका सचार लय और छन्दके द्वारा ही सम्भव है। गानके स्वर और लयको सुनकर अन्तरकी रागिनीका उद्रेक इतना अधिक हो जाता है, मावनाएँ इतनी सघन हो जाती है कि अगले पद या चरणको सुनने अथवा पढ़नेकी उत्कठा जागृत हुए बिना नही रह सकती। गूंजते स्वरकी पृष्ठभूमिपर नूतन मसण भावनाएँ अभिनव रमणीय विश्वका सुजन करने लगती हैं। अतः अत्मविभोर करने या होनेके लिए काव्यमे छन्द विधान किया गया है।
छन्द-विधान नाद-सौन्दर्यकी विशेषतापर अवलम्बित है । यह कोई बाहरी वस्तु नही, प्रत्युत जीवन तत्त्वोंकी सजीव अभिव्यञ्जनाके लिए भाषाका विधान है। यह विधान काव्यके लिए बन्धन कभी नहीं होता, अपितु लय-सौन्दर्यकी वृद्धि और पोषण करनेके निमित्त एक ऐसी आधारशिला है, जो नाद-सौन्दर्यको उच्च, नम्र, समतल, विस्तृत और सरस बनानेमे सक्षम है । साधारण वाक्यमें जो प्रवाह और अमता लक्षित नहीं होती, वह छन्द व्यवस्थासे पैदा कर ली जाती है। भापाका भव्य-प्रयोग छन्द-विधान कविताका प्राणापहारक नहीं अपितु धनुषपर चढी प्रत्यचाके तुल्य उसकी शक्तिका वर्धक है। जिस प्रकार नदीकी स्वाभाविक धाराको तीव्र और प्रवहमान बनानेके लिए पक्के पार्सेकी आवश्यकता होती है,
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छन्द-विधान
उसी प्रकार भावनाओ और अनुभूतियोंको प्रभावोत्पादक बनानेके लिए
छन्दोकी आवश्यकता है। सीधे-सादे गद्य के वाक्योमें जोश नहीं रहता और न प्रेषणीयतत्त्व ही आ पाता है, अतएव भाषाके लाक्षणिक प्रयोगके लिए लय और छन्दका उपयोग प्राचीन कालसे ही मनीषी करते आ रहे हैं। स्वर- माधुर्य और काव्य चमत्कार के लिए भी लयात्मक प्रवृत्तिका होना आवश्यक है । पदावलियोको भावुकतापूर्ण और स्मरणीय बनाने के लिए भी छन्दके साँचेमें भावनाओको ढालना ही पडता है ; अन्यथा प्रेषणीयतत्त्वका समावेश नही हो सकता । यो तो बिना छन्दके भी कविता की जा सकती है, पर वह निष्प्राण कविता होगी। उसमे जीवन या गति नहीं आ सकेगी । अतएव इच्छित स्वरसाधनके लिए छन्द आज भी आवश्यक विधान है । यह स्वाभाविक लयके स्वरैक्य और समरूपताकी रक्षा के लिए अनिवार्य सा है । भापाकी स्वाभाविक लय- प्रवहणता के लिए छन्दका बन्धन भी अकृत्रिम और अनिवार्य सा है । चुश्त भावनाओकी अभिव्यञ्जनाके लिए यह विधान उतना ही आवश्यक है, जितना शरीरक स्वरयन्त्रको शक्तिशाली बनानेके लिए उच्चारणोपयोगी अिवयवका सगक्त रहना ।
जैन कवियोंने अपने काव्यमें वार्णिक और मात्रिक दोनों ही प्रकारके छन्दोंका प्रयोग किया है । वार्णिक छन्दमे वणाँके लघु-गुरुके अनुसार क्रम और सख्या आदिसे अन्ततक समरूपमे रहती है और मात्रिक छन्दमे मात्राओकी सख्या, यति नियमके साथ निश्चित रहती है, अक्षरोकी न्यूनाघिकताका खयाल नहीं किया जाता है ।
जैन काम्योमे दोहा, चौपाई, छप्पय, कवित्त, सवैया इक्तीसा, सवैया तेईसा, अडिल्ल, सोरठा, पत्ता, कुसुमलता, व्योमावती, घनाक्षरी, पद्धरी, तोमर, कुडलिया, वसन्ततिलका आदि सभी छन्दोका प्रयोग किया है । दूहा, दोहा, छप्पय, कवित्त, सवैये और घनाक्षरी जैनकवियोंके विशेप छन्द रहे है | अपभ्रश कालसे लेकर १९ वी सतीके अन्ततक जैनकवियोने
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हिन्दी-जैन-साहित्य-परिशीलन
छप्पय, कवित्त और सवैयोका बड़ी ही बारीकीसे प्रयोग किया है। एक सच्चे कलाकारके समान मीनाकारी और पच्चीकारी जैनकवि करते रहे है। अपभ्रंश कविताओंमे दोहाके सैकड़ों भेद-प्रभेदकर नवीन प्रयोग किये गये हैं। सन्तयुगमे लावनी और पद भी विपुल परिमाणमे लिखे गये हैं। इन सभी पदोंमे संगीतका प्रभाव इतनी प्रचुर मात्रामे विद्यमान है, जिससे आध्यात्मिक रस बरसता है। मधुर रस काव्यमे सुन्दर ध्वनि योजनासे ही निप्पन्न होता है। कोमलपदरचनाने नादविशेपका सन्निवेश करके आनन्दको और भी आहादमय बनानेका प्रयास किया है।
संस्कृत छन्द वसन्ततिलका, मालिनी, भुजगप्रयात, शार्दूलविक्रीडित और मंदाक्रान्ताका प्रयोग भी जैनकवियोंने कान्यके भावोको बॉधनेके लिए ही नहीं किया, किन्तु राग और तालपर कोमलकान्तपदावलियोंको बैठ कर अमृतकी वर्षा करनेके लिए किया है। अतएव यहाँ एकाध संगीतका लययुक्त उदाहरण प्रस्तुत किया जाता है
भुजंगप्रयात तुमी कल्पनातीत कल्यानकारी। कलंकापहारी भवांभोधितारी । रमाकंत अरहंत हंता भवारी । कृतांतांतकारी महा ब्रह्मचारी ॥ नमो कर्मभेत्ता समस्तार्थ वेत्ता । नमो तत्त्वनेता चिदानन्दधारी। प्रपये शरण्यं विभो लोक धन्यं । प्रभो विघ्ननिम्नाय संसारतारी ॥
-वृन्दावन विलास पृ० ६८ शार्दूलविक्रीडितको गारवा राग और अपा तालम, भुजगप्रयातको विलावल राग और दादरा तालमे एवं वसन्ततिलकाको भैरव राग और झुमरा तालमे कवि मनरगलालने गाया है। मनरगका चोवीसी पूजापाठ संगीतकी दृष्टिसे अद्भुत है। इसमें प्रायः सभी प्रमुख संस्कृतके छन्दोंका प्रयोग कविने बड़ी निपुणतासे किया है। वार्णिकवृत्तोंको श्रुतिमधुर बनानेका कविने पूरा प्रयास किया है। न, म, त, र, ल और व वणांकी
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छन्दःविधान
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आधुचि द्वारा अनेक छन्दोंमें अपूर्व मिठास विद्यमान है । कर्णकटु, कर्कश और अर्थहीन शब्दोका प्रयोग बिल्कुल नहीं किया है । छन्दोंकी ल्य और वालका पूरा ध्यान रखा है।
पुरातन छन्दोंके अतिरिक्त जैनकवियोने कतिपय नवीन छन्दोका भी उपयोग किया है, वाला छन्दकै अनेक भेद-प्रमेदोका प्रयोग जैनकवियों के काव्योंमे विद्यमान है। कवि भूधरदासने अपने पार्श्वपुराणमें चार चरणवाले इस छन्दमें पहला, दूसरा और तीसरा चरण इन्द्रवज्राका और चौथा चरण उपेन्द्रवज्राका रखा है। पद्यमे माधुर्य लानेके लिए प्रत्येक चरणके मध्य भागमें हल्का-सा विराम रखा है, जिससे स्वराघात होनेके कारण मधुरिमा द्विगुणित हो गयी है।
मात्राछन्दकी उद्भावना तो बिल्कुल नवीन है। कवि भूधरदासने बताया है कि इसके प्रथम और तृतीय चरणमें ग्यारह-ग्यारह मात्राएँ, अन्तमें लघु और लघुका पूर्ववर्ती अर्थात् उपान्त्य वर्ण गुरु होता है । दूसरे और चौथे चरणमे बाहर-बाहर मात्राएँ और अन्तके दो वर्ण गुरु होते हैं । इस छन्दके अनेक भेद-प्रभेदोंका प्रयोग भी कविने सुन्दर रूपमे किया है । यद्यपि यह मात्रिक छन्द है,पर माधुर्यके लिए इसमे हस्वघाँका प्रयोग ही अच्छा माना जाता है। ___ कवि बनारसीदासने अपने नाटक समयसारमें सवैया छन्दकै विभिन्न भेद-प्रभेदोका प्रयोग किया है । यति और गणके नियमोंने छन्दोमे लयकी तरंगोंका तारतम्य रखा है। लम्बे पद या चरण नही रखे हैं, जिससे श्वास क्रियाकी सुगमतामें किसी प्रकारकी रुकावट हो और पदका क्रम अनायास ही भग हो जाय । यहाँ एक-दो उदाहरण कलाकारको सूक्ष्म कारीगरीको प्रदर्शित करनेके लिए दिये जाते है | पाठक देखेंगे कि वनिविश्लेषणके नियमानुसार लय-तरंगका समावेश कितने अद्भुत ढंगसे किया है । गुरु-लघुके तारतम्यने राग और तालको अद्भुत संतुल्न प्रदान कर रस वर्षा करनेमे कुछ उठा नही रखा है।
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१५८ . हिन्दी-जैन-साहित्य-परिशीलन सवैया तेईसा
या घटमें अमरूप अनादि, विलास महा अविवेक अखारो। तामहि और सरूप न दीसत, पबल नृत्य कर अतिभारो॥ फेरत भेप दिखापत कौतुक, सो जलिये वरनादि पसारो। मोहसु मिन्न जुदो जड सों, चिनमृति नाटक देखन हारो॥
-नाटक समयसार रा९: मैवया इकतीसा
जैसे गजराज नाज धासके गरास करि, भक्षत सुभाय नहि मिन रस लिया है। जैसे मतवारो नहि जाने सिखरनि स्वाद, जुंगमें मगन कहै गऊ दूध पियो हैं। तैसे मिथ्यामति नीव ज्ञानरूपी है सदीव, पग्यो पाप पुन्यसा सहन सुन्न हिओ है। चेतन अचेतन दुहको मिश्र पिण्ड लखि,
एकमेक मानै न विवेक ऋतु किया है। पद्मावती छन्दका प्रयोग कवि बनारसीदासने हत्तरगोंको किस प्रकार आलोकित करनेके लिए किया है, यह निम्न उदाहरणसे स्पष्ट है। जिस प्रकार वाथुके झोंकेसे नदीम कभी हल्की तरंग और कभी उत्ताल तरंग तरगित होती है, उसी प्रकार कविने बल्पघात द्वारा ल्यात्मक पदाविधानको प्रदर्शित किया है
ताकी रति कीरति दासी सम, सहसा रानरिदि घर आये। सुमति सुता उपनै ताके घट, सो सुरलोक सम्पदा पावै ॥ ताकी दृष्टि लखै शिवमारग, सो निरवन्ध भावना भावे । जो नर त्याग कपट कुंवरा कह, विधिसों ससखेत धन बावै ॥
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-बनारसी विलास पृ०५७
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छन्द-विधान
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घनाक्षरी छन्दका प्रयोग भी कवि वनारसीदासने लयविधानके नियमोका प्रदर्शन करनेके लिए किया है। लयात्मक तरगे इस कठोर छन्दमें भी किस प्रकार स्वरकी मव्यरेखाकै अपर-नीचे जाकर लचक उत्पन्न करती है, यह दर्शनीय है।
घनाक्षरी ताही को सुबुद्धि बरै रमा ताकी चाह करे, चन्दन सरूप हो सुयश ताहि घरचै । सहन सुहाग पावै, सुरग समीप भावे, बार वार मुकति रमनि ताहि भरचै । ताहिके शरीर को मलिंगन अरोगताई, मंगल करै .मिवाई प्रीत करै परचै । जोई नर हो सुचेत चित्त समता समेत, धरम के हेतको सुखेत धन खरचै ॥
-बनारसी विलास पृ० ५६ कवि वनारसीदासने वस्तुछन्द नामके एक नये छन्दका भी प्रयोग किया है। यद्यपि इस छन्दमें कोई विशेष लोच-लचक नहीं है, तो भी संगीतात्मकता अवश्य है। ___ कवित्त छन्दमे लय और तालका सुन्दर समावेश भैया भगवतीदासने किया है। मात्रामओ और वर्गों की संख्याकी गणनाके सिवा विराम और गति विधिपर भी ध्यान रखा है, जिससे पढते ही पाठककी हृदय-बीनके तार झनझना उठते है । ध्वनि और अर्थमें साम्यका विधान भी इस छन्द द्वारा प्रस्तुत किया गया है । मधुर ध्वनियोकी योजना भी प्रायः कवित्तोमे की गयी है।
कवित्त कोउ तो करै किलोल भामिनीसों रीझि-रीझि,
पाहीसों सनेह करै काम राग भर में।
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१६० हिन्दी-जैन-साहित्य-परिशीलन कोउ तो लहै आनन्द लक्ष कोटि जोरि-जोरि
लक्ष लक्ष मान करै लच्छि की तरङ्ग में ॥ कोट महाशूरवीर कोटिक गुमान करे,
मो समान दूसरो न देखो कोऊ नत में। कहैं कहा 'भया' कछु कहिवे की बात नाहि, सब जग देखियतु राग रस रन में॥
-ब्रह्मविलास पृ०१७
मात्रिक कवित्त । चेतन नींद वही तुम लीनी, ऐसी नींद लेय नहिं कोय । काल अनादि भये तोहि सोवत,विन जागेसमकित क्यों होय ॥ निहचै शुद्ध जयो अपनो गुण, परके भाव मिन्न करि खोय। हंस अंश उज्वल है जवही, तवही जीव सिद्धसम होय ॥
-ब्रह्मविलास पृ. २६-२७ छप्पय छन्दमें इसी कविने अनुभूति, कल्पना और बुद्धि इन तत्त्वाका अच्छा समन्वय किया है। रूप सौन्दर्यके साथ मावसौन्दर्य भी अभिव्यक्त हुआ है। अपने अन्तस्तलके ज्वारको मानवके मगलके लिए बड़े ही मुन्दर ढगसे कविने अभिव्यजित किया है। कविकी कविताविलासकं खारे समुद्रको अपेय समझकर विपथगाके मधुर तीरको प्राप्त करनेके लिए साधन प्रस्तुत करते हैं। कई छप्पयम वो कविने उल्लास और आहादकी मादकताका अच्छा विश्लेपण किया है। जैन तीर्थंकरोंकी लुतियोंके सिवा अन्य रोंकी व्यंजनामें भी छप्पयका प्रयोग किया गया है। द्वित्व वोंने संगीतात्मकताको और बढ़ा दिया है
जो अरहंत सुनीव, जीव सब सिद्ध मणिजे । आचारज पुन जीव, नीव उपझान गणिजे ॥ साधु पुरुप सब नीव, जीव चेतन पर राजै । सो तेरे घट निकट, देख निज शुद्धि विराने ॥
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छन्द-विधान
सब जीव द्रव्यनय एकसे, केवलज्ञान स्वरूपमय । तस ध्यान करहु हो भव्यजन, जो पावहु पदधी अखय ॥
कवि भूधरदासके काव्य ग्रन्थोमे छन्दवैचित्र्यका उपयोग सर्वत्र मिलेगा। इन्होने सभी सुन्दर छन्दोंका प्रयोग रसानुकूल किया है। वैराग्यका निरूपण करनेके लिए नरेन्द्र छन्दको चुना है, इसमे अन्तके गुरुवर्णपर जोर देनेसे सारी पक्ति तरगित हो जाती है। संसारके कुत्सित और घृणित स्वार्थ सामने नग्न नृत्य करते हुए उपस्थित हो जाते हैं।
इहि विधि रान रै नरनायक, भोगै पुन विशाला। सुखसागर में रमन निरंतर, जात न जानै काला । एक दिना शुभकर्म संजोगे, क्षेमकर मुनि बन्दे । देखि श्रीगुरु के पद पंकन, लोचन अलि आनन्दे ।।
किसही घर कलहारी नारी, के बैरी सम भाई।
किसही के दुख बाहर दीखे, किसही उर दुचिताई ॥ व्योमवती छन्दका प्रयोग तो कवि भूधरदासने बहुत ही उत्तम ढगसे किया है। अमूर्त भावनाएँ मूर्तिमान होकर सामने प्रस्तुत हो जाती हैं। संगीतकी ल्यने रस वर्षा करनेमें और भी अधिक सहायता की है
भूखप्यास पोरै र अंतर, प्रजलै आंत देह सब दागे। अग्निसरूप धूप ग्रीषम की, ताती बाल झालसी लागे । तपै पहार ताप तन उपजै, कोपै पित दाह ज्वर जागै। इत्यादिक ग्रीपमकी बाधा, सहत्त साधु धीरज नहीं त्यागै॥
x जे प्रधान केहरि को पकरें, पनग पकर पावसों पापै । जिनकी जनक देख भौं बाँकी, कोटक सूरदीनवा नापै ॥
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१६२ हिन्दी-जैन-साहित्य-परिशीलन
ऐसे पुरुप पहार उड़ावन, प्रलय पचन तिय वेद पयापै। धन्य धन्य ते साधु साहसी, मन सुमेह जिनको नहिं कॉप।
चौदह मात्राके चाल छन्दम कविने भावनाओं के मारोह-अवरोहका कितना सजीव और हृदय-प्राह्य निरूपण किया है, यह निम्न पदम दर्शनीय है।
यो भोग विपै अति भारी, तपत न कभी तनधारी ।
जो अधिक उदै यह आवै, तो अधिकी चाह बढावै ॥ ल्यात्मक छन्दोमे हरिगीतिका छन्दका स्थान प्रमुख है । इसमे सोलह और बारह मात्राओंके विरामसे अछाईस मात्राएँ होती है । प्रत्येक चरणम लयके सचरणके लिए ५ वी, १२ वी, १९ वीं और २६ वी मात्राएँ लघु होती है । अन्तिम दो मात्राओमे उपान्त्य लघु और अन्त्य दीर्घ होती है। ल्य-विधानके लिए आवश्यक नियमोका पालन करना भी छन्द-माधुर्यके लिए उपयोगी होता है। कवि दौलतरामने अपनी छहढाला मे हरिगीतिका छन्दोका सुन्दर प्रयोग किया है। निम्न पद्यका शुति-माधुर्य काव्यको कितना चमत्कृत कर रहा है, यह स्वयमेव स्पष्ट है
अन्तर चतुर्दश भेद वाहिर संग दशधाते टलें। परमाद तजि चउकर मही लखि समिति इति चलें। जग सुहितकर सबमहितहर श्रुतिसुखद सवसंशय हरै। भ्रमरोग-हर जिनके वचन मुखचन्द्रत अमृत झरे ।
-छहढाला, छठी दाल जैन साहित्यम सस्कृत छन्द और पुरातन हिन्दी छन्दोके साथ आधुनिक नवीन छन्दोंका प्रयोग भी पाया जाता है। मुक्तकछन्द और गीतोंका प्रयोग आज अनेक जैन कवि कर रहे हैं।
मुक्तकछन्द लिखनेवाले श्री.कवि चैनसुखदास न्यायतीर्थ, श्री पं० दरवारीलाल सत्यमक्त, कवि खूबचन्द पुष्कल, कवि वीरेन्द्रकुमार, कवि
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हिन्दी - जैन-साहित्यमे अलंकार-योजना
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ईश्वरचन्द्र प्रभृति हैं । भावनाओकी समुचित अभिव्यंजना के लिए अनेक नवीन छन्दोंका प्रयोग किया है। आज जैन प्रवन्धकाव्योमे सभी प्रचलित छन्दोका व्यवहार किया जा रहा है । गीतोमें भावनाकी तरह छन्द भी अत्याधुनिक प्रयुक्त हो रहे हैं।
हिन्दी - जैन साहित्य में अलंकार - योजना
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काव्यके दो पक्ष है— कलापक्ष और भावपक्ष | जैसे मानव-शरीर और प्राणोवा, समवाय है, उसी प्रकार कलापक्ष काव्यका शरीर और भावपक्ष प्राण है । दोनो आपस मे सम्बद्ध हैं । एकके अभावमे दूसरेकी ' सुस्थिति सम्भव नहीं । भाषा अलकार, प्रतीक योजना प्रभृति कलापक्षके अन्तर्गत हैं और अनुभूति भावपक्षके । कोई भी कवि भावको तीव्र करने, व्यञ्जित करने तथा उनमे चमत्कार लानेके लिए अलकारोका प्रयोग करता है । जिस प्रकार काव्यको चिरन्तन बनानेके लिए अनुभूतिकी गहराई और सुक्ष्मता अपेक्षित है उसी प्रकार उस अनुभूतिको अभिव्यक्त करनेके लिए, चमत्कारपूर्ण अलकृत शैली की भी आवश्यकता है ।
हिन्दी - जैन कवियोकी कविता- कामिनी अनाड़ी राजकुलाङ्गनाके समान न तो अधिक अलकारोंके बोझसे दबी है और न ग्राम्यबालाके समान निराभरणा ही है । इसमे नागरिक रमणियोके समान सुन्दर और उपयुक्त अलकारोंका समावेश किया गया है । कवि बनारसीदास, भैया1 भगवतीदास और भूघरदास जैसे रससिद्ध कवियोंने अभिव्यजनाकी चमत्कारपूर्ण शैलीमे बड़ी चतुराईसे अलकार योजना की है। वास्तविकता यह है कि प्रस्तुत वस्तुका वर्णन दो तरहसे किया जाता है -- एकमे वस्तुका यथातथ्य वर्णन - अपनी ओरसे नमक मिर्च मिलाये बिना और दूसरीमें कल्पनाके प्रयोग द्वारा उपमा, उत्प्रेक्षा, रूपक आदिसे अलंकृत करके अंग-प्रत्यगके सौन्दर्यका निरूपण किया जाता है । कविक्री प्रतिभा प्रस्तुत
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१६४ हिन्दी-जैन-साहित्य परिशीलन की अभिव्यंजनापर निर्भर है। अलंकार इस दिशामे परम-सहायक होते हैं। मनोभावोंको हृदय-स्पी बनानेके लिए अलकारोंकी योजना करना प्रत्येक कविके लिए आवश्यक है।
जैन-कवियों ने प्रस्तुतके प्रति अनुभूति उत्पन्न करानेके लिए जिस अप्रस्तुत की योजनाकी है, वह स्वाभाविक एव मर्मस्पर्शी है, साथ ही प्रस्तुतकी भॉति मावोद्रेक करनेमें सक्षम भी । कवि अपनी कल्पनाके वलमे प्रस्तुत प्रसंगके मेलमे अनुरंजक अप्रस्तुतकी योजना कर आत्माभिव्यंजनमें सफल हुए है । वस्तुतः जैन कवियोंने चर्म-चक्षुओंसे देखे गये पदार्थों का अनुभव कर कल्पना द्वारा एक ऐसा नया रूप दिया है, जिससे बाह्य-जगत् और अन्तर्जगत्का सुन्दर समन्वय हुआ है। इन्होंने बाह्य जगत्के पदार्थीको अपने अन्त:करणमें ले जाकर उन्हें अपने मात्रोंसे अनुरंजित किया है और विधायक कल्पना-द्वारा प्रतिपाद्य विषयकी सुन्दर अभिव्यंजना की है। आत्माभिव्यंजनमे नो कवि जितना सफल होता है, वह उतना ही उत्कृष्ट माना जाता है और यह आत्माभिव्यंजन तबतक सम्भव नहीं जबतक प्रस्तुत वस्तुके लिए उसीके मेलकी दूसरी अप्रस्तुत वस्तु की योजना न की नाय । मनीपियोंने इस योजनाको ही अलंकार कहा है । काव्यानन्दका उपभोग तभी सम्भव है, जब काव्यका कलेवर क्लामय होनेके साथ अनुभूतिकी विभूतिसे सम्पन्न हो । जो कवि अनुभूतिको जितना ही सुन्दर बनानेका प्रयास करता है उसकी कविता उतनी ही निखरती जाती है । यह तभी सम्भव है जब उपमान सुन्दर हो । अतएव अलकार अनुभूतिको सरस और सुन्दर बनाते हैं । कविताम भाव-प्रवणता तभी आ सकती है, जब रूप-योजनाके लिए अलंकृत और सँवारे हुए पदोका प्रयोग किया जाय । दूसरे शब्दोंमे इसीको अलकार कहते हैं।
शब्दालंकारोंमें शब्दोंको चमत्कृत करनेके साथ मावोंको तीव्रताप्रदान करनेके लिए अनुप्रास, यमक, वक्रोक्ति आदिका प्रयोग सभी जैन काव्योंमें मिलता है। "सकल करम खल दुलन, कमठ सठ पवन
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हिन्दी - जैन- साहित्य में अलंकार-योजना
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कनक नग । धवल परम पद-रमन जगत-जन अमल कमल खग", . मे अनुप्रासकी सुन्दर छटा है। भैया भगवतीढासके निम्न पद्यमे कितना सुन्दर अनुप्रास है । इसने अनुभूतिको तीव्रता प्रदान की है। यह देखते ही बनता है ।
कटाक कर्म तोरिके छटॉक गाँठ छोरके,
पटाक पाप मोरके तटाक है मृपा गई । aare चिन्ह जानिके, भटाक होय आनके,
नटाकि नृत्य मानके खटाकि वै खरी ठई ॥ arके घोर फारिके तटाक बन्ध टारके,
अट. के रामधारके राक रामकी जई । गटाक शुद्ध पानके हटाकि अच आनको,
घटाकि आप दानको सटाक ज्यो बधू लई ॥ कवि-बनारसीदासने यमकालंकार की — "केवल पद महिमा कहो, कहो सिद्ध गुणगान" मे कितनी सुष्ठु योजना की है। भैया भगवतीदासकी कवितामे तो यमकालंकारकी भरमार है । निम्न पद्यमें यमककी कितनी सुन्दर योजना की गई है।
एक मतवाले कहें अन्य मतवारे सव,
एक मतवारे पर वारे मत सारे हैं। एक पंच तत्व वारे एक-एक तत्व वारे,
एक भ्रम मतबारे एक एक न्यारे हैं । जैसे मतवारे व तैसे मतवारे बकै,
तासों मतवारे तर्के बिना मतवारे हैं । शान्तिरस बारे को मतको निवारे रहें,
तेई प्रान प्यारे रहें और सब वारे हैं ॥ इस पद्यमें प्रथम मतबारेका अर्थ मतवाले और द्वितीय मतवारेका
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१६६ हिन्दी-जैन साहित्य-परिशीलन अर्थ मदोन्मत्त है, दूसरी पंक्तिमे प्रथम मतवारेका अर्थ मतवाले और द्वितीय मतवारका अर्थ मतन्योछावर है।
मैया भगवतीदासने 'परमात्म शतक में आत्माको सम्बोधित करते हुए परमात्माका स्प यमकालकारमं बहुत ही सुन्दर दिखलाया है। .
पीरे होहु सुजान, पीरे कारे है रहे।
परेि तुम विन ज्ञान, पीरे सुधा सुबुद्धि कह॥ इस पद्यमे प्रथम पीरेका अर्थ पिपरे अर्थात् हे प्रिय है और द्वितीय पीरेका अर्थ पीले है । द्वितीय पत्तिम प्रथम पीरेका अर्थ पीड़े और द्वितीय पारेका अर्थ पी-३ अर्थात पियो है। इसी प्रकार निम्न पद्यमें भी यमकालकार भावाकी उत्कर्ष व्यजनामें कितना सहायक है। साधक संसारके विषयोसे ग्लानि प्राप्त करनेके अनन्तर कहता है कि मैं बलवान कामको न जीत सका, व्यर्थ ही विषयासक्त रहा। आत्म-साधना न कर मैं कामदेवके आधीन बना रहा अतः मुझसे मुख और कौन होगा। सब विपयोंसे पूर्ण विरक्ति हो जाती है, उस समय इस प्रकारके भाव या विचारोका उत्पन्न होना स्वाभाविक है। यह सत्य है कि आत्मभर्त्सना या आत्मालोचनाकी अग्निके विना विकार भस्म नहीं हो सकते है ।
मैं न काम जील्यो बली, मैं न काम रसलीन । मैं न काम अपनी किया, मैं न काम आधीन । इस पद्यमें प्रथम पंक्तिमे प्रथम न कामका अर्थ है कामदेवको नहीं और दूसरे न कामका अर्थ है व्यर्थ ही, दूसरी तिमे न कामका अर्थ है कार्य नहीं किया और दूसरे नकामका में न काम, इस प्रकारका परिच्छेदका अर्थ करनेपर कामदेवके आधीन अर्थ निकलता है। इसी प्रकार निम्न पद्यमें "तारी" शब्दके विभिन्न अर्थ कर पदावृत्ति की गई है।
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हिन्दी - जैन-साहित्य में अलंकार-योजना
तारी पी तुम भूलकर, तारी तन रस लीन । तारी खोजहु ज्ञान की, तारी पति घर लीन ॥ कवि वृन्दावनदासने भी गुरुकी स्तुतिमे शब्दालकारोंकी सुन्दर योजना की है । "जिन नामके परभावसी, परभावकों दहो" में प्रथम परभावका अर्थ प्रभाव है और द्वितीय परभावका अर्थ परभाव-भेद बुद्धि या अन्य पदार्थ विषयक बुद्धि है ।
कवि बनारसीदासने आत्मानुभूतिकी व्यजना वक्रोक्ति अलंकारमे भी की है। इस नामरूपात्मक जगत्के बीच परमार्थतत्त्वका शुद्ध स्वरूप भेदबुद्धि द्वारा ही प्राप्त किया जा सकता है । स्वात्मानुभव ही शुद्ध स्वरूपको प्राप्त करनेमें सहायक होता है।
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अर्थालकारो में उपमा, उत्प्रेक्षा, उदाहरण, असम, दृष्टान्त, रूपक, विनोक्ति, विचित्र, उल्लेख, सहोक्ति, समासोक्ति, काव्यलिङ्ग, श्लेष, विरोधाभास एवं व्याजस्तुति आदिका प्रयोग जैन काव्योमे पाया जाता है।
जैन कवियोंने सादृश्यमूलक अत्रकारोकी योजना स्वरूपमात्रका बोध करानेके लिए नहीं की है, किन्तु उपमेयके भावको उदयुद्ध करनेके लिए, की है । स्वरूपमात्र सादृश्यमें उपमान द्वारा केवल उपमेयकी आकृति या रंगका बोध हो सकता है किन्तु प्रस्तुतके समान ही आकृतिवाले अप्रस्तुतकी योजना कर देने मात्र से तब्बन्य भावका उदय नहीं हो सकता है । अतएव "गो सहशो गवयः" के समान साहस्यवोधक वाक्योमे अलंकार नही हो सकता । जवतक अप्रस्तुतके द्वारा प्रस्तुतके रूप या गुणमे सौन्दर्य या उत्कर्ष नही पहुँचता है तबतक अर्थालंकार नहीं माना जा सकता । अर्थालंकार के लिए "सादृश्यं सुन्दरं वाक्याथोपकारम्” अर्थात् साहृदयमं 'चमत्कृत्याधायकत्वका रहना आवश्यक है । तात्पर्य यह है कि जिस अप्रस्तुतकी योजना से भावानुभूतिमे वृद्धि हो वही वास्तवमं आलंकारिक रमणीयता है । कवि बनारसीदासने निम्न पद्यमें उपमालंकारकी कितनी सुन्दर योजना की है।
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પંઢ
हिन्दी - जैन- साहित्य- परिशीलन
आतमको अहित अध्यातम रहित रसो, आसव महातम अखण्ड अण्डवत है। ताको विसतार गिलिवेको परगट भयो, arish विकासी ब्रह्म मंडवत है ॥ जामै सब रूप जो सबमें सब रूप सोयें, सवनिसों अलिप्त अकाश खंडवत है । सोहे ज्ञानभानु शुद्ध संवरको भेप घरे, arat रुचिरेखक हमारे दण्डवत है ॥
समदृष्टिकी प्रशसा करते हुए कवि बनारसीदासने उपमालकारकी अद्भुत छटा दिखलायी है । कवि कहता है
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भेद विज्ञान जग्यो जिनके घट शीतल चित्र भयो जिमि चन्दन | केलि करें शिव मारगमें जगमाँहि जिनेश्वर के लघुनन्दन ॥
इस पद्यमें कविने चित्तकी उपमा चन्दनसे दी है । जिस प्रकार चन्दन शीतल होता है, आतापको दूर करता है, उसी प्रकार भेदविज्ञानी हृदय भी । अतएव यहाँ चाँदनी उपमान और हृदय उपमेय है । समान धर्म शीतलता है तथा उपमानवाची शब्द जिमि है । कवि कहता है कि जिनके मनमन्दिर में आत्मविज्ञानका प्रकाश उत्पन्न हो गया, उनका हृदय चन्दन के समान शीतल हो जाता है ।
कवि मनरंगलालने निम्न पद्योमे उपमालंकारकी रसोत्कर्ष करनेमें कितनी विलक्षणता प्रदर्शित की है। चिन्तनमें कितना सतुलन है, यह उदाहरणोंसे स्पष्ट है ।
योजना- द्वारा भावना और
गिरिसम बेंच गयन्द सुमनको खरपर चित्त चलावे । पाय धरम लब्धि त्यागि शट विषय-भोगको ध्यावे ॥ मुसिक्याय कही अब जावो । जन्मान्तर लौ अव खावो ॥ ले हार भने मुसिक्याना । जिमि पावत भूखो दाना ॥
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हिन्दी - जैन-साहित्य में अलंकार- योजना
कवि वृन्दावनदासने भगवद्भक्तिकी विशेषता बतलाते हुए उपमालकारकी कितनी सुन्दर योजना की है । यद्यपि यह पूर्णोपमा है, पर इसमें आत्म-भावनाको अभिव्यक्त करने के लिए कविने "सुन्दर नारी की नाक कटी है” को उपमान बनाकर "जिनचन्द पदाम्बुन प्रीति विना" जीवनको उपमेय मानकर भावोको मूर्तिक रूप प्रदान करनेवा आयास किया है । सव ही विधिसो गुणवान वडे, वलबुद्धि विभा नही टेक हटी है । जिमचन्द पदाम्बुज प्रीति विना, जिमि सुन्दर नारीकी नाक कटी है ॥
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जैन कवियोने अप्रस्तुत - द्वारा प्रस्तुतके भावकी सुन्दर अभिव्यजना करनेका पूरा यत्न किया है। प्रतीको द्वारा, साम्य रूपमे, मूर्त्तके लिए अमूर्त रूपमें आधार के लिए आधेय रूपमे और मानवीकरण के रूप मे उपमाकारकी योजना की गई है। कई कवियोने निर्जीव वस्तुओं के वर्णनमें या सूक्ष्म भावोकी गम्भीर अभिव्यजना मे ऐसे उपमानोंका भी प्रयोग किया है, जिनसे मानव के सम्बन्धमें अभिव्यक्ति की गई है । साहित्यिक दृष्टिसे ये पद्य और भी महत्त्व रखते है ।
सौन्दर्य और चित्रण के लिए भी जैन काव्योमे उपमा और उत्प्रेक्षाका अधिक व्यवहार किया है । इन अलंकारोके सहारे इन्होंने अपनी कल्पनाका विस्तार बहुत दूरतक वढाया है । कवि -समय-सिद्ध उपमानोंके अलावा नूतन उपमानोका भी प्रयोग किया गया है। प्रसिद्ध उपमानोंके व्यवहारमें भी अपनी कलाका पूरा परिचय ये कवि दे सके है । चन्द्रप्रभ पुराणमे नेत्रोकी उपमा कमलसे दी गयी है । कमलके तीन वर्ण प्रसिद्ध हैं - लाल, नीला, और श्वेत । बचपन मे नेत्र नीले वर्णके होते है अतएव उस समयके नेत्रोंकी उपमा नील कमलसे तथा युवावस्था में नेत्र अरुण वर्ण होनेसे "कजारुण लोचन" कहकर वर्णन किया गया है । वृद्धावस्थामे नेत्रका रंग कुछ श्वेत हो जाता है अतः "कंजश्वेत इब राजत" कहकर निरूपण किया है।
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हिन्दी-जैन साहित्य-परिशीलन कविकी पहुँच कितनी दूरतक है यह उपर्युक्त उपमानोकी योजनासे
कजलयुक्त वालकोंकी बड़ी-बड़ी ऑखे चित्तको हठात् अपनी ओर आकृष्ट कर लेती हैं। श्यामरंग भी चित्ताकर्षक और हृदयको शीतल करनेवाला होता है । अतएव केवल कमलकी उपमा यहाँ उपयुक्त नही हो सकती थी। इसी प्रकार युवावस्थामें अरुण नेत्र रहनेसे लाल कमलकी उपमा सौन्दर्यका पूरा चित्र सामने प्रस्तुत करने में सक्षम है | अरुणनेत्र प्रलाप, शूरता और दुस्साहमके सूचक हैं। वीर बेषके वर्णनमे अरुण कमलवत् नेत्रोंको कहना अधिक सौन्दर्य द्योतक है।
वृद्धावस्थामें शारीरिक शक्ति क्षीण हो जाती है। तथा रक्तकी कमी होनेसे नेत्र भी स्वभावतः कुछ श्वेत हो जाते हैं। कविने वृद्धावस्थाका पूरा चित्र सामने लानेके लिए ध्वेत कमलके समान नेत्रोको बतलाया है। कवि वृन्दावनने जिनेन्द्रके नेत्रोंकी निम्न छप्पयके प्रथम चरणमे छह उपमाएं दी है। और शेप पाँच चरणोंमे प्रत्येक उपमाके छ: छः विशेषण दिये है । नेत्रोकी दूसरी उपमा भी कमलसे ही है, पर यह उपमा साधारण नहीं है छः विशेषण युक्त है, अर्थात् सदल-पत्र सहित, विकसित, दिवसका, सजल-सरोवरका और मलयदेशका है । तात्पर्य यह है कि भगवान्के नेत्र मल्यदेशमे विकसित देवसिक सदल अरुण कमलके तुल्य है । साधारण कमलकी उपमा देनेसे यह अभिव्यजना कभी नहीं हो सकती थी। कोमलता, दयालुना, सर्वज्ञता, हितोपदेशिता और वीतरागताकी भावनाएँ उक्त उपमानोंसे ही यथार्थमें अभिन्यजित हो सकी है।
मीन कमल मद धनद अमिय अंतकु छवि इन्ज । बुगल सदल अति अरुन, सधन उजव मय सज्जै ॥ हुलसित विकसित समद, दानि नाकी अति करे। केलि दिवस शुचि अति उदार, पोपक भरि चूरे ॥
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हिन्दी - जैन-साहित्य में भलंकार-योजना
सम सरज नीत चित चिन्त ढे, वृन्द मिष्ट अनशस्त्रधर । जल मलय महत अकहत अकृत, देवदृष्टि दुःखदृष्टि हर ॥
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उपर्युक्त पद्यसे स्पष्ट है कि कविका हृदय उपमानोका अक्षय भण्डार है। ये उपमान प्रकृतिसे तो लिये ही गये हैं, पर कुछ परम्परा भुक्त भी हैं। ज्योही कवि सौन्दर्यकी अभिव्यजना करनेकी इच्छा करता है, त्योंही उपमान उसकी कल्पनाकी पिटारीसे निकलने लगते है । कवि दौलतराम ने भी उपमानोकी झड़ी लगा दी है। एक ही उपमेयचा सर्वांगीण चित्रण करने के लिए अनेकानेक उपमानोका एक ही साथ व्यवहार किया है ।
पद्मासन पद्मपद पद्मा–मुक्त स दरशावल है । कलिमय-गंजन मन अलि रंजन सुनिजन सरन सुपावन है ।
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X
X
मतंग - नशाचन है ।
जाको शासन पंचानन सो, कुमति जैन कवियोकी एक विशेषता है कि उनके उपमान किसी न किसी भावको पुष्ट करनेके लिए ही आते है । विश्वमे मोहका बन्धन सत्रते सबल होता है, ससारमे ऐसा कोई प्राणी नहीं, जिसे मोहका विष व्याप्त न हो । मोहका तीक्ष्ण विष प्राणीको सदा मृहित रखता है । अतः कवि दौलतराम और भैया भगवतीदासने इस मोहका चार उपमानो द्वारा विश्लेषण किया है । व्याल, शराब, गरल और धतूरा । इन चारो उपमानोंसे भिन्न-भिन्न भावनाओकी अभिव्यजना होती है । व्याल - सर्प जिस प्रकार व्यक्तिको काट लेता है तो वह व्यक्ति सर्पके विपके प्रभावसे मृहित हो जाता है। तन-बदनका उसको होश नही रहता; उसी प्रकार मोहाभिभूत हो जानेते प्राणी भी विवेक शून्य हो जाता है । रात-दिन ससार के विषय साधनांम अनुरक्त रहता है । अतएव सर्प विप द्वारा प्रस्तुत' मोहके प्रभावका विश्लेषण किया गया है। इसी प्रकार अवशेष तीन उपमान भी मोहाभिभूत दशाकी अभिव्यजना करनेमें समझ हैं ।
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हिन्दी - जैन- साहित्य - परिशीलन
मिथ्यात्वकी भावाभिव्यक्तिके लिए कवि बनारसीदासने तीन उपमानका प्रयोग किया है— मतग, तिमिर और निशा । इन तीनों उपमानों के द्वारा कविने मिथ्यात्व के प्रभावका निरूपण करनेमे अपूर्व सफलता प्राप्त की है । मिथ्यात्वको मदोन्मत्त हाथी इसलिए बताया गया है कि विवेकशून्य हो जानेपर व्यक्तिकी अवस्था मत्त हाथीसे कम नही होती । उसमें स्वेच्छाचारिता, अनियन्त्रित ऐन्द्रियक विषयका सेवन एवं आत्मज्ञानाभाव हो जाता है । इसी प्रकार अन्धकारके धनीभूत हो जानेसे पढार्थीका दर्शन नहीं हो पाता है, पासमें रखी हुई वस्तु भी दिखलायी नहीं पड़ती हैं, और किसी अभीष्ट स्थानकी ओर गमन करना असम्भव हो जाता है । कविने उपमानके इन गुणों द्वारा उपमेय मिध्यात्वकी विभिन्न विशेषताओंका विलेपण किया है । वस्तुतः उक्त उपमान प्रस्तुत के स्वारस्यका सुन्दर विलेपण करते है ।
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सम्यक्त्वकी विशेषता और विलेपणके लिए कवि भैया भगवतीदास, नूघरदास और धानतरायने चार उपमानोंका प्रयोग किया है— सिंह, सूर्य, प्रदीप और चिन्तामणि रत्न | जिस प्रकार सिहके दनमें प्रवेश करते ही इतर जन्तु भयभीत हो जाते हैं और वे सिहकी अधीनता स्वीकार कर लेते हैं उसी प्रकार सम्यक्त्व आत्मविश्वास गुण के आविर्भूत होते ही व्यक्तिकी सभी कमजोरियों समाप्त हो जाती है । मिध्यात्व - अनात्मा विपयक श्रद्धान रूपी मदोन्मत्त हाथी सम्यक्त्वरूपी सिंहको देखते ही पलायमान हो जाता है । विपयकांक्षाएँ और राग द्वेपाभिनिवेश सम्यक्त्वके पहले तक ही रहते हैं, आत्म श्रद्धानके उत्पन्न होनेपर व्यक्तिकी समस्त त्रियाएँ आत्म-कल्याण के लिए ही होने लगती है। अतएव सम्यक्त्वके प्रभाव, प्रताप, सामर्थ्य और अन्य दिव्य विशेषताओंको दिखलाने के लिए सिंह उपमानका व्यवहार किया है। इसी प्रकार अवशेष उपमान भी सम्यक्त्वको विशेषताका पूरा चित्र सामने प्रस्तुत करते हैं ।
पञ्चेन्द्रियकै विपयोंकी सारहीनता कानीकौड़ी, नलमन्थन कर, घृत
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हिन्दी-जैन-साहित्यमें भलंकार-योजना १७॥ निकालना, कुत्तेका सूखी हड्डी चबाकर स्वाद लेना आदि उपमानोके द्वारा अभिव्यक्त की है । उपमालकारका वर्णन हिन्दी जैन साहित्यमे बहुत विस्तारके साथ मिलता है । उपमाके पूर्णोपमा और लुसोपमा इन दोनो प्रधान भेदोंके साथ आर्थी, श्रौती, धर्मटसा, उपमानलसा और वाचकता इन उपभेदोका व्यवहार भी किया गया है। साहश्य सम्बन्ध वाचक शब्द इव, यथा, वा, सी, से, सो, लो, जिमि आदि का प्रयोग भी यथा स्थान मिलता है।
कवि बनारसीदास उपमा और उत्प्रेक्षाके विशेपश है । आपके नाटक समयसारमें इन दोनों अलकारोके पर्याप्त उदाहरण आये है। निम्न पद्यमे कितनी सुन्दर उत्प्रेक्षा की गई है, कल्पनाकी उड़ान कितनी ऊँची है, यह देखते ही बनेगा।
ऊँचे-ऊँचे गढके कंगुरे यो विराजत है, मानो नभ लीलवेको दाँत दियो है। सोहे चिहों उर उपधनकी सघनताई, घेरा करि मानो भूमि लोक घेरि लियो है । गहरी गम्भीर खाई ताकी उपमा बनाई, नीचो करि आनत पताल जल पियो है । ऐसो है नगर यामें नृप को न अंग कोक,
यो ही चिदानन्दसों शरीर भिन्न कियो है। उत्प्रेक्षा अलकारका कवि बनारसीदासने कितने अनूठे ढगसे प्रयोग किया है, भावोत्कर्ष कितना सुन्दर हुआ है-यह निम्न पद्यसे स्पष्ट है ।
थोरे से धका लगे ऐसे फट जाये मानों,
कागदकी पूरी कीघो चादर है चैल की। ससारके सम्बन्धमे विभिन्न प्रकारकी उत्प्रेक्षाएँ कवि रूपचन्द पाण्डे और नयसरिने की है । भागचन्द और बुधचन्दक पदोमे भी उत्प्रेक्षाओंकी
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हिन्दी-जैन-साहित्य-परिशीलन भरमार है। कवि भूधरदासने हेतृत्प्रेभाका कितना सुन्दर समावेश किया है। कल्पनाकी उडानके साथ भावोकी गहराई भी आश्चर्यजनक है।
काउसग्गा-मुद्रा धरि वनमें, साढे रिपम रिद्धि तज दीनी । निहचल अंग मेरु है मानों, दोऊ भुजा छोर जिन दीनी ॥ फंसे अनन्त जन्तु जग-चहले, दुःखी देख करना चित लीनी । काटन काल तिन्हें समरथ प्रभु, किधौं बाँह ये दीरघ कीनी ॥
भगवान्की कायोत्सर्ग स्थित मुद्राको देखकर कवि उत्प्रेक्षा करता है कि हे प्रभो! आपने अपनी दोनों विशाल भुजाओको ससारकी कीचड़मे फंसे प्राणियों के निकालने के लिए ही नीचेकी ओर लटका रखा है। ऊपरके पद्यमें इसी भावको दिखलाया गया है। ___ भगवान् शान्तिनाथकी स्तुति करता हुआ कव कहता है कि देवलोग भगवान्को प्रतिदिन नमस्कार करते है, उनके मुकुटोंमे लगी नीलमणियोंकी छाया भगवान्के चरणोंपर पड़ती है जिससे ऐसा मालूम पड़ता है मानो भगवान्के चरण-कमलोंकी सुगन्धका पान करने के लिए अनेक भ्रमर ही एकत्र हो गये है-कवि कहता है
शान्ति जिनेश जयो नगतेश हरे भघताप निशेष की नाई। सेवत पाँय सुरासुरराय नमैं सिरनाय महीतलताई ॥ मौलि लगे मनिनील दिपै प्रभुके चरनो झलकै वह शाई । सूंघन पॉय सरोज-सुगन्धि किंधौ चलिये अलि पंकति आई ॥
जैन कवियों ने एक ही स्थानपर उपमेयमें उपमानकी उत्कटताकी सम्भावना कर वस्तूप्रेक्षा या स्वरूपोप्रेक्षाका सुन्दर प्रयोग किया है। वाच्या और प्रतीयमाना दोनों ही प्रकारकी उत्प्रेक्षाओंके उदाहरण वर्द्धमान चरित्रमे आये हैं। कविने वर्द्धमान. स्वामीके रूप. सौन्दर्यका निरूपण नाना कल्पनाओं द्वारा-अलकृत रूपमे किया है। 'रूपकालंकारकी योजना करते हुए कवि बनारसीदासने कहा है कि
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हिन्दी-जैन-साहित्यमें अलंकार-योजना
कायाको चित्रशालमें कर्मका पल्ग विछाया है। उसपर मायाकी सेन सजाकर मिथ्या कल्पनाका चादर डाल गया है। इसपर अचेतनाकी नीदमे चेतन सोता है। मोहको मरोड नेत्रोका बन्द करना है, कर्मके उदयका बल ही श्वासका घोर शब्द है और विषय-सुखकी दौर ही स्वप्न है। कविने यहाँ उपमेयमे उपमानका आरोप बड़ी कुशलतासे किया है। कवि कहता हैकायाकी चित्रसारीमें करम परजंक भारी,
मायाकी संवारी सेज चादर कल्पना । शैन करे चेतन अचेतन नीद लिए
मोहकी मरोर पहै लोचनको उपना। उदै बल-जोर यहै श्वासको शवद घोर।
विष सुखकारी जाकी दौर यही सपना । ऐसी मूढ दशाम मगन रहे तिहु काल
धावे भ्रम-जालमें न पावे रूप अपना । वस्तुतः कवि वनारसीदासने अप्रस्तुतमें प्रस्तुतका केवल स्पसाहव्य ही नहीं दिखलाया, किन्तु प्रस्तुतकै भावको तीव्र बनाया है। निरन रूपकोंमें सादृश्य, साधर्म्य, तथा प्रभाव इन तीनोंका प्यान रखा है, पर सांग रूपकमे साहश्य और साधर्म्यका पूरा निर्वाह किया है। कविने कई स्थलोंपर आत्मा और परमात्माकै बीचके व्यवधानको दूरकर आत्माको ही अमेदपक परमात्मा बतलाया है।
कवि मैया भगवतीदासके सिवा कवि वृन्दावनने भी अपनी कविताम रूपकोकी यथास्थान योजना की है। कवि वृन्दावन कहता है
आदि पुरान सुनो भवकानन । मिथ्यातम गयंद गंजनको, यह पुरान साँचो पंचानन । सुरगमुक्तिको मग दरसावत, भविक जीवको भवभय भानन ॥
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हिन्दी - जैन साहित्य-परिशीलन
यहॉपर आदि पुराणको सिंह और मिथ्यातमको गयन्दका रूपक दिया गया है | आदि पुराणके अध्ययन और चिन्तन से मिध्यात्व बुद्धिका दूर हो जाना दिखलाया गया है । मिथ्यात्वका निराकरण सम्यक्तत्व के प्राप्त होनेपर ही होता है। इसी कारण साम्यक्त्वको सिंह और मिथ्यात्वको मतग -- गज कहा है । आदि पुराणका स्वाध्याय सम्यग्दर्शन उत्पन्न करता है, अतएव सम्यक्त्वकी उत्पत्तिका कारण होनेसे कविने उसे सिंहका रूपक दिया है।
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जैन कवियोंने प्रतिपाद्य विषयको प्रस्तुत करनेके लिए उन्हीं उपमानोंका उपयोग नहीं किया है, जो परम्परागत है । काव्यानुभूतिका सर्वांग सुन्दर चित्र वहीं प्रस्फुटित होता है, जहाँ कविकी निजी अनुभूतिका उसके विचारोंसे सामञ्जस्य हो । यह अनुभूति जितनी विस्तृत और गम्भीर होती है, उतना ही प्रतिपाद्य विपय आकर्षक होता है। पुराने उपमानों को सुनते-सुनते हमें अरुचि उत्पन्न हो गई है, अतएव नवीन उपमान ही हमें अधिक प्रभावित करते हैं तथा चर्वितचर्वण किये हुए उपमानों की अपेक्षा प्रभाव भी स्थायी होता है । कवि वनारसीदासने अनेक नवीन उपमानोंके उदाहरण देकर वयं विपयको प्रभावशाली बनाया है । कवि बनारसीदासने उदाहरणाकारका प्रयोग बहुत ही सुन्दर किया है। निम्न दर्शनीय है
जैसे तृन काण वाँस आरने इत्यादि और, ईंधन अनेक विधि पावकमै दहिये ।
आकृति विलोकत कहावै आगि
नानारूप,
दीस एक दाहक सुभाउ जब गहिये ॥ तैसे नवतत्वमें भयो है बहु भेखी जीन, शुद्ध रूप मिश्रित अशुद्ध रूप कहिये । जाही दिन चेतना शकतिको विचार कीलें, ताही छिन अलख अभेद रूप लहिये ॥
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हिन्दी - जैन- साहित्य में अलंकार-योजना
यहाँ कविने बतलाया है, कि जैसे तृण, काष्ठ, आदिकी अग्नि भिन्न - मित्र होनेपर भी एक ही स्वभावकी अपेक्षा एक रूप है, उसी प्रकार यह जीव भी नाना द्रव्योंके सम्पर्कसे नाना रूप होनेपर भी चेतनाशक्तिकी कक्षा अभेद - एक रूप है ।
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ज्ञानके उदयसे हमारी दशा ऐसी भई जैसे भानु भासत अवस्था होत प्रातकी ॥
कविने इस पद्याशमें सूर्यके उदाहरण द्वारा ज्ञानकी विशेषता दिखलायी है । कवि कहता है कि ज्ञानका उदय होनेसे हमारी ऐसी अवस्था हो गई है, जैसे सूर्यके उदय होनेपर प्रातःकालकी होती है । जिस प्रकार सूर्यका प्रकाश अन्धकारको नष्ट कर देता है, उसी प्रकार मोह - अन्धकार दूर हो गया है।
कवि वृन्दावन और भूधरदासने भी उदाहरणालकार द्वारा प्रस्तुतका भावोत्कर्ष दिखलाया है । भूधरदासने दृष्टान्ताकारकी योजना निम्न पद्यमे कितने सुन्दर ढगसे की है, यह दर्शनीय है
जनम जलधि जलजान जान जन इस मानकर । सरब इन्द्र मिल आन-आन जिस धरहिं शीसपर ॥ पर उपभारी बान, बान उत्थपइ कुनय गन । गन सरोज वन भान, भान मम मोह तिमिर धन ॥ धन चरन देह दुःख दाह हर, हरखत हेरि मयूर मन । मनमथ मतंग हरि पास जिन जिन विसरहु छिन जगत जन ॥
यहाँ भगवान् पार्श्वनाथका ज्ञान उपमेय और सूर्य उपमान है तथा कमलका विकसित होना और अन्धकारका नष्ट होना समान धर्म है ।
बस, यही बिम्ब प्रतिबिम्ब भाव है ।
कवि मनरंगाने उपमेयकी समताका प्रभाव प्रदर्शित करते हुए असम अलकारकी कितनी अनूठी योजना की है।
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१७८ हिन्दी-जैन साहित्य-परिशीलन
जा सम न दूनी और कन्या देखि रूप लजे रती ॥ इस प्रकार कवि भृघरदासने निम्न पद्यम हृदयकी भावनाओं और मानसिक विचारोंको कितना साकार करनेका आवास किया है। मावाने विकासमय आलोककी ग्रोवल राशि जगमगाती हुई दृष्टिगत होती है। कृमिरास कुवास सराप दह, शुचिता सव धीवत नाय सही। निह पान किये सुध नात हिये, बननी जन नानत नार यहीं॥ मदिरा सम मान निपिद कहा, यह जान मल कुलमें न गहीं। धिक है उनको वह नाम नले, निन मृहनके मत लीन नही ।
इस पद्यमें कविने मदिराके समान अन्य हेय पदार्थका अनाव दिखलाकर मदिराकी अशुचिताका दिग्दर्शन कराया है। इसी प्रकार आखेटका नियंध करते हुए कवि कहता है कि-"काननमें बस ऐसा आन न गरीब तीच, प्राननसों प्यारे प्रान पूना निस पर है ।" अर्थात् हिरणके समान अन्य कोई भी प्राणी दीन नहीं होता है।
एकके बिना दूसरेके शोमित अथवा अद्योमित हानेका वर्णन कर विनोक्ति अलंकारको योजना बड़ी ही चतुराईसे की गयी है। नैया मगरतीदासने-"मातमके कान विन रखसम राजसुख, सुनो महाराज कर कान किन दाहिने !" में आत्मोद्धारक बिना राज्यनुखको मी धूल समान बताया है। कवि भूधरदासने राग बिना संसारके मोगाी सारहीनताका चित्रण करते हुए विनोक्ति अलंकारकी अन्टी योनना भी है
राग उई भोगभाव लागत सुहावनेस बिना राग ऐसे लागे से नाग कार हैं। राग हानसा पाग रहं तनमें सीव नीब राग गये आवत गिलानि होत न्यारे है। रागसॉ बगत रीति ही सब साँच नान राग मिटे सूझत असार खेल सार हैं।
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हिन्दी जैन साहित्यमें भलंकारयोजना रागी बिन रागीके विचारमें बड़ो ही भेद
जैसे भटा पथ्य काहु काहुको बयारे है । कवि मनरंगलालने विनोक्ति अल्कारकी योजना द्वारा अपने अन्तरालकी व्यापकता और गहराईको बड़े ही अच्छे दगसे व्यक्त किया है। नेम बिना जो नर पर्याय । पशु समान होती नर राय ॥
x नाथ तिहारे साथ विन, तनक न मोहि करार। ताते हमहूँ साथ तुम, चलसी तनि घरवार ।
हे पुत्र चलो अब धेरै हाल । तुम बिन नगरी सब है विहाल ॥
कवि मनरंगलालने एक ही क्रिया शब्दको दो अथोंमे प्रयुक्त कर सहोक्ति अलकारका भी समावेश किया है। कविने प्रत्येक अगमे कामदेव और सुषमाको साथ साथ रखा है
अंग अंगमे छायो अनंग । जहँ देखो तहँ सुखमा संग ॥
भैया भगवतीदासने इसकी उक्ति देकर निम्न पद्यमे कितने ढगसे चैतन्यका फन्देसे फॉसना दिखाया है। आपका अन्योक्ति अलकारपर विशेष अधिकार है। तोता, मतग आदिकी उक्तियोंसे आत्माकी परतन्त्रताकी विवेचना की है।
हंस हंस हंस आप मुझ, पूर्व संवारे फन्द । तिहि कुदाव में बंधि रहे, कैसे होहु सुछन्द ॥
सूवा सयानप सब गई, सेयो सेमर वृच्छ ।
माये धोखे आम के, यापै पूरण इच्छ॥ कवि मनरंगलालने निम्न पद्यमे अतिशयोक्ति अलकारका समावेश कितने अनूठे ढगसे किया है
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नासा लोल कपोल मझार । सब शोभाकी राखन हार । ताहि देखि सुक वनमें जाय । लज्जित है निवसे अधिकाय || कवि बनारसीदासने अपने अर्द्धकथानकमे आत्मचरितकी अमिव्यंजना करते हुए आक्षेपाल्कारका कितना अच्छा समावेश किया है । कवि कहता है
शंख रूप शिव देव, महाशंख बनारसी । दोक मिले अवेध साहिब सेवक एकसे ॥
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भैया भगवतीदास और बनारसीदासने इलेपाल्कारकी भी यथास्थान योजना की है । "अकृत्रिम प्रतिमा निरखत सु "करी न घरी न भरी न धरी" मे करीन भरीन और धरीन पदके तीन तीन अर्थ है। मोह अपने जालम फॅसाकर बीचको किस प्रकार नचाता है, कविने इसका वर्णन विचित्रालंकारमं कितना अनूठा किया है ।
नटपुर नाम नगर अति सुन्दर, तामें नृत्य हाँहि चहुँ ओर । नायक मोह नचावत सबको, ल्यावत स्वांग नये नित ओर ॥ उछरत गिरत फिरत फिरका दें, करत नृत्य नाना विधि धार । इहि विधि जगत नीव नाचत, राचत नाहि वहाँ सुकिशोर ॥ कवि वनारसीदासने आत्मलीलाओका निरूपण विरोधाभास अलकारम करते हुए लिखा है
"
"एकमें अनेक है अनेक हीमें एक है सो, एक न अनेक कुछ कह्यो न परतु है ।"
इसी प्रकार वृन्दावन और द्यानतरायने भी विरोधाभासको सुन्दर योजना की है। परिकर, समासोक्ति, उल्लेख, विभावना और यथास्य अलंकारोंका प्रयोग जैन काव्योंमें यथेष्ट हुआ है।
हिन्दी जैन काव्योंमें प्रकृति-चित्रण
कविताको अकृत करने और रसानुभूतिको बढ़ानेके लिए कवि प्रकृतिका आश्रय ग्रहण करता है। अनादिकालसे प्रकृति मानवको सौन्दर्य
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प्रदान करती चली आ रही है। इसके लिए वन, पर्वत, नदी, नाले, उषा, संध्या, रजनी, ऋतु, सदासे अन्वेषणके विषय रहे है। हिन्दीके जैन कवियोंको कविता करनेकी प्रेरणा जीवनकी नश्वरता और अपूर्णताके अनुमवसे ही पास हुई है। इसीलिए हर्ष-विषाद, सुख-दुःख, घृणा-प्रेमका जीवनमें अनुभवकर उसके सारको ग्रहण करनेकी ओर कवियोंने सकेत किया है।
भावोंकी सचाई (Sincerity) या सद्यः रसोद्रेककी क्षमता कोई भी कलाकार प्रकृतिके अचलसे ही ग्रहण करता है। इसी कारण जीवनके कवि होनेपर भी जैन कवियोकी सौन्दर्यग्राहिणी दृष्टि प्रकृतिकी
ओर भी गई है और उन्होने प्रकृतिक सुन्दर चित्र अकित किये हैं। शान्तरसके उद्दीपन और पुष्टिके लिए जैन कवियों ने प्रकृतिकी सुन्दरतापर मुग्ध होकर ऐसे रमणीय चित्र खीचे है जो विश्वजनीन भावोकी अभिव्यक्तिमें अपना अद्वितीय स्थान रखते है। प्रकृतिकी पाठशाल प्रत्येक सहृदयको निरन्तर शिक्षा देती रहती है। यही कारण है कि मानव और मानवेतर प्रकृतिका निस्पण कुशल कलाकार तल्लीनता और रसमग्नताके साथ करता ही है।
त्यागी जैन कवियोमे अनेक कवि ऐसे हैं, जिन्होंने अपनी साधना के लिए वनाश्रम ग्रहण किया है। प्रकृतिके खुले वातावरणमे रहने के कारण संध्या, उपा और रजनीके सौन्दर्य से इन्होंने अपने भीतरके विराग को पुष्ट ही किया है। इन्हे सध्या नवोदा नायिकाके समान एकाएक वृद्धा, कल्टी रजनीके रुपमे परिवर्तित देखकर आत्मोत्थानकी प्रेरणा प्राप्त हुई
और इसी प्रेरणाको अपने काव्यम अकित किया है। प्रकृतिके विभिन्न स्मॉमें सुन्दरी नर्तकी के दर्शन भी अनेक कवियों ने किये है, किन्तु वह नर्तकी दूसरे क्षणमे ही कुरुपा और वीभत्ससी प्रतीत होने लगती है। रमणीक वैश कलाप, सल्न कपोलकी लालिमा और साजसजाके विभिन्न स्पोमे विरक्तिकी भावनाका दर्शन क्ला कक्यिोंकी अपनी विशेषता है।
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परन्तु यह विरक्ति नीरस नहीं है, इसमें भी काव्यत्व है । भावनाओं और कल्पनाओंका सन्तुलन है । महलोंकी चकाचौंध, नगरके अशान्त कोलाहल और आपसके रागद्वेषोसे दूर हटकर कोई भी व्यक्ति निरावरण प्रकृतिमें अपूर्व शान्ति और आनन्द पा सकता है । मन्द-मन्द पवन, विशाल वन प्रान्त और हरी हरी वसुन्धरा व्यक्तिको जितनी शान्ति दे सकती है, उतनी जन-संकीर्ण भवन नाना कृत्रिम साधन तथा नृपुरोकी घुनघुन कभी भी नही ।
कवि अपने काव्यमे प्रकृतिके उन्हीं रम्य दृश्योंको स्थान देते है जो मानवी हृदय चीनके तारोको झनझना दे । ग्राम-सौन्दर्य और वन-सौन्दर्यका चित्रण अपरिग्रही कवि या ग्रहीत परिमाण परिग्रही कवि जितना कर सकते हैं, उतना अन्य नही । जैन साहित्यमे वन-विभूति और नदी-नालेोपर, जहॉ दिगम्बर साधु ध्यान करते थे, उन प्रदेशोंकी तस्वीरें बड़ी ही सूक्ष्मता और चतुराई के साथ खींची गयी हैं। ऐसा प्रतीत होगा कि गतिशील प्रकृति स्वय मूर्त्तमान रूप धारण कर आ गई है । विपयासक्त व्यक्ति प्रकृतिके जिस रूपसे अपनी वासनाको उद्बुद्ध करता है विरक्त उसी रूपसे आत्मानुभूतिकी प्रेरणा प्राप्त करता है ।
अपभ्रंश भाषाके जैन कवियोने अपने महाकाव्योंमें आलम्बन और उद्दीपन विभावके रूपमे प्रकृति चित्रण किया है । पट्ऋतु वर्णन, रणभूमि वर्णन, नदी-नाले वन पर्वतका चित्रण, उपा-सन्ध्या-रजनी. प्रभातका वर्णन, हरीतिमा आदिका चित्राकन सुन्दर हुआ है । इस प्रकृति-चित्रणपर संस्कृत काव्योंके प्रकृति-चित्रणकी छाप पड़ी है। अपभ्रश भापाके जैन कवियोने नीति-धर्म और आत्मभावनाकी अभिव्यक्ति के लिए प्रकृतिका आलम्बन ग्रहण किया है । बिम्व और प्रतिविम्ब भावसे भी प्रकृतिके भव्य चित्रोंको उपस्थित किया है ।
पुरानी हिन्दी, ब्रजभाषा और राजस्थानी ढुंढारी भाषामे रचित प्रबन्ध काव्योंमें प्रकृतिका चित्रण बहुत कुछ रीतिकालीन प्रकृति-चित्रणसे
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मिलता जुलता है । इसका कारण यह है कि जैन कवियोने पौराणिक कथावस्तुको अपनाया, जिससे वे परम्परा भुक्त वस्तु वर्णनमे ही लगे रहे और प्रकृतिके स्वस्थ चित्र न खीचे जा सके । शान्तरसकी प्रधानता
के कारण जैन चरित काव्यो में शृङ्गारकी विभिन्न स्थितियोका मार्मिक चित्रण न हुआ, जिससे प्रकृतिको उन्मुक्त रूपमे चित्रित होनेका कम ही अवसर मिला ।
परवर्ती जैन साहित्यकारोमे वनारसीदास, भगवतीदास, भूधरदास, दौलतराम, बुधजन, भागचन्द, नयनमुख आदि कवियोकी रचनाओं में प्रकृतिकै रम्यरूपाको भावो द्वारा संवारा गया है । कवि वनारसीदासने कुबुद्धिकी तुलना कुब्जासे और सुबुद्धिकी तुलना राधिकाके साथ की है। यहाँ रूप चित्रणमे प्रकृतिका विम्ब प्रतिविम्ब भाव देखने योग्य है । कुटिल कुरूप अंग लगी है पराए संग, अपनो प्रधान कारे आपुहि विकाई हैं । गहे गति अंधकी-सी सकती कमंधकी-सी, बंधataria करे धंधही घाई है ॥ रॉडकीसी रीति लिए भाँडकीसी मतवारी, सॉड ज्यों सुछन्द ढोले मॉडकीसी जाई है। घरको न जाने भेद करे परधानी खेत, या दुर्बुद्धि दासी कुन्ना कहाई है ॥
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रूपकी रसीली भ्रम कुलफकी कीली सील, सुधाके समुद्र झीली सोली सुखदाई है । प्राची ज्ञानमानकी अजाची है निदानकी सुराची नरवाची ठोर साची ठकुराई है ॥ धामकी खबरदार रामकी रमनहार, राधारस पंथिनीमे ग्रन्थनिमें गाई है ।
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१८४ हिन्दी-जैन-साहित्य-परिशीलन
संतनिकी मानी निरवानी नूरकी निसानी,
याते सद्बुद्धि रानी राधिका कहाई है। कवि बनारसीदासने प्रकृतिको उपमान और उत्प्रेक्षा अलकारी द्वारा चित्रमय रूपमे प्रस्तुत किया है। कविने शारीरिक मासलताके स्थान पर भावात्मकता, विचित्र कल्पना और स्थूल आरोपवादिताके स्थान पर चित्रमयता और भावप्रवणताका प्रयोग किया है। प्रकृतिके एक चित्रको स्पष्ट करनेके लिए दूसरे दृश्यका आश्रय लिया गया है फिर भी रग-रूपो, आकार-प्रकार एव मानवीकरणमें कोई बाधा नहीं आई है। सादृश्य और सयोगके आधारपर सुन्दर और रमणीय भावोकी अभिव्यजना सौन्दर्यानुभूतिकी वृद्धि परम सहायक है । प्रकृतिके विभिन्न रूपोके साथ हमारा भावसयोग सर्वदा रहता है, इसी कारण कवि बनारसीदास्ने असंलक्ष्य क्रमसे प्रकृतिका सुन्दर विवेचन किया है।
उदाहरणालकारके रूपमे प्रकृतिका चित्रण बनारसीदासके नाटक 'समयसार मे अनेक स्थलो पर हुआ है। ग्रीष्मकालमे पिपासाकुल मृग बालूके समूहको ही भ्रमवश जल समझकर इधर उधर भटकता है, अथवा पवनकै सचारसे स्थिर समुद्रके जलमे नाना प्रकारकी तरगे उठने लगती हैं और समुद्रका जल आलोडित हो जाता है। इसी प्रकार यह आत्मा भ्रमवश कर्माका कर्त्ता कही जाती है और पुद्गलके ससर्गसे इसकी नाना प्रकारकी स्वभाव विरुद्ध क्रियाएँ देखी जाती हैं । कवि कहता है
जैसे महाधूपकी तपतिम तिसी यो सृग, अमनसा मिथ्याजल पिवनको धाये है। जैसे अन्धकार मॉहि जेवरी निरखि नर, भरमसों डरपि सरप मानि आयो है ॥ अपने सुभाय जैसे सागर सुधिर सदा, पवन संयोग सो उछरि अकुलायो है।
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हिन्दी जैन काच्या प्रकृति-चित्रण
तैसे जीव बड़ नो अव्यापक सहज रूप,
भरमसों करमको कर्ता कहायो है। वर्षा ऋतुमे नदी, नाले और तालाब वाढ आ जाती है, जलके तेज प्रवाहम तृण-काठ और अन्य छोटे-छोटे पदार्थ वने लगते है । वादल गरजते और बिजली चमकती है। प्रकृति सर्वत्र हरी-भरी दिखलाई पडती है। कवि बनारसीदासने आत्मजानीकी रीतिका वर्पाके उदाहरण द्वारा उपदेशात्मक रूपसे कितना सुन्दर चित्रण किया है
ऋतु बरसात नदी नाले सर जोर चढे, बढे नॉहि मरजाद सागरके फैल की। नीरके प्रवाह तृण काठ वृन्द बहे नात, चित्रावेल आई चढ़नाहि कहूँ गैल की । वनारसीदास ऐसे पंचनके परपंच, रंचक न संक आवै वीर बुद्धि छैल की। कुछ न भनीत न क्यो प्रीतिपर गुणसेती,
ऐसी रीति विपरीत अध्यात्म शैल की। जब प्रकृति मानवीय भावोंके समानान्तर भावात्मक-व्यजन अथवा सहचरणके आधारपर प्रस्तुत की जाती है, उस समय उसे विशुद्ध उद्दीपनके अन्तर्गत नहीं रक्खा जा सकता। आलम्बनकी स्थितिमें व्यक्ति अपनी मनास्थितिका आरोप प्रकृति पर करके भागभिन्यजन करता है । सौन्दर्यानुभूति जो काव्यका आधार है प्रकृतिसे सम्बन्धित है । यद्यपि इसमे नाना प्रकारकी सामाजिक भावस्थितियोंका योग रहता है तो भी आलम्बन स्प यह सौन्दर्यानुभूति कराती ही है। जो रससिद्ध कवि प्रकृतिके मर्मको जितना अधिक गहराईके साथ अवगत कर लेता है वह उतना ही सुन्दर भावाभिव्यजन कर सकता है।
भैया भगवतीदासने प्रकृतिके चित्रोंको किसी मनःस्थिति विशेषकी पृष्ठभूमिके रूपमे प्रस्तुत किया है। मानवीयभावनाओको प्रकृतिके समा
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१८६ हिन्दी-जैन-साहित्य-परिशीलन नान्तर उपस्थित करना और प्रकृतिरूप व्यापारोको आलम्बनके रूपमें अभिव्यक्त करना आपकी प्रमुख विशेषता है। उपमानके रूपमे प्रकृति चित्रण देखिये
धूमनके धौरहर, देख कहा गर्व करे, ये तो छिन माहि जाहि पौन परसत ही। सन्ध्याके समान रंग देखते ही होय भंग, दीपक पतंग जैसे काल गरसत ही। सुपनेमे भूप जैसे इन्द्रधनु रूप जैसे, मोस बूंद धूप जैसे पुरै दरसत ही। ऐसोई भरम सब कर्मनाल वर्गणाको,
तामैं गूढ मगन होय मरै तरसत ही ॥ इन्होने प्रकृतिको स्थितियोके प्रसारमें समवायरूपसे आलम्बन मानकर कतिपय रेखाचित्र उपस्थित किये हैं। वर्षा और ग्रीष्म ऋतुका अपनी अभीष्ट मानसिक स्थितिको स्पष्ट करनेके लिए दृष्टान्तके रूपमे इन ऋतुओं का वर्णन किया है
प्रीपममें धूप परै, तामे भूमि भारी जरे, फूलत है आक पुनि अतिहि उमहि के। वर्षाऋतु मेष भरै तामें वृक्ष केई फरै,
जरत जवास अध मापुहि ते हि कै॥ यद्यपि उपर्युक्त पक्तियोंमे प्रकृतिका स्वच्छ और चमत्कारिक वर्णन नही है फिर भी भावको सबल बनानेमें प्रकृतिको सहायक अकित किया है। कवि भूधरदासने रूपक बॉधकर जीवनकी मार्मिकताको प्रकृतिके आलम्बन द्वारा कितने अनूठे ढगसे व्यक्त किया है
रात दिवस घट माल सुभाव । भरि-भरि नल जीवनकी जल ॥
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हिन्दी जैन काव्यों प्रकृति-चित्रण
दोय ।
सूरज चाँद बैल ये काल रैहट नित फेरे
सोय ॥
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कवि अनुभूतिके सरोवरमे उतरकर प्रकृतिमे भावनाओका आरोपकर रहा है कि कालस्पी अरहट सूरज चाँद स्पी वैलो- द्वारा रातदिन रूपी घड़ों में प्राणियो के आयु स्पी जलको भर-भरकर खाली कर देता है ।
भावोत्कi के लिए कविने प्रकृतिकी अनेक स्थलोंपर भयकरता दिखखायी है। ऐसे स्थानोपर कविकी लेखनी चित्रकारकी वृद्धिका -सी बन गई है । शब्द पिघल - पिघलकर रेखाऍ वन गये है और रेखाएँ शब्द बनकर मुखरित हो उठी हैं, कवि कहता है कि शीत ऋतुमे भयकर सदी पड़ती है यदि इस ऋतु वर्षा होने लगे, तेज पूर्वी हवा चलने लगे तो शीतकी भयकरता और भी बढ़ जाती है। ऐसे समय में नदी के किनारे खडे ध्यानस्थ मुनि समस्त श्रीतकी बाधाओंको सहन करते रहते है
विरक उहे हैं ।
बादल
झूम
रहे हैं ॥
शीतकाल सबही जन काँपे, खड़े जहाँ वन झंझावायु बहे वरसा ऋतु, बरसत तहाँ धीर तटनी तट चौपट, ताल पालमे कर्म सधैं सँभारू शीतकी बाधा, ते मुनि तारन तरण
दहे है ।
कहे हैं ॥
इसी प्रकार ग्रीष्म ऋतुकी भयकरता दिखलाता हुआ कवि गर्मीका चित्रण करता है
भत देह सब दागे ।
भूख प्यास पीडे उर भन्तर प्रजलै अग्नि स्वरूप धूप ग्रीघम की ताती बाल झालसी लागे ॥ तपै पहार ताप तन उपजै को पित्त दाह ज्वर जागे । इत्यादिक ग्रीसकी बाधा सहत साधु धीरज नहीं त्यागे ॥
ज्ञान वैभवसे युक्त आत्माको वसन्तका रूपक देकर कवि द्यानतरायने कितना सुन्दर चित्र खींचा है यह देखतेही बनता है । कविकी दृष्टिमे प्रकृतिका कण कण एक सजीव व्यक्तित्व लिये हुए है जिससे प्रत्येक मानव
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हिन्दी - जैन- साहित्य- परिशीलन
प्रभावित होता है । जिस प्रकार वसन्त ऋतुमं प्रकृति राशि राशि अपना सौन्दर्य बिखेर देती है उसी प्रकार ज्ञान वैभवके प्राप्त होते ही आत्माका अपार सौन्दर्य उद्बुद्ध हो जाता है और वह शर्मीली छुई-मुईसी दुलहिन सामने खड़ी हो जाती है। साधक इसे प्राप्त कर निहाल हो जाता है । कवि इसी भावनाको दिखलाता हुआ कहता है
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तुम ज्ञान विभव फूली वसन्त, यह मन मधुकर सुखसी रमन्त । दिन वडे भये राग भाव, मिध्यातम रजनीको घटाव ॥ तुम ज्ञान विभव फूलों वसन्त, यह मन मधुकर सुखसी रमन्त । वह फूली फैली सुरुचि वेल, ज्ञाता जन समता संग केलि ॥ तुम ज्ञान विभव फूली वसन्त, यह मन मधुकर सुखसों रमन्त । द्यानत वाणी दिक मधुर रूप, सुर नर पशु आनन्द वन स्वरूप || तुम ज्ञान विभव फूली वसन्त, यह मन मधुकर सुखसी रमन्त ।
कवि हेमविजयने प्रकृतिको सष्टि और सजीव रूप में चित्रित किया है। कथा प्रवाहकी पूर्व पीटिका के स्पमं प्रकृति भावोद्दीपनमें कितनी सहायक है यह निम्न उदाहरणसे स्पष्ट है । पाठक देखेंगे कि इस उदाहरण में कथा प्रसंगको मार्मिक बनानेके लिए अलकार - विधान और उद्दीपन विभावके रूपमें कितना सुन्दर प्रकृतिका चित्रण किया है
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घनघोर घटा उनयी जुनई, इत उत चमकी विजली । पियुरे-पिथुरे पपीहा बिललाती, जुमोर किंगार किरीत मिली | वीच विन्दु परे हग आँसु फरे, पुनि धार अपार इसी निकली। मुनि हेम के साहिब देखन फूँ, उग्रसेन दली सु अकेली चली ॥ कहि राजिमती सुमती सखियान कॅ, एक खिनेक खरी रहु रे ।
सखिरी सगरी अँगुरी मुही वाहि कराति इसे निहुरे ॥ अवही तबही कवही जवही, यदुराय जाय इसी कहुरं ।
मुनि हेमके साहिब नेम जी ही अब तुरन्ते तुम्हम् बहुरे ॥
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हिन्दी जैन काव्यों में प्रकृति-चित्रण
कवि आनन्दघनको भी प्रकृतिकी अच्छी परख है । आपने मानव भावोकी अभिव्यक्तिकै माध्यमके रुपमे प्रस्तुत प्रतीकोके लिए प्रकृतिका सुन्दर आयोग किया है। ज्ञानरूपी सूर्योदयके होते ही आत्माकी क्या अवस्था हो जाती है कविने इसका बहुत ही सुन्दर चित्रण किया है । प्रातःकालको रूपक देकर ज्ञानोदयका कितना मर्मस्पर्शी चित्रण किया है। मेरे घट ज्ञान भाव भयो भोर ।
चेतन aaur चेतन चकवी, भागौ विरह कौ सोर ॥ फैली चहुँ दिशि चतुर भाव रुचि, मिठ्यौं भरम तमजोर । आपनी चोरी आपहि जानत, और कहत न चोर ॥ अमल कमल विकलित भये भूतल, मंद विशद शशि कोर । आनन्दघन एक बल्लभ लागत, ओर न लाख किरोर ॥
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रूपक अलकारके रूपमे कवि भागचन्दने अपने अधिकाश पदोमे प्रकृतिका चित्रण किया है । कविने उपमा और उत्प्रेक्षाकी पुष्टिके लिए प्रकृतिका आश्रय ग्रहण करना उचित समझा है । कुछ ऐसे दृश्य है जिनका मानव जीवनसे घना सम्बन्ध है । कुछ ऐसे भी भाव - चित्र है जो हमारे सामुदायिक उपचेतन मनमे जन्मकालसे ही चले आते है । जिनवाणी, गुरुवाणी, मन्दिर, चैत्य आदि मानवके मनको ही शान्त नही करते किन्तु अन्तरंग तृप्तिका परम साधन बनते हैं । प्रत्येक भावुक हृदयकी श्रद्धा उक्त वस्तुओके प्रति स्वभावतः रहती है । कवि वीतराग वाणीको गगाका रूपक देकर कहता है
साँची तो गंगा यह वीतरागी वाणी, अविच्छa धारा निज धर्मकी बहानी । जामें अति ही बिमल अगाध ज्ञान पानी, जहाँ नहीं संशयादि पंककी निशानी ॥ सप्त भंग जहं तरंग उछलत सुखदानी, सम्वचित मराल वृन्द रमैं नित्य ज्ञानी ।
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हिन्दी-जैन साहित्य-परिशीलन ना अवगाहन ते शुद्ध होर पानी,
भागचन्द्र निहत्र घटमाहि या प्रमानी । प्रकृतिक अधिक चित्र इनकी कविता में पाये जाते हैं । यद्यपि विशुद्ध रुपम प्रविका चित्रण इनकी अत्रिनामें नहीं हुआ है तिर माउसमानीका इतना नुन्दर व्यवहार किया गया है कि जिम ग्रन्तुतची अमिन्टनामें चार गेंद लग गये हैं। वर्ग होनेपर गरों और शीतलना हा नानी है। निदान आतापले सन्तम दिनी शान्त हो जाती है। नव यग्ना पराज्य देखकर ग्लानि कारण अपना मुँह वादम छिग लेना है। थाकासमन्डल धन-तिमिरले आच्छादित हो जाता है। ना वहाँ विल चमकती हुई दिखलाई पड़ता है। नई नाल बाद
आ गती है। मांस बल व जानी है और नवीन धानांक पाच लहलहान लगते हैं। मेदिनी सर्वत्र हरी भी दिखलाई पड़ती है। ऋत्रि इन का द्वारा निवाणीन महक्षाका रहस्योद्घाटन करता है।
वरसत ज्ञान सुनार हो, श्रीविन मुख बन डॉ। मीवल होत सुबुद्धमेदिनी, मिटन नवासपपार । न्यावाद नत्र दामिनी दमकहीं होत निनाद गम्भीर । करुणा नही वह बहुदिशि ते, भरी सी दोई नार ॥
मेव वटा सम श्री विनवानी । स्यात्पद चपला चमकत वामैं, बरसन झान मुपानी । धर्मसन्त बाते बहु बाद, शिव आनन्द पलानी । मोहन धूल डी सब बात, क्रोवानल मुत्रुझानी ।
आधुनिक नशायाम कविताका नमिक त्या स्त्यान्मन्दकेल्प मी प्रविन चित्रण किय गया है। निगश होने पश्चात् सहानुभूतिक रूपमें कोई भी ऋवि प्रतिको पता है। इन बागन
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प्रतीक-योजना
प्रकृतिका यह रूप भी पाया जाता है। जीवनकी समस्याओका समाधान प्रकृतिके अंचलसे जैन कवियोने ढूँढा है। अतः उपयोगितावादी और उपदेशात्मक दोनो ही दृष्टिकोण आधुनिक जैन प्रबन्ध काव्योमे अपनाये गये है। 'वर्द्धमान', 'प्रतिफलन' और 'राजुल' में भी प्रकृतिके सवेदन गील रूपोंकी सुन्दर अभिव्यजना की गई है।
प्रतीक-योजना
कोई भी भावुक कवि तीव्र रसानुभूविके लिए प्रतीक-योजना करता है | प्रतीक पद्धति भापाको भाव-प्रवण बनाती ही है, किन्तु भावोकी यथार्थ अमिव्यञ्जना भी करती है । वयं विपयके गुण या भाव साम्यरखनेवाले बाह्य चिह्नोको प्रतीक कहते है। मानव-हृदयकी प्रस्तुत भावनाओकी अभिव्यक्ति के लिए साम्यके आधारपर अप्रस्तुत प्राकृतिक प्रतीकोका उपयोग किया जाता है। ये प्रतीक प्रकृतिक क्षेत्रसे चुने हुए होनेके कारण इन्द्रियगम्य होते हैं और अमूर्त भावनाओकी प्रतीति करानेमे बहुत दूर तक सहायक होते हैं। वास्तविकता यह है कि जब तक हृदयके अमूर्तभाव अपने अमूर्तरूपमें रहते हैं, वे इतने सूक्ष्म होते हैं कि इन्द्रियों के द्वारा उनका सजीव साक्षात्कार नहीं हो सकता है। रससिद्ध कवि प्रतीकोके साँचेमे उन भावनाओको दालकर मूर्त रूप दे देता है, जिससे इन्द्रियो द्वारा उनका सजीव प्रत्यक्षीकरण होने लगता है। जो अमूर्त भावनाएँ हृदयको स्पर्श नहीं करती थी, वे ही हृदयपर सर्वाधिक गम्भीर प्रभाव छोड़ने में समर्थ होती है। , प्रतीक-योजनाके प्रमुख साधक उपमा, रूपक, अतिशयोक्ति तथा सारोपा और साध्यावसाना लक्षणा हैं। सारोपा लमणामे उपमान और उपमेय एक समान अधिकरणवाली भूमिकामें उपस्थित रहते है तथा साध्यावसानामे उपमेयका उपमानमे अन्तर्भाव हो जाता है। सादृश्यमूलक सारोपाकी भूमिकापर रूपकालकार द्वारा प्रतीक विधान और सादृश्य
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१९२ हिन्दी-जैन-साहित्य-परिशीलन मूलक साध्यावसानाकी भूमिकापर अतिशयोक्ति अलकार द्वारा प्रतीकविधान किया जाता है। यह प्रतीक विधान कही भावोकी गम्भीरता प्रकट करता है तो कहीं स्वरूपकी स्पष्टता । स्वरूप और भाव दोनोंकी विभूति बढ़ानेवाली प्रतीक-योजना ही अमूर्तको मूर्तरूप देकर सूक्ष्म भावनाओका साक्षात्कार करा सकती है।
प्रतीक विधानमें प्रतीककी स्वाभाविक बोधगम्यताका खयाल अवश्य रखना पड़ता है। ऐसा न होनेसे वह हमारे हृदयक सूक्ष्म रागो एव भावोको उद्दीस नहीं कर सकता है। जिस वस्तु, व्यापार या गुणके सादृश्यमे जो वस्तु, व्यापार या गुण लाया जाता है उसे उस भावके अनुकूल होना चाहिये। अतः प्रस्तुतकी भावाभिव्यजनाके लिए अप्रस्तुतका प्रयोग रसोद्बोधक या भावोचेजक होनेसे ही सच्चा प्रतीक वन सकता है।
भिन्न-भिन्न संस्कृतियोके अनुसार साहित्यमे रसोत्कर्पके लिए कवि भिन्न-भिन्न प्रतीकोंका प्रयोग करते हैं। सभ्यता, शिष्टाचार, आचारव्यवहार, आत्मदर्शन प्रभृति के अनुसार ही कलामे प्रतीकोकी उद्भावना की जाती है। हिन्दी जैन काव्योमें उपमानके रूपमे प्रतीकोका अधिक प्रयोग किया गया है । यद्यपि प्रतीक-विधान के लिए साध्यके आधारकी आवश्यकता नहीं होती, केवल उसमे भावोद्वोधन या भावप्रवणताकी शक्ति रहनी चाहिये, तो भी प्रभाव साम्यको लेकर ही प्रतीकोंकी योजना की जाती है । कोरे साध्य-मूलक उपमान मावोत्तेजन नहीं करा सकते हैं । आकारप्रकार या नाप-जोखकी साता सामने एक मूर्ति ही खड़ी कर सकती है, पर भावोजन नहीं। अतएव कवि मार्मिक अन्तर्दृष्टि द्वारा ऐसे प्रतीकोंका विधान करता है, जो प्रस्तुतकी भावाभिव्यञ्जना पूर्णरुपसे कर सके। __ मनीषियोने भावोत्पादक (Emotional Symbols) और विचारोत्पादक (Intelectual Symbols) ये दो मेद प्रतीकोके किये है । जैनकायोमे इन दोनों भेदोंमेसे किसी भी भेदके शुद्ध उदाहरण
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प्रतीक-योजना
१९३ नहीं मिल सकेगे। भावोत्पादक प्रतीकोमे विचारोका मिश्रण और विचारोसादक प्रतीकोमें भावांकी स्थिति बनी ही रहती है। विचार और भाव इतने भिन्न भी नहीं है, जिससे इन्हे सीमारेखा अकित कर विभक्त किया जा सके । मुविधाके लिए जैन साहित्यमें प्रयुक्त प्रतीकोंको चार भागोमे विभक्त किया जाता है-विकार और दुःख विवेचक प्रतीक, आत्मबोधक प्रतीक, शरीरबोधक प्रतीक और गुण और सर्वसुखबोधक प्रतीक । यद्यपि तत्त्वनिरूपण करते समय कुछ ऐसे प्रतीकोका भी जैन कवियोंने आयोजन किया है, जिनका अन्तर्भाव उक्त चार वाम नहीं किया जा सकता है, तो भी भावोचेजनमे सहायक उक्त चारो वर्गके प्रतीक ही है।
विकार और दुःख विवेचक प्रतीकोंमे प्रधान भुजग, विप, मतग, तम, कम्बल, सन्ध्या, रजनी, मधुछत्ता, ऊँट, सीप, खैर, पचन, तुष, लहर, शूल, कुब्बा आदि है।
भुजंग प्रतीकका प्रयोग तीन विकारोको प्रकट करनेके लिए किया है। राग-द्वेष भाव कर्मको जिनसे यह आत्मा निरन्तर अपने स्वरूपको विकृत करती रहती है। मिथ्यात्व भावको, जिससे आत्मा अपने स्वरूपको विस्मृत हो, पर भावोको अपना समझने लगती है और तीव्र विषयामिलापाको, जिससे नवीन काँका अर्जन होता रहता है। ये तीनो ही विकार भाव आत्माकी परतन्त्रताके कारण है, सर्पके समान भयकर
और दुखदायी हैं। अतएव सपं प्रतीक द्वारा इन विकारोंकी भयकरता अभिव्यक की गयी है। इस प्रतीकका प्रयोग संस्कृत और प्राकृत जैन साहित्यमें मी पाया जाता है, किन्तु हिन्दी भाषाके जैन कवियोने रागद्वपकी सूक्ष्म भावनाकी अभिव्यक्ति इस प्रतीक द्वारा की है।
विप प्रतीक विषयामिलापाकी भयकरताका द्योतन करानेके लिए आया है। पचेन्द्रिय विपयोंकी आधीनता विवेक बुद्धिको समाप्त कर देती
१. ब्रह्मविलास पृ० २६०। २. नाटक समयसार पृ० १७, २४, १८॥
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हिन्दी-जैन-साहित्य-परिशीलन है। विप मृत्युका कारण माना जाता है, पर विपयामिलापा मृत्युसे भी बढ़कर है। यह एक जन्मकी ही नहीं किन्तु जन्म-जन्मान्तरोकी मृत्युका कारण है। विषयाधीन व्यक्ति ही अपने आचार-विचारसे च्युत होकर आत्मिक गुणोका हास करता है। जिस प्रकार विपका प्रभाव मूर्छा माना है, उसी प्रकार विपयाभिलाषासे भी मूर्छा आती है। विपयामिलापाकी मृा स्थायी प्रभाव रखनेवाली होती है, अतः यह आत्मिक गुणोको विशेष रूपसे आच्छादित करती है। कवि वनारसीदास और भैया भगवतीदासने विप प्रतीकका प्रयोग विपयेच्छाके कुप्रभावको अभिव्यक्त करनेके लिए किया है। अपभ्रंश भायाकी कविताओं मे भी यह प्रतीक आया है।
मतंग प्रतीक अज्ञान और अविवेकके मावको व्यक्त करनेके लिए आया है | अज्ञानी व्यक्तिकी क्रियाएँ मदोन्मत्त हाथीके तुल्य ही होती है। जो विपवान्ध हो चुका है, वह व्यक्ति विवेकको खो देता है । कवि दौलतरामने मतग प्रतीकका प्रयोग तीव्र विपयामिलापाकी अभिव्यजनाके लिए किया है। पचेन्द्रियके मोहक विपय किसी भी प्राणीकै विवेकको आच्छादित करनेमें सक्षम है। जो इन विषयों के अधीन रहता है, वह जानशक्तिके मूर्छित हो जानेसे अज्ञवत् चेष्टाएँ करता है। उसके क्रिया कलाप वहिविगयक ही होते हैं । ____वम' अज्ञान और मोहका प्रतीक है | जिस प्रकार अन्धकार सघन होता है, दृष्टिको सदोप बनाता है, उसी प्रकार अजान और मोह भी आत्मदृष्टिको सदोप बनाते है। आत्माकै अस्तित्वमे ढ़ विश्वास न कर अतत्त्वरूप श्रद्धान करना मिथ्यात्व है। इसके प्रभावसे जीवको स्वपरका विवेक नहीं रहता है। इसके दोपोकी अभिव्यञ्जना कवि द्यानतरायने
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१. वनारसी-विलास पृ० १४०-१५३ । २. ब्रह्मविलास, ग्रानतविलास, वृन्दावन-विलास आदि ।
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মন্ত্রীঘীনা
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तम प्रतीक द्वारा की है । तम प्रतीकका प्रयोग आत्माके मोह, मिथ्यात्व और अजान इन तीनों के भावोकी अभिव्यजना के लिए किया गया है। ,
कम्बल' प्रतीकका प्रयोग आशा-निराशाकी द्वन्दात्मक अवस्थाके विश्लेषण के लिए किया गया है। यह स्थिति विलक्षण है, इस अवस्थामे मानसिक स्थिति एक भिन्न रूपकी हो जाती है। ___ सन्ध्याका प्रयोग आन्तरिक वेदना, जो राग-द्वेषके कारण उत्पन्न होती है, की अभिव्यक्तिके लिए किया है। रजनीका प्रयोग निराशा और सयम च्युतिकी अभिव्यक्तिके लिए किया गया है। रजनीमे एकाधिक भावोका मिश्रण है। मोहके कारण व्यक्तिके मनमें अहर्निश अन्धकार विद्यमान रहता है, कवि भूधरदासने इसी भावकी अभिव्यञ्जना रजनीद्वारा की है। • मधुछचा विषयाभिलाषाका प्रतीक है। कचन और कामिनी ऐसे दो पदार्थ है, जिनके प्रलोभनसे कोई भी रागी व्यक्ति अपनेको अछूता नहीं रख सकता है। तृष्णा और विषयामिलाषाके उत्तरोत्तर बढनेसे व्यक्ति असयमित हो जाता है, जिससे उसे नाना प्रकारके दुःख उठाने पड़ते हैं। इन मनोरम विषयोंको प्राप्त करनेकी वाञ्छासे ही जीवनको कुत्सित और नारकीय बनाया जा रहा है।
ऊट' अहकारका प्रतीक है। अहकारके आधीन रहनेसे नम्रता गुण नष्ट हो जाता है, ऐसा कोरा व्यक्ति आत्मविज्ञापन करता है। ऊँट अपनी टेढी गर्दन द्वारा नीचेकी अपेक्षा अपरको ही देखता है, इसी प्रकार घमडी व्यक्ति दूसरोके छिद्रोका ही अन्वेषण करता है। उसकी आत्माका मार्दव गुण तिरोहित हो जाता है। उसके आत्मिक गुण भी ऊंटकी गर्दनकै समान वक्र ही रहते है।
1. नाटक समयसार पृ० ३९ । २. ३. धानव-विलास । १. दोहा पाहुड दो० १५॥
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हिन्दी - जैन- साहित्य-परिशीलन
सीप' कामिनी के मोहक रूपके प्रति आसक्तिका प्रतीक है। सीप जैसे जलसे उत्पन्न होती है, और जल्म ही संवर्द्धनको प्राप्त होती है । इसी प्रकार आसक्ति वासना जन्य अनुरक्तिसे उत्पन्न होती है और उसीमें वृद्धिंगत भी। सीपकी रूपाकृति एक विलक्षण प्रकारकी होती है, उसी प्रकार आसक्ति भी चित्र-विचित्रमय होती है |
खैर' द्रव्यकमोंका प्रतीक है । द्रव्यकमका सम्वन्ध कैसे होता है ? इनके संयोगसे आत्मा किस प्रकार रक्त विकृत हो जाती है और कमोंके कितने भेद किस प्रकारसे विपच्यमान होते हैं; आदि अनेक अन्तस्की भावनाओं की अभिव्यञ्जना इस प्रतीकके द्वारा की गयी है ।
पंचन' विपयका प्रतीक है। पचेन्द्रियोंके द्वारा विपय सेवन किया जाता है तथा इसी विपयासक्ति के कारण आत्मा अपने स्वभावसे च्युत है । विमाव परिणतिकी अभिव्यञ्जना भी इस प्रतीक द्वारा कवि मनरंगलाल और लालचन्दने की है।
तुप शक्तिका प्रतीक है। यह वह शक्ति है जो आत्मकल्याणसे जीवनको पृथक करती है, और विषयोंके प्रति आसक्ति उत्पन्न करती है ।
लहर तृष्णा या इच्छाका प्रतीक हैं; कवि बनारसीदासने नदीके प्रवाहके प्रतीक द्वारा आत्म- संयोग सहित कर्मकी विभिन्न दशाओंका अच्छा विलेपण किया है
जैसे महीमण्डलमै नदीको प्रवाह एक,
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ताही अनेक भाँति नीरकी ठरनि है । पाथरके जोर तहाँ धारकी मरोर होत,
काँकरकी खानि वहाँ झागको झरनि हैं || पौनकी झकोर वहाँ चंचल तरंग उठे,
भूमिकी निचानि तहाँ भौरकी परनि है ।
१. दोहा पाहुड दो० १५१ । २. दोहा पाहुड दो० १५० १ ३. दोहा पाहुड दो० ४५ । ४. दोहा पाहुड दो० १५ ।
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प्रतीक योजना
तैसो एक आत्मा अनन्त रस पुगुल, दोहूके संयोगमें विभावकी भरनि है |
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यद्यपि यहाँ उदाहरणालंकार है, परन्तु कविने नदी प्रवाहके प्रतीकद्वारा भावका उत्कर्ष दिखलानेमे सफलता प्राप्त की है । कवि बनारसीदासने अपनी प्रतीकोको स्वय स्पष्ट करते हुए लिखा है
कर्म समुद्र विभाव जल, विपय कपाय तरंग | बढ़वानल तृष्णा प्रवल, ममता धुनि सर्वंग ॥ भरम भवर तामे फिरै, मन जहाज चहुँ ओर । गिरे, फिरे चूडै तिरै उदय पवनके जोर ॥
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विषयी जीव भ्रमवश ससारके सुखोको उपादेय समझता है । कवि भगवतीदासने प्रतीको द्वारा इस भावका कितना सुन्दर विश्लेषण किया है
सूवा सयानप सब गई, सेयो सेमर वृच्छ । आये धोखे आमके, यापै पूरण इच्छ ॥ यापै पूरण इच्छ वृच्छको भेद न जान्यो । रहे विषय लपाय, मुग्धमति भरम भुलान्यो ॥ फलमॉहि निकसे तूल, स्वाद पुन करू न हुआ । यहै जगतकी रीति देखि, सेमर सम सूवा ॥ इस पद्यमें सूवा आत्माका प्रतीक, सेमर ससारके कमनीय विषयोका प्रतीक, आम आत्मिक सुखका प्रतीक और तूल सासारिक विषयोकी सारहीनताका प्रतीक है । कविने आत्माको ससारकी रीति-नीति से पूर्णतया सावधान कर दिया है।
आत्मबोधक प्रतीकोमे सुबा, हंस, शिवनायक प्रतीक प्रधान है । इन प्रतीको द्वारा आत्मा के विभिन्न स्वस्पोकी अभिव्यजना की गयी है | सूवा उस आत्माका प्रतीक है, जो विकारों और प्रलोभनोकी ओर आकृष्ट होती है । विश्वके रमणीय पदार्थ उसके आकर्षणका केन्द्र बनते है, पर
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१९४ हिन्दी-जैन-साहित्य परिशीलन वह उन आकर्षणोको किसी भी समय टुकरा कर स्वतन्त्र हो जाती है,
और साधना कर निर्वाणको पाती है। कवि बनारसीदास, भगतीदास, रूपचन्द, बुधनन, भागचन्द, दौलतराम आदि कवियाने आत्माकी इसी अवस्थाकी अभिव्यंजना स्वा-प्रतीक द्वारा की है । कवि धानतरायने हस प्रतीक-द्वारा आत्माको समता गुण ग्रहण करनेका उपदेश दिया है। इस प्रतीकसे आत्माकी उस अवस्थाकी अभिव्यन्ना की है, जो अवस्था अणुवेग धारण करनेसे उत्पन्न होती है । कवि कहता है
सुनहु हंस यह सीख, सांख मानो सदगुर की। गुरुकी आन न लोपि, लोपि मिथ्यामति उरकी ॥ उरकी समता गहौ, गहाँ आतम अनुमा सुख ।
सुख सल्प थिर रहै, रहै जगमें उदास रुख । शिवनायक प्रतीक-द्वारा उस शनिशाली आत्माका विश्लेषण किया है, नो मिथ्यात्व, राग, द्वेप, मोहके कारण परतन्त्र है। परन्तु अपनी वास्तविकताका परिज्ञान होते ही वह प्रकाशमान हो जाती है। आत्मा अद्भुत शक्तिशाली है, यह स्वभावतः राग, द्वेष, मोहसे रहित है; शुद्धबुद्ध और निरंजन है। कवि इसको सम्बोधन कर बुद्धि-द्वारा कहलता हैइक बात कहूँ शिवनायकी, तुम लायक टोर ऋहाँ भटके। ग्रह कौन विचक्षण रीति गही, वितु देखहि अमन सौं भटके ।। अनह गुण मानो तो साख कहूँ, तुम खोलत क्यों न पटै घटके। चिन भूरति आप विराजत हो, तिन सूरत देखे सुधा गटके ॥
शरीरत्रोधक प्रतीकाम चशे, पिंजरा, भृमा, कॉच और मंच्या आदि प्रमुख है । ये नमी प्रतीक शरीरका विभिन्न दशाओंकी अभिव्यंजनाके लिए आये हैं। कवि भृवरदासने चखेंके प्रतीक द्वारा शरीरकी गत्तविक स्थितिका निस्पण करते हुए कहा है
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प्रतीक-योजना
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चरखा चलता नाही, चरखा हुमा पुराना । पग खूटे द्वय हालन लागे, उर मदिरा खखराना ॥ छीदी हुई पॉखडी पसली, फिरै नही मनमाना। चरखा चलता नाही, चरखा हुआ पुराना ॥ रसना तकलीने वल खाया, सो अब कैसे खूटे। सबद सूत सूधा नहीं निकले, घड़ी घडी फल टूटै ॥ आयु मालका नही भरोसा, अंग चलाचल सारे। रोज इलाज मरम्मत चाहै, वैद वादई हारे । नया चरखला रंगा-चंगा, सवका चित्त धुराचे। पलटा वरन गये गुन अगले, अब देखें नहिं भावै ॥ मोटा महीं कातकर भाई, कर अपना सुरमेरा।
अंत भागमे इंधन होगा, भूधर समझ सवेरा ॥ गुण या सुख बोधक प्रतीकोमे मधु,फूल, पुष्प, किसलय, मोती, अपा, अमृत, प्रभाव, दीप और प्रकाश प्रमुख हैं। इन प्रतीको द्वारा सुख और आत्मिक गुणोंकी अनेक तरहसे सुन्दर अभिव्यञ्जना की गयी है।
मधु ऐन्द्रियक सुखकी भावनाको अभिव्यक्त करता है। ऐन्द्रियक सुख क्षणविध्वंसी है। जब जीवन उपवनमे वसन्त आता है, उस समय जीवनका प्रत्येक कण सौन्दर्यसे लात हो जाता है। उसकी जीवन डालीपर कोकिल कुहू कुहू करने लगती है। मल्यानिलके स्पर्शसे शरीरमे रोमाञ्च हो जाता है, हृदयमे नवीन अभिलापाएँ जागृत होती हैं । ऐन्द्रियक सुख इस प्राणीको आरम्भमे आनन्दप्रद मालूम पडते है, परन्तु पीछे दुख मिश्रित दिखलायी पडने लगते है। मधु प्रतीक-द्वारा कवि बुधजनने सामरिक विषयेच्छाका सुन्दर विश्लेषण किया है । इस सुखेच्छाकी भावानुभूतिके लिए ही कविने मधु प्रतीकका आयोजन किया है।
फूल हर्प और आनन्दका प्रतीक है। वासन्ती समीर मनमे राशिराशि अभिलाषाओको जागृत करता है । हृदयमे स्मृतियाँ, ऑखोमै मधुर
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२०० हिन्दी-जैन-साहित्य परिशीलन स्वप्न और अन्तरालमें उन्मत्त आकांक्षा युक्त मानव जीवनका मूर्तिमान रूप पुष्प और फल प्रतीक द्वारा अभिव्यजित किया गया है।
किसलय प्रतीक सासारिक प्रेम, रागमय अनुरक्ति एवं मधुर प्रलोमनोकी अभिव्यक्तिके लिए प्रयुक्त हुआ है। वसन्त ऋतुके आगमनके समय नवीन कोपले निकल आती है, मस्त प्रभात रक्त किसलयोंको लेकर मदिर भावोंका कूजन करता है । फलतः वासनात्मक प्रेम उत्पन्न होता है। यह अनुरक्ति संसारके विपयोंके प्रति सहज होती है।
अमृत आत्मानन्दकी अभिव्यञ्जनाके लिए व्यवहृत हुआ है। अजान, मिथ्यात्व और राग-द्वेप-मोहके निकल जानेपर ज्ञानकलिका अपनी पंखुड़ियोमे विकार और वासनाको बन्द कर लेती है कोयल अपनी नीरवतामे उसके अनन्त सौन्दर्यके दर्शन करती है ; रजनीके तारे रात मर उस आत्मानन्दकी बाट जोहते रहते हैं । यह आत्मानन्द भी कपायोदयकी मन्दता, क्षीणता और तीव्रोदयके कारण अनेक स्पोंमे व्यक्त होता है। अमृत, प्रदीप और प्रकाश-द्वारा आत्मज्ञान और आत्मानन्दकी अमिव्यञ्जना की गई है।
मोती, प्रभात और ऊपा प्रतीको-द्वारा जीवन और जगत्के शाश्वत सौन्दर्यकी अभिव्यञ्जना कवियोने की है। भैया भगवतीदासने आत्मनान प्राप्त करनेकी ओर सकेत करते हुए कहा है
लाई हौं लालन बाल अमोलक, देखहु तो तुम कैसी धनी है। ऐसी कहूँ तिहुँ लोको सुन्दर, और न नारि अनेक धनी है। थाही ते तोहि कह नित चेतन, याहुकी प्रीति जो तोसौ सनी है। तेरी औराधेकी रीम अनन्त, सो मोपै कहूँ यह जान गनी है।
प्राचीन जैन कवियोने जीवनके मार्मिक पभोके उद्घाटनके लिए अलंकार रूपमे ही प्रतीकोकी योजना की है। नवीन कविताओं में वैचित्र्यप्रदर्शन के लिए भी प्रतीकोंका आयोजन किया गया है। अतएव संक्षेपमे
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रहस्यवाद
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यही कहा जा सकता है कि सूक्ष्म भावोकी अनुभूति प्रतीक योजना द्वारा गहराई के साथ अभिव्यक्त हुई है।
रहस्यवाद
ब्रह्मकी - आत्माकी व्यापक सत्ता न माननेपर भी हिन्दी जैन साहित्य मे उच्चकोटिका रहस्यवाद विद्यमान है । हिन्दी जैन काव्य स्रष्टाओने स्वय शुद्धात्म तत्त्वकी उपलब्धिके लिए रहस्यवादको स्थान दिया है । आत्मा रहस्यमय, सूक्ष्म, अमूर्त, ज्ञान, दर्शन आदि गुणोका भाण्डार है, इसकी उपलब्धि भेदानुभूतिसे होती है । शुद्धात्मामें अनन्त सौन्दर्य और तेज है । इसकी प्राप्ति के लिए स्वयं अपनेको शुद्ध करनेके लिए, उस लोकमे साधक विचरण करता है, जहाँ भौतिक सम्बन्ध नहीं । ऐन्द्रियक विपयोको आकाक्षा नही, ससार और शरीरसे पूर्ण विरक्ति है । यह प्रथम अवस्था है, यहाँ पर स्वानुभवकी और जीव अग्रसर होता है । दोहा पाहुडमें इस अवस्थाका निम्न प्रकार चित्रण किया है
जो जिहिं लक्खहिं परिभमद्द अप्पा दुक्खु सहंतु । पुत्तकलत्तहूं मोहियउ जाम ण वोहि लहंतु ॥ आत्मा और परमात्माकी एकताका जितना सुन्दर चित्रण हिन्दीके जैन कवि कर सके हैं, उतना सम्भवतः अन्य कवि नहीं । जैन सिद्धान्तमे शुद्ध होनेपर यही आत्मा परमात्मा बन जाती है । कवि बनारसीदास इसी कारण आध्यात्मिक विवेचन करते हुए कहते है कि रे प्राणी ! तू अपने धनीको कहाँ ढूढता है, वह तो तुम्हारे पास ही है
ज्यो मृग नाभि सुवाससो, हृदत वन दौरे । त्यों तुझमें तेरा धनी, तू खोजत और n करता भरता भोगता, घट सो घट माहीं । ज्ञान बिना सद्गुरु बिना, तू सूझत नाहीं ॥
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हिन्दी - जैन- साहित्य-परिशीलन
कवि भगवतीदास आत्मतत्त्वकी महत्ता बतलाता हुआ कहता है कि आँखें जो कुछ भी रूप देखती है, कान जो कुछ भी सुनते हैं, जीम जो कुछ भी रसको चखती हैं, नाक जो कुछ भी गन्ध घती है और शरीर जो कुछ भी आठ तरहके स्पर्शका अनुभव करता है, यह सब तेरी ही करामात है । है आत्मा ! तू इस शरीर मन्दिरमे देवरूपमे बैठी है। मन ! तू इस आत्मदेवकी सेवा क्यों नहीं करता, कहाँ दौडता है-
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याही देह देवलमें केवल स्वरूप देव, ताकर सेव मन कहाँ दौड़े जात 1
कवि भगवतीदास अपने घटमे ही परमात्माको ढूढनेके लिए कहता है कि हे भाई! तुम इधर-उधर कहाँ घूमते हो, शुद्ध दृष्टिसे देखने पर परमात्मा तुमको इस घटके भीतर ही दिखलायी पड़ेगा । यह अमृतमय ज्ञानका भाण्डार है । संसार पार होकर नौकाके समान दूसरोको भी पार करनेवाला है । तीन लोकमें उसकी बादशाहत है । शुद्ध स्वभावमय है, उसको समझदार ही समझ सकते हैं। वही देव, गुरु, मोक्षका वासी और त्रिभुवनका मुकुट है । हे चेतन सावधान हो जाओ, अपनेको परखो।
देव च गुरु है वहै, शिव है बसइया । त्रिभुवन मुकुट व सदा, वेतो चितवइया ॥
कवि बनारसीदासने भी बतलाया है कि जो लोग परमात्माको ढूँढने के नानाप्रकारके प्रयत्न करते हैं, वे मूर्ख हैं तथा उनके सभी प्रयत्न अयथार्थ हैं । उदासीन होकर जगलोकी खाक छाननेसे परमात्माकी प्राप्ति नहीं हो सकती है। मूर्ति बनाकर प्रणाम करनेसे और छीकोपर चढकर पहाड़की चोटियोपर चढ़ने से भी उसकी प्राप्ति नही हो सकती है। परमात्मा न ऊपर आकाशमे है और न नीचे पातालमे । ज्ञान, दर्शन, सुख, वीर्य आदि गुणोकी धारी यह आत्मा ही परमात्मा है और यह प्रत्येक व्यक्तिके भीतर विद्यमान है । कवि कहता है----
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रहस्यवाद केई उदास रहे प्रभु कारन, केई कहीं उठि जाहिं कहीं के । बेई प्रणाम करै घट मूरति, केई पहार चढे चढि छीके ।। केई कहं आसमान के ऊपरि, केई कह प्रभु हेठ जमीके ।
मेरो धनी नहिं दूर दिशांतर, मोहिमे है मोहि सूझत नीके ॥ • हिन्दी जैन साहित्यम रहस्यवादकी दूसरी व्ह स्थिति है जहाँ मन ऐन्द्रियक विषयोसे मुक्त हो मुत्तिकी ओर तेजीसे दौड़ना आरम्भ करता है । इस स्थितिका वर्णन वनारसीदासके काव्यमे भावात्मक स्पसे किया गया है। हठयोग सम्बन्धी साधनात्मक रहस्यवाद हिन्दी जैन साहित्यमें नहीं पाया जाता है। केवल भावालक रहत्ववादका वर्णन ही किया है। साधनाकै क्षेत्र विकार और कपायोको दूर करनेके लिए संयम, इन्द्रिय-निग्रह और मेदविज्ञान या त्वानुभूतिको स्थान दिया गया है । परन्तु इनकी यह साधना भी भावात्मक ही है। इस अवस्थाका महाकवि बनारसीदासने निम्न चित्रण किया है।
मूलनबेटा जायोरे साधो, मूलनः । जाने खोज कुटुम्ब सव खायो रे साधो, मूलन० ॥ जन्मत माता ममता खाई, मोह लोभ दोइ भाई। काम क्रोध दोइ काका खाए, खाई तृपना दाई । पापी पाप परोसी खायो, अशुभ में दोइ मामा। मान नगरको राजा खायो, फैल परो सव गामा ॥ दुरमति दादी विकथा दादो, मुख देखत ही मूलो । मंगलाचार वधाए बाजे, जब दो वालक हो। नाम धस्यो वालकको रुयो, रूप घरन कछु नाही।
नाम घरन्ते पाण्डे खाए, कहत बनारसि भाई ॥ रहस्यवादकी इस दूसरी स्थितिमे गुरुका उपदेश श्रवण करना तथा उस उपदेशके अनुसार भ्रमरूपी कीचड़का प्रक्षालन कर अपने अन्तस्को
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हिन्दी-जैन-साहित्य-परिशीलन उज्वळ करना होता है। कवि बनारसीदास कहता है कि हे भाई! तूने वनवासी बनकर मकान और कुटुम्ब छोड़ भी दिया, परन्तु स्व-परका भेद ज्ञान न होनेसे तेरी ये क्रियाएँ अयथार्थ है। जिस प्रकार रक्तसे रंजित वस्त्र रक्त द्वारा प्रक्षालन करनेपर स्वच्छ नहीं हो सकता है, उसी प्रकार ममत्व भावसे ससार नहीं छूट सकता है । तु अपने धनीको समझ, उससे प्रेम कर और उसी के साथ रमण कर । है वनवासी ते वजा, घर वार मुहल्ला ।
अप्पा पर न विछाणियाँ, सब झूठी गल्ला। ज्या रुधिरादि पुट्ट सों, पट दीसे लल्ला ।
रुधिराजलहिं पखलिए, नहीं होय उज्जला ॥ किण तू जकरा साँकला, किण एकड़ा मल्ला ।
मिद मकरा ज्यो उरझिया, उर माप उगला ॥ तीसरी रहस्यवादकी वह स्थिति है, जिसमें भेदविज्ञान उत्पन्न होनेपर आत्मा अपने प्रियतम रूपी शुद्ध दशाके साथ विचरण करने लगती है। हर्षके झूमे चेतन झुलने लगता है, धर्म और कर्मके सयोगसे स्वभाव
और विभाव रूप-रस पैदा होता है। ___ मनके अनुपम महल्मे सुरुचि रूपी सुन्दर भूमि है, उसमे ज्ञान और दर्शनके अचल खम्भे और चरित्रकी मजबूत रस्सी लगी है। यहाँ गुण
और पर्यायकी सुगन्धित वायु बहती है और निर्मल विवेक रूपी भौरे गुंजार करते है। व्यवहार और निश्चल नयकी डण्डी लगी है, सुमतिकी पटली विछी है तथा उसमे छ: द्रन्यकी छः कीले लगी हैं । कोका उदय
और पुरुषार्थ दोनों मिलकर झोटा-धक्का देते है, जिससे शुभ और अशुभ की किलोलें उठती है। संवेग और सवर दोनो सेवक सेवा करते हैं और व्रत ताम्बूलके बीड़े देते है। इस प्रकारकी अवस्थामें आनन्द रूप चेतन अपने आत्म-सुखकी समाधिम निश्चल विराजमान है। धारणा, समता,
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रहस्यवाद
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क्षमा और करुणा ये चारों सखिया चारो ओर खड़ी हैं; सकाम और अकाम निर्जरा रूपी दासियों सेवा कर रही हैं।
यहाँ पर सातो नयरूपी सौभाग्यवती सुन्दर रमणियोकी मधुर नूपुर ध्वनि झकृत हो रही है। गुरुवचनका सुन्दर राग आलापा जा रहा है तथा सिद्धान्तरूपी धुरपद और अर्थरूपी तालका सचार हो रहा है । सत्यश्रद्धानरूपी बादलोकी घटाएँ गर्जन-तर्जन करती हुई वरस रही हैं । आत्मा. नुमव रूपी बिजली बोरसे चमकती है और शीलरूपी शीतल वायु वह रही है। तपस्याके जोरसे काँका बाल विच्छिन्न ले रहा है और आत्मशक्ति प्रादुर्भूत होती जा रही है । इस प्रकार हर्प सहित शुद्धभावके हिडोले पर चेतन झूल रहा है। कवि कहता है
सहन हिंडना हरख हिडोलना, झूलत चेतन राघ । जह धर्म कर्म संजोग उपजत, रस स्वभाव विभाव ॥ जह सुमन रूप अनूप मन्दिर, सुरुचि भूमि सुरंग। वह ज्ञान दर्शन खंभ अविचल, चरन आइ अभंग ॥ मरुवा सुगुन पर जाय विचरन, भौर विमल विवेक । न्यवहार निश्चय नभ सुदंडी, सुमति पटली एक। उद्यम उदय मिलि देहि शोटा, शुभ अशुभ कल्लोल। पट्कील नहाँ पटू द्रव्य निर्णय, अभय अंग अडोल ॥ संवेग संघर निकट सेवक, विरत चीरे देत । आनंद कंद सुछंद साहिव सुख समाधि समेत ॥ धारना समता क्षमा क्रुणा, धार सखि चहुँ ओर। निर्जरा दोउ चतुर दासी, करहि खिदमत नोर ॥ जह विनय मिलि सातों सुहागिन, करत धुनि अनकार ।
गुरु वचन राग सिद्धान्त धुरपद, ताल भरय विचार ॥ रहस्यवादकी प्रथम अवस्थासे लेकर तृतीय अवस्या तक पहुंचनेमे
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हिन्दी-जैन साहित्य-परिशीलन आत्माकी तड़पन और उसकी वेचैनीकी अवस्थाका चित्रण महाकवि बनारसीदासने बड़े ही मार्मिक शब्दोमें किया है । कवि कहता है
मै विरहिन पियके अधीन, यो तलको ज्यों जल बिन मीन । मेरा मनका प्यारा जो मिले, मेरा सहज सनेही नो मिल ।। - अनुभूतिके दिव्य होने पर नव बहिरुन्मुखी वृत्तियाँ अन्तरुन्मुखी हो जाती हैं, तो बहिर्जगत्मे कुछ दिखलायी नहीं पड़ता; किन्तु आन्तरिक जगत्मे ही दिव्यानुभूति होने लगती है। इसी अवस्थाका चित्रण करता हुआ कवि कहता है
वाहिर देखू तो पिय दूर । घट देखें घटमें भरपूर । जव अनुभव करते-करते लम्बा अरसा बीत गया और आत्मदर्शन नहीं हुआ तो उसके धैर्यका बॉघ टूट गया और मुंहसे अचानक निकल पड़ा
अलख अमूरति वर्णन कोय । अवधी पियको दर्शन होय ॥ सुगम पंथ निकट है और । अन्तर आउ विरहकी दौर । नहुँ देखू पियकी उनहार । तन मन सरवस ढारों वार ।। होहु मगनमें दरशन पाय । ज्या दरियामै बूंद समाय ॥ पिनको मिलो अपनपो खोय । बोला गल पानी ज्या होय ॥
चतुर्थ अवस्थाम पहुँचनेपर, नव कि मोक्षरमासे रमण होने ही वाला है; आत्मानुभूति की निम्न पुकार होने लगती है
पिय मोरे घट मैं पिय माहि, जल तरंग ज्या द्विविधा नाहि । पिय मी करता मैं करतूति, पिय ज्ञानी मैं ज्ञान विभूति ॥ पिय सुख सागर में सुख सीव, पिय शिव मंदिर मैं शिव नीध । पिय ब्रह्मा मैं सरस्वति नाम, पिय माधव मो कमला नाम । पिय शंकर मैं देवि भवानि, पिय निनवर मैं केवलि वानि ॥
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रहस्यवाद
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पिय भोगी मै भुक्ति विशेप, पिय जोगी मै मुद्रा भैप ॥ जह पिय तहँ मैं पियके संग, ज्यों शशि हरि मै ज्योति अभंग ।
इसके अनन्तर कविने शुद्धात्म तत्त्वकी प्राप्तिके लिए अनेक भावामक दशाओका विश्लेषण किया है । इस सरस रहस्यवादमे प्रेमकी सयोग वियोगात्मक दशाओका विश्लेषण भी सूक्ष्मतासे किया गया है।
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ग्यारहवाँ अध्याय
सिंहावलोकन हिन्दी-जैन-साहित्यका आरम्भ ७वी शतीसे हुआ है। अपभ्रश भापा और पुरानी हिन्दीमें सबसे प्राचीन रचनाएँ जैन-कवियोंकी ही उपलब्ध हैं । इन दोनों भापाओमे विपुल परिमाणमें ग्रन्थोका प्रणयन कर हिन्दीसाहित्यके लिए उपजाऊ क्षेत्र तैयार करना जैन-लेखकोंका ही कार्य है। भले ही सकीर्णता और साम्प्रदायिक मोहमे आकर इतिहास निर्माता इस नम सत्यको स्वीकार न करें । साहित्यका अनुशीलन पूर्वोक्त प्रकरणोंमें किया जा चुका है, अतः यहॉपर समयक्रमानुसार कवियोकी नामावली दी जा रही है। ___ आठवीं शताब्दीमे स्वयंभूदेवने हरिवंशपुराण, पउमचरिउ (रामायण) और स्वयम्भू छन्द; दशधी शताब्दीमे देवसेनने सावयधम्म दोहा पुष्पदन्तने महापुराण, यशोधर चरित और नागकुमार चरित ; योगीन्द्रदेवने परमात्मप्रकाश दोहा और योगसार दोहा ; रामसिंह मुनिने दोहापाहुड एवं धनपाल कविने भविसयत्तकहा लिखी है । ग्यारहवीं शताब्दीमें कनकामर मुनिने करकण्डु चरित ; जिनदत्तसूरिने चाचरि, उपदेश रसायन
और कालस्वरूप कुलक रचे हैं। बारहवीं शताब्दीमे हेमचन्द्रसूरिने प्राकृत व्याकरण, छन्दोनुशासन, और देशीनाममाला आदि; हरिमनसूरिने नेमिनाथ चरित; शालिभद्र सूरिने बाहुबलिरास; सोमप्रभने कुमारपाल प्रतिबोध, जिनपद्म सूरिने स्थूलभद्र फाग और विनयचन्द्र सूरिने नेमिनाथ चतुष्पदिकाकी रचना की है।
१३ वीं शताब्दीमें रासा अन्य और कथात्मक चउपई ग्रन्थ रचे
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सिंहावलोकन
२०९
गये हैं । इस शताब्दीकै रचयिताओंपर अपभ्रगका पूरा प्रभाव है । अनेक कवियो अपभ्रंश भाषामे भी काव्यग्रन्थोंकी रचना की है । यो तो अपभ्रश साहित्यकी परम्परा १७वीं शती तक चलती रही, पर इस शताब्दीके जैन स्वयिताओने हिन्दी भाषामें काव्य लिखना आरम्भ कर दिया था । विषयकी दृष्टिसे इस गतीके काव्योमे हिंसापर अहिंसाकी और ढानवतापर' मानवताकी विजय दिखलानेके लिए पौराणिक चरितोक रंग भरकर महापुरुषो के चरित वर्णित किये गये है । कलाकारोने काव्यकलाको रस, अलकार और सुन्दर लयपूर्ण छन्द तथा कवित्तो- द्वारा अलकृत किया है। अपभ्रशके कलाकारोंमे लक्खण कविका अणुव्रतरत्नप्रदीप; अम्बदेव सूरिका समररास; और राजशेखर सूरिका उपदेशामृत तरगिणी और नेमिनाथ फाग प्रसिद्ध काव्य ग्रन्थ हैं ।
हिन्दी भाषाके काव्योमे जम्बूस्वामी रासा, रेवतगिरि रासा, नेमिनाथ चउपई, उपदेशमाला कथानक छप्पय आदि काव्य प्रमुख हैं । यद्यपि इन ग्रन्थोमे काव्यत्व अल्प परिमाणमे और चरित्र तथा नीति अधिक परिमाण में है, तो भी हिन्दी काव्य साहित्यके विकासको अवगत करनेके लिए इनका अत्यधिक महत्त्व है ।
१४वीं शताब्दीम मानवके आचारको उन्नत और व्यापक बनानेके लिए सप्तक्षेत्र रास, सघपति समरा रास और कच्छुलि रासा प्रभृति प्रमुख रचनाएँ लिखी गयी है।
१५ वीं शताब्दी में भट्टारक सकलकीर्त्तिने आराधनासार प्रतिबोध, विजयभद्र या उदवन्तने गौतम रासा, जिनउदय गुरुके शिष्य और ठक्कर माल्हेके पुत्र विणू ने ज्ञानपचमी चउपई और दयासागर सूरिने धर्मदत्त चरित्र रचा है। अपभ्रंश भाषामे महाकवि रहधूने पार्श्वपुराण, महेसर चरित्र, सम्यक्त्वगुणनिधान, सुकौशलचरित, करकण्डुचरित, उपदेशरत्नमाला, आत्मसम्बोध काव्य, पुण्यास्रवकथा और सम्यक्त्वकौमुदीकी रचना की है । कान्यकी दृष्टिसे रहधूके ग्रन्थ उच्चकोटिके है ।
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२१० हिन्दी-जैन-साहित्य-परिशीलन
१६ वीं शताब्दी में ब्रह्म निनदास युगप्रवर्तक ही नहीं, युगान्तरकारी कवि हुए हैं। इन्होने आदिपुराण, श्रेणिक चरित, सम्यक्त्वरास, यशोधर रास, धनपालरास, व्रतकथाकोश, दशलक्षणव्रत कथा, सोलह कारण, चन्दनपाठी, मोक्षसतमी, निदीप सप्तमी आदि मानवता के प्रतिष्ठापक ग्रन्थ रचे । इसी शताब्दीमं चतुम्मलने नीम्बर गीत बनाया और धर्मदासने धर्मोपदेश श्रावकाचार रचा।
हिन्दी बैन कान्यके विकासके लिए सत्रहवीं शताब्दी विशेष महत्व की है। इस शतीम गद्य और पद्य दोनोंम साहित्य लिखा गया। महाकवि वनारसीदास, रूपचन्द और रायमल जैसे श्रेष्ठ कवियोको उत्पन्न करनेका गौरव इसी शतीको है । इनके अतिरिक्त त्रिभुवनदास, हेमविजय, कुंवरपाल और उदयराजपतिकी रचनाएँ भी कम गौरवपूर्ण नहीं है । गद्य लेखको पाण्डे राजमल्ल एवं अखरानकी रचनाएँ प्रमुख मानी जाती हैं। राजभूषणने लोक निराकरण रास, ब्रह्मवस्तुने पार्श्वनाथ रासो; मुनिकल्याण कीर्तिने होली प्रवन्ध; नयनसुखने मेघमहोत्सव, हरिकल्पने हरिकल्या रूपचन्दने परमार्थ दोहा शतक, परमार्थगीत, पद सग्रह, गीत परमार्थी, पञ्चमंगल, नेमिनाथ रामो; रायमलने हनुमन्त कथा, प्रद्युम्न चरित, सुदर्शन रासो, निदाप सप्तमीवन कथा, नेमीश्वर रासो, श्रीपाल रासो, भविग्यदत्त कथा; त्रिभुवनचन्द्रने अनित्यपञ्चाशत् , प्रास्ताविक दोहे, पद्व्य वर्णन और फुटकर कवित्त; वनारसीदासने बनारसीविलास,, नाटक समयसार, अर्द्धकथानक और नाममाला; कल्याणदेवने देवरान बच्छरान चउपई; मालदेवने भोनग्रवन्ध, पुरन्दरकुमार चउपई पाण्डे निनदासने जम्बूचरित्र, बानसूर्योदय; पाण्डे हेमराजने प्रवचनसार टीका, पंचास्तिकाय टीका और भाषा मत्तामरः विद्याक्मलने भगन्ती गीताः मुनिलावायने रावण-मन्दोदरी संगद; गुणसूरिने ढोला मागर; लूणसागरने अञ्जनासुन्दरी संवाद, मानशिक्ने मापा कवि रस मनरी; केशव
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सिंहावलोकन
दासने जन्मप्रकाशिका, जटमलने बावनी गोरा बादलकी बात, प्रेम बिलास चउपई एव हसराजने हसराज नामक ग्रन्थ लिखा है।
१८वीं शताब्दीम हेमने छन्द माटिका; कैसरकीर्तिने नामरत्नाकर; विनयसागरने अनेकार्थनाममाला, कुंअरकुशालने लखपत जयसिन्धु; मानने सयोग द्वात्रिंशिका; कवि विनोदने फुटकर पद्म, उदयचन्द्रने अनूपरसाल, उदयराजने वैद्य विरहणि प्रबन्धमानसिंह विजयगच्छने राजविलासः सुवुद्धविजयने प्रतापसिंहका गुण वर्णन; जगरूपने मावदेव सूरिरास; लक्ष्मीवल्लभने कालज्ञान, धर्मसीने , उंभ क्रिया; समरथने रसमंजरी, रामचन्द्रने रामविनोद, दीपचन्द्रने वैद्यसार बालतन्त्रकी भाषा वचनिका ; जयधर्मने शकुन प्रदीप, रामचन्द्रने सामुद्रिक भापा; नगराजने सामुद्रिक भाषा लालचन्द्रने स्वरोदय भाषा टीका, रत्नशेखरने रलपरीभा; लक्ष्मीचन्द्रने आगरा गजल; खेत्तलने उदयपुर गमल और चित्तौड़ गजल, मनरूप विजयने शूनागढ़ वर्णन, उदयचन्द्रने बीकानेर गजल, दुर्गादासने भरोट, किसनने कृष्णा वावनी, केशवने केशव वावनी, जिनहर्पने जसराज वावनी और लक्ष्मीवल्लभने हेमराजबावनी नामक ग्रन्थ लिखे।
इसी शताब्दीमे जिनहर्षने उपदेशछत्तीसी सवैया मैया भगवतीदासने ब्रह्मविलास; धानतरायने उपदेशशतक, अक्षरी बावनी, धर्मविलास और आगमविलास , पण्डित शिरोमणिदासने धर्मसार ; बुलाकीदासने महाभारत और प्रश्नोत्तर श्रावकाचार: पण्डित श्यामलाल्ने सामायिक पाठ विनोदीलालने श्रीपालचरित्र ; पण्डित लक्ष्मीदासने यशोधरचरित्र और धर्मप्रवोध , पडित शिवलाल्ने चर्चासागर ; भूधरदासने जैनशतक, पावपुराण और पदसग्रह ; आनन्दधनने आनन्दबहत्तरी; यशोविजयने जसविलास , विनयविजयने विनयविलास, किसनसिंहने क्रियाकोश, भद्रबाहुचरित्र और रात्रिभोजन कथा ; मनोहरलालने धर्मपरीक्षा, बोधराज गोदीकाने सम्यक्त्वकौमुदी; खुशालचन्द्र कालाने हरिवंशपुराण, पद्मपुराण और उत्तरपुराण रुपचन्द्रने नाटक समयसारकी टीका; प० दौलतरामने
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हिन्दी - जैन साहित्य-परिशीलन
हरिवंशपुराणकी वचनिका, पद्मपुराणकी वचनिका, आदिपुराणकी वचनिका, परमात्मप्रकाशकी वचनिका और श्रीपालचरित्रकी रचना की है।
खडगसेनने तिलोकदर्पण; जगतरामने आगमविलास, सम्यत्तत्वकौमुदी, पद्मनन्दपच्चीसी आदि अनेक ग्रन्थः देवीसिंहने उपदेशसिद्धान्त रत्नमाला, जीवराजने परमात्माप्रकाशकी वचनिका; ताराचन्दने ज्ञानार्णव, विश्वभूषण भट्टारकने जिनदत्तचरित्र, हरखचन्दने श्रीपाल चरित्र, बिनरगसूर्यने सौभाग्यपच्चीसी, धर्ममन्दिरगणिने प्रबोधचिन्तामणि, इसविजययतिने कल्पसूत्रकी टीका, ज्ञानविजय यतिने मलयचरित्र एव लाभवर्द्धनने उपपदी ग्रन्थोंकी रचना की है।
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rated शताब्दीमें टोडरमलने गोम्मटसारकी वचनिका, त्रिलोकसारकी वचनिका, लब्धिसारकी बच निका, क्षपणसारकी वचनिका और आत्मानुशासनकी वचनिका; जयचन्द्रने सर्वार्थसिद्धिकी वचनिका, द्रव्यसंग्रहकी वचनिका, स्वामिकार्त्तिकेयानुप्रेक्षाकी वचनिका; आत्मख्यातिसारकी वचनिका, परीक्षासुख वचनिका, देवागम वचनिका, अष्टपाहुडकी वचनिका, ज्ञानार्णवकी वचनिका और भक्तामरकी वच्चनिका; वृन्दावनलालने वृन्दावनविलास, चतुर्विंशति चिनपूजापाठ और तीसचौबीसी पूजापाठ ; भूधरमिश्रने पुरुषार्थसिद्धधु पाय वचनिका और चर्चासमाधान; बुधजनने तत्त्वार्थबोध, बुधजन सतसई, पञ्चास्तिकाय भाषा और बुधजनविलास ; दीपचन्दने ज्ञानदर्पण, अनुभवप्रकाश (गद्य), अनुभवविलास, आत्मावलोकन, चिद्विलास, परमात्मपुराण, स्वरूपानन्द और अध्यात्मपच्चीसी; ज्ञानसार या ज्ञानानन्दने ज्ञानविलास और समयतरङ्गः रङ्गविजयने गजल: कर्पूरविजय या चिदानन्दने स्वरोदय; टेकचन्दने तत्त्वार्थकी भुतसागरी टीकाकी वचनिका ; नथमल बिलालाने जिनगुणविलास, नागकुमारचरित, जीवन्धर चरित और जम्बूस्वामी चरित; डालूरामने गुरूपदेशश्रावकाचार, सम्यक्त्वप्रकाश और अनेक पूजाऍ सेवारामने हनुमच्चरित्र, शान्तिनाथ पुराण और भविष्यदत्त चरित्र; देवीदासने
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सिंहावलोकन
२१३ परमानन्दविलास, प्रवचनसार, चिद्विलास वचनिका और चौबीसी पाठ; मारामल्लने चारुदत्तचरित्र , सप्तव्यसन चरित्र, दानकथा, शीलकथा,
और रात्रिभोजनकथा; गुलाबरायने शिखिरविलास , थानसिंहने सुबुद्धिप्रकाश ; नन्दलाल छावडाने मूलाचारकी वचनिका; मन्नालाल सागाकर ने चरित्रसारकी वचनिका, मनरङ्गलाल्ने चौबीसी पूजापाठ, नेमिचन्द्रिका, सप्तव्यसन चरित्र, सप्तऋषिपूजा, षट्कर्मोपदेश रत्नमाला, वरागचरित्र, विमलनाथपुराण, गिखिरविलास, सम्यक्त्वकौमुदी, आगमशतक और अनेक पूजा ग्रन्थ; चेतनविजयने लघुपिंगल, आत्मबोध और नाममाला; मेघराजने छन्दप्रकाश; उदयचन्दने छन्द प्रबन्ध; उत्तमचन्दने अलकार आशय भडारी, भमाकल्याणने अवह चरित्र और जम्बूकथा ज्ञानसागरने भाला पिगल, कामोद्दीपन, पूरवदेश वर्णन, चन्द चौपाई समालोचना और निहाल बावनी; मूलकचन्दने वैद्य-हुलास ; मेघने मेघविनोद और मेघमाला; गगारामने लोलिंब राजभाषा, सूरतप्रकाग और भावनिदान
चैनसुखदासने शतश्लोकीकी मापा टीका, रामचन्द्रने अवपदिशा शकुनावली; तत्वकुमारने रल परीक्षा गुरुविजयने कापरडा; कल्याणने गिरनार सिद्धाचल गजल, भक्ति विजयने भावनगर वर्णन गजल, मनरूपने मेड़ता वर्णन, पोरबन्दर और सोजात वर्णन, रघुपतिने जैनसार बावनी; निहाल्ने ब्रह्मवावनी, चेतनने अध्यात्म वाराखडी, सेवाराम शाहने चौवीसी पूजापाठ, यति कुगलचन्द्र गणिने जिनवाणी सार; हरजसरायने साधु गुणमाला
और देवाधिदेवस्तवन क्षमाकल्याण पाठकने साधु प्रतिक्रमण विधि और श्रावकप्रतिक्रमण विधि एव विजयकीर्त्तिने श्रेणिकचरित्रकी रचना की है।
विक्रमकी २० वीं शतीके आरम्भमे एवं ई० सन् की १९वीं शतीके अन्तमे प० सदासुखने रनकरण्डभावकाचारकी टीका, अर्थप्रकाशिका, समयसारकी टीका, नित्य पूजाकी टीका और अकलकाष्टककी टीका; भागचन्दने ज्ञानसूर्योदय, उपदेश सिद्धान्तरत्नसाला, अमितगतिश्रावकाचार टीका, प्रमाण परीक्षा टीका और नेमिनाथ पुराण, दौलतरामने
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२१४
हिन्दी-जैग-साहित्य परिशीलन -छहढाला; मुनि आत्मारामने जैन तत्वादर्श, तत्वनिर्णय प्रसार और अज्ञानतिमिर भास्कर; यति श्रीपालचन्द्रने सम्प्रदाय शिक्षा, चम्पारामने गौतम परीक्षा, वसुनन्दी श्रावकाचार टीका, चर्चासागर और योगसार; छत्रपतिने द्वादशानुप्रेक्षा, मनमोदन पचासिका, उद्यमप्रकाश और शिक्षा प्रधान, जौहरीलालने पद्मनन्दिपचविंशतिकाकी टीका; नन्दरामने योगसार वचनिका, यशोधरचरित्र और त्रिलोकसारपूजा; नाथूराम दोशीने सुकुमाल चरित्र, सिद्धिप्रिय स्तोत्र, महीपाल चरित्र, रत्नकरण्डश्रावकाचार टीका, समाधितन्त्र टीका, दर्शनसार और परमात्मप्रकाश टीका, पन्नालालने विद्वजनबोधक और उत्तर पुराण वचनिका; पारसदासने जानसूर्योव्य और सार चतुर्विंशतिकाकी वचनिका; फतेहलालने विवाह पद्धति, दशावतार नाटक, राजवात्र्तिकालकार टीका, रत्नकरण्ड टीका, तत्त्वार्थसूत्र टीका और न्यायदीपिका वचनिका; बख्तावरमल रतनलालने जिनदत्त चरित्र, नेमिनाथ पुराण, चन्द्रप्रम पुराण, भविष्यदत्त चरित्र, प्रीतिकर चरित्र, प्रद्युम्नचरित्र, ब्रतकथाकोश और अनेक पूजाएँ; चिदानन्दने सवैया बावनी और स्वरोदय, मन्नालाल वैनाड़ाने प्रद्युम्न चरित्र वचनिका; महाचन्द्रने महापुराण और सामायिक पाठ, मिहिरचन्दने सज्जनचिचवल्लभ पद्यानुवाद, हीराचन्द अमोलकने पचपूजा, शिवचन्दने नीतिवाक्यामृत टीका, प्रश्नोत्तर श्रावकाचार और तत्त्वार्थकी वचनिका; शिवजीलालने रत्नकरण्डवचनिका, चर्चासग्रह, बोधसार, अध्यात्मतरगिणी एवं स्वरूपचन्दने मदनपराजय वचनिका और त्रिलोकसार टीका आदि अन्थोकी रचना की है। . ईपी सन् की २०वीं शतीमे गुरु गोपालदास वरैया, बा. जैनेन्द्रकिशोर, जवाहरलाल वैद्य, महात्मा भगवानदीन, बा० सूरजभानु वकील, पं० पन्नालाल वाकलीवाल, प० नाथूराम प्रेमी, प० जुगलकिशोर मुख्तार, सत्यभक्त पं० दरबारीलाल, अर्जुनलाल सेठी, लाला मुंशीलालजी, बाबू दयाचन्द गोयलीय, मि० वाडीलाल मोतीलाल शाह, व्र० शीतलप्रसाद,
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सिंहावलोकन
२१५ मुनि जिनविजय, बाबू माणिकचन्द, बाबू कन्हैयालाल, प० दरयावसिंह सोधिया, खूबचन्द सोधिया, निहालकरण सेठी, पं० खूबचन्द शास्त्री, प० मनोहरलाल शास्त्री, ५० कैलाशचन्द्र शास्त्री, प० फूलचन्द्र शास्त्री, १० महेन्द्रकुमार न्यायाचार्य, मुनि शान्तिविजय, मुनि कल्याणविजय, लाला न्यामतसिह, स्व० भगवत्स्वरूप भगवत, कवि गुणभद्र आगास, कवि कल्याणकुमार 'शशि', कृष्णचन्द्राचार्य, मुनि कन्तिसागर, अगरचन्द्र नाहटा, वीरेन्द्रकुमार एम०ए०, ५० लालाराम शास्त्री, प० मक्खन लाल शास्त्री, कविवर चैनसुखदास न्यायतीर्थ, पं० अजितकुमार शास्त्री, पं० हीरालाल सिद्धान्त शास्त्री, प्रो० हीरालाल, एम० ए०, पी०एच०डी०, ५० के० भुजवली गास्त्री, प्रो० राजकुमार साहित्याचार्य, पं० सुखलाल सघवी, पं० अयोध्याप्रसाद गोयलीय, वा. लक्ष्मीचन्दजी, प० चन्दाबाई, ५० बालचन्द्र एम० ए०, प्रो० गो० खुगालचन्द्र जैन एम०ए०, पं० दरखारीलाल न्यायाचार्य, प्रो० देवेन्द्रकुमार, कवि पन्नालाल साहित्याचार्य, प्रो० दलसुख मालवणिया, प० बालचन्द्र शास्त्री, वा० छोटेलाल एम० आर० ए० एस, पं० परमानन्द शास्त्री, श्री महेन्द्र राजा एम० ए०, पृथ्वीराज एम० ए०, प. बलभद्र न्यायतीर्थ, डा० नथमल टाटिया, श्री जैनेन्द्रकुमार जैन, कवि तन्मय बुखारिया, कवि हरिप्रसाद 'हरि, भंवरलाल नाहटा, कवि 'सुधेश आदि साहित्यकार उल्लेख योग्य हैं। इस प्रकार हिन्दी जैन साहित्य निरन्तर समृद्धिशाली होता जा रहा है।
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परिशिष्ट
कतिपय ग्रन्थरचयिताओंका संक्षिप्त परिचय
धर्मसूरि- इनके गुरुका नाम महेन्द्रसूरि था । इन्होंने सवत् १२६६ मे जम्बूस्वामी रासाकी रचना की है। इस ग्रन्थकी भाषा गुजरातीसे प्रभावित हिन्दी है । प्रवन्धकाव्यके लिखनेकी शक्ति कविमे विद्यमान है । जम्बूस्वामीरासाकी भाषाका नमूना निम्न प्रकार है ।
जिण चउचिस पय नमेवि गुरुचरण नमेधि | जम्बूस्वामिहिं राणूं चरिय भवित निसुणेषि ॥ करि सानिध सरसत्ति देवि जीयरयं कहाणउ । जंबू स्वामिहिं (सु) गुणगहण संखेचि बखाणउ ॥ जंबुदीधि सिरि भरहखित्ति तिहिं मयर पहाणउ | राजगृह नामेण नयर पहुची वक्खाण्ड ||
विजयसेन सूरि- इनके शिष्य वस्तुपालमन्त्री थे । वस्तुपालने संवत् १२८८ के लगभग गिरनारका सघ निकाला था | विजयसेन सूरिने रेवन्त गिरिरासाकी रचना इस यात्रा तथा इस यात्रामे गिरिनार पर किये
गये जीणोद्धारका लेखाजोखा प्रस्तुत करनेके लिए की है। इस ग्रन्थकी मापा पुरानी हिन्दी है, पर गुजरातीका प्रभाव स्पष्ट है। नमूना निम्न प्रकार है
परमेसर तित्थेसरह पयपंकज पणमेचि । भणिसु रास रेवंतगिरि- अविकदिवि सुमरेवि ॥ गामागर- पुरन्धय गहण सरि-सरवरि-सुपरसु । देवभूमि दिखि पच्छिमह मणहरु सोरठ देसु || विनयचन्द्र सूरि-संस्कृत और प्राकृत भाषाके मर्मज्ञ विद्वान्
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परिशिष्ट
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कवि विनयचन्द्रसूरि है। इनका समय विक्रम संवत्की तेरहवीं शती है । इनके गुरु रत्नसिह थे। कवि विनयचन्द्र सत्कृत, प्राकृत और हिन्दी इन तीनो ही भाषाओंमे कविता करते थे। आपके द्वारा हिन्दी भाषामे 'नमिनाथ चतुष्पदिका' नामक ४० पद्योका एक छोटा-सा ग्रन्थ तथा उपदेशमाला कथानक छप्पय ८१ पद्योका ग्रन्थ उपलब्ध है। नेमिनाथ चउपईमे प्रारम्मका कुछ चौपाइयाँ निम्न प्रकार है
सोहग सुंदर घण लावन्नु, सुमरवि सामिउ सामलवन्तु । सखिपति राजल चढि उत्तरिय, बार मास सुणि जिम बजरिय ॥१॥ नेमिकुमर सुमरवि गिरनार, सिद्धी रानल कन्न कुमारि । श्रावणि सरवणि कडुए मेहु, गजइ विरहि रिझिज्जहु देहु ॥ विज्ज झवक्कह रक्खसि जेव, नेमिहि विणु सहि सहियइ केव । सखी भणइ सामिणि मन अरि, दुज्जण तणा मनवंछित पूरि ॥ गयेउ नेमि तउ विनठड काइ, अछह अनेरा वरह सयाइ ।
अम्वदेव-यह नगेन्द्रगच्छके आचार्य पासड सूरिके शिष्य थे। इन्होंने सवत् १३७१ मे संघपति-समरारास नामक ग्रन्थ लिखा है। अणहिरलपुर पट्टनके ओसवाल शाह समरासघपतिने सवत् १३७१ में शत्रुञ्जयतीर्थका उद्धार अपार धन व्यय करके कराया था। कविने इसी इतिवृत्तको लेकर इस रास ग्रन्थकी रचना की है। भाषा राजस्थानीका परिस्कृतस्प है। कविताका नमूना निम्न प्रकार है
वालिय संख असंख नादि काहल दुडुडिया। घोड़े चडइ सल्लारसार राउत साँगड़िया । तर देवाला जोनिवेगि घाघरि खु क्षमक्का ।
समविसम नवि गणइ कोइ नवि वारिउ थक्छ। जिनपद्मसूरि-इनके पिताका नाम आवाशाह और पितामहका नाम लक्ष्मीधर था । यह खीमड कुल्म उत्पन्न हुए थे । सवत् १३८९ में
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हिन्दी - जैन साहित्य- परिशीलन
ज्येष्ठ शुक्लाष्टमी सोमवारको ध्वजा, पताका, तोरण, बन्दन मालादिसे अलकृत आदीश्वर जिनालय मे नान्दिस्थापन विधि सहित श्री सरस्वतीकण्ठाभरण तरुण प्रभाचार्यने खरतरगच्छीय जिनकुशल सूरिके पदपर इन्हे प्रतिष्ठित किया था । शाह हरिपालने सघभक्ति और गुरुभक्तिके साथ इन्हे युगप्रधानपद बड़े उत्सवके साथ प्रदान किया था । इन्हीं आचार्यने थूलिभद्रफागु चैत्रमहीनेमे फाग खेलने के लिए रचा है । कविताका नमूना निम्न प्रकार है
उह सोहग सुन्दर रूपवंतु गुणमणि भंडारो | कंचण जिस झलकंत कंति संजम सिरिहारो ॥ धूलिभद्र मुणिराउ जाम महियली बोहंतर | नयरराय पाडलियाँ हि पहूतर विहरंतर ॥
विजयभद्र --- इनका अपर नाम उदयवन्त भी मिलता है । इन्होंने संवत् १४१२ मे गौतमरास नामक ग्रन्थ रचा है । कविताका नमूना निम्न प्रकार है-
जंबूदीवि सिरमरइखित्ति खोणीतलमंडणू । मगधदेस सेविय नरेस रिङ-दल-बल खंडणु ॥ धणवर गुब्वर नाम गासु जहिं गुणगण सज्जा । पिप्पु बसे वसुभूह तस्थ जसु पुहवी भज्जा !
ईश्वरसूरि - ईश्वरसूरिकै गुरुका नाम शान्तिसूरि था । इन्होंने माडलगढ़ के बादशाह गयासुद्दीनके पुत्र नासिरुद्दीन के समय - वि० स० १५५५ - १५६९ मे पुंज मन्त्रीकी प्रार्थनासे स० १५६१ में ललितागचरित्रकी रचना की है । इनकी भाषा प्राकृत और अपभ्रा मिश्रित है । कविताका नमूना निम्न है
महिमहति मालवदेस, धण कणयलच्छि निवेस । तिहँ नयर मँडवदुग्ग, महिनवर जाण कि सम्ग ॥
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परिशिष्ट
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तिह अतुलबल गुणवंत, श्रीग्याससुत जयपंत ।
समरत्य साहसधीर, श्रीपातसाह निसीर । संवेगसुन्दर उपाध्याय-इनके गुरुका नाम जयसुन्दर था तथा यह बड़तपगच्छके अनुयायी थे | इन्होने सवत् १५४८ मे 'साराविखावनरासा' नामक उपदेशात्मक ग्रन्थकी रचना की है। इस ग्रन्थमे आचारात्मक विषय निरूपित है।
महाकवि रहधू-इनके पितामहका नाम देवराय और पिताका नाम हरिसिंह तथा माताका नाम विजयश्री था । यह पद्मावती पुरवाल जातिके थे। ये गृहस्थ विद्वान् थे। कविकुल तिलक, सुकवि इत्यादि इनके विशेषण हैं। ये प्रतिष्ठाचार्य भी थे। इन्होने अपने जीवनकालमें अनेक मूर्तियोंकी प्रतिष्ठाएँ कराई थी। इनके दो भाई थे-बाहोल और माहणसिह । इनके दो गुरु थे-ब्रह्माश्रीपाल और भहारक यश कीर्ति। भट्टारकजीके आशीर्वादसे इनमे कवित्व शक्तिका स्फुरण हुआ था तथा ब्रहाश्रीपालसे विद्याध्ययन किया था। कविवर रहधू ग्वालियरके निवासी थे। इनके समकालीन राजा डूंगरसिह, कीर्तिसिंह, भट्टारक गुणकीर्ति, भधारक यशकीर्ति, भधारक मल्यकीर्ति और महारक गुणभद्र थे।
इनका समय १५ वी गतीका उत्तरार्द्ध और १६ वीं शतीका पूर्वार्ध है। इन्होने अपनी समस्त ग्चनाएँ ग्वालियरके तोमरवशी नरेश डेंगरसिह और उनके पुत्र कीर्तिसिंहके शासनकाल्में लिखी हैं। इन दोनों नरेशोंका शासनकाल वि० स० १४८१ से वि० स० १५३६ तक माना जाता है। कविने 'सम्यक्त्वगुणनिधान'का समातिकाल वि० स० १४९२ भाद्रपद शुक्ला पूर्णिमा मंगलवार दिया है। इस ग्रन्थको कविने तीन महीनोमें लिखा था। सुकौशलचरितका समाप्तिकाल वि० स० १४९६ माघ कृष्ण दशमी बताया गया है।
महाकवि रइधू अपभ्रश भाषाके रससिद्ध कवि है। आपकी रचनाओमे कविताके सभी सिद्धान्त सनिहित हैं। आपकी कृतियों की एक
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२२० हिन्दी-जैन साहित्य-परिशीलन विशेषता यह भी है कि इनमें काव्यके साथ प्रशस्तियोंमें इतिहास मी अकित किया गया है | आपने अपनी रचनाएं प्रायः ग्वालियर, दिल्ली और हिसारके आस-पासमे लिखी है। अतः उत्तर भारतकी जैन जनताका तत्कालीन इतिवृत्त इनमें पूर्णरूपसे विद्यमान है। हरिवंश पुराणकी आद्य प्रशस्तिमे वताया गया है कि उस समय सोनागिरिमं मधारक शुभचन्द्र पदारूढ़ हुए थे। इससे अनुमान किया जाता है कि ग्वालियर भट्टारकीय गद्दीका एक पट्ट सोनागिरिम भी था। 'सम्मइजिनचरिउकी प्रशस्तिम आठवे तीर्थकर चन्द्रप्रमकी विशाल मूर्तिके निर्माण किये जानेका उल्लेख है । पंक्तियाँ निम्न प्रकार है :
तातम्मि रवणि वंभवय भार भारेण सिरि भयखालंक वंसम्मि सारेण । संसारवणु-भोय-णिविण चित्तण वर धम्म झाणामएणेष वित्तेण । खेल्हाहिहाणेण गर्मिऊण गुरुतेण नसकित्ति विणयच्च मंडिय गुणोहेण । भो मयण दाग्गि उल्हवण णणढाण संसारजलरासि उत्चार वर जाण । तुम्हह पसाएण भव दुह कयंतस्स ससिपह जिणेदस्स पडिमा विसुदस्स। काराविया महंजि गोपायले तुगं
उडचावि णामेण तिथम्मि सुइ संग। यशोधरचरित और पुण्यासव कथाकोशकी प्रशस्तिमें भी अनेक ऐतिहासिक उल्लेख हैं । कविने अपनी रचनाओंमे तत्कालीन जैन समानका मानचित्र दिखलानेका आयास किया है। इनकी निम्न रचनाएँ प्रसिद्ध है:
सम्यक्त्वजिनचरित, मेवेश्वरचरित, त्रिपष्टिमहापुराण, सिद्धचक्रविधि,
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परिशिष्ट
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बलभद्रचरित, सुदर्शनशीलकथा, धन्यकुमारचरित, हरिवापुराण, सुकोशलचरित, करकण्डुचरित, सिद्धान्ततर्कसार, उपदेशरत्नमाला, आत्मसम्बोधकाव्य, पुण्यासवकथा, सम्यक्त्वकौमुदी तथा पूजनोंकी जयमालाएँ । इन्होने इतना अधिक साहित्य रचा है, कि उसके प्रकाशनमात्रसे अपभ्रश साहित्यका भाण्डार भरा-पूरा दिखलायी पड़ेगा।
रूपचन्दकवि रूपचन्दजी आगराके निवासी थे। ये महाकवि बनारसीदासके समकालीन है। यह रससिद्ध कवि है । इनकी रचनाएँ परमार्थ दोहा शतक, परमार्थ गीत, पदसग्रह, गीतपरमार्थी, पचमंगल एव नेमिनाथरासो उपलब्ध है | कविताका नमूना निम्न प्रकार है
अपनो पद न विचारके, महो जगतके राय । भववन छामक हो रहे, शिवपुरसुधि विसराय ॥ भववन भरमत ही तुम्ह, वीतो काल अनादि । अव किन घरहिं संधारई, कत दुख देखत वादि । परम अतीन्द्रिय सुख सुनो, तुमहि गयो सुलझाय । किन्वित इन्द्रिय सुख लगे, विपयन रहे लुभाय । विपयन सेवते भये, तृष्णा ते न वुझाय । ज्यों जल खारा पीवते, वाढे तृपाधिकाय ॥
पाण्डे रूपचन्द-इन्होने सोनगिरिम जगन्नाथ श्रावकके अध्ययनके लिए कवि बनारसीदासके नाटक समयसारपर हिन्दीटीका सक्त् १७२१में लिखी है। अन्यकी मापा सुन्दर और प्रौढ है। इस ग्रन्थकी प्रशस्तिसे अवगत है कि यह अच्छे कवि थे । इनकी कविताका नमूना निम्न हैपृथ्वीपति विक्रमके रान मरजाद लीन्हें,
सत्रह लै बीते परिनु आप रसमैं।
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हिन्दी - जैन-साहित्य-परिशीलन
आसू मास आदि धौंसु संपूरन ग्रन्थ कीन्हों, बारतिक करिकै उदार ससि मैं । जो पै यहु भाषा ग्रन्थ सबद सुवोध या कौ,
ठौ बिनु सम्प्रदाय नचै तव बस मैं ।
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यातै ग्यानलाभ जाँति संबनिको बैन मानि,
वात रूप ग्रन्थ लिखे महाशान्त रस मैं ॥१॥ राजमल्ल - हिन्दी जैन गद्य लेखकोमेसे सबसे प्राचीन गद्य-लेखक राजमल्ल है । इन्होने सवत् १६०० के आसपास समयसारकी हिन्दी टीका 1 लिखी थी। इनकी इस टीकासे ही समयसार अध्ययन-अध्यापनका विपय बना था | महाकवि बनारसीदासको इन्हीकी टीकाके आधारपर नाटक समयसार लिखनेकी प्रेरणा प्राप्त हुई थी ।
पाण्डे जिनदास - इन्होंने ब्रह्म शान्तिदासके पास शिक्षा प्राप्त की थी । यह मथुराके निवासी थे । इन्होंने सवत् १६४२ मे जम्बूस्वामी चरित्रको समाप्त किया था । इनकी एक अन्य रचना जोगीरासो भी उपलब्ध है । कविताका नमूना निम्न है
अकवर पातसाह के राज, 'कीनी कथा धर्मके काज । भूल्यो बिछूहो अच्छर जहाँ, पंडित गुनी सधारो तहाँ ॥ करै धर्म सो टीका साह, टोडर सुत गरे सनाहु ॥ कुँवरपाल - महाकवि बनारसीदासके घनिष्ठ मित्रोमे इनका स्थान था | युक्ति-प्रबोधमे बताया गया है कि बनारसीदासने अपनी शैलीका उत्तराधिकार इन्हींको सौंपा था । पाडे हेमराजकी प्रवचनसार टीकामे इनको अच्छा ज्ञाता बतलाया गया है। बनारसीदासको सूक्तिमुक्तावली मे जो इनके पद्य दिये गये हैं, उनके आधारपर इन्हें अच्छा कवि कहा जा सकता है ।
परम धरम घन दहै, दुरित अंबर गति धारहि । कुयश धूम उदगरे, भूरिमय भस्म विधारहि ||
A
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परिशिष्ट
२२३ दुखफुलिंग फुकरे, तरल तृष्णा कल काढहि । धन इंधन आगम संजोग, दिन-दिन अति बादहि ॥ लहलहै सोम पावक प्रवल, पवन मोह उद्धत बहै। दशहि उदारता आदि बहु, गुणपतंग कुँवरा कहै॥ पाण्डे हेमराज-वचनिकाकारोमै पाण्डे हेमराजका नाम आदरके साथ लिया जाता है। इनका समय सत्रहवी शतीका अन्तभाग और अठारहवी शतीका आरम्भिक भाग है। यह पण्डित रूपचन्दजीके शिष्य थे। इनकी पॉच वचनिकाएँ और एक छन्दोवद्ध रचना उपलब्ध है। वचनिकाओमे प्रवचनसार टीका, पञ्चास्तिकायटीका, भाषाभत्तामर, नयचक्रकी क्चनिका और गोम्मटसार वनिका है। 'चौरासीवोल' छन्दोबद्ध कान्य है । पाण्डे हेमराज श्रेष्ठ कवि थे। इन्होने शार्दूलविक्रीडित, छप्पय और सवैया छन्दोमे सुन्दर भावोंको अभिव्यक्त किया है। इनके गद्यका उदाहरण निम्न है___"ऐसे नाही कि कोई कालद्रव्य परिणाम विना होहि जाते परिणाम विना द्रव्य गदहेके सींग समान है, जैसे गोरसके परिणाम दूध, दही, एन, तक इत्यादि अनेक है, इनि अपने परिणामनि विना गोरस जुदा न पाइए जहाँजु परिणाम नाहीं वहाँ गोरसकी सत्ता नाहीं तैसे ही परिणाम विना दन्यकी सत्ता नाहीं। कविताका उदाहरण
प्रलय पवन करि उठी आगि जो तास पटतर । वमै फुलिग शिखा उतग पर जलै निरन्तर । जगत समस्त निगल भस्म कर हैगी मानो। तडतडात दव मनल जोर चहुँदिशा उतानो । सो इक छिनमै उपशम, नामनीर तुम लेत। होइ सरोवर परिनमै, विकसित कमल समेत॥
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हिन्दी - जैन- साहित्य-परिशीलन
बुलाकीदास- इनका जन्म आगरामें हुआ था । आप गोयलगोत्री अग्रवाल थे । इनका व्येक 'कसावर' था। इनके पूर्वज बयाने ( भरतपुर) मे रहते थे। साहु अमरसी, प्रेमचन्द्र, श्रमणदास, नन्दलाल और बुलाकीदास यह इनकी वशपरम्परा है। श्रमणदास बयाना छोड़कर आगरामें आकर बस गये थे । इनके पुत्र नन्दलालको सुयोग्य देखकर पण्डित हेमराजने अपनी कन्याका विवाह उसके साथ किया था । इसका नाम जैनी या जैनुलदे था । इसी जैनीके गर्भसे बुलाकीदासका जन्म हुआ था । अपनी माताके आदेशसे कवि बुलाकीदासने सवत् १७५४ मे अपने ग्रन्थकी समाप्ति की थी । कविताका नमूना निम्न प्रकार हैसुगुनकी खानि कीधौं सुकृतकी वानि सुभ
कीरतिकी दानि अपकीरति कृपानि है । स्वारथ विधानि परस्वारथकी राजधानी,
रमाहूकी रानि कीधौं जैनी जिनवानि है ॥ धरमधरनि भव भरम हरनि कीधौं
असरन-सरनि कीधौं जननि जहानि है । हेम सौ ...पन सीलसागर......मनि,
दुरित दरनि सुरसरिता समानि है ॥ किशनसिंह —— यह रामपुरके निवासी संगही कल्याणके पौत्र तथा आनन्दसिंहके पुत्र थे । इनकी खण्डेलवाल जैन जाति थी और पाटनी गोत्र था । यह रामपुर छोड़कर सागानेर आकर रहने लगे थे । इन्होंने सवत् १७८४ मे क्रियाको नामक छन्दोबद्ध ग्रन्थ रचा था, जिसकी लोकसख्या २९०० है । इसके अलावा भद्रबाहुचरित सवत् १७८५ और रात्रिभोजनकथा सवत् १७७३ मे छन्दोबद्ध लिखे हैं । इनकी कविता साधारण कोटि की है। नमूना निम्न है
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माथुर वसंतराय वोहरांको परधान, संगही कल्याणदास पाटणी बखानिये ।
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परिशिष्ट
रामपुर वास नाकौं सुत सुखदेव सुधी,
ताकी सुत किस्नसिंह कविनाम जानिये || तिर्हि निसिभोजन त्यजन व्रत कथा सुनी,
तांकी कीनीं चौपाई सुभगम प्रमाणिये । भूलि चूकि अक्षरधर जौ वाको बुधजन,
सोधि पढि वीनती हमारी मनि आनिये ॥
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खडगसेन --- यह लाहौर के निवासी थे । इनके पिताका नाम लूणराज था । कविके पूर्वज पहले नारनोतमे रहा करते थे । वहाँसे आकर लाहोर में रहने लगे थे। इन्होने नारनोलमे भी चतुर्भुज वैरागी के पास अनेक ग्रन्थोका अध्ययन किया था । इन्होने सवत् १७१३ मे त्रिलोकदर्पणकी रचना सम्पूर्ण की थी । कविता साधारण ही है । उदाहरण
वागड देश महा विसतार, नारनौल तहाँ नगर निवास | तहाँ कौम छत्तीसों बसें, अपने करम तणां रस ललै ॥ श्रावक बसै परम गुणवन्त, नाम पापडीवाल वसन्त । सब भाई मै परमित लिये, मानू साह परमगण किये । जिसके दो पुत्र गुणश्वास, लुणराज ठाकुरीदास । ठाकुरसीके सुत है तीन, तिनको जाणों परम प्रवीन । घड़ो पुत्र धनपाल प्रमाण, सोहिलदास महासुख जाण ।
रामचन्द - इन्होने 'सीताचरित' नामक एक विशालकाय हन्टीवद्ध चरित ग्रन्थ लिखा है, इस ग्रन्थकी लोकसख्या ३६०० है । यह रविपेणके पद्मपुराणके आधारपर रचा गया है। इसके रचनेका समय १७१३ है । कविता साधारण है । कविका उपनाम 'चन्द्र' आया है।
शिरोमणिदास - यह कवि पण्डित गगादास के शिष्य थे । भट्टारक सकलकीर्तिके उपदेशसे संवत् १७३२ में धर्मसार नामक टोहा चौपाईबढ ग्रन्थ सिहरोन नगरमें रचा है। इस नगरके शासक उस समय राजा १५
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हिन्दी-जैन-साहित्य-परिशीलन देवीसिंह थे। इस प्रत्यम कुल ७५५ दोहा चौपाई हैं। रचना स्वतन्त्र है, किसका अनुवाद नहीं हैं। इनका एक अन्य अन्य सिद्धान्तशिरोमणि भी बतलाया जाता है।
मनोहरलाल या मनोहरदास-यह कवि धामपुरके निवासी थे। आर. साहके यहाँ इनका आश्रम था। सेठके सम्बन्धमें इन्होंने मनोरंजक घटना लिखी है। लेठको दरिद्रताके कारण वह बनारससे अयोध्या चले गये, किन्तु वहॉके सेटने सम्मान और प्रचुर सम्पत्तिके साथ वापस लौटा टिया । कब्नि हीरामणिके उपटेश एवं आगरा निवासी सालिवाहण, हिसारके जगदत्तमिल तण उसी नगरके रहनेगले गंगरानके अनुरोध 'धर्मपरीक्षा' नामक अन्यकी रचना संवत् १७०५ में की है। कहीं-कहीं बहुत सुन्दर है। इस ग्रन्थका परिमाण ३००० पद्य है। कविने अपना परिचय निम्न प्रकार दिया है। कविता मनोहर खंडेलवाल सोनी नाति,
मृलसंघी मूल नाको सागानेर वास है। कर्मके उदयते धामपुरमै बसन भयो,
सबसौं मिलाप पुनि सननन दास है। ब्याकरण छंद अलंकार कछु पब्यौ नाहिं,
भाषा में निपुन नुच्छ बुद्धि का प्रकास है। बाई दाहिनी कछू समझे संतोप लीय,
लिनी दुहाई ना निनही की आस हैं। जयसागर यह मारक महीचन्द्रक शिष्य थे। गापारनगरके भधारक श्री मल्लिभूषणकी शिष्यपरन्परासे इनका सम्बन्ध थ। इन्होंने हूँबड़ नामि श्रीरामा तथा उसके पुत्र अध्ययनार्थ 'सीताहरण कान्यकी रचना संन्त् १७३२ में की है। कविता साधारण कोटिकी है। मापा राजस्थानी है।
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परिशिष्ट
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खुशालचन्द काला--यह कवि देहलीके निवासी थे। कभीकभी यह सागानेर भी आकर रहा करते थे। इनके पिताका नाम सुन्दर
और माताका नाम अभिधा था। इन्होने भधारक लक्ष्मीदासके पास विद्याध्ययन किया था। इन्होंने हरिवशपुराण सवत् १७८० मे, पद्मपुराण सवत् १७८३ में, धन्यकुमार चरित्र, जम्बूचरित्र और व्रतकथाकोगकी रचना की है।
जोधराज गोदीका-यह सागानेरके निवासी है। इनके पिताका नाम अमरराज था। हरिनाम मिश्रके पास रहकर इन्होने प्रीतिकर चरित्र, कथाकोप, धर्मसरोवर, सम्यक्त्व कौमुदी, प्रवचनसार, भावदीपिका आदि रचनाएँ लिखी है। कविता इमकी साधारण कोटि की है। नमूना निम्न प्रकार है
श्री सुखराम सकल गुण खांन, वीजामत सुगछ नभ भान । घसवा नाम नगर सुखधाम, मूलवास जानौ अमिराम ।। मन्नोदकके लोग बसाय, घसुवा तजे भरतपुर माय । जिन मन्दिरमें कियो निवास, मूलवास जानी अभिराम ॥
लब्धरुचि-पुरानी हिन्दीकी शैलीमे रचना करनेवाले कवि लब्धमचि है। इन्होने सवत् १७१३ मे चन्दननृपरास नामक ग्रन्थ लिखा है। इनकी मापापर गुजरातीका भी पर्याप्त प्रभाव है।
लोहट-कवि लोहटके पिताका नाम धर्म था। यह वघेरवाल थे। यह सबसे छोटे थे। हीग और सुन्दर इनके बड़े भाई थे। पहले यह सामरमें रहते थे और फिर बून्दीमे आकर रहने लगे थे। कविके समयमे राव भावसिहका राज्य था। इन्होंने बून्दी नगर एवं वहाँके राजवंशका वर्णन किया है। इन्होने यशोधर चरितका पद्यानुवाद सवत् १७२१ मे समाप्त किया है।
ब्रह्मरायमल यह मुनि अनन्तकीर्तिके शिष्य थे | जयपुर राज्यके निवासी थे। इन्होंने शोरगढ़, रणथम्भोर एव सांगानेर आदि
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हिन्दी - जैन-साहित्य-परिशीलन
स्थानोंपर अपनी रचनाएँ लिखी हैं। इनकी नेमीश्वररास, हनुमन्तकथा, प्रद्युम्नचरित्र, सुदर्शनरास, श्रीपादरास और भविष्यदत्तकथा आदि रचनाएँ प्रधान हैं ।
पं० दौलतराम - बसवा निवासी प्रसिद्ध वचनिकाकार पं० दौलतरामजीने हिन्दी जैन गद्य साहित्यका ही नहीं, अपितु समस्त हिन्दी गद्य साहित्यका भापा क्षेत्रमें महान् उपकार किया है । जयपुरके महाराजसे इनका स्नेह था। बताया जाता है कि उदयपुर राज्यमे किसी बड़े पदपर यह आसीन थे । इनके पिताका नाम आनन्दराम था । इनकी जाति खण्डेलवाल और गोत्र काशलीवाल था । इन्होने पुण्यासवकथा कोश, क्रियाकोश, अध्यात्मवाराखड़ी आदि ग्रन्थोंकी रचना की है। आदिपुराण (स० १८२४ ), हरिवंश पुराण (सं० १८२९ ), पद्मपुराण (सं० १८२३) परमात्मप्रकाश और श्रीपालचरित्रकी वचनिकाएँ इन्ही के द्वारा लिखी गयी है ।
पं० टोडरमल - आचार्यकल्प प० टोडरमलजी अपने समय के विचारक और प्रतिभाशाली विद्वान् थे । पण्डितजी जयपुरके निवासी थे । इनके पिताका नाम जोगीदास और माताका नाम रमा या लक्ष्मी था | ये बचपन से ही होनहार थे । गूढ़से गूढ शंकाओका समाधान इनके पास ही मिलता था । इनकी योग्यता एवं प्रतिभाका ज्ञान, तत्कालीन साघमी भाई रायमल्लने इन्द्रध्वज पूजाके निमन्त्रणपत्रमे जो उद्वार प्रकट किये है, उनसे स्पष्ट हो जाता है । इन उद्द्वारोंको ज्योंका त्यो दिया जा रहा है।
"यहाँ aणां भावां और घणीं वायां के व्याकरण व गोम्मटसारनीकी चर्चाका ज्ञान पाइए हैं। सारा ही विषै भाईनी टोडरमलजी के ज्ञानका क्षयोपशम अलौकिक है, जो गोम्मटसारादि ग्रन्थोंकी सम्पूर्ण लाख श्लोक टीका बणाई, और पाँच सात ग्रन्थाकी टीका वणायवेका उपाय है । न्याय, व्याकरण, गणित, छन्द, अलंकारका यदि ज्ञान पाइये है ।
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ऐसे पुरुष महन्त बुद्धिका धारक ईकाल विषै होना दुर्लभ है ताते यासू मिलें सर्व सन्देह दूरि होय है। घणी लिखवा करि कहा आपणां हेतका वांछीक पुरुष शीघ्र आप यांसू मिलाप करो" ।
पण्डितजी जैसे महान् विद्वान थे, वैसे स्वभावके बड़े नम्र थे । अहकार उन्हें छू तक नही गया था । इन्हें एक दार्शनिकका मस्तिष्क, दयालु का हृदय, साधुका जीवन और सैनिककी दृढ़ता मिली थी । इनकी वाणीमें इतना आकर्षण था कि नित्य सहस्रों व्यक्ति इनका शास्त्रप्रवचन सुननेके लिए एकत्रित होते थे । गृहस्थ होकर भी गृहस्थीमे अनुरक्त नही रहे । अपनी साधारण भाजीविका कर लेनेके बाद आप शास्त्रचिन्तनमें रत रहते थे । इनकी प्रतिभा विलक्षण थी, इसका एक प्रमाण यही है कि आपने किसीसे बिना पढ़े ही कन्नड़ लिपिका अभ्यास कर लिया था ।
इनके जन्म संवत्मे विवाद है । पं० देवीदास गोधाने इनका जन्म सवत् १७९७ दिया है, पर विचार करने पर यह ठीक नही उतरता है । मृत्यु निश्चित रूपसे संवत् १८२४ मे हुई थी । इन्हें आततायियों का शिकार होना पडा था । इनकी विद्वत्ता, वक्तृता एव ज्ञानकी महत्ताकै कारण जयपुर राज्यके कतिपय ईर्ष्यालुओने इनके विरुद्ध षड्यन्त्र रचा था । फलतः राजाने सभी जैनोको कैद करवाया और पड्यन्त्रकारियो के निर्देशानुसार इनके कतल करनेका आदेश दिया । इस घटनाका निरूपण कवि बखतरामने अपने बुद्धिविलासमे निम्न प्रकार किया है
तब ब्राह्मण मतो यह कियो, शिव उठान को टोना दियो । तामे सबै श्रावगी कैद, करिके दंड किए नृप फेंद 1 गुर तेरह पंथिनु कौ भुमी, टोडरमल नाम साहिमी । ताहि भूप मारयौ पलमाहि, गाढ्यो मद्धि गंदिगो ताहि ॥
पण्डितजीकी कुल ११ रचनाएँ हैं, इनमे सात टीकाग्रन्थ, एक स्वतन्त्रग्रन्थ, एक आध्यात्मिकपत्र, एक अर्थ सदृष्टि और एक भाषा पूजा ।
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हिन्दी - जैनसाहित्य-परिशीलन
निम्न ग्रन्थोंकी टीकाएँ लिखी है। ये इस युगके सबसे बड़े टीकाकार, सिद्धान्तमर्मज्ञ और अलौकिक विद्वान् थे ।
गोम्मटसार [जीवकाण्ड ]- सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका | यह संवत् १८१५
पूर्ण हुई ।
गोम्मटार [कर्मकाण्ड ]
लब्धिसार--- पूर्ण हुई।
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यह टीका संवत् १८१८ मे
क्षपणासारवचनिका सरस है ।
त्रिलोकसार --- इस टीकामें गणितकी अनेक उपयोगी और विद्वत्तापूर्ण चर्चाएँ की गयी है ।
आत्मानुशासन – यह आध्यात्मिक सरस संस्कृत ग्रन्थ है, इसकी Tafter संस्कृत टीकाके आधार पर है ।
पुरुपार्थसिद्ध्युपाय - इस ग्रन्थकी टीका अधूरी ही रह गयी । अर्थसंदृष्टि - इसे पडितजीने बड़े परिश्रम और साधनासे लिखा है । गोम्मटसारादि सिद्धान्त ग्रन्थोंका अध्ययन कितना विशाल था, यह इसते स्पष्ट होता है ।
आध्यात्मिकपत्र ——यह रचना रहस्य पूर्ण चिट्टीकै नाममे प्रसिद्ध हैं और वि० सं० १८११ मे लिखी गयी है। यह एक आध्यात्मिक रचना हैं । गोम्मटसारपूजा - गोम्मटसारकी टीकाके उपरान्त इस पूजाकी रचना की गयी है ।
मोक्षमार्ग प्रकाश-यह एक महत्त्वपूर्ण दार्शनिक और आव्यात्मिक ग्रन्थ है । इसमें नौ अध्याय हैं । जैनागमका सार रूप है । एक ग्रन्थकै स्वाध्यायसे ही बहुत ज्ञान प्राप्त किया जा सकता है ।
टीकाकारके अतिरिक्त पंडितजी कवि भी थे । ग्रन्थोके अन्तमें बो प्रचस्तियाँ दी हैं, उनसे इनके कविहृदयका भी पता लग जाता है । लब्धिसारकी टीकाकै अन्तमें अपना परिचय देते हुए लिखते हैं
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' परिशिष्ट -
मैं हो जीव द्रव्य नित्य चेतना स्वरूप मेरो,
लग्यो है अनादि ते कलंक कर्म मल को। पाही को निमित्त पाय रागादिक भाव भए,
भयो है शरीरको मिलाप जैसे खलको । रागादिक भावनको पायके निमित्त पुनि,
होत कर्मबन्ध ऐसो है बनाव कलको। ऐसे ही भ्रमत भयो मानुष शरीर जोग,
बने तो बने यहाँ उपाय निज थलको । पं० जयचन्द-श्री पं० टोडरमलजीके समकालीन विद्वानोम पं० जयचन्दनी छावडाका नाम भी आदरके साथ लिया जाता है। आप भी जयपुरके निवासी थे । प्रमेयरत्नमालाकी वचनिकामे लिखा है
देश हुढाहर जयपुर जहाँ, सुवस वलै नहिं दुःखी तहाँ। नृप जगतेश नीति बलवान, ताके बड़े-बड़े परधान ॥ प्रजा सुखी तिनकै परताप, काहक न वृथा संताप । अपने अपने मत सव चले, जैन धर्म अधिको भलें ।। तामैं तेरह पंथ सुपंथ, शैली बड़ी गुनी गुन ग्रन्थ । तामें मैं जयचन्द्र सुनाम, वैश्य छाबड़ा कहै सुगाम ॥
प० जयचन्द्रजी बड़े ही निरभिमानी, विद्वान् और कवि थे। इनकी सं० १८७० की लिखी हुई एक पद्यात्मक चिट्ठी वृन्दावनविलासमे प्रकाशित है। इससे इनकी प्रतिमाका सहज ही परिशान किया जा सकता है। यह भी टोडरमलजीके समान संस्कृत और प्राकृत भापाके विद्वान् थे । न्याय, अध्यात्म और साहित्य विषयपर इनका अपूर्व अधिकार था। इनकी निम्न १३ वचनिकाएँ उपलब्ध हैं
१ सर्वार्थसिद्धि वि० स० १८६१ २ प्रमेयरत्नमाला , १८६३
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" १८६७ " १८६५
हिन्दी-जैन साहित्य-परिशीलन ३ द्रव्यसंग्रहवचनिका , १८६३ ४ आत्मख्यातिसमयसार , १८६४ ५ स्वामिकार्तिकेयानुप्रेभा , १८६६ ६ अष्टपाहुड ७ ज्ञानार्णव ८ भक्तामरस्तोत्र
, १८७० ९ आसमीमासा
___, १८८६ १० सामायिक पाठ ११ पत्रपरीक्षा १२ मतसमुच्चय
१३ चन्द्रप्रम द्वितीय सर्ग मात्र भूघरमिश्र-यह कवि आगरेके निकट शाहगञ्जमे रहते थे। नातिके ब्राह्मण थे। इनके गुरुका नाम पण्डित रंगनाथ था । पुरुपार्थसिद्ध्युपायके अध्ययनसे आपको जैनधर्मकी रुचि उत्पन्न हुई थी। रंगनाथसे अनेक अन्योका अध्ययन किया था। पुरुपार्थसिद्ध्युपायपर इनकी एक विशद टीका है । इसमें अनेक जैन अन्योंके प्रमाण उद्धृत किये गये है । यह टीका संवत् १८७१ की भाद्रकृष्णा दशमीको समाप्त हुई थी। चर्चासमाधान नामक एक अन्य ग्रन्थ भी इनके द्वारा लिखा हुआ मिलता है । इनकी कविताका नमूना निम्न है
नमों आदि करता पुरुष, आदिनाथ अरहंत । द्विविध धर्मदातार घुर, महिमा अतुल अनन्त । स्वर्ग-भूमि-पातालपति, जपत निरन्तर नाम ।
जा प्रभुके जस हंसको, जग पिंजर विश्राम ॥ दीपचन्द काशलीवाल यह सागानेरके निवासी थे, पर पीछे आमेर आकर रहने लगे थे। इनका समय अनुमानतः १८वी शतीका
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परिशिष्ट
२३३
उत्तरार्ध है । इनका अध्यात्मज्ञान एवं कवित्वशक्ति उच्चकोटिकी थी । यद्यपि इनकी भाषा हॅूढ़ारी है पर टोडरमल, नयचन्द्र आदि विद्वानोकी भाषाकी अपेक्षा सरस और सरल है । अनेक स्थलोंपर भाषाकी तोड़मरोड़ भी पायी जाती है। चिद्विलास, आत्मावलोकन, गुणस्थानभेद, अनुभवप्रकाश, भावदीपिका एवं परमात्मपुराण आदि गद्यमें तथा अध्यात्मपच्चीसी, द्वादशानुप्रेक्षा, ज्ञानदर्पण, स्वरूपानन्द, उपदेशसिद्धान्त आदि पद्यमे हैं । परमात्मपुराण मौलिक है, इसमें ग्रन्थकारकी कल्पना और प्रतिभाका सर्वत्र प्रयोग दिखलाई पड़ता है। आचार्यकल्प पण्डित टोडरमलजीने इनके आत्मावलोकनका उद्धरण अपनी रहस्यपूर्ण चिट्टी मे दिया है।
"ज्ञान अनन्तशक्ति स्वसंवेदरूप धरे लोकालोकका जाननहार अनन्त गुणकौं जानें। सतपर जाय सत्वीर्य, सत् प्रमेय, सत् अनन्तगुणके अनन्त सद् जामै अनन्त महिमा निधि ज्ञानरूप ज्ञानपरणति ज्ञाननारी ज्ञानसो मिलि परणति ज्ञानका अंग-अंग मिलते हैं ज्ञानका रसास्वाद परणति ज्ञानको ले ज्ञान परणतिका विलास करे । जाननरूप उपयोग चेतना ज्ञानकी परणति प्रकट करै । जो परणति नारीका विलास न होता तो ज्ञान अपने जानन लक्षणकौ यथारथ न राखि सकता" ।
-परमात्मपुराण
कविताका उदाहरण -
करम कलोलन की उठत झकोर भारी,
या अविकारीको न करत उपाध है ।
कहुँ क्रोध करे कहुँ महा अभिमान करें,
कहुँ माया पनि लग्यो लोभ दरयाव है |
कहुँ कामवशि चाहि करें अति कामनीकी,
कहुँ मोह धारणा तैं होत मिथ्याभाव है।
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हिन्दी - जैन-साहित्य- परिशीलन
ऐसे तो अनादि लीनो स्वपर पिछानि अब,
सहज समाधि में स्वरूप दरसाव है ॥
-उपदेशसिद्धान्तरत्न
पं० डालूराम - यह माधवराजपुर निवासी अग्रवाल थे । इन्होने सवत् १८६७ में गुरूपदेश श्रावकाचार छन्दोबद्ध, सवत् १८७१ में सम्यक्त्वप्रकाश और अनेक पूजा ग्रन्थोकी रचना की है । यह अच्छे कवि थे। दोहा, चौपाई, सवैया, पढरि, सोरठा, अडिल्ल, कुण्डलिया आदि विविध छन्दोके प्रयोगमे यह कुशल हैं। एक नमूना देखिए
जिनके सुमति जागी, परसङ्ग रागादि भावन सो
भोग सों भयो विरागी;
स्यागी, जो पुरुष त्रिभुवन मे । जिनकी रहन
न भजन रह
कबहूँ जो सदैव आपको विचार सब तिनके चिकलता न
तेई मोखमारगके साधक कहावे जीव,
न्यारी,
धाम धन में ॥
सुधा,
कार्पे कहू मनमें।
भावे रहो मन्दिरमें भावे रहो वन में ॥
भारामल –— कवि भारामल फर्रुखाबादके निवासी सिगई परशुराम के पुत्र थे और इनकी जाति खरौआ थी । इन्होंने भिण्ड नगरमे रहकर संवत् १८१३ मे चारुचरित्रकी रचना की थी । सप्तव्यसनचरित्र, दानकथा, शीलकथा और रात्रिभोजनकथा भी इनकी छन्दोबद्ध रचनाएँ हैं । कविता साधारण कोटिकी है ।
बखतराम - कवि बखतराम जयपुर लश्करके निवासी थे । इनके चार पुत्र थे--जीवनराम, सेवाराम, खुशालचन्द्र और गुमानीराम | इनका समय उन्नीसवी शताब्दीका द्वितीय पाद है । इन्होंने मिथ्यात्व - खण्डन और बुद्धिविकास नामक दो ग्रन्थ रचे हैं । बुद्धिविलासके
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परिशिष्ट
आरम्भम कविने जयपुरके राजवशका इतिहास लिखा है। सवत् १९९१ में मुसलमानोने जयपुरमे राज्य किया है। इसके पूर्वके कई हिन्दू राजवंशेकी नामावली दी है। इस ग्रन्थका वयं विषय विविध धार्मिक विषय, सघ, दिगम्बर पञ्चावली, भट्टारकों तथा खण्डेलवाल जातिकी उत्पचि आदि है। इस ग्रन्थकी समाप्ति कविवरने मार्गशीर्ष शुक्ला द्वादशी सवत् १८२७ मे की है। कविताका नमूना निम्न है-कवि राजमहलका वर्णन करता हुआ कहता है -
अंगन फरि केल परवात, मनु रचे विरंचि जु करि समान । है आव सलिल सा तिह बनाय, तह प्रगट परस प्रतिबिंव माय ॥ कबहूँ मणि मन्दिर माँझि जाय, तिय दूजी लखि प्यारी रिसाय । तव मानवती लखि प्रिय हसाय, कर नोरि जोर लेहै वनाय ।
चिदानन्द-यह निस्पृहयोगी और आध्यात्मिक सन्त थे। स्वरशास्त्रके अच्छे जाता थे। स्वरोदय नामक एक रचना इनकी स्वरज्ञान पर उपलब्ध है । यह संवत् १९०५ तक जीवित रहे थे। इनकी कविता सरस और अनुभव पूर्ण है । इनकी कविताका नमूना निम्न है।
चौ लौ तत्त्व न सूझ पड़े रे तौ लौ मूढ भरमवश मूल्यौ, मत ममता गहि जगलौं लडेरे ॥ आकर रोग शुभ कंप अशुभ लख, भवसागर इण भांति मडै रे। धान काज जिम मूरख खितहड़, उखर भूमि को खेत खरे॥ उचित रीत भो लख बिन चेतन, निश दिन खोटो घाट घहै रे। मस्तक मुकुट उचित मणि अनुपम, पग भूषण पज्ञान नहेरे॥ कुमतावश मन वक्र तुरग जिम, गहि विकल्प मग माहि अड़े रे। 'चिदानन्द' निजरूप मगन भया, तव कुतर्क तोहि नाहिं गरे
रंगविजय यह कवि तपागच्छके थे | इनके गुरुका नाम अमृतविजय था । आप आव्यात्मिक और स्तुतिपरक पद्यरचनामें प्रवीण हैं।
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.२३६ हिन्दी-जैन-साहित्य-परिशीलन नेमिनाथ और राजमतिको लक्ष्यकर सरस शृंगारिक पद रचे है। कविता चुभती हुई है। निम्नपद पठनीय है
आवन देरी या होरी। चन्द्रमुखी राजुल सौं जंपत, ल्याउँ मनाय पकर वरनोरी ॥ फागुन के दिन दूर नहीं अव, कहा सोचत तू जियमें मोरी ॥ बाँह पकर राहा जो कहावू, छाँई ना मुख माहू रोरी ॥ सज शृंगार सकल जदुवनिता, अबीर गुलाल लेइ भर झोरी॥ नेमीसर संग खेलौं खिलौना, चंग मृदंग इफ ताल टकोरी॥ हैं प्रभु समुद्रविजे के छोना, तू है उग्रसेन की छोरी ॥ 'रंग' कहै अमृत पद दायक, चिरजीवहु या जुग जुग जोरी ॥
टेकचन्द-हिन्दीकवचनिकाकारोमें इनका भी महत्त्वपूर्ण स्थान है। टीकाकार होनेके साथ यह कवि भी हैं । कथाकोश छन्दोबद्ध, बुधप्रकाश छन्दोवद्ध तथा कई पूजाएँ पद्यबद्ध है। वचनिकाओंमे तत्त्वार्थकी श्रुतसागरी टीकाकी वचनिका सवत् १८३७ मे और सुदृष्टितरगिणीकी वचनिका सवत् १८३८ में लिखी गयी है। पट्पाहुडकी क्वनिका भी इनकी है । कविता इनकी साधारण ही है । गद्यका रूप भी दूडिहारी है ।
नथमल विलाला-यह कवि मूलतः आगराके निवासी थे, पर बादमे भरतपुर और अन्तम हीरापुर आकर रहने लगे थे। इनके पिताका नाम शोभाचन्द था । इन्होंने भरतपुरमे मुखरामकी सहायतासे सिद्धान्तसारदीपकका पद्यानुवाद सवत् १८२४ मे लिखा है। यह ग्रन्थ विशालकाय है, श्लोक संख्या ७५०० है। भक्तामरकी भाषा हीरापुरमे पण्डित लालचन्दजीकी सहायतासे की थी। इनके अतिरिक्त जिनगुणविलास, नागकुमारचरित, जीवन्धर चरित और जम्बूस्वामी चरित भी इन्हीकी रचनाएँ है । इनका गद्य पं० टेकचन्दजीके गद्यकी अपेक्षा कुछ परिष्कृत है। कविताके क्षेत्रमे साधारण है।
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परिशिष्ट
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पण्डित सदासुखदास-विक्रमकी वीसवीं शतीके विद्वानोमे पण्डित सदासुखदासका नाम प्रसिद्ध है। यह जयपुरके निवासी थे। इनके पिताका नाम दुलीचन्द और गोत्रका नाम कागलीवाल था । यह डेडराज वशम उत्पन्न हुए थे। अर्थप्रकाशिकाकी वचनिकामे अपना परिचय देते हुए लिखा है
डेढराज के वंश माँहि इक किंचित् ज्ञाता । दुलीचंदका पुत्र काशलीवाल विख्याता ॥ नाम सदासुख कहें भाल्मसुखका बहु इच्छुक ।
सो जिनवाणी प्रसाद विपयत भये निरिच्छुक ॥ पण्डित सदासुखदासजी बड़े ही अध्ययनशील थे। आप सदाचारी, आत्मनिर्भय, अध्यात्मरसिक और धार्मिक लगनके व्यक्ति थे। सन्तोप आपम• कूट-कूटकर भरा था। आजीविकाके लिए थोड़ा-सा कार्य कर लेनेके उपरान्त आप अव्ययन और चिन्तनम रत रहते थे। पण्डितजीके गुरु पं० मन्नालालजी और प्रगुरु पण्डित जयचन्दजी छावड़ा थे। आपका जान भी अनुभवके साथ-साथ वृद्धिंगत होता गया । यद्यपि आप बीसपन्थी आम्नायके अनुयायी थे, पर तेरहपन्थी गुरुओके प्रभावके कारण आप तेरहपन्थको भी पुष्ट करते थे। वस्तुतः आप समभावी थे, किसी पन्थविशेपका मोह आपमें नहीं था। आपके शिष्योमे पण्डित पन्नालाल सघी, नाथूराम दोशी और पण्डित पारसदास निगोत्या प्रधान हैं। पारसदासने 'शनसूर्योदय नाटक' की टीकामे आपका परिचय देते हुए आपके त्वभाव और गुणोंपर अच्छा प्रकाश डाला है । यहाँ कुछ पक्तियाँ उद्धृत की जाती है। लौकिक प्रवीना तेरापंथ माहि लीना,
मिथ्यावृद्धि करि छीना जिन आतमगुण चीना है। पर्दै नौ पढावे मिथ्या अलरफू कसैं,
ज्ञानदान देय जिन मारग बढाएँ हैं।
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२३० हिन्दी-जैन-साहित्य-परिशीलन दीसै घरवासी रहें घरहूतै उदासी,
जिन मारग प्रकाशी जग कीरत जगमासी है। कहाँ लौ कहीने गुणसागर सुखदास जूके,
ज्ञानामृत पीय बहु मिथ्याबुद्धि नासी है ॥ श्री पण्डित सदासुखदासके गार्हस्थ्य जीवनके सम्बन्धमे विशेष जानकारी प्रास नहीं है । फिर भी इतना तो कहा जा सकता है कि पण्डितजीको एक ही पुत्र था, जिसका नाम गणेशीलाल था। यह पुत्र भी पिताके अनुरूप होनहार और विद्वान् था। पर दुर्भाग्यवश बीस वर्षकी अवस्थामे ही इकलौते पुत्रका वियोग हो जानेसे पण्डितजी पर विपत्तिका पहाड़ टूट पड़ा । संसारी होनेके कारण पण्डितजी मी इस आघातसे विचलितसे हो गये । फलतः अजमेर निवासी स्वनामधन्य सेठ मूलचन्दजी सोनीने इन्हे जयपुरसे अजमेर बुला लिया । यहाँ आने पर इनके दुःखका उफान कुछ शान्त हुआ।
पण्डित सदासुखनीकी भाषा ढूंढारी होने पर भी पण्डित टोडरमलजी और पण्डित जयचन्दनीकी अपेक्षा अधिक परिष्कृत और खडी बोलीके निकट है । भगवती आराधनाकी प्रशस्तिकी निम्न पक्तियाँ दर्शनीय है।
मेरा हित होने को और, दीखै नाहिं जगत में और। यातें भगवति शरण जु गही, मरण आराधन पाऊँ सही। हे भगवति तेरे परसाद, मरणसमै मति होहु विषाद । पंच परमगुरु पद करि ढोक, संयम सहित लहू परलोक ॥ इनका समाधिमरण संवत् १९२३ मे हुआ था ।
पं० भागचन्द-बीसवी शताब्दीके गण्यमान्य विद्वानों में पं० भागचन्दजीका स्थान है। आप सस्कृत और प्राकृत भाषाके साथ हिन्दी भाषाके भी मर्मज्ञ विद्वान थे । ग्वालियरके अन्तर्गत ईसागढके निवासी थे। सस्कृतमे आपने महावीराष्टक स्तोत्र रचा है। अमितगति-श्रावकाचार,
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उपदेशसिद्धान्तरत्नमाला, प्रमाणपरीक्षा, नेमिनाथपुराण और ज्ञानसूर्योदयनाटककी वचनिकाऍ लिखी है। आप ओसवाल जातिकै दिगम्बर मतानुयायी थे । इन्होने पढ भी रचे हैं। हिन्दी कविता इनकी उत्तम है । पदोमें रस और अनुभूति छलछलाती है।
कवि दौलतराम - कवि दौलतराम हिन्दी के उन लब्धप्रतिष्ठ कवियोमे परिगणित हैं, जिनके कारण माँ भारतीका मस्तक उन्नत हुआ है । यह हाथरसके रहनेवाले थे और पल्लीवाल जाति के थे । इनका गोत्र गगीटीवाल था, पर प्रायः लोग इन्हे फतेहपुरी कहा करते थे। इनके पिताका नाम टोडरमल था। इनका जन्म विक्रम भवत् १८५५ या १८५६ के बीचमे हुआ है ।
कविके पिता दो भाई थे, छोटे भाईका नाम चुन्नीलाल था । हाथ. रसमे ही दोनो भाई कपडेका व्यापार करते थे । कवि दौलतरामके ध्वसुरका नाम चिन्तामणि था, यह अलीगढ़ के निवासी थे । कविके सम्बन्धम कहा जाता है कि यह छींटे छापनेका काम करते थे। जिस समय छीट का थान छापनेके लिए बैठते थे, उस समय चौकीपर गोम्मटसार, त्रिलोकसार और आत्मानुशासन ग्रन्थोको विराजमान कर लेते थे और छापने के कामके साथ-साथ ७०-८० श्लोक या गाथाएँ भी कण्ठाग्र कर लेते थे ।
सवत् १८८२ मे मथुरा निवासी सेठ मनीरामजी प० चम्पालालजी के साथ हाथरस आये और वहाँ उक्त पडितजीको गोम्मटसारका स्वाध्याय करते देखकर बहुत प्रसन्न हुए तथा अपने साथ मथुरा लिवा ले गये । वहाँ कुछ दिन तक रहनेके उपरान्त आप सासनी या लकरमे आकर रहने लगे | कविके दो पुत्र हुए; बढ़े पुत्रका नाम लल टीकाराम है, इनके कान आजकल भी लम्करमे निवास करते हैं ।
इनकी टो रचनाएँ प्रसिद्ध है— छहटाला और पदसग्रह | छहढालाने तो कविको अमर बना दिया है। भाव, भाषा और अनुभूतिकी दृष्टिसे यह रचना बेजोड है ।
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२४० हिन्दी-जैन-साहित्य-परिशीलन
कविको अपनी मृत्युका परिज्ञान अपने स्वर्गवासके छः दिन पहले ही हो गया था । अतः उन्होने अपने समस्त कुटुम्बियोकों एकत्रित कर कहा"आजसे छठे दिन मध्याह्नके पश्चात् मै इस शरीरसे निकलकर अन्य शरीर धारण करूँगा" | सबसे क्षमा याचना कर सवत् १९२३ मार्गशीपं कृष्ण अमावास्याको मध्याह्नमे देहलीमे इन्होंने प्राण त्याग किया था। ___ कविवरके समकालीन विद्वानोंमे रत्नकरण्डके वचनिकाके कर्त्ता प० सदासुख, बुधजनविलासके कर्ता बुधजन, तीस-चौवीसीके कत्ती वृन्दावन, चन्द्रप्रभ काव्यकी वचनिकाके कर्ता तनसुखदास, प्रसिद्ध भजन-रचयिता भागचन्द और प० वखतावरमल आदि प्रमुख हैं।
पं० जगमोहनदास और पं० परमेष्ठी सहाय-यह निस्सकोच स्वीकार किया जा सकता है कि हिन्दी जैनसाहित्यकी श्रीवृद्धिमे खण्डेलवाल और अग्रवाल जातिके विद्वानोंका प्रमुख भाग रहा है। जयपुर, आगरा, दिल्ली और ग्वालियर हिन्दी साहित्यके रचे जानेके प्रमुख स्थान हैं। आगरा सदासे अग्रवालोका गढ़ रहा है। यहॉपर भी समय-समयपर विद्वान् होते रहे, जिन्होने हिन्दी जैन साहित्यकी श्रीवृद्धिमे योग दिया । आरा निवासी प० परमेष्ठी सहाय और प० जगमोहनदासको हिन्दी जैन साहित्यके इतिहाससे पृथक् नहीं किया जा सकता है । श्री प० परमेष्ठीसहायने 'अर्थप्रकाशिका' नामकी एक टीका जगमोहनदासकी तत्त्वार्थ विपयक जिज्ञासाकी शान्तिके लिए लिखी है। इस ग्रन्थकी प्रशस्तिमे बताया गया है
पूरव इक गंगातट धाम, अति सुन्दर मारा तिस नाम। तामैं जिन चैत्यालय लस, अग्रवाल जैनी बहु बसें ।। बहु ज्ञाता तिन में जु रहाय, नाम तासु परमेष्ठीसहाय। जैनग्रन्थ रुचि बहु केरे, मिथ्या धरम न चित्त में घेरे।
सो तरवार्थसूत्र की, रची धचनिका सार । नाम जु अर्थ प्रकाशिका, गिणती पाँच हजार ॥
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सो भेजी जयपुर विपैं, नाम सदासुख जास । सो पूरण ग्यारह सहस, करि भेजी तिन पास ॥ अग्रवाल कुल श्रावक कीरतचन्द्र जु भरे माँहि सुवास । परमेष्ठीसहाय तिनके सुत, पिता निकट करि शास्त्राभ्यास || कियो अन्य निज परहित कारण, लखि बहु रुचि जगमोहनदास । तत्वारथ अधिगमसु सदासुख, दास चहूँ दिश भर्थ प्रकाश ॥ इस प्रशस्तिसे स्पष्ट है कि प० परमेष्ठीसहायके पिताका नाम कीर्तिचन्द्र था। उन्हीं के पास जैनागमका अध्ययन किया था तथा अपनी कृति अर्थप्रकाशिकाको जयपुरनिवासी प्रसिद्ध वचनिकाकार पं० सदासुखनीके पास संशोधनार्थ भेजा था ।
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पं० नगमोहनदास अच्छे कवि थे। इनकी कविताओका एक संग्रह 'धर्मरत्नोद्योत' नामसे स्व० प० पन्नालालजी वाकलीवालके सम्पादकत्वमे प्रकाशित हो चुका है । हमारा अनुमान है कि इनका जन्म सवत् १८६५-७० होना चाहिए; क्योंकि प० सदासुखजी इनके समकालीन हैं। और सदासुखजीका जन्म संवत् १८५२ में हुआ था । अतएव सदासुखनीसे कुछ छोटे होनेके कारण पं० जगमोहनदासका जन्म सवत् १८६५ और मृत्यु १९३५ में हुई है। परमेष्ठीसहायने अर्थप्रकाशिकाको सवत् १९१४ मे पूर्ण किया है। धर्मरत्नोद्योतकी अन्तिम प्रशस्ति निम्न है
"मिती कार्त्तिक कृष्ण १० संवत् १९४५ पोथी दान किया बाबू परमेष्ठीसहाय भार्यां जानकी बीबी आरेके पंचायती मन्दिरजी मैं पोथी धर्मरत्न ग्रन्थ " ।
कविताकी दृष्टिसे प० जगमोहनदासकी रचनामे शैथिल्य है । छन्दोभंगके साथ प्रवाहका भी अभाव है; पर जैनागमका सार भाषामे अवश्य इनकी रचनामे उपलब्ध होगा। छप्पय, सवैया, दोहा, चौपाई, गीतिका आदि छन्दोंका प्रयोग किया है।
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हिन्दी - जैन साहित्य-परिशीलन
जैनेन्द्र किशोर-नाटककार और कविके रूपमे आरानिवासी बाबू जैनेन्द्रकिशोर प्रसिद्ध है । इनका जन्म भाद्रपद शुक्ला अष्टमी संवत् १९२८ में हुआ था । इनके पिताका नाम बाबू नन्दकिशोर और माताका नाम किसमिसदेवी था । यह अग्रवाल थे । थारा नागरी प्रचारिणी समाके संस्थापक और काशी नागरी प्रचारिणी समाके सदस्य थे । इन्होंने अंग्रेजी और उर्दूकी शिक्षा प्राप्त की थी। इनमें कविताकी शक्ति जन्मनात थी । नौ वर्षकी अवस्थामें इन्होने सम्मेदशिखरकी वर्णनात्मक न्तुति लिखी थी । इन्होंने अपने साहित्यगुरु श्री किशोरीलाल गोत्वामीकी प्रेरणासे ही 'भारतवर्ष' पत्रिकामं सर्वप्रथम 'केन्याविहार' नामक नाटक प्रकाश्चित कराया । उपन्यास और नाटक रचनेकी योग्यता एवं उर्दू शायरीकी प्रतिभा इन दोनोंका मणिकाञ्चन सयोग हिन्दी कविताके साथ इनके व्यक्तित्वमें निहित था । इनके उर्दू शायरीके गुरु मौलवी 'फजल' थे । मुशायरोंमें इनकी उर्दू शायरीकी धूम मच जाती थी । इन्होंने लेखक और कविके अतिरिक्त भी अपनी सर्वतोमुखी प्रतिमाकै कारण 'जैन गजट' और 'नागरी प्रचारिणी पत्रिका' के सुयोग्य संपादक, साइाद विद्यालय काशी के मन्त्री; 'हिन्दी सिद्धान्त प्रकाश में उर्दूका इतिहास लिखनेके पूर्ण सहयोगी एवं 'जैन यंग एसोशियेशन के शान्तिक मन्त्री आदिके कार्यभारका बहन बड़ी सफलता के साथ किया था।
२४२.
इन कार्योंके अतिरिक्त आपने सन् १८९७ में 'हैन नाटकमण्डली' की स्थापना की थी । कलिकौतुक, मनोरम्ग, अंजना, श्रीपाल, प्रचुन्न आदि आपके द्वारा रचित नाटक तथा सोमारती, द्रौपदी और कृपणदास आदि आपके द्वारा लिखित प्रहसनोका सुन्दर अभिनय कई बार हुआ था | उपन्यासों में इनकी निन्न रचनाएँ प्रसिद्ध हैं
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१. मनोरमा २. कमलिनी : सुकुम्बल ४. गुलेनार ५ दुर्दन ६. मनोत्रती ।
० शीतलप्रसाद ब्रह्मचारीजीका जन्म सन् १८७९ ई० में
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हिन्दी - जैन- साहित्य-परिशीलन
जैनेन्द्रकिशोर - नाटककार और कविके रूपमें आरा निवासी बाबू जैनेन्द्रकिशोर प्रसिद्ध हैं । इनका जन्म भाद्रपद शुक्ला अष्टमी संवत् १९२८ में हुआ था । इनके पिताका नाम वाव् नन्दकिशोर और माताका नाम किसमिसदेवी था । यह अग्रवाल थे। आरा नागरी प्रचारिणी समाके संस्थापक और काशी नागरी प्रचारिणी सभा के सदस्य थे । इन्होंने अंग्रेजी और उर्दूकी शिक्षा प्राप्त की थी । इनमें कविताकी शक्ति जन्मजात थी । नौ वर्षकी अवस्थामे इन्होंने सम्मेद शिखरकी वर्णनात्मक स्तुति लिखी थी। इन्होने अपने साहित्यगुरु श्री किशोरीलाल गोस्वामीकी प्रेरणा से ही 'भारतवर्ष' पत्रिकामं सर्वप्रथम 'वेध्याविहार' नामक नाटक प्रकाशित कराया । उपन्यास और नाटक रचनेकी योग्यता एवं उर्दू शायरीकी प्रतिभा इन दोनोंका मणिकाञ्चन सयोग हिन्दी कविताके साथ इनके व्यक्तित्वमे निहित था । इनके उर्दू शायरीके गुरु मौलवी 'फजल' थे । मुशायरोंम इनकी उर्दू शायरीकी धूम मच जाती थी । इन्होंने लेखक और कविके अतिरिक्त भी अपनी सर्वतोमुखी प्रतिभाके कारण 'जैन गजट' और 'नागरी प्रचारिणी पत्रिका' के सुयोग्य संपादक, स्याद्वाद विद्यालय काशी के मन्त्री; 'हिन्दी सिद्धान्त प्रकाश में उर्दूका इतिहास लिखनेके पूर्ण सहयोगी एवं 'जैन यंग एसोशियेशन के प्रान्तिक मन्त्री आदिके कार्यभारका वहन बड़ी सफलताके साथ किया था ।
इन कार्योंके अतिरिक्त आपने सन् १८९७ मे 'जैन नाटकमण्डली' की स्थापना की थी | कलिकौतुक, मनोरमा, अनना, श्रीपाल, प्रद्युम्न आदि आपके द्वारा रचित नाटक तथा सोमासती, द्रौपटी और कृपणदास आदि आपके द्वारा लिखित प्रहसनोंका सुन्दर अभिनय कई बार हुआ था । उपन्यासोंमें इनकी निम्न रचनाएँ प्रसिद्ध हैं
२. मनोरमा २. कमलिनी २ सुकुमाल ४. गुलेनार ५. दुर्जन ६. मनोवती ।
० शीतलप्रसाद ब्रह्मचारीजीका जन्म सन् १८७९ ई० मं
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परिनिट
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नमन हुआ था। नो पिनारा नाम मपरानलाल और माताका नाग नागरणीदेवी मा। नान मंटिगगनकी परीक्षा उत्तीर्ण कर पसाउटेरॉकी परीक्षा उत्तीर्ण की भी। आप अच्छी सरकारी नाग परपर रिति । १९०४ दीगमेनकी निहली पली और मोटे माया सभामगा । मतमंदनायो थापने चैन जगाचाप्यारा मन का गमाच नमानी गन तो पासे होभी, irr भनिमित मिनी र भानना और बल्यती हो गी| Te: १०५ में पापने पारी नोकरीसे लागपत्र दे दिया और गन् १९५५ में मालपर मजन धारण दीजिनमित्र श्री पालनाटक मला पाप भाग विरचित धार अनूदित ७७ प्रजिना निभाना अनुगर निम्न प्रकार
अपामनियनिक और धार्मिक १८, नैतिक ५, गरिमारिनार, भरणात्मक और ऐतिहासिक ६, गागोर, सितारण सादिल । प्राचारीकी निकोना गौरव निम्न कारण भगत की जा सकती है
"जनधर्मके प्रति इतनी गहरी ला, उसके प्रमार और प्रभावनाके लिएनना मगित, समाजकी स्थितिम व्यधित होपर भारत के इस गिरंगे टम मिरसफ नृप और प्याकी अमल येदनाको यश किये रातदिन जिम एनना मुत्रमण किया हो, भारतम क्या कोई दूमरा म्पति मिलंगा" .
एलपी मृगु नही १० फरवरी १९४२ में हुई।
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अनुक्रमणिका
लेखक एवं कवि
૩૦
२०९, २१०
थ
अक्षयकुमार गंगवाल
अखराब
अखयराज श्रीमाल
४२
अगरचन्द नाहटा
१३२, २११
अजितकुमार शास्त्री १४५, २१५ | उत्तमचन्द अजितप्रसाद एम. ए. १४०, १४३ उदयगुरु
अनन्वकीर्ति
१२१ | उदयचन्द्र
अनूपशमां एम. ए.
उदयराज
अमरकल्याण
अमृतचन्द 'सुधा'
अमृतलाल 'चंचल'
अम्बदेवरि
अयोध्याप्रसाद गोयली
आशय भंडारी
१२१, १४, २११
अर्जुनलाल सेठी १११, १४९, २१४
अदास
૪૨
इन्द्र एम. ए.
ई ईव्वरचन्द्र कवि
ho'
१९
४८ | उदयराजपति
३७ | उदयवन्त कवि
३७ | उदयलाल काशलीवाल
२०९ | उमरावसिंह
३६,
來
ऋमदास का
ऋप्रमदास पंडित
ए
ए. एन. उपाध्ये
आ
૨૨૪
क
आत्माराम मुनि आनन्दघन कवि १८९, २०९,२११ | कनकामर दुनि
२१३
१३५
१६१
२१२
२०९
२०९, २१२
२०९, २११
२१०
२०९
GP
१४२
१३२, १३५
ર
१२१
२०८
Page #243
--------------------------------------------------------------------------
________________
२१५
२१४
३६
२०९
२११
अनुक्रमणिका कन्हैयालाल कन्हैयालाल मिश्र प्रभाकर १४३ | खड्गसेन
२१२ कन्हैयालाल बाबू
खुशालचन्द्र काला २११ कमलादेवी
खुशालचन्द्र गोरावाला एम० ए० कर्पूरविजय २१२
१२१, २११ कल्याण
| खूबचन्द्र पुष्कल ३६, ३७, १६१ कल्याणकीति मुनि
| खूबचन्द शास्त्री २११, २१४ कल्याणकुमार शशि' ३५,३७,२११ खूबचन्द सोधिया २१४ कल्याणदेव
२०९ खेत्तल कल्याणविनय मुनि १२१, २१० कस्तूरचन्द कागलोवाल १३५ | गणपति गोयलीय कान्तिसागर मुनि १२७, २११ | गणेशप्रसाद वर्णी १३७, १४२ कामताप्रसाद ३६, १२१, १४३ गुणभद्र
१२१ किसन
२११ गुणभद्र आगास ३५,३६, २११ किसनसिंह
गुणसूरि कुन्युकुमारी वी० ए० १४३
| गुलाबराय
२१२ कुशलचन्द्र गणि २१२ गुलावराय एम० ए० १४३ हुँअर कुशाल
गोपालदास वरैया ६४, १४२, २१४ कुंवरपाल
गंगाराम
२१२ कैशव
२११
घासीराम चन्द्र कैसरकीति कैलाशचन्द्र शास्त्री १२१, २१५ चतुरुमल
२१० कौशल्प्रसाद जैन १४३
चन्द्रप्रभादेवी कृष्णलाल वर्मा ८१, ८३, ८५,८७ / चन्दाबाई विदुषीरत्न १३३, २११ समाकल्याण पाठक २१३ / चम्पतराय वैरिस्टर
२११
२१०
केशवदास
२१०
२१०
३६
Page #244
--------------------------------------------------------------------------
________________
.२४६
हिन्दी-जैन-साहित्य परिशीलन
२१२
૩૭
चम्पाराम ५१, २१४ जिनसेन आचार्य १२१ चिदानन्द २१४ | जिनहर्ष
२११ चेतनविजय
जीवराज
२१२ चैनसुखदास कवि
जुगलकिशोर मुख्तार 'युगवीर चैनसुखदास
४८ ३६,३७, १२१, १४२, २१४ चैनसुखदास न्यायतीर्थ १३०,१६१ / जुगमन्दिरलाल जैनी १४२ २१५ / जैनेन्द्रकिशोर ३४, ५७, ६१,
१०७, २१४ छत्रपति २१४ | जैनेन्द्रकुमार ९०, १०७, १०८,
१३६, १४२ जगतराम
२१२
जोधराज गोदीका जगदीशचन्द्र एम.ए.डी.लिट ८०
जौहरीलाल जगमोहनदास
जौहरीलाल शाह जगमोहनलाल शास्त्री
ज्योतिप्रसाद एम. ए. जटमल
२११
ज्ञानचन्द्र खतन्त्र जगरूप
२११ ज्ञानविजय यति • जमनालाल साहित्यरत
ज्ञानसागर
२१२ जयकीर्ति
१२२ जानानन्द जयचन्द्र
४९, २१२ जयधर्म
२११ | टेकचन्द जवाहरलाल वैद्य २१४ टोडरमल जिनदत्त सूरि
२०८ जिनदास
२०९
ठक्करमाल्हे जिनपद्मसूरि
२०८ डालराम
२१२ जिनविजय मुनि १२१, २१४ जिनरंग सूरि
२२२ ' तस्वकुमार
૨૨૨
४८, २१२
Page #245
--------------------------------------------------------------------------
________________
२१०
१२१
२०१
अनुक्रमणिका
२४७ सन्मय बुखारिया ३७, १४३ | दौलतराम ४५, १८३, १९६, २०९ ताराचन्द
| दौलतराम 'मित्र' १४३ तिलकविजय मुनि
द्यानतराय १६७, १९६, २०९ त्रिभुवनचन्द्र
२१० त्रिभुवनदास
धनपाल
२०८ त्रिभुवन स्वयम्भू | धनञ्जय
१२२ धर्मदास
४८, २१० थानसिंह
धर्ममन्दिरगणि २१२
धर्मसी दयाचन्द गोयलीय १४२, २१४ दरबारीलाल न्यायाचार्य १३१,२१५ । नथमल विलाला दरखारीलाल सत्यभक्त ३७, १३५, नन्दराम
नन्दलाल छावडे दरियावसिंह सोधिया २१४ नयनसुख
१८३ दलसुख मालवणिया १३१, २११
नागराज
२११ दीपक कवि
न्यामतसिंह ११५, २११ दीपचन्द्र
४८, । नाथराम प्रेमी ३६,१०८,११०,१२१, टीपचन्द्र कासलीवाल
१४२, १४३, २१४ दुगादास
नाथूराम दोगी ५१, २१४ देवनन्दी
१२२ नाथूराम साहित्यरल १३२, १३५ देवसेन सूरि
निहाल
२१२ देवसेन
निहालकरण सेठी देवीदास
२१२
२१२ पन्नालाल वसन्त देवेन्द्रकुमार एम. ए. १३५, २११ । पन्नालाल चौधरी देवेन्द्रप्रसाद कुमार १४२ | पन्नालाल पूनेवाले
२०
२१३
देवीसिंह
Page #246
--------------------------------------------------------------------------
________________
२४८
पन्नालाल बाकलीवाल १४२, २१४ | विद्धणू पन्नालाल साहित्याचार्य ३६, १३२,
पन्नालाल सागाकर
परमानन्द शास्त्री परमेष्ठीदास न्यायतीर्थ
पाण्डे जिनदास
पारसदास पुष्पदन्त आचार्य
पुग्पदन्त कवि
पूज्यपाद आचार्य
पृथ्वीराज एम० ए० प्रभाचन्द आचार्य
फ
हिन्दी - जैन- साहित्य-परिशीलन
२१५
२१२ | बुलाकीदास
फतहलाल
२१४
फूलचन्द्र शास्त्री १३०, १३५, २१५
बालचन्द्र शास्त्री बाचन्द्राचार्य
१३२, १३४
भ
१३५ | भगवत्स्वरूप 'भगवत्' ३६, ९९, २१० १००, १०१, १०२, ११७, २११ ५२, २१४ | भगवतीदास भैया १२२, १६४, १२१ १८३, १९६, ११९, २०२, २०९ १४६ भगवानदीन १३३, १४३, २१४ १२२ | भक्तिविजय २१२
१३५ | भागचन्द कवि १८३, १९६, २१२
१२१
भागमल शर्मा
८८
भुजवटी शास्त्री
१२१, २११
भूधरदास
४७, १५८, १६१,
१८३, २०९
भूवर मिश्र
२१२
२०९
बुधजन कवि १८३, १९६, ९९९,
२१२
२०९
थ
वख्तारमल रतनलाल
वनवारीलाल स्याद्वादी बनारसीदास ४१, १२२, १५८,१६७, मनरूप
२१४
१४३
वलभद्र न्यायतीर्थ
१३५ बालचन्द्र जैन एम० ए० २५,३७,
९३, ९४, ९५, ९६,९७,९८, २११
म
मक्खनलाल शास्त्री
२०५, २१० | मनरूपविजय
मनरंगलाल कवि
मन्नालाल बैनाड़ा मनोहरलाल शास्त्री
२१५ | महाचन्द्र
२१ | महावीरप्रसाद
२१५
२१२
२११
१५६, २१२
५२, २१४
२१४
२१४
१४२
Page #247
--------------------------------------------------------------------------
________________
४०
२१० २०९ २११
२१४
अनुक्रमणिका
२४९ महासेन
१२२ / राजकुमार साहित्याचार्य ३६, ७९, महेन्द्रकुमार न्यायाचार्य १०२,
१३२, २१५ १३०, २१५ राजभूषण
२०९ माईदयाल
१४३ राजमल पाण्डेय माणिकलाल
२१४ | राजमल्ल मानकवि
राजोखर सूरि मालदेव
रामचन्द्र मानशिव
रामनाथ पाठक 'प्रणयी' मानसिंह
राममल
२१० मिहिरचन्द
रामसिह मुनि २०८ मुनिराज विद्याविजय ७६ / राहुलजी
१४६ मुनिलावण्य
२१० | रूपचन्द पाण्डेय ४४, १९६, २१० मुंशीलाल
२१४ रगविजय मूलचन्द किसनदास कापड़िया १३५ मूलचन्द वत्सल ३५,८९,१३२,२१२ लक्खण कवि २०८ मेषचन्द
२१३ लक्ष्मणप्रसाद प्रशान्त' मेघराज
लक्ष्मीचन्द एम० ए० ३६, ३७, मोतीलाल
१३४, २१५ लक्ष्मीदास
२०९
लक्ष्मीवल्लभ योगीन्द्रदेव
लामवर्द्धन
२१२
लालचन्द्र राधू
२०९ लालाराम शास्त्री रघुपति
२१३ / लूण सरि रघुवीरशरण रलशेखर
२१३
यगोविजय
१३५
वाग्म
Page #248
--------------------------------------------------------------------------
________________
२५०
हिन्दी - जैन- साहित्य - परिशीलन
वादीभसिंह
विजयकीर्त्ति
विजयभद्र
२०९
विद्याकमल
२१०
विद्यार्थी नरेन्द्र
१३५
विनयचन्द्र सूरि
१४७, २०७
विनयविजय
२१०
विनयसागर
२११
विनोदीलाल
२११
विमलदास कौन्देय एम० ए० १३५
विमलसूरि
१२१
बिम्बभूषण भट्टारक
२१२
वीरेन्द्रकुमार एम० ए०
३६, ६८, १६१, २११
र
१६७
२१२
११७
१३५
वृन्दावनदास
वृन्दावनलाल किशोरनारायण
वंशीधर व्याकरणाचार्य २३१,
श
शान्तिविजय
शान्तिस्वरूप
शालिभद्र सूरि शिरोमणिदास
शिवचन्द्र
शिवजीलाल
शिवलाल
१२२ | शीतलप्रसाद ब्रहाचारी
२१२ | शोभाचन्द्र भारिल्ल
श्यामलाल
श्रीचन्द्र एम. ए.
श्रीपालचन्द्र
सकलकीर्त्ति
सदासुखलाल
समन्तभद्र
सुखलाल
सुदर्शन
सुबुद्धविजय
२१०
५१, २१२
१२१
१२१, २११
११३
२११
सुमेरचन्द्र एडवोकेट
१४३
सुमेरचन्द्र कौशल
३७
सूरजभान वकील १३३, १४२, २१४
१४३
३६
२१२
२०८
१२१, २०८
२१४
संघवी
सूरजमल
सूर्यमान डॉगी
सेवाराम
सोमप्रभ
स्वयम्भू
स्वरूपचन्द
२११
३६
ह
२०८ | हजारीप्रसाद द्विवेदी
२०९ | हरनाथ द्विवेदी हरिचन्द्र
२१४
३६
२०९
३७
२१४
५२, २१४
५२, २१४ हरिभद्र सूरि २१० | हर्ष क्रवि
८०
१४३
१२२
२०८
२११
Page #249
--------------------------------------------------------------------------
________________
अनुक्रमणिका
२१० | हेमचन्द्र सूरि २१४ | हेमराज
हीरालाल एम. ए. डी. लिट् हेमराज पाण्डे
१२१, २११ | हेमविजय
atree काशीवाल
१४२ | इसराज
हीरालाल सिद्धान्तशास्त्री १३२,२११ | हसविजय यति
हीरकलश हीराचंद अमोलक
२५१
२०८
४३
२०९
१८६, २१०
२११
२१२
Page #250
--------------------------------------------------------------------------
________________
ग्रन्थोंकी अनुक्रमणिका
३६
१०७
२०९
| अलकार आशय मसरी २१३ अकलंक नाटक
अवपदिशा शकुनावली २१३ अकलंकाष्टककी टीका २१२ अष्टपाहुड वचनिका अक्षरबावनी २०९ अबनानाटक
११३ अजसम्बोधन
अजनापवनमय अशात जीवन
१४० | अजनासुन्दरी अशानतिमिरमास्कर २१४ अंजनासुन्दरीसंवाद २१२ अणुव्रतरत्नप्रदीप
अंबडचरित्र
२१३ अध्यात्मतरङ्गिणी वाचनिका ५२ अध्यात्मपच्चीसी २१२ आगमविलास २०९, २१२ अध्यात्मबाराखडी २१३ | आगरा गजल अनन्तमती
३५ / आचार्य शान्तिसागर श्रद्धाञ्जलि अनित्यपञ्चाशत् २१० अन्य अनुगामिनी
१०१ आठकर्मनी एकसौआठ प्रकृति ४७ अनुमवप्रकाश
४४ आत्मख्याति वचनिका अनुभवविलास २१२ / आत्मबोध नाममाला २१२ अनूपरसाल
२११ / आत्मसमर्पण अनेकार्थनाममाला २११ | आत्मसम्बोधन काव्य २०९ अन्यत्व
| आत्मानुशासन वचनिका ४९ अमितगतिश्रावकाचारकी टीका २१२ आदिपुराण अर्थप्रकाशिका ५१, २१२ आदिपुराण वनिका १४६, २१० अर्द्धकथानक
२१० । आनन्दबहत्तरी २०९
Page #251
--------------------------------------------------------------------------
________________
आराधना कथाकोश आरावासार प्रतिबोध
इ
इष्टोपदेश टीका
उ
उत्तरपुराणकी बचनिका
उदयपुर गजल
उद्यमप्रकाश उपदेश छत्तीसी सवैया
उपदेशमाला
उपदेशरत्नमाला
उपदेशशतक
उपदेश सिद्धान्तमाला
उपदेशामृत तरंगिणी उपादाननिमित्तकी चिट्ठी
क
कथानक छप्पय
कमलभी
कमलिनी
करकण्डुचरित
कल्पसूत्रकी टीका
कलिकौतुक
कामोद्दीपन
कालज्ञान
कालस्वरूपकुलक
अनुक्रमणिका
७९ | कुमारपाल प्रतिबोध कृपणदास
२०९
कृष्णबावनी
४८ केशवबावनी क्रियाकोश
क्षपणासार वचनिका
ग
५१,२०९,२१५ २११ | गरीब
२१४ गुणविजय
२११ | गिरनारसिद्धाचल गजल
२०८ | गीतपरमार्थी
२०९ | गुणस्थानभेद
२०९ | गुरूपदेश श्रावकाचार २१३ | गोम्मटसारभाषा २०९ | गोरावादळकी बात ४१ | गौतमपरीक्षा
गौतमरासा
२०९
११५ चतुर्दशगुणस्थान
६१
चन्दचौपाई समालोचना
२०८ | चन्दनषष्ठिकथा
२१२ चरित्रसारकी वचनिका
१०७ चर्चासमाधान
२१३ | चर्चासागर
२११ चर्चासागर वचनिका
२०८ | चर्चासंग्रह
२५३
२०८
१०८
२११
२११
२०९
૪૬
૪૪
२१२
४३,४९,२१२
२०९
५१,२१४
२०९
११०
२१२
२१३
२०१
કર
२१३
२१०
२१२
४७, २१२
२०९,२१४
५१
५२
Page #252
--------------------------------------------------------------------------
________________
२५
२१२
२०९
२०९
हिन्दी-जैन-साहित्य-परिशीलन चारुदत्तचरित्र
२१२ । जैनसार वावनी चित्तौड़ गजल
२११ ज्ञानदर्पण चिद्विलास
४४ ज्ञानपचमी चउपई चिद्विलास वचनिका २१२ / ज्ञानप्रकाश
२१२ चीरद्रौपदी १०७ ज्ञानविलास
२१२ चौवीसीपाठ
२१२ ज्ञानार्णव वनिका ४९, २१२
ज्ञानसूर्योदय नाटक ५२, १०८, छन्दप्रकाश
२१२, २१४ छन्दप्रबन्ध
२१२ छन्दमालिका
झूनागढ़ वर्णन छन्दोनुशासन
ढोलसागर
२१० छहदाला
तत्त्वनिर्णय
२१४ जन्मप्रमाथिका २११ (तत्त्वार्थकी श्रुतसागरी नम्बूकथा
। टीकाकी वचनिका २१२ जम्बूस्वामी चरित २१० तत्त्यार्थवोष
२१२ २०९ / तत्वार्थसार जम्बूस्वामी रासा
तत्त्वार्थसूत्रका माप्य जसराज बावनी
| तत्त्वार्थ सूत्रकी वचनिका ५२ जसविलास
तिलोक दर्पण
२१२ जिनगुणविलास
५१, २१२
तीर्थकर गीतसग्रह जिनवाणीसार २१३ तीस चौबीसी
२१२ जीवन्धरचरित २०९, २१२
२१४
त्रिलोकसार पूजा जैन जागरणके अग्रदूत १४१ | त्रिलोकसार वचनिका ४९, २१४ जैनतत्वादर्श
२१४ जैनशतक
२०९ / दर्शनसार वचनिका ५२
AN
जम्बूचरित्र
२११
२१२
३८
Page #253
--------------------------------------------------------------------------
________________
दशलक्षणत्रतकथा
दानकथा
देवगढ काव्य
देवराज बच्छराज चउपई
देवागमस्तोत्र वचनिका
देवाधिदेवस्तवन
देशीनाममाला
दोहापाहुड
द्रव्यसंग्रह वचनिका
द्वादशानुप्रेभा
धनपालरास
धर्मरत्नोद्योत
धर्मविलास
धर्मसार
धर्मोपदेश श्रावकाचार
अनुक्रमणिका
२१० | निर्दोषतमी कथा
२१२ | निहालानी
३५ नीतिवाक्यामृत
२१०
नेमिचन्द्रिका
४९ नेमिनाथ चउपई
२१२ | नेमिनाथ चतुष्पादिका
२०८ | नेमिनाथचरित
२०८ नेमिनाथ फाग
३९ नेमिनाथ रासो
२१४ | नेमीश्वर गीत
नाटक समयसार
नाममाळा
नामरत्नाकर
नित्यपूजाकी टीका
२१० पउमचरिउ
३४
पदसंग्रह
२०९
पद्मपुराण वचनिका
२०९
पद्मनन्द पच्चीसी
२१०
पद्मनन्दि पचविंशतिकाकी
न
ararat वचनिका नागकुमार चरित २०७, २०८,
नाटक समयसार पर हिन्दी
गद्यमें टीका
वचनिका
४३ परमात्मप्रकाशकी वचनिका
२१२ | परमार्थगीत
परमानन्द विलास
४४ परमार्थदोहा शतक २१० | परमार्थवचन
२१०, २१२ | परीक्षामुख वचनिका
२११ पार्श्वनाथ रासो २१२ | पार्श्वपुराण
·
२५५
२१०
२१३
५२
२१२
२१०
२०८
२०८
२०९
२१०
२१०
२०७
२११
४५, २०९
२१२
५१, २१४
२०८, २१२
२१०
२१२
२१०
४१
४९
२१०
२०९
Page #254
--------------------------------------------------------------------------
________________
२०८ २०९ २१३
२१३
२१२
२११
२१०
२१२
१४४ २०९
२३
२१३
२५६
हिन्दी-जैन साहित्य परिशीलन पुण्यासवकथाकोश ४५, २०९ / वाहुबली पुरन्दरकुमार चउपई २१० बाहुबलिरास पुरुषार्थ सिद्ध्युपाय वचनिका २१२ | बीकानेर गजल पूरवदेश वर्णन
बुधजनविलास पोरबन्दर वर्णन
२१२ बुधजन सतसई पंचपूजा
२१४ | वैद्यविरहणि प्रवन्ध पचमगल
वैद्यहुलास पचरन
३५ / बोधसार वचनिका पचास्तिकाय टीका ३३, २१२ ०प० चन्दाबाई. पाण्डवपुराण
अभिनन्दन ग्रन्थ प्रतापसिंह गुणवर्णन २११ ब्रह्मवस्तु प्रतिफलन
ब्रह्मबावनी प्रद्युम्नचरित ३५, ११७, २१०, ब्रह्मविलास
२१४ बृहत्कथाकोश प्रबोधचिन्तामणि २१२ प्रमाणपरीक्षाकी टीका २१२ भगवती गीता प्रवचनसार टीका ४३, २१२ | भजन नवरत्न प्रश्नोत्तरी श्रावकाचार
भक्तामर मापा प्रश्नोत्तर श्रावकाचार
२०९
भद्रबाहुचरित्र प्रस्ताविक दोहे
भविष्यदत्त कथा प्राकृत व्याकरण
૨૦૮ भविष्यदत्त चरित प्राचीनगुर्जर काव्यसंग्रह
भविसयत्त कहा प्रेमी-अभिनन्दन-ग्रन्थ २११
भावदेव सूरिरास
भावनगर वर्णन गजल बनारसीविलास
२१० भावनिदान बावनी गोराबादलकी बात २११ / भाषा कविरस मंजरी
२१०
२१०
५२
___४३, ४९
२०९
२१०
५१, २१२
૨૦૮ २११ २१३ २१३
२१०
Page #255
--------------------------------------------------------------------------
________________
अनुक्रमणिका
२५७
२११
२४
मोन प्रबन्ध २१० | यशोधररास
२१०
योगसार वचनिका २०८, २१४ मदनपराजय वचनिका २१४ योगसार दोहा
२०८ मनमोदन पंचासिका मनोरमा
रत्नकरण्डभावकाचारकी मनोरमासुन्दरी
१०७ वचनिका ५१, २१२ मनोवती
रत्नपरीक्षा २११, २१२ मलयचरित्र
२१२ रलेन्दु महाभारत २११ । रसमजरी
२११ महापुराण २०८, २१०, २१४ रानविलास महासती सीताकी कहानी ८३ महीपाल्चरित्र
रात्रिभोजन कथा २०९, २१२ महेन्द्रकुमार
राणीसुलसा महेसर चरित्र
रामरस
१०८ मानवी
रामवनवास मालपिंगल
रामविनोद
२११ मुक्तिदूत
रावणमन्दोदरी संवाद मूलाचारको वचनिका
रूपसुन्दरीकी कथा मेघमाला
रेवन्तगिरिरासा मेघविनोद
२१२ मेघमहोत्सव
लखपतजयसिन्धु मेड़ता वर्णन
लघुपिंगल मेरी जीवन गाथा १३७ लब्धिसार वचनिका मेरी भावना
लोकनिराकरणरास मोशसक्षमी
२१. लोलिम्वराजभाषा
७६
२१२
८८
२१२
२००
२१०
२१२
३७
यशोधर चरित ५१, २०८, २१४ | वचनबत्तीसी
Page #256
--------------------------------------------------------------------------
________________
११७
स
८७
२१२
२४
२०९
२१२
२४ २१०
२१२
२०८
२५० हिन्दी-जैन साहित्य-परिशीलन वरागचरित्र
२१२ । श्रेणिकचरित २१०, २१२ वर्णी-अभिनन्दन-प्रन्थ १४४ वर्द्धमान काव्य
षट्कर्मोपदेशमाला २१२ वर्द्धमान महावीर वसुनन्दी श्रावकाचार वचनिका | सती दमयन्तीको कथा
४१, ४५, ५१, २१४ | सत्यवती विमलनाथपुराण
सप्तऋपिपूजा
२१२ विराग
सप्तक्षेत्र रास विद्वजनबोधक
२१४
सप्तव्यसन चरित वीरताकी कसौटी
समयतरंग व्रतकथाकोश
समयसारकी टीका ४०, २१२ श
समररास शकुनप्रदीप
साम्प्रदायिक शिक्षा शतकुमारी
सम्यक्त्वकौमुदी कथा सग्रह ७८ शतश्लोककी भापाटीका २१२ | सम्यक्त्वकौमुदी शाकटायन
१२२ सम्यक्त्वगुणनिधान २०९ शान्तिनाथपुराण २१२ सम्यक्त्वप्रकाश
२१२ शिमा प्रधान
२१४ सम्यक्त्वरास
२१० शिखिरविलास
सर्वार्थसिद्धिवचनिका शिवसुन्दरी २११ साधु गुणमाला
२१२ शीलकथा
२१२ | साधुप्रतिक्रमण विधि श्रावक प्रतिक्रमण विधि २१२ सामायिक पाठ २१४ श्रावकाचार दोहा
सामुद्रिक भाषा २११ श्रीपाल चरित्र १०७, २१२ सारचतुर्विंशतिकाकी श्रीपाल रासो
। वचनिका ५२, २१४
२०८ श्रुतसागरी वचनिका २१२ सावयधम्मदोहा
२११
२१४
२१२
४९
२१३
२१२
२१०
Page #257
--------------------------------------------------------------------------
________________
૨પ૦
२११
अनुक्रमणिका ५१, ६१ / त्वरोदय गापाटीका
२०९ स्वयम्भू छन्द २१. स्वामिकार्तिकेयानप्रेक्षाकी
वचनिका
२०८
२१०
हनुमच्चरित्र
सुषुमालचरित सुकौगल्चरित सुदान रासो मुददिदिलारा सुरसुन्दरीकथा गीला चरतप्रकाश मोजातवर्णन सोलहकारण कथा सौभाग्य पच्चीसी सधपति समरारास संयोग द्वात्रिशिका स्थूलभद्र फाग
२१३
२०९ २१०
२१२
हनुमन्तकया
हरिवंशपुराण २१०
होरकला हुक्मचन्द अभिनन्दनप्रय हेमराज वावनी
होलीप्रबन्ध २०८ | हसराज
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ज्ञानपीठके सुरुचिपूर्ण हिन्दी प्रकाशन
ऐतिहासिक
दार्शनिक, आध्यात्मिक, धार्मिक १. भारतीय विचारधारा २. अध्यात्म-पदावली ३. कुन्दकुन्दाचार्यके तीन रन २) ४. वैदिक साहित्य
२) ४)
५. जैन शासन [डि.सं.] उपन्यास, कहानियाँ
६. मुक्तिदूत [उपन्यास ]
७. संपर्क वाढ
८. गहरे पानी पैंट
९. आकाश तारे :
धरती फूट २)
१०. पहला कहानीकार
११. खेल-खिलौने
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१४. वर्द्धम्मन [महाकाव्य ]
१५. मिलन यामिनी
१६. धूपके धन १७. मेरे बापू २८. पंचप्रदीप १९. आधुनिक जैन कवि संस्मरण, रेखाचित्र २०. हमारे आराध्य
१२. अतीत कंपन
१३. दिन खोला तिन पाइयाँ श कविता
२१. संस्मरण २२. रेखाचित्र २३. जैन नागरण के अग्रदूत शायरी
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२६. खम्बहरोका चैमव २८. चालुक्य कुगरणक २७. खोनकी पगडण्डियाँ
२९. कालिदासका भारत
[ढो माग] ८)
३०. हिन्दी - जैन-साहित्यका
सं० इतिहास श
३१. हिन्दी - जैन- साहित्य
परिशीलन [भाग १, २] ५) ज्योतिप
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४)
४]
३२. भारतीय ज्योतिष
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३३. केवलज्ञानप्रभचूडामणि ४)
३४. करलक्खण
६)
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३ | ४१. रेडियो - नाव्य- चिल्ल ३) | ४२. चरतूके नारीपात्र
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३५. द्विवेदी पत्रावली
३६. जिन्दगी मुसकराई
३७. रक्तरटिस [नाटक] ३८. ध्वनि और संगीत
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३९. हिन्दू विवाह में
कन्यादानका त्यान १) ४०. ज्ञानगंगा [चूक्तियाँ ]
२४. शेरो-शायरी [द्वि.सं.] ८) | ४५. क्या मैं अन्दर २५. छोरो मुखन [चा भाग ] २०१
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४३. संस्कृत साहित्य में आयुर्वेद ३) ४४. और खाई बढ़ती गई २||
आ सकता हूँ ? २
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